ब्राह्मण आदि उच्च वर्ण में सत्पात्र होने पर ही वह गुरु होने के योग्य है

गृही जीवगण, वर्णाश्रमे थाकि’,
सद्गुरु आश्रय करे।
ब्राह्मण, आचार्य, सर्वर्णे हय,
यदि कृष्णभक्ति धरे ।।

ब्राह्मण – कुलेते, सुपात्र अभावे,
अन्य कुले दीक्षा पाय।
उच्चवर्ण गुरु, गृहीर उचित,
गुरु – शिष्य परीक्षाय ।।

ब्राह्मण यदि श्रीकृष्ण भक्त है तो वह सभी वर्णों का गुरु हो सकता है परन्तु यदि ब्राह्मण कुल में ऐसा सुपात्र न मिले तो अन्य कुल में उत्पन्न व्यक्ति से भी दीक्षा ग्रहण की जा सकती है। दीक्षा देने या लेने से पहले गुरु को शिष्य की व शिष्य को गुरु की भली भाँति परीक्षा कर लेनी चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो, उच्चवर्ण के गुरु से ही दीक्षा लेनी चाहिए।

वर्ण-विचार की अपेक्षा सुपात्र-विचार करना अधिक उचित है

कृष्णतत्त्वेत्ता, प्रकृत ये हय,
से हइते पारे गुरु।
किवा विप्र, शुद्र, कि गृही, संन्यासी,
गुरु हन कल्पतरु ।।

वर्णर मर्यादा, पात्रेर विचारे,
परमार्थ लघु अति ।
सुपात्र मिलन, प्रयोजन सदा,
यदि चाइ शुद्ध रति ।।

सुपात्रेर प्राप्ति, मूल प्रयोजन,
पवित्र सुवर्ण हेन।
ताहे उच्च वर्ण, लभिले संयोग,
सोहागा सुवर्णे येन ।।

जो कृष्ण – तत्त्व को भली भांति समझता है, वही वास्तविक गुरु हो सकता है, चाहे वह ब्राह्मण हो, शूद्र हो, गृहस्थी हो अथवा संन्यासी हो। सद्‌गुरु तो तमाम इच्छाओं को पूर्ण करने वाले कल्पतरु के समान होते हैं। यदि हमें श्रीकृष्ण – प्रेम प्राप्त करना है तो सद्‌गुरु के वर्ण की ओर अधिक ध्यान न देकर उसकी कृष्ण – भक्ति देखनी चाहिए क्योंकि परमार्थ के मार्ग में केवलमात्र उच्चवर्ण को ही मर्यादा देना उचित नहीं है। शुद्ध सोने की तरह सुपात्र की प्राप्ति करना अर्थात् सद्‌गुरु की प्राप्ति करना ही मूल प्रयोजन है। अगर कोई गुरु, सुपात्र होने के साथ – साथ उच्चवर्ण का भी है, तो यह सोने पर सुहागे के समान है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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एकमात्र भगवान् की प्रसन्नता के लिए नृत्य एवं गायन

एक बार गुरु महाराज अमृतसर में प्रचार के उद्देश्य से गए हुए थे तथा हरिकथा का आयोजन नमक मण्डी में स्थित किसी मन्दिर में किया गया था। कथा के पश्चात् गुरु महाराज ने श्रीकृष्णबलराम के अत्यधिक सुन्दर तथा आकर्षक विग्रहों का दर्शन किया तथा उनके दर्शन से हृदय में कृष्ण-प्रेम की उद्दीपना होने के कारण जगत् की सुध-बुध खो बैठे व्यक्ति की भाँति बहुत देर तक भावविभोर हो कर नृत्य तथा गान किया।

उनके महापुरुषोचित दिव्य कलेवर तथा उनकी भाव-भङ्गिमाओं को देख कर उपस्थित भक्त-सज्जन मण्डली मन्त्र-मुग्ध हो गई।

दूसरे दिन मन्दिर के कर्तृ-पक्ष ने हरिकथा के उपरान्त, गुरु महाराज द्वारा पुनः नृत्य-कीर्त्तन की अपेक्षा में, अत्यधिक शीघ्रता एवं उत्साहपूर्वक अनेक बल्ब जलाए। गुरु महाराज के गत दिवस किए गए नृत्य-कीर्त्तन के स्थान को रस्सियों से घेर दिया। उनके नृत्य दर्शन की अपेक्षा में सब ओर से लोग भर गए। जिन लोगों ने गुरु महाराज के नृत्य-कीर्त्तन के दर्शन किए थे वे उसे देखने के लिए अन्य लोगों को भी अपने साथ लाए किन्तु उस दिन गुरु महाराज ने जय-ध्वनि देकर ही कार्यक्रम को विराम दे दिया।

सहारनपुर में भी अमृतसर जैसी उक्त घटना की पुनरावृत्ति हुई। एक दिन गुरु महाराज ने अति आनन्द में भरकर नृत्य-कीर्त्तन किया। अगले दिन सर्वत्र प्रचार हो गया कि नृत्य परम रमणीय एवं दर्शन करने योग्य है। इसी कारण अगले दिन अनेक लोगों का समागम हुआ। जब गुरु महाराज को बताया गया कि आज अधिकांश लोग आपके नृत्य का दर्शन करने के लिए आए हैं। अतः आप कार्यक्रम का आरम्भ नृत्य-कीर्त्तन से कीजिए, तब उन्होंने कहा, “साधु-वैष्णव इत्यादि साधारण लोगों की प्रसन्नता, उनके मनोरञ्जन के लिए नृत्य-कीर्त्तन नहीं बल्कि भगवान् की सेवा के उद्देश्य से करते हैं। लोकरञ्जन करने पर जगत् के प्रति प्रीति अर्थात् आसक्ति हो सकती है किन्तु भगवान् की भक्ति नहीं होगी। उससे विवेकरहित व्यक्तियों की प्रशंसा आदि की प्राप्ति, उनसे प्रतिष्ठा रूपी शूकर की विष्ठा आदि के लोभ से किया गया नृत्य-कीर्त्तन, हरि भक्ति के अनुकूल नहीं बल्कि सम्पूर्ण रूप से प्रतिकूल एवं त्रैयात्रिक (जड़ीय नृत्य-गीत वाद्य यन्त्रों के बजाने) में ही गण्य है।”

श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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“विवेकरहित व्यक्तियों द्वारा प्रशंसा एवं उनसे प्रतिष्ठा रूपी शूकर की विष्ठा आदि प्राप्त करने के लोभ से किया गया लोकरञ्जनात्मक नृत्य-कीर्त्तन, हरि भक्ति के कदापि अनुकूल नहीं है।”

श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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जो स्पष्ट रूप से पतित है, वह केवल स्वयं का ही अकल्याण करता है, परन्तु ढोंगी बगला-तपस्वी तो पापों की मूर्ति है, वह स्वयं तो गिरता ही है, औरों को भी ले डूबता है।

श्रील भक्ति प्रमोद पूरी गोस्वामी महाराज
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वैष्णव अपराध

शुन द्विज विष करि ये मुखे भक्षण।
सेइ मुखे करि यदि अमृत-ग्रहण ।।
विष ह्य जीर्ण, देह हय त अमर।
अमृत-प्रभावे एवे शुन से उत्तर ।।

(चै.भा. अन्त्य 3.449-450)

हे ब्राह्मण ! सुनो, जिस मुख से विष भक्षण किया जाता है, यदि उसी मुख से कोई अमृत ग्रहण कर ले तो विष नष्ट हो जाता है और उसकी देह अमर हो जाती है। यही इसका उपाय है।

अनजाने में या जानकर तुमने जितनी भी वैष्णव निन्दा की है, वह केवल विष ही खाया है। अब उसी मुख से परम अमृतमय कृष्ण के नामों का गान करो। जिस मुख से तुमने वैष्णव-निन्दा की थी, उसी मुख से तुम वैष्णवों की स्तुति करो। हे विप्र ! सबके सामने भक्ति की महिमा का बखान करो और कविताएँ लिखकर तुम उनका गान करो। कृष्ण-यश का परमानन्द अमृत तुम्हारे निन्दारूप विष का पूरी तरह से नाश कर देगा। यह मैं केवल तुम्हारे लिये ही नहीं, बल्कि उन सबके लिये कह रहा हूँ जिन्होंने अनजाने में वैष्णव-निन्दा की हो। यदि निन्दा फिर कभी नहीं करोगे तथा कृष्ण व कृष्ण के सेवकों की निरन्तर स्तुति करोगे तो इसी उपाय से ही तुम्हारे सब पाप दूर हो जायेंगे, अन्यथा करोड़ो प्रायश्चित करने पर भी वे नहीं जायेंगे। जाओ ब्राह्मण जाओ और जाकर भक्ति का वर्णन करो, तभी तुम्हारे सभी पाप दूर होंगे।

श्रीमन् महाप्रभु के मुख से निन्दा रूपी पाप के इस प्रायश्चित को सुनकर सभी वैष्णव लोग परमानन्द से जय-जय की हरिध्वनि करने लगे। वैष्णव महात्मा श्रील वृन्दावन दास ठाकुर हम सबको सावधान करते हुए कहते हैं कि

एइ आज्ञा जे ना माने, निन्दे साधुजन ।
दुख सिंधु-माझे भासे सेइ पापिगण ।।
चैतन्येर आज्ञा जे मानये वेदसार।
सुखे सेइ जन हय भवसिंधु-पार।।

(चै.भा. अन्त्य 3.462-463)

महाप्रभु की इस आज्ञा को न मानकर जो पापी साधु की निन्दा करेगा, वह दुःख समुद्र में ही डुबकी लगायेगा। जो चैतन्यदेव की आज्ञा को वेदों का सार रूप मानकर आचरण करेगा वह सुख पूर्वक संसार समुद्र से पार हो जायेगा।

श्रील प्रभुपाद इसी पद्य के भाष्य में लिखते हैं कि कपट से रहित होकर वैष्णव की स्तुति करने से वैष्णव-निन्दा रूपी अपराध नष्ट हो जाता है। जो सब चैतन्य महाप्रभु के आदेश को ही ध्रुव सत्य जानकर उसका पालन करते हैं, उनका मंगल होता है।

श्रील भक्ति प्रमोद पूरी गोस्वामी महाराज
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