श्रील परमगुरुदेव अपनी हरिकथा में जो श्लोक बोलते थे उनको यहां पर संग्रह किया गया है

नामश्रेष्ठ मनुमपि शचीपुत्रमत्र स्वरूपं
रूपं तस्याग्रजमुरुपुरीं माथुरीं गोष्ठवाटीम् ।
राधाकुण्डं गिरिवरमहो ! राधिका – माधवाशां
प्राप्तो यस्य प्रथित – कृपया श्रीगुरुं तं नतोऽस्मि ।।

जिनकी अपार कृपा से मुझे इस जगत् में सब भगवन्नाम मन्त्रों में सर्वश्रेष्ठ नाम और श्रीशचीनन्दन, श्री स्वरूप (श्री स्वरूप दामोदर गोस्वामी), श्रीरूपाग्रज (श्रीसनातन गोस्वामी) विशाल माथुर मण्डल (मथुरापुरी), गोष्ठवाटिका, राधाकुण्ड, गोवर्धन पर्वत एवं श्रीराधा की सेवा की आशा प्राप्त हुई, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणों में मैं नमस्कार करता हूँ ।

नानाशास्त्रा-विचारणैक-निपुणौ सद्धर्म-संस्थापकौ
लोकानां हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ शरण्याकरौ।
राधकृष्ण-पदारविन्द-भजनानन्देन मत्तालिको
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ।।

मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियोंकी वन्दना करता है कि, जो अनेक शास्त्रोंके गूढ़तात्पर्य विचार करने में परमनिपुण थे, भक्तिरूप-परमधर्म के संस्थापक थे, जनमात्रके परमहितैषी थे, तीनों लोकों में माननीय थे, शरणागतवत्सल थे एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविन्द के भजनरूप आनन्द से मत्तमधुप के समान थे ।।२।।

वांञ्छाकल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च ।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ।।

अपने सेवकों की अभिलाषा की पूर्ति के लिए कल्पवृक्ष के समान, कृपा के सागर तथा पतित जनों को पावन करने वाले वैष्णवों के लिए हमारा बारम्बार नमस्कार है ।

संकर्षण कारणतोयशायी गर्भादशायी च पयोऽब्धिशायी ।
शेषश्च यस्यांशकलाः स नित्यानन्दाख्यरामः शरणं ममास्तु ।।

संङ्कर्षण, कारण – समुद्रशायी, गर्भादशायी, क्षीरसमुद्रशायी तथा अनन्तदेव-ये सब जिनके अंश एवं कला (अंशांश) स्वरूप हैं, उन श्रीनिन्यानन्द – नामक श्रीबलराम की में शरण ग्रहण करता हूँ।

अनर्पितचरीं चिरात् करुणयावतीर्णः कलौ
समर्पयितुमुन्नतोज्जवलरसां स्वभक्तिश्रियम् ।
हरिः पुरटसुन्दरद्युति कदम्ब सन्दीपितः
सदा हृदयकन्दरे स्फुरतु वः शचीनन्दनः ।।

अनन्त काल से जिसको प्रदान नहीं किया गया था, उस परम उज्जवल रसमयी अपनी भक्ति सम्पति को प्रदान करने के लिए जो (भगवान) अपनी करुणा से कलियुग में अवतीर्ण हुए हैं; स्वर्ण से भी अति सुन्दर कान्ति राशि से देदीप्यमान वे श्रीशचीनन्दन हरि सर्वदा तुम्हारी हृदय कन्दरा में स्फुरित हों।

पंचतत्त्वात्मकं कृष्णं भक्तरूपस्वरूपकम् ।
भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्तशक्तिकम् ।।

भक्तरूप – स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचैतन्य),
भक्तस्वरूप – (श्रीनित्यानन्द),
भक्तावतार – (श्रीअद्वैताचार्य),
भक्त -(श्रीवासादि) एवं भक्तशक्ति – (श्रीगदाधर) इस पंचतत्त्वात्मक श्रीकृष्ण (श्रीकृष्ण चैतन्य) को मैं नमस्कार करता हूँ ।

जयतां सुरतौ पङ्गोर्मम मन्दमतेर्गति ।
मत्सर्वस्वपदाम्भोजौ श्रीराधामदनमोहनौ ।।

मुझ पंगु एवं मन्दबुद्धि की जो एकमात्र गति हैं तथा जिनके श्रीचरणकमल ही मेरा सर्वस्व हैं उन परम दयालु श्रीराधा – मदनमोहनजी की जय हो ।

दिव्यदृन्दारण्यकल्पद्रुमाधः, श्रीमद्रत्नागारसिंहासनस्थौ ।
श्री श्रीराधा – श्रीलगोविन्ददेवौ, प्रेष्ठालीभिः सेव्यमानौ – स्मरामि ।।

परम शोभायमान श्रीवृन्दावन में कल्पवृक्ष के नीचे मणिमय मन्दिर में परम सुन्दर रत्नजटित सिंहासन पर जो विराजमान हैं, एवं प्रिय सखीवृन्द जिनकी सेवा कर रही हैं, उन श्रीराधा – गोविन्ददेवजी को में नमस्कार करता हूँ।

श्रीमान् रासरसारम्भी वंशीवटतस्थितः ।
कर्षन् वेणुस्वनैर्गोपीर्गोपीनाथः श्रियेऽस्तु नः ।।

वेणुध्वनि से गोपियों को आकर्षण करने वाले, वंशीवट के-तट पर अवस्थित, रास-रस के प्रवर्त्तक एवं प्रेम – रस – रसिक श्रीगोपीनाथ जी हमारा कुशल विधान करें।

आधारो ऽप्यपराधानामविवेक-हतोऽप्यहं ।
त्वत्कारुण्य-प्रतिक्ष्येऽस्मि प्रसीद मयि माधव ।।

निश्चय ही में महा अपराधी हूँ तथा मेरी बुद्धि भी नष्ट हो गई है। हे प्रभो ! मैं आपकी करुणा दृष्टि की सदा प्रतीक्षा कर रहा हूँ। हे माधव ! आप मुझ पर प्रसन्न होवें ।

वन्दे नन्दव्रजस्त्रीनां पादरेणुमभीक्ष्णशः ।
यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम् ।।

श्रीउद्धव जी ब्रजदेवियों की चरण-रेणु की वन्दना करते हुए एवं उनकी श्रीमुख निःसृत श्री हरिकथा को त्रिभुवन – पावनी बताते हुए कहते हैं :-

नन्दबाबा के व्रज में रहने वाली गोपाङ्गनाओं की चरणधूलि को में बारम्बार प्रणाम करता हूँ- उसे सिर पर चढ़ाता हूँ। अहा ! इन गोपियों ने भगवान् श्रीकृष्ण की लीला-कथा के सम्बन्ध में जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोकों को पवित्र कर रहा है और सर्वदा पवित्र करला रहेगा ।

वागीशा यस्य वदने लक्ष्मीर्यस्य च वक्षसि ।
यस्यास्ते हृदये सम्वित् तं नृसिंहमहं भजे ।।

जिनके मुख में सरस्वती जी हैं तथा वक्षस्थल पर श्रीलक्ष्मीजी निवास करती हैं, जिनका हृदय ज्ञान से भरपूर है-ऐसे श्रीनृसिंह भगवान की मैं वन्दना करता हूँ।

भक्त्या विहीना अपराधलक्षैः, क्षिप्ताश्च कामादि तरङ्गमध्ये।
कृपामयि ! त्वां शरणं प्रपन्ना, वृन्दे! नमस्ते चरणारविन्दम् ।।

हे कृपामयी देवी ! वृन्दे ! हम तुम्हारे चरणारविन्दों में भावपूर्वक प्रणाम करते हैं; क्योंकि हम सब श्रीहरिभक्ति से विहीन हैं, अतएव लाखों प्रकार के अपराधों से काम व कोध आदि की दुस्तर समुद्रों की तरंगों के थपेडे खा रहे हैं, अतः आपकी शरण में आ रहे हैं।

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।
(भागवत 1.2.4)
इस श्रीमद्भागवतम् को पढ़ने से पहले, जो विजय का वास्तविक साधन है, मनुष्य को भगवान नारायण, श्रेष्ठतम नर-नारायण ऋषि, विद्या की देवी माता सरस्वती तथा इसके रचयिता श्रील व्यासदेव को सादर नमस्कार करना चाहिए।

त्रिवृत् शौक्रं सावित्रं दैव्यमिति त्रिगुणितं जन्म |
(भावार्थ दीपिका 10-23-39)
“जिस प्रकार रासायनिक क्रिया द्वारा फाँटा, सोना बन जाता है उसी प्रकार दीक्षा विधान के द्वारा मनुष्य (किसी भी वर्ण में पैदा हुआ हो) द्विजध को प्राप्त होता है।

मातुरोऽधिजननं द्वितीयं मौन्जि बन्धने ।
तृतीयं यज्ञदीक्षायां द्विजस्य श्रुति-चोदनात् ॥
(मनु. 2/169)
‘पहलाज माता से, दूसरा जाम उपनयन से तथा तीसरा दुति प्रेरित वन दीक्षा से होता है। इन तीनों जन्मों में वनोपदीत चिन्हित जो जन है, उसे ही द्विज (ब्राह्मण) कहते हैं।

“ब्राह्मणानां सहस्रेभ्यः सत्रयाजी विशिष्यते ।
सत्रयाजिसहस्रेभ्यः सर्ववेदान्तपारगः ।।”
“सर्ववेदान्तवित्कोट्या विष्णुभक्तो विशिष्यते ।
वैष्णवानां सहस्त्रेभ्यः एकन्त्येको विशिष्यते ।।”
(भक्ति सन्दर्भ 177 संख्याघृत गारुड़ वाक्य)
हजारों ब्राह्मणों में से,  वैदिक यज्ञ में विशेषज्ञ  याज्ञिक  ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ है। हजारों याज्ञिक ब्राह्मणों में से  , जो वेदांत को पूरी तरह से जानता है वह सर्वश्रेष्ठ है। करोड़ों वेदान्त ज्ञानियों में   भगवान विष्णु का भक्त श्रेष्ठ है  और  हजारों भगवान विष्णु भक्तों में भी शुद्ध वैष्णव  श्रेष्ठ है।

“अच्र्ये विष्णौ शिलाधीर्गुरुषु नरमतिर्वैष्णवे जातिबुद्धि-
विष्णुर्वा वैष्णवानां कलिमलमथने पादतीर्थेऽम्बु बुद्धिः ॥
श्रीविष्णोनाम्रिमन्त्रे सकल कलुषहे शब्द सामान्य-बुद्धि-
विष्णो सर्वेश्वरेशे तदितरसमधीर्यस्य वा नारकी सः ।।”
(पद्म पुराण)
(श्री पद्म पुराण में कहते हैं कि जो लोग विष्णु जी के अर्चा विग्रह को पत्थर समझते हैं, गुरुदेव जी को साधारण मनुष्य मानते हैं. वैष्णवों में जाति बुद्धि करते हैं, कलि के पापों को नाश करने वाले विष्णु और वैष्णों के चरणामृत को साधारण पानी समझते हैं, समस्त पापों को नाश करने वाले श्रीविष्णु जी के नाम-मन्त्र को सामान्य शब्द मानते हैं तथा भगवान् विष्णु जी को अन्यान्य देवताओं के समान समझने हैं- ये सभी नारकीय हैं अर्थात् महापापी हैं।

“न शूद्राः भगवद् भक्तास्तेऽपि भागवतोत्तमाः ।
सर्वेवर्णेषु ते शूद्रा येन भक्ता जनार्दने ।। ”
भगवद् भक्त कभी भी शूद्र नहीं होता क्योंकि यह उत्तम भागवत है, जबकि भगवान का अभक्त सभी वर्णों में रहते हुए भी शुद्ध है।

“षट् कर्मनिपुणो विप्रो मन्त्र-तन्त्र विशारदः ।
अवैष्णवो गुरुर्न स्याद्-वैष्णवः श्वपचो गुरुः ।।’
षड़गुणों से युक्त तथा तन्त्र-मन्त्र में पारंगत अवैष्णव ब्राह्मण भी गुरु नहीं हो सकता जबकि चाण्डाल भी भक्त होने पर गुरु हो सकता है।

“महाकुल- प्रसूतोऽपि सर्वयज्ञेषु दीक्षित: ।
सहस्त्र शाखाध्यायी च न गुरुस्याद वैष्णवः ॥”
उच्च कुल में उत्पन्न, सहस्त्रध्यायी तथा सभी यज्ञों में दीक्षित अवैष्णव, गुरु नहीं हो सकता।

“विप्र क्षत्रिय वैश्याश्च गुरुवः शूद्रजन्मनाम् ।
शूद्राश्च गुरवस्तेषां त्रयाणां भगवतप्रियाः ”
(पद्म पुराण)
भगवद् भक्त शुद्ध कुल में होने पर भी ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य इन तीनों कुलों का गुरु है।

“आचार्य मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचित् ।
न मर्त्यबुद्धयासूयेत सर्वदेवमयो गुरुः
(भा० 11/17/22)
भगवान् उद्धव को उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे उद्धव ! श्रीगुरुदेव को मेरा ही रूप जानकर कभी भी उनकी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए तथा उन्हें साधारण मनुष्य जानकर उनमें कभी भी दोषों को नहीं देखना चाहिए क्योंकि श्रीगुरुदेव सर्वदेवमय हैं।

“ओ रे मूर्ख ! कह देखि कोन-शास्त्रे कय?
ब्राह्मण हइते कि वैष्णव बड़ हय ?
विप्र शिष्य कैल से वा केमन वैष्णव ?
पण्डितेर समाजे कराब पराभव ।।”
(नरोत्तम विलास दशम विलास ) 
“ओ मूर्ख बोल तो, देखूं किस शास्त्र में कहते हैं कि ब्राह्मण से वैष्णव श्रेष्ठ होता है ? उसने (नरोत्तम ठाकुर जी ने ब्राह्मण को भी शिष्य बनाया, वह कैसा वैष्णव है? में विद्वानों के समाज में उन्हें पराजित करवाऊँगा।

“नारायणपराः सर्वे न कुतश्चन विभ्यति ।
स्वर्गापवर्ग नरकेष्वपि तुल्यार्थदर्शिनः ।।”
(भा. 6-17-28)
जो भक्त केवल भगवान नारायण की भक्ति में लगे रहते हैं, उन्हें जीवन की किसी भी स्थिति का भय नहीं रहता। उनके लिए स्वर्ग, मोक्ष और नरक सभी एक समान हैं, क्योंकि ऐसे भक्त केवल भगवान की सेवा में रुचि रखते हैं।

“जातिरत्र महासर्प मनुष्यत्वे महामते ।
संकरात् सर्ववर्णानां दुष्परीक्ष्येति मे मतिः ।।
सर्वे सर्वास्वपत्यानि जनयन्ति सदा नराः ।
वाङ मैथुनमथो जन्म मरणन्च समं नृणाम् ॥”
(महा. व. प. 180/31-32)

“यस्य यक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यन्जकम् ।
यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत् ।।”
(भा. 7/11/35)
यस्य – जिसका ; यत् – जो ; लक्षणम् – लक्षण ; प्रोक्तम् – वर्णित ; पुंसः – व्यक्ति का ; वर्ण – अभिव्यंजकम् – वर्गीकरण ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि) सूचित करता है ; यत् – यदि ; अन्यत्र – अन्यत्र ; अपि – भी ; दृश्येत – देखा जाता है ; तत् – वह ; तेन – उस लक्षण से ; एव – निश्चय ही ; विनिर्दिष्ट – निर्दिष्ट करना चाहिए।
यदि कोई व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होने के लक्षण प्रदर्शित करता है, जैसा कि ऊपर वर्णित है, तो भले ही वह किसी भिन्न श्रेणी में आता हो, उसे वर्गीकरण के उन लक्षणों के अनुसार स्वीकार किया जाना चाहिए।

“शमादिभिरेव ब्राह्मणादिव्यवहारो मुख्यः, न तु जातिमात्रात् ।
यद् यदि अन्यत्र वर्णान्तरेऽपि दृश्येत, तद्वर्णान्तरं तेनैव लक्षण-
निमित्तेनैव वर्णेन विनिर्दिशेत्; न तु जातिनिमित्तेनेत्यर्थः “
(भा. 7/11/35 भावार्थ दीपिका)

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्घ्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्माद्परिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ 2/27 ॥
जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु अवश्य होगी और मृत्यु के पश्चात् उसका पुनः जन्म भी अवश्य होगा। अतः अपने कर्तव्य का पालन करते हुए तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।

“कर्मणां परिणामित्वादाविरिन्चयादमंगलम् ।
विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टवत् ॥”
(भा.11-19-18)
बुद्धिमान व्यक्ति को यह देखना चाहिए कि कोई भी भौतिक कार्य निरंतर परिवर्तन के अधीन है और भगवान ब्रह्मा के ग्रह पर भी इस प्रकार केवल दुःख है। वास्तव में, एक बुद्धिमान व्यक्ति यह समझ सकता है कि जिस प्रकार उसने जो कुछ भी देखा है वह अस्थायी है, उसी प्रकार, ब्रह्मांड के भीतर सभी चीजों का एक आरंभ और अंत है।

“आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः ।
कृत कृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः ।।
त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात् त्रयी ।
विद्या प्रादुर्भूत् तस्या अहमासं त्रिवृन्मथः ॥
विप्र-क्षत्रिय-विट्शूद्रा मुखबाहु रूपादजाः ।
वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचार-लक्षणाः ।।”
(भा. 11-17-10, 12, 13)

आरम्भ में, सत्ययुग में, केवल एक सामाजिक वर्ग होता है, जिसे हंस कहते हैं, तथा सभी मनुष्य इसी वर्ग के होते हैं। उस युग में सभी लोग जन्म से ही भगवान के अनन्य भक्त होते हैं, और इसीलिए विद्वान लोग इस प्रथम युग को कृतयुग कहते हैं, अर्थात् वह युग जिसमें सभी धार्मिक कर्तव्य पूर्ण रूप से पूरे होते हैं।

हे महाभाग्यवान! त्रेतायुग के प्रारम्भ में मेरे प्राणवायु के निवासस्थान हृदय से वैदिक ज्ञान तीन भागों में प्रकट हुआ – ऋग्, साम तथा यजुर्। फिर उस ज्ञान से मैं त्रिगुणमय यज्ञ के रूप में प्रकट हुआ।

त्रेता युग में भगवान के व्यक्तित्व के विश्वरूप से चार सामाजिक वर्ण प्रकट हुए। ब्राह्मण भगवान के मुख से, क्षत्रिय भगवान की भुजाओं से, वैश्य भगवान की जांघों से तथा शूद्र उस शक्तिशाली रूप के पैरों से प्रकट हुए। प्रत्येक सामाजिक वर्ग को उसके विशेष कर्तव्यों तथा आचरण से पहचाना जाता था।

ततो दु:संगमुतसृज्य सत्सु सज्जेत् बुद्धि।
सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनोव्यासङ्मुक्तिभिः ॥ (11/26 /26)

अतः बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह सभी बुरी संगति को त्याग दे तथा ऐसे संत भक्तों की संगति करे जिनके वचन मन की अत्यधिक आसक्ति को काट देते हैं।