शुद्ध-भक्ति के प्रचार-केंद्र को ही मठ-मंदिर कहा जाता है; अगर वहाँ वह (शुद्ध भक्ति का) उद्देश्य पूर्ण नहीं हो रहा है तो उसे चमगादड़ों का घोंसला एवं खाने-पीने और ठहरने का अड्डा बनाने का क्या लाभ है ?
“प्राण आछे तार, सेहेतु प्रचार, प्रतिष्ठा-आशाहीन कृष्णगाँथा सब” (जिस प्रकार प्राणहीन व्यक्ति बात नहीं कर सकता है उसी प्रकार जिसमें कृष्ण भक्ति नहीं है, वह प्रचार नहीं कर सकता है। इसलिए जिसमें कृष्ण-भक्ति रूपी प्राण हैं, केवल वह व्यक्ति ही कृष्णकथा का प्रचार करने योग्य है; यह प्रतिष्ठा पाने के लिए नहीं है)– यही महाजन-वाणी है।
पारमार्थिक संघ रूपी उद्यान या शिक्षा-संस्थान ही आश्रम या मठ नाम से प्रसिद्ध है। वहाँ उस उद्देश्य की प्राप्ति होनी ज़रूरी है।
— श्रील गुरुदेव श्रीश्रीमद् भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज जी, सभापति-आचार्य श्री गौड़ीय वेदान्त समिति।