हरिकथा के प्रारंभिक भाग में, श्रील गुरुदेव वर्ष की प्रथम एकादशी के उद्भव के विषय में बताते हैं जिसे उत्पन्ना एकादशी नाम दिया गया है। तत्पश्चात् वे मोक्षदा एकादशी की महिमा गाते हैं और केवल नित्य-मंगल के लिए एकादशी-व्रत का पालन करने पर विशेष भार देते हैं। अंत में, श्रील गुरुदेव अम्बरीष महाराज की महिमा और भगवान के प्रति उनकी भक्ति का वर्णन करते हैं।
आज शुभ हरिवासर तिथि, मोक्षदा एकादशी तिथि है। यदि कोई व्यक्ति घर पर रह कर एकादशी तिथि का पालन करता है तो उसे अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक फल की प्राप्ति होती है। किन्तु यदि वही एकादशी तिथि का पालन किसी धाम में जैसे कि मथुरा या ब्रज मण्डल इत्यादि धाम में किया जाए, तो उसके द्वारा प्राप्त फल के महात्म्य का वर्णन नहीं किया जा सकता। वह करोड़ों करोड़ों गुना फल से भी अधिक है। वह स्थान जहां शुद्ध भक्त श्रीराधा-कृष्ण की आराधना करते हैं तथा अपने आराध्य देव को अपनी शुद्ध भक्ति द्वारा प्रकट करते है, वह भी धाम कहलाता है। यहां पर हमारे इष्ट राधा श्याम सुन्दर प्रकट हैं।
नाम, विग्रह, स्वरूप तीन एक रूप,
तीने भेद नाहि, तीन चिदानन्द रूप।
(चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 17/131)
‘मद भक्त यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामी नारद’
किन्तु मात्र शारीरिक स्तर पर धाम में वास करने से धाम के वास्तविक स्वरूप का अनुभव या दर्शन नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए एक बार कोलकाता में गुरुजी से मिलने एक धनी व्यक्ति आया। उसका सम्बन्ध भारत के प्रसिद्ध व्यवसायी ‘बिरला’ परिवार से था। उसकी गुरुदेव पर अत्यन्त श्रद्धा थी। गुरुदेव से वार्तालाप करते हुए उसने कहा, मैं आपको कुछ बतलाना चाहता हूं। मैं बीस वर्ष पूर्व वृन्दावन गया था। तब वृन्दावन अत्यन्त सुन्दर था। किन्तु कुछ दिन पूर्व जब मैं दोबारा वृन्दावन गया तो मैंने देखा कि यह पहले की भान्ति नहीं रहा। अब यहां गन्दगी फैल गई है। वृन्दावन गन्दा हो गया।
गुरु महाराज ने उनसे कहा, “आप ऐसा क्यों कह रहे हैं कि वृन्दावन धाम गन्दा हो गया है। वास्तव में वृन्दावन धाम कभी गन्दा नहीं होता।”
तब उस व्यक्ति ने गुरुदेव से कहा, “किन्तु महाराज, जब मैं बीस वर्ष पूर्व वृन्दावन गया था, तब वहां बहुत अच्छी तथा सुन्दर गायें थीं। लोगों को बहुत अच्छे प्रकार का घी, दूध तथा स्वादिष्ट मिठाईयां प्राप्त होती थीं। उस समय के व्रजवासी जन बहुत अच्छे स्वभाव के थे। किन्तु जब इस बार मैंने वहां जाकर रबड़ी (संघनित दूध से बना मीठा पकवान) खाया तो मेरा पेट खराब हो गया। अगले दिन सुबह मुझे रक्त युक्त मल आया। मैंने किसी प्रकार डॉक्टर से परामर्श लेकर स्वयं को स्वस्थ किया। मैंने यह भी अनुभव किया कि वहां कोई भी अपना मूल्यवान सामान बाहर नहीं रख सकता। सदा चोरी होने का भय बना रहता है। वृन्दावन अब पूर्व की भान्ति नहीं रहा। यह अब गन्दा हो गया है।”
उसकी टिप्पणियों के उत्तर में श्रील गुरुदेव ने कहा, “भगवान की इच्छा शक्ति से श्री वृन्दावन धाम का इस जगत में अवतरण होता है। भगवान असंख्य शक्तियों को धारण किए रहते हैं। उन शक्तियों को मुख्यत: तीन शक्तियों ‘अन्तरंगा शक्ति, बहिरंगा शक्ति तथा तटस्था शक्ति’ में वर्गीकृत किया गया है। भगवान का धाम उनकी अन्तरंगा शक्ति का ही अंश है तथा जीव भगवान की तटस्था शक्ति से उत्पन्न हुए हैं। जब जीव भगवान श्री कृष्ण से विमुख हो जाते हैं, तब उनकी बहिरंगा शक्ति महामाया जीव को इस संसार में धकेल देती है, जो एक कारागृह के समान है। किन्तु वे जीव जो भगवान श्री कृष्ण की सेवा करने के इच्छुक होते हैं, भगवान की अन्तरंगा शक्ति अर्थात योग माया उन्हें भगवान के धाम में ले जाती है, जो उनका नित्य निवास स्थान है।”
वे लोग जो धाम में इस संसार के भौतिक लाभों की प्राप्ति की इच्छा लेकर जाते हैं, उनको धाम के दर्शन प्राप्त नहीं होते। वे भगवान के नित्य धाम को एक साधारण गांव की भान्ति देखते हैं। वे धाम की तुलना इस संसार के अन्य स्थानों से करते हैं। वे यह भी कह सकते हैं कि यह स्थान दिल्ली तथा कोलकाता से अधिक गन्दा है। जड़ (सांसारिक) चक्षु द्वारा हम केवल इस जगत की वस्तुओं का ही दर्शन कर सकते हैं। एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है, की “जहां काम, तहां नहीं राम। रवि, रजनी मिले नहीं इक ठाम।” अर्थात जिस प्रकार दिन व रात एक साथ नहीं रह सकते, उसी प्रकार भगवान भी उस स्थान पर वास नहीं करते जिस स्थान पर भौतिक इच्छाएं होती हैं। जिस प्रकार भगवान अप्राकृत(अलौकिक) वस्तु हैं, उसी प्रकार उनका नित्य-धाम भी अप्राकृत स्थान है। वह कभी भौतिक नहीं हो सकता। भगवान के शुद्ध भक्त भी उन्हीं की भान्ति अप्राकृत होते हैं तथा धाम से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु भी अप्राकृत होती है। हमारे गुरुदेव ब्रजमण्डल परिक्रमा के समय कहते थे कि, “कोई भी भक्त अपने दांतो को साफ करने के लिए धाम के वृक्ष के दातुन का उपयोग ना करें। केवल ब्रजवासी जन ही इसका उपयोग कर सकते है। किन्तु आपके लिए इसका उपयोग करना अच्छा नहीं होगा।”
हमारे गुरुदेव का दर्शन (दृष्टिकोण) इस प्रकार का था। इसीलिए वे धाम की महिमा का इस प्रकार वर्णन करते थे। धाम से सम्बन्धित सभी वस्तुएं भगवान की सेवा के लिए होतीं है। हमें धाम में शरणागति भाव के साथ निवास करना चाहिए। श्रील रूप गोस्वामी, श्रील सनातन गोस्वामी तथा श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी अति धनाढ्य तथा प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे साधारण व्यक्ति नहीं थे। किन्तु फिर भी वे एक वृक्ष के नीचे वास किया करते थे। वे एक स्थान पर ना रहकर धाम में कभी कहीं तो कभी कहीं यात्रा करते रहते थे। क्या उन्होंने वृन्दावन को एक गन्दे स्थान के रूप में देखा? नहीं, उनके चक्षु दिव्य थे। उन्हीं दिव्य चक्षुओं द्वारा वे भगवान की दिव्य लीलाओं के दर्शन किया करते थे। यदि कोई व्यक्ति बिना शरणागति भाव के धाम की चिन्मय वस्तुओं को जानने का प्रयत्न करता है, तो महामाया उसे अपने बन्धन में बान्ध लेती है, तथा वह व्यक्ति धाम में वास करने पर भी घृणित कृत्यों में लिप्त हो जाता है। भगवान के जितने भी नित्य निवास स्थान हैं जैसे कि मायापुर, वृन्दावन तथा पुरुषोत्तम धाम इत्यादि सभी चिन्मय (अप्राकृतिक) स्थान है। यदि धाम में वास करके भी हमारी स्वयं की इन्द्रियों को सन्तुष्ट करने की इच्छाएं रहती हैं, वहां धाम स्वयं के वास्तविक स्वरूप को प्रकट नहीं करते। किन्तु जिस स्थान पर भगवान के लिए प्रेम और भक्ति है तथा जहां भगवान और उनके भक्तों की सेवा के लिए जीवन यापन किया जाता है, वहां धाम उनके लिए स्वयं के वास्तविक स्वरूप को प्रकट करते हैं।
यद्यपि श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद कोलकाता के बाग बाजार गौडी़य मठ में निवास करते थे। किन्तु वे कहा करते थे, “मैं कलकत्ता (कलि का स्थान) में नहीं रहता। हमारे आराध्य देव श्रीराधा-कृष्ण यहां प्रकट हुए हैं। इसलिए यह स्थान वृन्दावन से अभिन्न है।”
इसी प्रकार श्री चैतन्य गौड़ीय मठ इस भौतिक जगत के पंच तत्वों से नहीं बना है। भगवान के पार्षद गण जहां पर भी मठ मन्दिर की स्थापना करते हैं, वह स्थान भौतिक जगत से सम्बन्धित नहीं रहता। यदि एक सांसारिक व्यक्ति मन्दिर की स्थापना करता है, तो उसकी मन्दिर द्वारा भौतिक लाभ प्राप्ति की इच्छा रहती है। किन्तु यदि एक शुद्ध भक्त मन्दिर की स्थापना करता है, तो उसका एकमात्र उद्देश्य भगवान की सेवा होती है तथा भगवान ऐसे स्थानों पर ही वास करते हैं। ऐसा स्थान साक्षात धाम कहलाता है।
श्रीभगवान अपने भक्तों की सेवा ग्रहण करने तथा उन्हें अपना संग प्रदान करने के लिए प्रकट होते हैं या एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं। हमारे आराध्य गोविन्द देव मुस्लिम राजाओं के भय का बहाना कर वृन्दावन से जयपुर वहां के वैष्णव भक्तों को अपना संग प्रदान करने के लिए आए। जयपुर जाने से पूर्व वह भरतपुर गए थे। जयपुर निवासियों का भगवान की सेवा करने का एक विशेष भाव है। श्रील रूप गोस्वामी, श्रील सनातन गोस्वामी, श्रील मधु पण्डित तथा श्रील जय देव गोस्वामी द्वारा सेवित मूल विग्रह जयपुर में ही हैं। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात श्रील वन गोस्वामी महाराज ने मूल विग्रहों को फिर से वृन्दावन लाने का प्रयत्न किया। किन्तु वह सफल न हो सके। क्योंकि भगवान की इच्छा जयपुर में ही वास करने की थी। यहां दिल्ली में श्री चैतन्य गौडी़य मठ की शाखा है। जहां श्री गुरु गौरांग राधा श्याम सुन्दर जी मूल रूप से विराजित हैं। वह पहले हमारे मन्दिर के पुराने भवन में थे। अभी उन्होंने मन्दिर के नये भवन में पदार्पण किया है। किन्तु हमें उनके पूर्व स्थान को भी उसी प्रकार प्रणाम करना चाहिए जिस प्रकार हम इस स्थान को करते हैं। वह राधा श्याम सुन्दर का ही स्थान है। क्योंकि वहां और कोई वास नहीं कर सकता इसीलिए वहां उनके परम भक्त पंच पाण्डव विग्रहों को स्थापित किया गया है। क्योंकि यदि मन्दिर में विग्रह नहीं रहेगा तो उस मन्दिर या स्थान पर कोई भी प्रणाम नहीं करेगा। इसीलिए यदि कोई वहां प्रणाम करता है, तो पाण्डवों तथा राधा श्याम सुन्दर के स्थान, दोनों को प्रणाम करना हो जाता है।
आज बहुत ही शुभ तिथि है। यदि एकादशी तिथि का पालन धाम में या किसी ऐसे स्थान पर किया जाए, जहां शुद्ध भक्त भगवान के नाम तथा लीलाओं का कीर्तन करते हैं, तो उसका फल करोड़ों गुना अधिक हो जाता है। यदि आप कभी कोलकाता जाएं तथा वहां के नाट्य-मंदिर ( कीर्तन करने का स्थान) को पूरी तरह भरा हुआ देखें, तो पंचांग (भारतीय कैलेण्डर) देखने की भी आवश्यकता नहीं है, यदि उस दिन कोई आविर्भाव, तिरोभाव तिथि या जन्माष्टमी, राधाष्टमी तिथि नहीं है, तो अवश्य ही उस दिन एकादशी तिथि होगी। वे भक्तगण जो मठ मन्दिर से दूर रहते हैं तथा प्रतिदिन भगवान के दर्शन करने नहीं आ सकते, वह भक्त गण पन्द्रह दिन में एक बार एकादशी तिथि के दिन मठ मन्दिर आते हैं। उस दिन वे गुरुदेव तथा भगवान के दर्शन करते हैं, कीर्तन तथा कथा श्रवण करते हैं। इस प्रकार उन्हें पन्द्रह दिन का फल एक दिन में ही प्राप्त हो जाता है। यह मेरा दुर्भाग्य है कि शरीर अस्वस्थ्य होने के कारण मैं मठ में रहते हुए भी भगवान की सेवा नहीं कर पा रहा हूं। भगवान स्वयं यहां विराजित हैं, किन्तु शरीर अस्वस्थ होने के कारण कीर्तन, हरिकथा श्रवण आदि सेवाओं को नहीं कर पा रहा हूं। मैं पिछले सात आठ दिनों से कीर्तन में नहीं आ पा रहा हूं। इसीलिए एकादशी नियम पालन मेरे लिए भी आवश्यक है। आज एकादशी तिथि है। इसीलिए मैं यहां आया हूं। इस प्रकार मुझे उन सभी दिनों का लाभ एक दिन में ही प्राप्त हो जाएगा।
शास्त्रों में एकादशी तिथि के महात्म्य का वर्णन किया गया है। वैदिक कैलेण्डर के अनुसार यह अग्रहायण मास है, जो कि मार्गशीर्ष (नक्षत्र का नाम) नाम से भी जाना जाता है।
अग्रहायण – ‘हायण’ अर्थात ‘वर्ष’ तथा ‘अग्र’ अर्थात ‘प्रथम’। इसलिए वैदिक कैलेण्डर के अनुसार यह वर्ष का प्रथम मास है। कुल सत्ताईस नक्षत्र हैं। उनमें से पञ्चम नक्षत्र ‘मार्गशीर्ष’ है। एकादशी तिथि की अधिष्ठात्री देवी इस मास के कृष्णपक्ष में उत्पन्न हुई थीं। इसीलिए वह उत्पन्ना एकादशी के नाम से विख्यात हुईं। आप सभी ने पूर्व में उत्पन्ना एकादशी की महिमा श्रवण की है। उत्पन्ना एकादशी स्वयं भगवान के चिन्मय श्री अंग से उत्पन्न हुई हैं। एकादशी महात्म्य के अनुसार मुर नाम का एक अत्यन्त शक्तिशाली दानव था। सभी देवतागणों ने एकत्र हो कर उस दानव के साथ युद्ध किया। किन्तु वे उसकी शक्ति के समक्ष दीर्घ समय तक खड़े ना रह सके। तब देवतागणों की प्रार्थना पर भगवान स्वयं उस दानव से युद्ध करने आये। उन्होंने बिना किसी शस्त्र के दस हज़ार वर्षों तक मुर दानव के साथ मल्लयुद्ध किया। मुर दानव को हराने के पश्चात भगवान ने बद्रीनारायण की ओर प्रस्थान किया। अपनी लीला प्रदर्शित करने के लिए वे बद्रीनारायण की गुहा (गुफा) में विश्राम करने लगे। क्योंकि भगवान ने मुर नामक दानव को हराया था इसीलिए उनका एक नाम ‘मुरारी’ पड़ा। जब भगवान बद्रीनारायण में विश्राम कर रहे थे, तब मुर दानव फिर से खड़ा हुआ तथा भगवान को मारने के उद्देश्य से उसने गुहा (गुफा) में प्रवेश किया। उसने सोचा आक्रमण करने का यही अच्छा अवसर है। यह सोचकर उसने जैसे ही भगवान पर आक्रमण किया, तभी भगवान के चिन्मय श्रीअंग से एक परा (दिव्य) शक्ति प्रकट हुई। उस शक्ति ने मुर दानव से युद्ध किया तथा उसका वध कर दिया। वह कौन थी? वह भगवान की ही चिन्मय शक्ति थी। वास्तव में स्वयं भगवान ने अपनी एकादशी शक्ति के रूप में उस दानव का वध किया।
भगवान ने उससे पूछा, “तुम्हारा आगमन कहां से हुआ है।”
उसने उत्तर दिया, “मैं आपके ही श्रीअंग से प्रकट हुई हूं तथा आपको मारने के उद्देश्य से आए उस मुर दानव का मैंने वध कर दिया है।”
भगवान ने कहा, “तुम्हारा प्रकाट्य एकादशी तिथि के दिन हुआ है तथा तुमने उस दानव का वध किया। मैं तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हूं। आज से तुम्हारा नाम ‘एकादशी’ होगा। जो व्यक्ति एकादशी तिथि का नियम पूर्वक तथा श्रद्धा पूर्वक पालन करेगा, उसे इस संसार के सभी प्रकार के पापों से मुक्ति प्राप्त होगी। मैं उस व्यक्ति से प्रसन्न रहूंगा तथा उन्हें सब कुछ प्राप्त हो जायेगा।”
जिस प्रकार भगवान की दिव्य शक्ति ‘मार्गशीर्ष’ मास के ‘कृष्पक्ष’ में भगवान के चिन्मय श्री अंग से उत्पन्न हुई तथा उसका नाम ‘उत्पन्ना’ एकादशी पड़ा, उसी प्रकार आज इसी मास की दूसरी एकादशी ‘मोक्षदा’ एकादशी तिथि है। जिसकी उत्पत्ति ‘मार्गशीष’ मास के ‘ शुक्लपक्ष’ में हुई। इस विषय में जिज्ञासा करते हुए युधिष्ठिर महाराज ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा, “हे कृष्ण, मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष एकादशी का क्या नाम है? इस एकादशी का क्या महत्त्व है तथा इस एकादशी का नियम पालन किस प्रकार करना चाहिए?”
श्रीकृष्ण उत्तर देते हुए कहते हैं, “इस एकादशी तिथि का नाम ‘मोक्षदा’ एकादशी है।” यदि कोई इस पवित्र एकादशी तिथि व्रत का नियम पूर्वक पालन करता है, तब वह अपने द्वारा किए सभी पापों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।” ऐसा शास्त्रों में वर्णन है कि यदि कोई एकादशी तिथि के दिन नियम-पूर्वक व्रत पालन करता है तो वह सहज ही सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है। भगवान स्वयं कहते हैं कि एकादशी तिथि के दिन यदि कोई तुलसी मंजरी द्वारा भगवान की आराधना करता है तो भगवान उस व्यक्ति से अत्यधिक प्रसन्न होते हैं। शास्त्रों में यह भी वर्णन है, ” यह एकादशी तिथि व्रत पालन करने वाले व्यक्ति को बाजपेयी यज्ञ का फल प्राप्त होता है।” इस यज्ञ का निर्धारण सामवेद ग्रन्थ में किया गया है। यज्ञ त्रेता-युग का युगधर्म था किन्तु कलियुग में हरिनाम संकीर्तन के द्वारा, यज्ञ द्वारा प्राप्त होनेवाले लाभ से अधिक लाभ सहजता से प्राप्त हो जाता है।
शास्त्रों में इस प्रकार के अस्थाई लाभों का वर्णन करने का एकमात्र उद्देश्य इस संसार के बद्ध जीवों को एकादशी तिथि नियम पालन करने लिए आकर्षित करना है। जिससे उनका नित्यमंगल (कल्याण) हो सके। उदाहरण के लिए यदि एक शिशु को किसी प्रकार की व्याधि हो जाए तो उसे औषधी देकर उसका उपचार किया जाता है। किन्तु साधारणतया शिशु औषधी तिक्त (कड़वा) होने के कारण उसे लेने की इच्छा नहीं करता। जब शिशु औषधी लेने से मना कर देता है तब वैद्य तथा उसके माता-पिता उसे बार-बार औषधी लेने के लिए कहते हैं तथा वह बार-बार मना कर देता है। आजकल औषधी लेना इतना कठिन नहीं है क्योंकि यह कैप्सूल के रूप में उपलब्ध है किन्तु हमारे समय यह एक तिक्त ( कड़वा ) मिश्रण के रूप में था जिसको लेना अत्यन्त कठिन था। अब वैद्य ने उस बालक को सतर्क भी किया कि यदि वह औषधी नहीं लेगा तो वह स्वस्थ नहीं हो पाएगा। किन्तु तब भी वह बालक अपने जीवन के मूल्य को ताक पर रखकर औषधी लेने से मना करता रहा। तब वैद्य ने बालक के माता-पिता से पूछा कि इसे खाने में क्या अच्छा लगता है? तब माता-पिता ने उत्तर दिया, इसे गर्म रसगुल्ला अत्यन्त प्रिय है। तब वैद्य ने उस बालक को रसगुल्ले के द्वारा लुभाया तथा कहा यदि वह पहले औषधी लेगा तो उसको यह रसगुल्ला मिल जाएगा। रसगुल्ले के लालच में उस बालक ने औषधी लेना स्वीकार कर लिया। यहां वैद्य का उद्देश्य बालक को रसगुल्ला खिलाना नहीं था, अपितु किसी प्रकार से उसके रोग को दूर करना था। इसीलिए शास्त्रों के कर्मकाण्ड खण्ड में इस जगत के भौतिक लाभों का उल्लेख किया गया है, ताकि बद्ध जीव इन लाभों की ओर आकर्षित होकर एकादशी व्रत नियम पालन कर सकें तथा नित्यमंगल की प्राप्ति कर सकें। यदि किसी व्यक्ति को कहा जाए कि तुलसी मंजरी इत्यादि द्वारा भगवान की सेवा करने से वे प्रसन्न हो जाते हैं, तो वह यह तर्क कर सकता है कि भगवान कौन है? तथा उन्हें प्रसन्न करने से उसे क्या लाभ होगा? तब उसे यह कहा जा सकता है कि ऐसा करने से उसे उच्च लोकों की प्राप्ति होगी जहां उसे आनन्द की आनन्द मिलेगा। तब वह सहज ही किसी भी प्रकार का व्रत करने के लिए तत्पर हो जाएगा। इसलिए शास्त्रों में इस प्रकार के भौतिक लाभों का वर्णन सांसारिक व्यक्ति को एकादशी तिथि का व्रत पालन करने की ओर आकर्षित करना है। किन्तु शुद्ध भक्तों इस प्रकार के भौतिक लाभों की आवश्यकता नहीं है। शुद्ध भक्त एकादशी तिथि व्रत का पालन किसी भी सांसारिक लाभ प्राप्ति के लिए नहीं करते।
‘मोक्षदा’ एकादशी तिथि की महिमा का शास्त्रों में इस प्रकार वर्णन है कि ‘चम्पक नगर’ नाम की एक सुन्दर नगरी, जहां अनेक वैष्णव वास किया करते थे, ‘वैखानस’ नामक एक धार्मिक एवं प्रजा-वत्सल राजा वहां राज किया करते थे। एक रात राजा ने स्वप्न देखा जिसमें उनके पिता को नरक में यमराज द्वारा नाना प्रकार की यातनाएं दी जा रही हैं तथा राजा के पिता उससे प्रार्थना कर रहें है कि वे इस नारकीय यातनाओं से उनको मुक्ति दिलाए। पिता की इस प्रकार की दयनीय स्थिति देख कर राजा को उन पर दया आ गई। स्वपन को चिन्तन कर वे व्याकुल हो उठे। राज्य की सुन्दरता तथा अपार धन-सम्पत्ति जो पहले उन्हें सुख प्रदान करती थी, वह अब उन्हें आकर्षित नहीं करती। सुबह होने पर राजा ने सभी वैदिक ब्राह्मणों को बुलाया तथा अपने द्वारा देखे गए स्वप्न के विषय में विस्तार से बतलाया।
राजा ने पूछा, “हे ब्राह्मण गण, मेरे पिता को नरक में अनेक प्रकार की यातनाएं दी जा रही हैं। आप कृपया उनका उस नारकीय स्थान से मुक्ति का मार्ग बतालाएं?”
ब्राह्मणों ने उत्तर दिया, “हे राजन, यहां से कुछ दूरी पर ही एक स्थान है, जहां पर्वत मुनि निवास करते हैं।
वे त्रिकालज्ञ (भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जानने वाले) हैं। हम सभी एकत्र होकर उनके पास जाएंगे। वह निश्चय ही आपकी सभी समस्याओं का निवारण करेंगे।”
उनके परामर्श को मानकर राजा तत्काल सभी ब्राह्मणों के साथ पर्वत मुनि के आश्रम की यात्रा पर निकल पड़े। सभी पर्वत मुनि के आश्रम पहुंचे। राजा वैखानस ने पर्वत मुनि को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया।
पर्वत मुनि ने राजा से उनके आगमन का कारण पूछा। राजा ने पर्वत मुनि को उसके द्वारा देखे गए स्वप्न के विषय में विस्तार से बतलाया। राजा की व्यथा सुनकर पर्वत मुनि चक्षु बन्द कर ध्यान में बैठ गए तथा राजा के भूत, वर्तमान तथा भविष्य काल को देखने लगे। कुछ समय पश्चात पर्वत मुनि ने अपने चक्षुओं को खोलकर कहा, “आपके पिताजी एक कामातुर व्यक्ति थे। उन्होंने एक घृणित कार्य किया था जिसके फल स्वरुप वह नरक में यातनाएं भोग रहे हैं।” तब राजा वैखानस ने पूछा, “अब मेरा क्या कर्तव्य है? मैं किस प्रकार उनको इस प्रकार की दयनीय स्थिति से मुक्त करवा सकता हूं।”
पर्वत मुनि ने उत्तर दिया, “हे राजन, मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ‘मोक्षदा’ एकादशी कहा जाता है। यदि आप अपनी पत्नी, पुत्र, पुत्री तथा सभी सेवकों के साथ इस पवित्र ‘मोक्षदा’ एकादशी का नियम पूर्वक तथा श्रद्धा पूर्वक पालन करें ओर उससे प्राप्त फल को अपने पिता को अर्पण करें तो वे सभी दुखों से निवृत हो जाएंगे तथा तत्क्षण मुक्ति को प्राप्त होंगे।”
तत्पश्चात राजा ने बड़े ही नियम पूर्वक तथा निष्ठा से अपनी स्त्री, बच्चों तथा सम्बन्धियों के साथ ‘मोक्षदा’ एकादशी उपवास का पालन किया। उन्होंने उपवास को निषेधाज्ञा अर्थात् दशमीं तथा द्वादशी के दिन एक बार भोजन ग्रहण करना तथा एकादशी के दिन बिना कुछ ग्रहण किए निर्जला अर्थात् बिना जल के पालन किया। कलियुग में निर्जला एकादशी उपवास करना थोड़ा कठिन है। क्योंकि कलियुग में प्राणियों के जीवन का आधार भोजन ही है। कुछ भक्तजन अभी भी निर्जला उपवास करने का प्रयत्न करते हैं। अनुकल्प करने से अर्थात् उपवास के दिन वह खाद्य पदार्थ जिन्हें शास्त्रों में उपवास के दिन लेने की आज्ञा दी गई है, वह लेने से उपवास भंग नहीं होता। किन्तु अनाज जैसे कि चावल, गेहूं, सूजी या दलिया तथा सरसों का तेल इत्यादि खाने से उपवास भंग हो जाता है। इसीलिए आप एकादशी उपवास के दिन यह वस्तुएं ग्रहण नहीं कर सकते।
अपो मूलम फलम पयाह
हविर ब्राह्मणा काम्या च,
गुरोर वचनं औषधनम ए
अस्तैतान्यव्रताघनानी।।
( श्रीहरिभक्तिविलास 12.40)
यदि आप उपरोक्त श्लोक में वर्णन खाद्य पदार्थों को एकादशी उपवास के दिन ग्रहण करते हैं, तो आपका उपवास भंग नहीं होगा। आप जल, मूलम अर्थात् आलू या वह खाद्य पदार्थ जो मिट्टी के नीचे उगते हैं उन्हें उबालकर ग्रहण कर सकते हैं इससे आपका उपवास भंग नहीं होगा। फलम- आप सभी प्रकार के फल ग्रहण कर सकते हैं। आप गाय का दूध तथा दूध से बनी वस्तुएं जैसे कि दही तथा घी इत्यादि भी ग्रहण कर सकते हैं। आप गाय के दूध से बने घी द्वारा आलू इत्यादि की सब्जी बना सकती हैं। आप कच्चा केला तथा पपीता भी उपवास के दिन ग्रहण कर सकते हैं। यदि आपको कोई शारीरिक गम्भीर समस्या है तथा डॉक्टर ने आपको औषधि लेने के लिए कहा है तो आप उपवास के दिन औषधि ले सकते हैं। इससे आपका उपवास भंग नहीं होगा। यदि एक निष्ठावान ब्राह्मण एकादशी उपवास के दिन कुछ ग्रहण करना चाहता है, तो वह इस प्रकार नियम पालन करके अपने उपवास को पूर्ण कर सकता है। इससे नियम उल्लंघन भी नहीं होगा तथा उसके उपवास को किसी प्रकार की क्षति भी नहीं होगी।
यदि किसी साधारण व्यक्ति को एकादशी उपवास पालन करने के लिए कहा जाए तो उसका उत्तर होगा, “मैं बिना भोजन ग्रहण किए मर जाऊंगा।” किन्तु यदि कोई धनवान व्यक्ति यह घोषणा करता है कि जो व्यक्ति एकादशी उपवास नियम का पूर्णतया पालन करेगा तथा सारा दिन व सारी रात्रि बिना निद्रा के भगवान के नाम का कीर्तन करेगा उसे पांच लाख रुपए पुरस्कार में मिलेंगे। तो हम सभी लोग इसके लिए तत्पर हो जाएंगे। प्रत्येक व्यक्ति पांच लाख रुपए के लिए उपवास करने को तत्पर हो जाएगा। किन्तु भगवान के लिए नहीं! तो क्या भगवान का मूल्य पांच लाख रुपए से कम है? यदि हमारा इस प्रकार का विचार है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान के विषय में हमें कोई ज्ञान नहीं है। यदि कोई पांच लाख के स्थान पर पचास हज़ार रुपए दे तो हम उसके लिए भी एकादशी उपवास करने के लिए तत्पर हो जाएंगे। यदि एकादशी उपवास भगवान की प्रसन्नता के लिए किया जाए तो हमें कष्ट का अनुभव होता है, किन्तु यदि एकादशी उपवास करने से हमें भौतिक लाभ की प्राप्ति हो रही हो तो हम उसके लिए तत्पर हो जाते हैं। यदि वैद्य हमारे किसी रोग का उपचार करने के लिए हमें भोजन ग्रहण करने के लिए निषेध करता है, तो हम उसके लिए तत्पर हो जाते हैं। किन्तु यदि भोजन का निषेध एकादशी उपवास नियम करने के लिए कहा जाए तो हमारा उत्तर होगा, “नहीं, मैं भोजन ग्रहण किए बिना नहीं रह सकता।” यदि हमें यह दृढ़ विश्वास हो जाए कि भगवान की कृपा होने पर हमें सब वस्तुओं की प्राप्ति हो जाएगी। तब हम सहज रूप से भगवान की प्रसन्नता के लिए एकादशी उपवास करने के लिए तत्पर हो जाएंगे। किन्तु हमें इस प्रकार का दृढ़ विश्वास नहीं है।
‘मोक्षदा ‘एकादशी की महिमा का उल्लेख करते हुए आगे बतलाया गया है कि राजा वैखानस ने अपने एकादशी उपवास का फल अपने पिता को अर्पण कर दिया। फलस्वरूप राजा के पिता नरक से मुक्ति प्राप्त कर स्वर्ग में वास करने लगे। उन्होंने अपने पुत्र से कहा, “मेरे प्रिय पुत्र, तुम्हारा कल्याण हो।”
क्या वास्तविकता में यही एकादशी का फल है? एकादशी तिथि का पालन वास्तविकता में महाराज अम्बरीष ने किया। उन्होंने मथुरा धाम के मधुवन नामक स्थान पर एक वर्ष तक वास कर एकादशी उपवास का पूर्णतया पालन किया। एकादशी उपवास पालन कर वे इतने श्रेष्ठ वैष्णव बन गए कि एक ब्राह्मण का श्राप भी उन्हें किसी प्रकार की क्षति ना पहुंचा सका। वे एकादशी उपवास का पालन पूर्ण रूप से शास्त्रों द्वारा अनुमोदित नियमों के अनुसार करते थे। वे दशमीं तथा द्वादशी में मात्र एक बार भोजन ग्रहण करते थे। एकादशी के दिन वह निर्जला (बिना जल के) उपवास करते थे। वह निर्धारित समय पर उपवास का पारण (उपवास की समाप्ति) करते थे। वे उपवास के साथ-साथ निष्ठा पूर्वक भगवान का भजन किया करते थे।
स वै मन: कृष्णपदारविन्दयो-
र्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने ।
करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु
श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥
मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ
तद्भृत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसङ्गमम् ।
घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे
श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥
पादौ हरे: क्षेत्रपदानुसर्पणे
शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने ।
कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया
यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रति: ॥
(श्रीमद् भागवतम् ९.४.१८ -१९)
धाम में वास कर एकादशी उपवास करते समय ऐसा नहीं था कि महाराज अम्बरीष वहां बैठ कर समय नष्ट करते थे। उन्होंने अपनी सभी इन्द्रियों को भगवान की सेवा में नियुक्त किया था। सर्वप्रथम उन्होंने अपने मन, जो सभी इन्द्रियों का राजा है को भगवान की सेवा में नियुक्त कर दिया। उन्होंने अपने करों (हाथ) को भगवान के विग्रह की पूजा अर्चन करने में नियुक्त किया। ‘अर्चन’ एक संस्कृत शब्द है। जिसका बंगाल में अधिक उपयोग होता है। हिन्दी में इसे ‘पूजन’ या ‘पूजा’ कहा जाता है। यहां विचार करने वाली बात यह है, क्या महाराज अम्बरीष को धन की कमी थी? वे भगवान की पूजा के लिए अनेक पुजारियों को नियुक्त कर सकते थे। किन्तु उन्होंने स्वयं अपने कर (हाथों) से भगवान की पूजा अर्चन तथा सेवा की। उन्होंने अपने राज्य का कार्यभार अपने मन्त्रियों को सौंप दिया तथा स्वयं को भगवान की सेवा में नियुक्त कर लिया। उन्होंने अपने कर्णों (कान) का उपयोग भगवान की हरिकथा तथा महिमा श्रवण करने में किया। उन्होंने अपने पाद (पैर) का उपयोग भगवान के मन्दिरों तथा धाम परिक्रमा में किया। उन्होंने अपने चक्षुओं (आंख) को भगवान के श्री विग्रह के दर्शन करने में तथा नासिका (नाक) को भगवान को अर्पण की गई सुगन्धित वस्तुओं की सुगन्ध लेने में नियुक्त किया। इस प्रकार उन्होंने अपनी सभी इन्द्रियों को सेवा में नियुक्त कर भगवान की निष्ठा पूर्वक सेवा की। इस प्रकार उन्होंने भजन-साधन किया। इस प्रकार केवल भोजन ना ग्रहण करके रहना उपवास नहीं कहलाता।
उपावृतस्य पापेभ्यो यस तु वसो गुनै: स,
उपवसह स विज्ञ: सर्व भोगा विवर्जितः।
(श्रीहरिभक्तिविलास १३-१४)
सभी प्रकार के पापों, अवगुणों ओर भोगों की इच्छा को त्याग कर तथा सभी प्रकार के सद्गुणों को अपनाकर कृष्ण के निकट वास करने का प्रयास ही वास्तव में एकादशी उपवास कहलाता है। हमें अपने मन में किसी भी प्रकार के भौतिक लाभों की कामना नहीं करनी चाहिए। उपाव्रतस्य पापेभ्यो- हमें सभी प्रकार के पापों को त्याग कर, सद्गुणों के साथ भगवान के निकट निवास करने का प्रयत्न करना चाहिए। समस्त प्रकार के भोगों को वर्जन करना हैं, क्योंकि हम केवल उन वस्तुओं का भोग कर सकते हैं, जो हमसे निकृष्ट हैं। भोग करने से संसार की अनित्य, जड़, मायिक वस्तु के साथ संग होगा भगवान् के निकट नहीं रह पाएंगे। इसलिए भगवान् के लिए समस्त इन्द्रियों को नियोजित करना किन्तु इस भौतिक शरीर द्वारा हम यह कैसे कर सकते हैं? वे ‘सच्चिदानन्द विग्रह’ हैं। वे चिन्मय वस्तु है। तब इसका क्या उपाय है?
इस संशय का समाधान चैतन्य चरितामृत में इस प्रकार दिया गया है-
दीक्षा काले शिष्य करे आत्मसमर्पण,
सेइ काले कृष्ण तारे करे आत्मसम
सेइ देह करे तारे सिद्ध आनन्द-मय,
अप्राकृति देहे कृष्ण चरण भजय।।
अर्थात् दीक्षा-मन्त्र लेते समय शिष्य गुरुदेव के चरणों का पूर्ण रूप से आश्रय ग्रहण कर उनके शरणागत हो जाता है। भगवान का अनन्य भक्त भगवान का कृपामूर्ति स्वरूप है। उसी प्रकार भगवान का विग्रह अवतार भगवान से सर्वथा अभिन्न है। भगवान शिष्य को श्री गुरुदेव के माध्यम से सिद्ध आनन्दमय अवस्था प्रदान करते हैं। जिसके द्वारा श्री भगवान की इस प्राकृतिक देह के द्वारा सेवा करना सम्भवपर हो जाता है।
यह तो ठीक है कि दीक्षा मन्त्र लेते समय शिष्य गुरुदेव का पूर्ण रूप से आश्रय ग्रहण कर उनके शरणागत हो जाता है। किन्तु मुख्य वस्तु यह है कि वह गुरु किस प्रकार का होना चाहिए? एक वास्तविक गुरु का, सद्गुरु का तथा शुद्ध भक्तों का संग प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है। इस विषय में बतलाते हुए महादेव शिव पार्वती से कहते हैं-
बाहवा गुरुवो सन्ति
शिष्य वित्तापा हारका,
दुर्लभ सद् गुरु देवी
शिष्य सन्ताप हारका।
अर्थात् ऐसे तथाकथित गुरु अनायास ही मिल जाते हैं, जिनका उद्देश्य शिष्यों के धन को हरना (छीन लेना) होता है। किन्तु ऐसा गुरु जो शिष्यों के कष्टों तथा दु:खों को हर कर उन्हें नित्य आनन्द प्रदान करते हैं, उनका मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। एक वास्तविक गुरु अपने शिष्य के सभी सन्ताप तथा कष्टों को दूर कर देता है। एक व्यक्ति को ऐसे ही गुरु का आश्रय ग्रहण करना चाहिए।
‘आदौ गुरुपदाश्रय’- सर्वप्रथम हमें एक प्रमाणिक सद्गुरु का आश्रय ग्रहण करना चाहिए। जो कि श्रील रूप गोस्वामी द्वारा वर्णित भक्ति के चौंसठ अंगों में से एक है।
आदौ गुरु पादाश्रय, दीक्षा गुरु सेवना
सद् धर्म शिक्षा परिच्छा, साधु मार्गानुगमना
कृष्णा प्रित्ये भोग त्याग, कृष्णा तीर्थे वास
यावन निर्वाह प्रतिग्रह, एकादशी उपवास
धात्री अश्वथ गौ,विप्र, वैष्णव पूजन
सेवा नामापराध दूरे विसर्जन।
जिस प्रकार गुरु का आश्रय ग्रहण कर उनके शरणागत होना भक्ति के चौंसठ प्रकार के अंगों में से एक है, उसी प्रकार एकादशी उपवास करना भी भक्ति के चौंसठ प्रकार के अंगों में से एक है। एक भक्त को एकादशी का उपवास क्यों करना चाहिए? उसको एकादशी का उपवास एकमात्र भगवान की प्रसन्नता के लिए करना चाहिए। इसका सबसे उत्तम उदाहरण महाराज अम्बरीष के जीवन चरित्र में मिलता हैं। जिन्होंने एकादशी उपवास का नियमपालन दृढ़ता पूर्वक और निष्ठा पूर्वक किया तथा एकादशी उपवास का पारण (समापन) शास्त्र निर्देशानुसार किया। एकादशी पारण (समापन) से पूर्व उन्होंने वहां उपस्थित सभी वैष्णवों तथा ब्राह्मणों को भोजन करवाया। एकादशी पारण (समापन) के दिन महाराज अम्बरीष के समक्ष एक असाधारण ब्राह्मण उपस्थित हुए। वह इतने शक्तिशाली थे की हजारों वर्ष तक बिना भोजन ग्रहण किए रह सकते थे तथा हजारों वर्ष का भोजन एक बार में ही ग्रहण कर सकते थे। उनका नाम मात्र सुनने से ही प्रत्येक व्यक्ति भयभीत हो जाता था। उनका नाम था ‘दुर्वासा ऋषि’। उन्होंने महाराज अम्बरीष से कहा, ” मैं दुर्वासा ऋषि आप के निमन्त्रण पर आपके समक्ष उपस्थित हुआ हूं।” उनके दर्शन कर महाराज अम्बरीष को अत्यन्त प्रसन्नता हुई तथा उच्च कोटि के ब्राह्मण वैष्णव को अपने स्थान पर आया देख वह स्वयं को महासौभाग्यशाली अनुभव करने लगे। उन्होंने ऋषि दुर्वासा का आदरपूर्वक अभिवादन किया तथा उनसे द्वादशी तिथि (एकादशी से आगामी दिन) पर प्रसाद ग्रहण करने की प्रार्थना करते हुए कहा, “यदि आप मेरा निमन्त्रण स्वीकार करें तो मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी।” ऋषि दुर्वासा ने निमन्त्रण स्वीकार करते हुए कहा, “मैं अभी यमुना स्नान के लिए जा रहा हूं। तत्पश्चात मैं आकर प्रसाद ग्रहण करूंगा।” यह कहकर वह यमुना नदी में स्नान करने चले गए। किन्तु वहां जाकर यमुना जी के दर्शन कर वह ब्रह्मानन्द (समाधि योग) में मग्न हो गए। इधर एकादशी उपवास के पारण (समापन) का समय समीप आ रहा था। उपवास पूर्ण करने के लिए इसे शास्त्र निर्देशानुसार दिए गए समय पर समापन करना आवश्यक होता है। यह विचार कर महाराज अम्बरीष भयभीत हो गए कि “बिना ऋषि को भोजन खिलाए वह स्वयं कैसे ग्रहण कर सकते हैं? इस स्थिति में उनका क्या कर्तव्य है?”
इस विषय में महाराज अम्बरीष ने ब्राह्मणों से विचार विमर्श किया। ब्राह्मणों ने उन्हें परामर्श दिया, “क्योंकि आपने एकादशी उपवास बिना भोजन तथा जल ग्रहण किए पूर्ण किया है, इसलिए आप जल की कुछ विन्दू (बूंदें) ग्रहण कर सकते हैं। आपके द्वारा जल की कुछ विन्दु ग्रहण करना, भोजन ग्रहण करने तथा भोजन ना ग्रहण करने, दोनों ही श्रेणीयों में माना जाएगा। इससे आपको कोई अपराध भी नहीं लगेगा। ब्राह्मणों की आज्ञा प्राप्त कर महाराज अम्बरीष ने जल की कुछ बूंदें ग्रहण की। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर अपनी टीका में वर्णन किया है कि महाराज अम्बरीष की महिमा इस जगत में प्रकाशित करने के लिए ऋषि दुर्वासा ने इस प्रकार की लीला की। उन्हें इस सम्पूर्ण घटना का पूर्व से ही ज्ञान था। क्योंकि वे एक ब्रह्म ज्ञानी थे। यमुना स्नान के पश्चात वह महाराज अम्बरीष के समीप आए तथा उनके समक्ष अपना क्रोध प्रकट करते हुए कहा, “आप सम्पूर्ण पृथ्वी के सम्राट हैं, तथा आप एक धार्मिक व्यक्ति हैं।” इतने उच्च पद पर आसीन होकर भी आपने नियम को तोड़ा है। क्या मैं आपके पास भोजन ग्रहण करने के लिए आया था? नहीं! आपने स्वयं मुझे आमन्त्रित किया था। मैं एक सन्यासी ब्राह्मण हूं तथा आपने मुझसे से पहले भोजन ग्रहण कर लिया? जब कोई अतिथि घर पर आता है, तब सर्वप्रथम उसे भोजन देना चाहिए तत्पश्चात स्वयं ग्रहण करना चाहिए। यह संसार सदैव श्रेष्ठ व्यक्ति का अनुसरण करता है। किन्तु यदि कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति या आपके जैसा राजा ऐसा कार्य करेगा तो उससे इस समाज को किसी भी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं होगा। इस प्रकार का आचरण सम्पूर्ण समाज का विनाश कर देगा। मैं आपको इस प्रकार की अनुमति नहीं दूंगा। मैं तुम्हें ऐसा दण्ड प्रदान करूंगा कि भविष्य में कोई भी इस प्रकार का आचरण करने का दुस्साहस नहीं करेगा। तब उन्होंने अपने सिर के एक केश को खींच कर पृथ्वी पर फेंक दिया। वहां से हाथ में तलवार लिए कृत्या नामक देवी प्रकट हुई। वह महाराज अम्बरीष को मारने के लिए भागी। तब महाराज अम्बरीष ने दोनों हाथों को जोड़कर कहा, “आपको मुझे दण्ड प्रदान करने का पूरा अधिकार है। क्योंकि आप मेरे लिए प्रत्येक दृष्टिकोण से श्रेष्ठ तथा सम्मानीय हैं। इसलिए मैं आपका दण्ड स्वीकार करता हूं।”
तब भगवान ने सुदर्शन चक्र को महाराज अम्बरीष की रक्षा करने का आदेश देते हुए कहा, “बाहरी रूप से ऐसा प्रतीत होता है कि महाराज अम्बरीष एक गृहस्थ तथा एवं पूरी पृथ्वी का सम्राट है किन्तु विषयों में उनकी कोई आसक्ति नहीं है।उन्होंने पूर्ण रुप से मेरा आश्रय ग्रहण किया है। वह शरणागत होकर सर्वदा, सर्वेन्द्रियों से मेरी सेवा करता है। वह जब भी संकट में हों तुम जाकर उनकी रक्षा करना।”
सम्पूर्ण पृथ्वी का राजा होने पर भी महाराज अम्बरीष का इस जगत के विषयों के प्रति आसक्ति नहीं थी।
अम्बरीषो महाभाग: सप्तद्वीपवतीं महीम् ।
अव्ययां च श्रियं लब्ध्वा विभवं चातुलं भुवि ॥
मेनेऽतिदुर्लभं पुंसां सर्वं तत् स्वप्नसंस्तुतम् ।
विद्वान् विभवनिर्वाणं तमो विशति यत् पुमान् ॥
(श्रीमद् भागवतम् ९.४. १५ -१६)
इस जगत में किसी व्यक्ति के पास जितना अधिक धन तथा वैभव होता है, उसे उतना अधिक सौभाग्यशाली माना जाता है। किन्तु महाराज अम्बरीष महा सौभाग्यशाली थे। क्योंकि वे सम्पूर्ण पृथ्वी के स्वामी थे। उनके समान वैभवशाली इस जगत में कोई नहीं है। महाराज अम्बरीष सात द्वीपों के स्वामी थे। किन्तु इन सब वस्तुओं को स्वपन की भान्ति मानते थे। किन्तु क्या हम उनके समान विचार कर सकते हैं? क्या हम एक करोड़, एक लाख या एक हज़ार रुपए के लिए अपनी आसक्ति छोड़ सकते हैं? उन्होंने पृथ्वी के सम्पूर्ण वैभव तथा धन को भगवान की सेवा से सम्बन्धित वस्तु माना, “मैं इन वस्तुओं का वास्तविक भोगी नहीं हूं, मैं स्वयं भगवान से सम्बन्धित हूं।” कोई भी इस सम्पत्ति का स्वामी नहीं है। कोई भी भोगी या कर्ता नहीं है। यदि कोई व्यक्ति भोग करने का प्रयास करता है तो उसे नरक में जाना पड़ता है। महाराज अम्बरीष छत्रपति सम्राट थे। वे किसी देश के राष्ट्रपति नहीं थे। जिनको वोट देकर नियुक्त किया जाता है तथा कुछ लोगों के द्वारा पद से हटाया जा सकता है। किन्तु कोई भी उनके पद को क्षति नहीं पहुंचा सकता था। किन्तु उनकी इस पद तथा वैभव के प्रति कोई आसक्ति ना थी। दूसरी ओर मेरे जैसा व्यक्ति जो दूसरों से भिक्षा में धन एकत्र कर मठ मन्दिर का निर्माण करता है, स्वयं को स्वामी अनुभव करता है। क्या यह सही है? देवस्य अपहरण तथा ब्रह्मस्य से अपहरण भयंकर अपराध की श्रेणी में आते हैं। उदाहरण के लिए नृगराज जो कि एक धार्मिक राजा थे तथा महान दानवीर भी थे। किन्तु एक छोटी सी भूल के कारण उन्हें ब्रह्मस्य अपराध का फल भोगना पड़ा। राजा होते हुए भी उन्हें गिरगिट योनि भोग करनी पड़ी। इसलिए यदि आप धन के प्रति लोभी हैं, तो आप धन कमा सकते हैं किन्तु स्वयं को धन का भोगी नहीं मान सकते। क्योंकि वास्तविक भोक्ता एकमात्र भगवान हैं, जो सभी ब्रह्माण्डों के एकमात्र स्वामी हैं। महाराज अम्बरीष ने केवल भगवान को एकमात्र भोक्ता माना। बाहरी रूप से देखने पर हम उन्हें एक साधारण विषयी व्यक्ति मान सकते हैं। किन्तु वे ऐसे नहीं थे। उनकी किसी भी संसार की वस्तु में आसक्ति नहीं थी।
ये दारागारपुत्राप्तप्राणान् वित्तमिमं परम् ।
हित्वा मां शरणं याता: कथं तांस्त्यक्तुमुत्सहे ॥
(श्रीमद् भागवतम् ९.४. ६५)
भगवान ने ऋषि दुर्वासा से कहा, “महाराज अम्बरीष ने मेरे लिए न केवल समुद्र के समान विशाल राज्य का त्याग किया अपितु मेरे लिए उन्होंने अपनी स्त्री, पुत्र, पुत्री, बन्धु, सम्बन्धियों तथा समाज का भी त्याग कर मेरा आश्रय ग्रहण किया। किन्तु इसके पश्चात भी जब ऋषि दुर्वासा ने भगवान से क्षमा याचना के लिए निवेदन किया तब भगवान ने कहा,
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय: ॥
(श्रीमद् भागवतम् ९.४. ६3)
“मैं भक्तों की भक्ति द्वारा वशीभूत हो जाता हूं। इसलिए मेरे हृदय पर भक्तों का अधिकार हो जाता है। जिस हृदय से मैं कृपा करता हूं, वह हृदय मेरे पास नहीं है। करुणा सदैव हृदय में उत्पन्न होती है तथा मेरा हृदय भक्तों के पास है।”
अर्थात् मेरा यह प्रण है कि यदि कोई मेरी सेवा करता है तो मैं उसका ऋण नहीं रखता। मैं उसको उसके द्वारा की गई सेवा का फल प्रदान करता हूं। किन्तु एक शुद्ध भक्त एकमात्र मेरी सेवा छोड़कर अन्य किसी प्रकार की आशा नहीं रखता। इसीलिए मैं उनकी भक्ति के वशीभूत हो जाता हूं। करुणा हृदय में उत्पन्न होती है तथा मेरा हृदय मेरे भक्तों के पास है।
भगवान से कोई भी छल नहीं कर सकता। गृहस्थ निकृष्ट है तथा सन्यासी उत्कृष्ट है, ऐसा नहीं है। भगवान की दृष्टि में सभी समान हैं। वह गृहस्थ तथा सन्यासी में अन्तर नहीं करते। वह उनकी क्रियाओं को देखते हैं तथा उसी के अनुसार फल देते हैं। इस फल या परिणाम को कोई भी परिवर्तित नहीं कर सकता।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सग्ड़ोस्त्व कर्मणि।
“अर्थात् हमारे द्वारा किए गए कर्मों का फल भगवान के हाथों में हैं। वह इस जगत के भौतिक व्यक्ति के हाथों में नहीं है। यदि आप घृणित कार्य करेंगे तो आप उसके लिए अच्छे फल की आशा नहीं कर सकते।”
जब सुदर्शन ऋषि दुर्वासा को दण्डित करने के उद्देश्य से उनके पीछे भागे तब ऋषि दुर्वासा भगवान नारायण की शरण में गए जो कि ब्रह्मा तथा शिव के भी नियन्ता हैं। किन्तु भगवान नारायण ने उनसे कहा, “मैं सुदर्शन से आपकी रक्षा नहीं कर सकता। एकमात्र महाराज अम्बरीष ही आपकी रक्षा कर सकते हैं।”
उधर महाराज अम्बरीष ऋषि दुर्वासा के जाने से अत्यन्त दुखी थे। एक ब्राह्मण सन्यासी मेरे द्वार पर आये तथा बिना भोजन ग्रहण किए चले गए। यह विचारकर उन्होंने बिना भोजन ग्रहण किए एक वर्ष तक मात्र जल ग्रहण कर जीवन यापन किया। महाराज अम्बरीष मिथ्या अहंकारी नहीं थे। इसीलिए उन्होंने इस प्रकार नहीं सोचा कि, “यह मेरा अपराध नहीं है, यह तो ऋषि दुर्वासा का दोष है। इसीलिए उन्हें मेरे पास आना पड़ा।” उन्होंने ऋषि दुर्वासा से कहा कि, “आप मेरे मंगल के उद्देश्य से यहां आए हैं। कृपया मुझ पर कृपा करें।” किन्तु ऋषि दुर्वासा ने महाराज अम्बरीष से कहा कि ” हे महाराज अम्बरीष, यह सुदर्शन मुझे अत्यन्त ताप प्रदान कर रहा है। आप कृप्या मेरी इस सुदर्शन से रक्षा करें। मैं भगवान नारायण के पास सुदर्शन से अपनी रक्षा हेतु प्रार्थना लेकर गया था। किन्तु उन्होंने मुझे आपके पास आने का परामर्श दिया।” तब महाराज अम्बरीष ने सुदर्शन के समक्ष प्रार्थना करते हुए कहा कि, “मेरे समस्त पुण्यों के फलस्वरूप यह ब्राह्मण सुदर्शन चक्र के ताप से मुक्त हो जाएं” किन्तु सुदर्शन चक्र शान्त नहीं हुए। तब महाराज अम्बरीष ने दोबारा सुदर्शन चक्र से प्रार्थना की, “यदि मेरे किसी प्रकार के भजन के भगवान प्रसन्न हुए हों तो फलस्वरूप यह ब्राह्मण सुदर्शन चक्र के ताप से मुक्त हो जाएं।” महाराज अम्बरीष द्वारा इस प्रकार प्रार्थना करने पर सुदर्शन शान्त हो गए तथा ऋषि दुर्वासा को सुदर्शन के ताप से मुक्ति मिल गई। इस प्रकार उन्होंने ऋषि दुर्वासा की रक्षा की। जो उन्हें मारने के लिए आए ऐसे व्यक्ति के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दे दिया। क्या हम उस स्तर की निष्ठा प्राप्त कर सकते हैं?
महाराज अम्बरीष ने अपनी सभी इन्द्रियों तथा मन को भगवान की सेवा में नियोजित कर दिया था। हम जहां भी अपनी ऊर्जा तथा इन्द्रियों को कार्यरत करेंगे हमारा मन उधर ही जाएगा। इसीलिए इन्द्रियों को भगवान की सेवा में नियोजित करने के लिए शास्त्रों में भक्ति के पांच मुख्य अंगो का वर्णन किया गया है:
साधुसंग, नाम कीर्तन, भागवत श्रवण,
मथुरावास, श्रीमूर्ति श्रद्धाय सेवन।
(श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य २२.१२८)
“भक्ति में उन्नति के लिए एक व्यक्ति को विशुद्ध साधुओं का संग, भगवान के पवित्र नामों का कीर्तन, श्रीमद् भागवतम श्रवण, मथुरा धाम में वास तथा श्रद्धा पूर्वक श्री विग्रह की सेवा करनी चाहिए।”
जब हमारी इन्द्रियां रूप, रस तथा गन्ध इत्यादि वस्तुओं के सम्पर्क में आती हैं तो वह तृप्त होकर सुख का अनुभव करतीं हैं। जिस प्रकार हमारे जीवन में सुख आते हैं, उसी प्रकार इच्छा ना होने पर हमारे जीवन में दुःख भी आते हैं। जिस प्रकार दुःख स्वयं आते हैं, उसी प्रकार सुख भी स्वयं आते हैं। उसके लिए हमें प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है। कर्मों के आधार पर सुख तथा दुःख दोनों स्वत: ही हमें प्राप्त होते हैं। इसके लिए कोई अन्य व्यक्ति उत्तरदायी नहीं होता। हम अपने दुःखों के लिए दूसरों को उत्तरदायी मानते हैं। किन्तु वे केवल माध्यम है, कारण नहीं। मेरे दु:खों का कारण मैं स्वयं हूं, कोई दूसरा व्यक्ति नहीं। हमें सदैव अपने दोषों को देखना चाहिए, दूसरों के नहीं। जिस प्रकार ध्रुव ने किया। ध्रुव ने अपनी माता के निर्देशों का पालन किया। ध्रुव की माता ने उन्हें उपदेश किया कि वह अपने कष्टों के लिए अपनी सौतेली माता को उत्तरदायी ना ठहराए। यदि हम किसी के प्रति द्वेष लेकर भगवान की भक्ति करेंगे तो हमारा पूरा जीवन व्यर्थ चला जाएगा तथा हम अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाएंगे। भगवान सब वस्तुओं को नियन्त्रित कर रहे हैं। वह सर्वज्ञ हैं। वे सब जानते हैं किसके हृदय में क्या भाव है।
इसका प्रमाण हमें प्रतिष्ठानपुर के ब्राह्मण के प्रसंग में मिलता है, जो अत्यन्त निर्धन थे तथा जिसके लिए एक समय का भोजन प्राप्त करना भी कठिन था। किन्तु इतनी निर्धनता होने पर भी वे प्रतिदिन नियम भंग किए बिना भगवान नारायण की पूजा करते थे। एक दिन ब्राह्मण के मन में भगवान को भोग में खीर अर्पित करने की इच्छा हुई। उन्होंने उस खीर को मानसिक रूप से तैयार किया। उन्होंने सोचा यदि मैं प्रत्यक्ष रूप से खीर बनाने जाऊंगा तो बहुत अधिक समय लगेगा तथा भगवान को भोग अर्पण करने का समय हो चुका है। इसलिए उन्होंने मानसिक रूप से खीर को एक कटोरे में डालकर भगवान को भोग अर्पण किया। अकस्मात् उन्होंने अनुभव किया की खीर बहुत गर्म होगी तथा बहुत अधिक गर्म वस्तु भगवान को भोग में अर्पण नही की जा सकती। उन्होंने इसका सत्यापन करने के लिए अपनी उंगली खीर वाले कटोरे में डाली। किन्तु वह यह सब मानसिक रूप से कर रहे थे। ना तो वहां प्रत्यक्ष रूप से कोई खीर थी, ना कोई अग्नि तथा ना ही कोई अन्य वस्तु। सब कुछ मानसिक रूप से हो रहा था। जैसे ही उन्होंने अपनी उंगली कटोरे में डाली तो वह जल गई। वह यह सोच कर चिन्तित हो गए तथा विचार करने लगे की मुझसे अवश्य ही भगवान के चरण कमलों में कोई अपराध हुआ है। ब्राह्मण द्वारा की गई इस प्रकार की सेवा क्रिया के साक्षी भगवान जो वैकुण्ठ में लक्ष्मी द्वारा सेवित हो रहे थे, अचानक जोर-जोर से हंसने लगे। जब लक्ष्मी देवी ने इसका कारण पूछा, तो उन्होंने ब्राह्मण के सेवा मनोभाव के बारे में बतलाया। इतना विशाल ब्रह्माण्ड होने पर भी प्रभु को यह ज्ञात है कि इसके प्रत्येक कोने में क्या हो रहा है। भगवान प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा रूप से स्थित होने के कारण उसके द्वारा की गई प्रत्येक प्रतिक्रिया को जानते हैं। आपने उनके साथ छल नहीं कर सकते।
क्योंकि भगवान प्रत्येक जीव के हृदय में विराजित हैं इसलिए हमें किसी भी जीव को पीड़ा या कष्ट नहीं देना चाहिए। वह सभी के द्वारा की गई क्रियाओं के साक्षी हैं। भगवान से कोई भी छल नहीं कर सकता। यह असम्भव है। यदि हमें इस पर विश्वास नहीं करेंगे तो हमारा भजन करना असम्भव है। हमें उनके प्रति दृढ़ विश्वास रखना चाहिए। यदि हम दृढ़ विश्वास के साथ भगवान की भक्ति करेंगे तब हमें अपने हृदय में उनकी उपस्थिति का अनुभव होगा।
शृण्वत: श्रद्धया नित्यं गृणतश्च स्वचेष्टितम् ।
कालेन नातिदीर्घेण भगवान् विशते हृदि ॥
(श्रीमद् भागवतम २. ८. ४ )
दृढ़ विश्वास के साथ भगवान की भक्ति करने से हृदय में भगवान की उपस्थिति का अनुभव होता है। यदि हमारा इस पर विश्वास नहीं होगा तो हम पुन: पुन: जन्म मृत्यु के चक्र में घूमते रहेंगे। इस चक्र से निकलने का एकमात्र उपाय भगवान के पवित्र नामों का जाप करना है। भगवान के नामों का जाप करने के लिए कोई विशेष नियम निर्धारित नहीं किया गया है। इसका वर्णन चैतन्य चरितामृत के अन्त्य खंड (२०/१८) में किया गया है।
खाइते शुइते यथा तथा नाम लय
देश काल नियम नाही सर्व सिद्धि हय।
किसी भी समय या स्थान पर भगवान के नामों का कीर्तन करने से यहां तक की भोजन ग्रहण करते समय तथा शयन करते समय भी भगवान के नाम का कीर्तन करने से सभी प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है।
भोजन ग्रहण करते समय या शयन करते समय भी भगवान के नामों का कीर्तन किया जा सकता है। कलियुग में भगवान के नामों का कीर्तन करने के लिए कोई विशेष प्रकार के नियम नहीं बनाए गए हैं। जब कोई व्यक्ति भगवान के नाम का कीर्तन करता है तो भगवान उसे प्रसन्न होते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं, “कलियुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहि पारा ” कलियुग में बद्ध जीवों के लिए एकमात्र भगवान का नाम ही आश्रय है। भगवान का नाम जपने मात्र से ही जीव का उद्धार निश्चित है।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।
(वराह नारदीय पुराण ३८.१२६)
अर्थात् यहां पर इस बात का सत्यापन करने के लिए तीन बार दृढ़ता पूर्वक कहा गया है, “हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव” केवल मात्र “हरिनाम, हरिनाम, हरिनाम” ही उपाय है। यदि यह पूछा जाए क्या कलियुग में ओर कोई उपाय है? तो उसके लिए कहा गया है, कलियुग में ओर कोई उपाय ” निश्चित ही नहीं है, निश्चित ही नहीं है, निश्चित ही नही है।”
हैदराबाद में एक सज्जन व्यक्ति थे। उन्होंने मुझे एक यज्ञ के अनुष्ठान के लिए आमन्त्रित किया। जिसका आयोजन उन्होंने अपने घर पर किया था। उन्होंने बतलाया कि वह सौ किलोग्राम घी यज्ञ में आहुति के रूप में डालेंगे। मैंने उनसे कहा कि आज के समय में गाय के दूध से बना शुद्ध देसी घी उपलब्ध नहीं है तथा यज्ञ के लिए दूषित (मिलावटी) दूध उपयोग करने से अपराध होगा। मैंने उन्हें यह भी बतलाया कि शास्त्रों में कलियुग के जीवों के लिए यज्ञ की व्यवस्था नहीं है। कलियुग के जीवों के लिए शास्त्रों में एकमात्र भगवान हरि के नाम कीर्तन का निर्धारण किया गया है। उसके उत्तर में उन्होंने मुझे कहा कि वह नाम संकीर्तन का आयोजन भी करवा रहे हैं। वह मुझे अपने स्थान पर ले जाने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे। उन्होंने मेरे लिए एक कार की व्यवस्था भी की। उनके अत्यन्त आग्रह पर मैं उनके स्थान पर गया तथा देखा कि उन्होंने यज्ञ के लिए बहुत अच्छी व्यवस्था की हुई थी। जब वे मुझे वह सब व्यवस्था दिखा रहे थे तब मैंने उनसे पूछा, “नाम संकीर्तन की व्यवस्था कहां की गई है।” तब उन्होंने मुझे दिखलाया की एक छोटे से कोने में दो तीन व्यक्ति बिना किसी उत्साह के कीर्तन कर रहे थे। उनके लिए महत्वपूर्ण वस्तु उस घी की मात्रा थी जो उन्होंने यज्ञ में उपयोग करना था। तब मैंने उनसे कहा, यदि आपका यज्ञ के लिए इतना आग्रह है तो आपको अपने स्थान पर गाय की व्यवस्था करनी चाहिए जिससे आपको यज्ञ के लिए गाय के दूध से बना शुद्ध घी प्राप्त हो सके। कलियुग में यह सब सम्भव नहीं है। इसीलिए कलियुग में भगवान के पवित्र नामों के कीर्तन करने की व्यवस्था की गई है।
जब मैंने गुरूजी का पहली बार दर्शन किया तो उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व से मैं आकर्षित हो गया। जिन्होंने गुरूजी का दर्शन किया है वे सब उनके व्यक्तित्व के बारे में जानते हैं। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित एक भजन (गीत) मेरे जीवन पर पूर्ण रूप से लागू होता है:-
एमन दुर्मति, संसार भितरे, पड़िया आछिनु आमि।
तव निज-जन, कोन महाजने, पाठाइया दिले तुमि।।1
दया करि मोरे,पतित देखिया, कहिल अमारे गिया।
ओहे दीनजन,शुन भाल कथा, उल्लसित हबे हिया।।2
तोमारे तारिते, श्री कृष्णचैतन्य, नवद्वीपे अवतार।
तोमा हेन कत, दीन हीन जने, करिलेन भवपार।।3
वेदेर प्रतिज्ञा, राखिवार तरे, रुक्मवर्ण विप्रसुत।
महाप्रभु नामे, नदीया माताय, संगे भाई अवधूत।।4
नन्दसुत जिनि,चैतन्य गोसाईं, निज नाम-करि दान।
तारिल जगत्, तुमिओ जाइया, लह निज-परित्राण।।5
से कथा शुनिया,आसियाछि, नाथ!तोमार चरणतले।
भक्तिविनोद कांदिया-कांदिया, आपन काहिनी बले।।6
श्रीगौरांग महाप्रभु ने अपने निज-जन हमारे गुरुजी को हमारे पास भेज दिया। श्रीभक्ति विनोद ठाकुर ने उनकी गीति में असत्य नहीं लिखा। हमारे गुरुजी हमारे छोटे से शहर आए। अत्यंत स्नेह और वात्सल्य से उन्होंने हमें उनकी ओर आकर्षित कर लिया। हमने कितने अपराध किए, किन्तु गुरुजी क्षमा गुण के अवतार (मूर्तिमान स्वरुप) है, अत्यंत दयालु है, कोई व्यक्ति लाखों- लाखों जन्म भ्रमण करके भजन के पथ पर आया, तो उसके कितने भी अवगुण सहन करके भी उसे मठ में रहने का स्थान दिया। हमको शिक्षा दी किसी व्यक्ति में कितने भी अवगुण है तुम सहन करो, यदि अवगुण देखकर उस व्यक्ति को मठ से निकल देंगे तो कितने जन्म के बाद यहाँ आया फिर संसार में चला जायेगा।
गुरुदेव कृपा बिंदु दिया कर एइ दासे तृणापेक्षा अति हीन,
सकल-सहने बल दिया कर, निज माने स्पृहाहीन
सकले-सम्मान करिते शकति, देह नाथ! यथायथ
तृणादिक हीन, दीन एवं अमानी मानद होकर सदैव कीर्तन करने की शक्ति कौन प्रदान करेगा? गुरुदेव करेंगे।
श्री गुरुचरणपद्म, केवल भक्ति सद्म, वन्दों मुई सावधान मते।
याँहार प्रसादे भाई, ए भव तरिया याइ, कृष्ण प्राप्ति हय याँहा ह’ते।।
जिस कृष्ण को प्राप्त करने के लिए हम आए हैं, गुरुदेव ही हमें उस कृष्ण को प्रदान कर सकते हैं। यदि गुरुदेव के चरणों में अपराध करेंगे तो सब मार्ग बंद हो जायेंगे।
श्री गुरु करुणासिन्धु अधम जनार बन्धु, लोकनाथ लोकेर जीवन।
श्री गुरुदेव करुणा के सिन्धु हैं एवं अधम जनों के बन्धु हैं।
हा हा प्रभो! कर दया, देह मोरे पदछाया, ऐबे यश घुषुक त्रिभुवन।
ये सब कीर्तन नरोत्तम ठाकुर ने लिखे हैं।
तुमि तो दयार सिन्धु, अधम जनार बन्धु,
मोरे प्रभो! करो अवधान।
गुरु दया के सिन्धु हैं, मूल गुरु कौन हैं? कृष्ण हैते चतुर्मुख.. मूल गुरु कृष्ण हैं। गुरु में जो स्नेह है, वह कहाँ से आ रहा है? सूर्य का प्रकाश, किरणें सूर्य से आती हैं। नरोत्तम ठाकुर प्रार्थना करते हुए कहते हैं, “मुझ पर कृपा दृस्टि डालिए।”
पडिनु असत भोले, काम तिमिंगिले गिले,
ओहे नाथ! करो परित्राण!
तिमि मछली (whale) को जो खा लेती है उसे तिमिंगिल कहते हैं, तिमिंगिल is a marine creature which swallow even a whale (एक समुद्री जीव, जो व्हेल को भी निगल सकता है।) तिमि मछली बहुत बड़ी होती है, यहाँ तक कि वह एक बहुत बड़े समुद्री जहाज को भी रोक सकती है, और तिमिंगिल उस तिमि मछली को भी खा लेती है। काम रूपी तिमिंगिल ने हमें निगल लिया है, हे नाथ! आप हमारा परित्राण करो।
यावत् जनम मोर, अपराधे हैनु भोर,
निष्कपटे न भजिनु तोमा।
तथापिह तुमि गति, ना छाड़िह प्राणपति,
मोर सम नाहिक अधमा।।
जब से जन्म हुआ तब से मैं अपराध कर रहा हूँ। भजन के नाम पर मात्र कपट ही कर रहा हूँ, निष्कपटे ना भजिनु तोमा..
मेरे जैसा अपराधी और कोई नहीं है, फिर भी भगवान ही एकमात्र आश्रय है।
‘पतित-पावन ‘ नाम, घोषणा तोमर श्याम,
उपेखिले नहीं मोर गति।
आपका नाम पतित-पावन, यह घोषणा आपने ही की है। नाम का आश्रय करने से सब का उद्धार होगा।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
We should pay attention that how I can be rescued?
यदि हउँ अपराधी, तथपिह तुमि गति,
सत्य सत्य येन सतीर पति।।
सती स्त्री कभी भी सद-पति को छोड़ती नहीं है, सदैव पति के आश्रय में रहती है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
तुमि तो परम देवा, नहीं मोरे उपेखिवा, शुन शुन प्राणेर ईश्वर।
यदि करों अपराध, तथापिह तुमि नाथ, सेवा दिया कर अनुचर।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
कामे मोर हत चित, नाहि शुने निज हित,
मनेर ना घुचे दुर्वासना।
मोरे नाथ अंगीकुरु, तुमि वाञ्छा-कल्पतरु,
करुणा देखुक सर्वाजना।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
मो सम पतित नाइ, त्रिभुवने देख चाइ,
‘नरोत्तम-पावन’ नाम धर।
घुषुक संसारे नाम, पतित उद्धार श्याम,
निज-दास कर गिरिधर।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
नरोत्तम बड़ दुःखी, नाथ मोरे कर सुखी,
तोमार भजन-संकीर्तने।
अन्तराय नाहि याय, एइ से परम-भय,
निवेदन करि अनुक्षणे।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
नरोत्तम बड़ दुःखी, नाथ मोरे कर सुखी,
तोमार भजन संकीर्तने।
अन्तराय नहीं याय, एइ से परम भय,
निवेदन करि अनुक्षणे।।
(भजन का) अन्तराय जाता नहीं है, मैं क्या करू, कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। इसलिए जब भगवान कृपा करे तब भजन हो सकता हैं, नहीं तो नहीं हो सकता। इसलिए अनुक्षण भगवान से निवेदन कर रहा हूँ, जब कृष्ण की कृपा हो, कृष्ण से अभिन्न स्वरूप गुरुदेव की कृपा हो तब हो सकता है।
वाञ्छा-कल्पतरूभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च….