श्रील गुरुदेव इस हरिकथा में एकादशी-व्रत पालन करने के लाभ के विषय में बतातें हैं। शास्त्र मुख्य रूप से दो भाग में विभाजित हैं—स्मार्त शास्त्र व भक्ति शास्त्र। स्मार्त शास्त्रों में एकादशी-व्रत पालन करने से मिलने वाले जागतिक अनित्य लाभ के विषय में लिखा गया है। श्रील गुरुदेव हमें सावधान करते हुए कहते हैं कि हमें एकादशी-व्रत सांसारिक लाभ व उन्नति के लिए नहीं करना है। इस प्रकार के लाभ के विषय में शास्त्रों में लिखे गए वाक्यों का उद्देश्य, जागतिक भोगों के प्रति आसक्त व्यक्तिओं को एकादशी-व्रत पालन करने के लिए प्रेरित करना ही है। भक्ति-मार्ग के साधक के लिए एकादशी-व्रत केवल भगवान श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए करना ही विधान है।
आज हरिवासर तिथि है। भगवान हरि की अत्यन्त प्रिय तिथि है। हरिवास तिथि अर्थात एकादशी तिथि। आज की एकादशी तिथि सफला एकादशी के नाम से सुप्रसिद्ध है। शास्त्रों के कर्मकाण्ड खण्ड में एकादशी व्रत के भौतिक लाभों का उल्लेख किया गया है। ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार युधिष्ठिर महाराज और भगवान कृष्ण संवाद में, युधिष्ठिर महाराज कृष्ण से पूछते हैं, “हे कृष्ण, पौष मास की कृष्ण पक्ष एकादशी की क्या महिमा हैं?” भगवान कृष्ण उत्तर देते हुए कहते हैं कि, पौष मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम सफला एकादशी है। जिस प्रकार नागों में शेषनाग श्रेष्ठ हैं, यज्ञों में अश्वमेघ यज्ञ प्रसिद्ध है तथा नरों (मनुष्यों) में ब्राह्मण श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सभी व्रतों में एकादशी व्रत सर्वोत्तम है। पांच हजार वर्ष तपस्या करने पर जिस फल की प्राप्ति होती है, वह फल एक एकादशी व्रत पालन करने से सहज ही प्राप्त हो जाता है।
शास्त्रों में इस प्रकार के अस्थायी लाभों का वर्णन करने का उद्देश्य एकमात्र इस संसार के बद्ध जीवों को आकर्षित कर एकादशी तिथि का पालन करवाना है। यदि हम किसी बद्ध(संसारिक)जीव को कहें कि यदि तुम एकादशी व्रत पालन करने के लिए एक दिन और एक रात्रि बिना कुछ खाए तथा जल ग्रहण किए सारी रात्रि जागरण करोगे तो तुम्हें भगवान की प्राप्ति होगी। तब वह व्यक्ति कहेगा कि मैं इस प्रकार का व्रत पालन करने में असमर्थ हूँ। मेरा स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं है और मुझे समय-समय पर डॉक्टर के पास चिकित्सा के लिए जाना होता है। मैं बिना भोजन और निद्रा के मर जाऊंगा।
यदि हम उस व्यक्ति से कहें कि इस तिथि पालन करने से तुम्हें भगवान की प्राप्ति होगी तो वह कहेगा,” कि भगवान को किसने देखा है”। किन्तु यदि कोई धनी व्यक्ति आकर यह घोषणा करता है कि जो एकादशी तिथि का पालन बिना कुछ खाए तथा सोए करेगा उस व्यक्ति को पांच लाख रुपए दिए जायेंगे तो हर कोई सहर्ष उसे करने के लिए तत्पर हो जाएगा। वे सोचेंगे कि यदि एकादशी व्रत का पालन करते समय उसकी मृत्यु भी हो जाती है तो ये पांच लाख रुपए से उसके परिवार को सहायता होगी। इस प्रकार हम मात्र पांच लाख रुपए के लिए एकादशी व्रत का पालन करने को तत्पर हो जाते हैं किन्तु भगवान की प्रसन्नता और उनके दिव्य प्रेम प्राप्ति के लिए एकादशी व्रत का पालन नहीं करते।
इसलिए शास्त्रों में सांसारिक जीवों को एकादशी व्रत का पालन करवाने के लिए इस प्रकार के भौतिक लाभों का उल्लेख किया गया है। किन्तु शुद्ध भक्त इस प्रकार के भौतिक लाभों द्वारा आकर्षित नहीं होते। यहां उस युवा बालक का उदाहरण दिया जा सकता है जो एक रोगी है तथा उसको वैद्य द्वारा औषधि लेने के लिए कहा गया है। वैद्य उसे बार-बार औषधि लेने के लिए कहते हैं तथा वह बार-बार मना कर देता है। आजकल औषधि लेना इतना कठिन नहीं है क्योंकि यह कैप्सूल के रूप में उपलब्ध है किन्तु हमारे समय यह एक तिक्त ( कड़वा ) मिश्रण के रूप में था जिसको लेना अत्यन्त कठिन था। अब वैद्य ने उस बालक को सतर्क भी किया की यदि वह औषधि नहीं लेगा तो वह स्वस्थ नहीं हो पाएगा। किन्तु तब भी वह बालक औषधि लेने से मना करता रहा। बालक के माता-पिता बहुत चिंतित थे। तब वैद्य ने उनसे पूछा कि इसे खाने में क्या अच्छा लगता है तब माता-पिता ने उत्तर दिया, इसे गर्म रसगुल्ला अत्यन्त प्रिय है। तब वैद्य ने एक गरम रसगुल्ला मंगवाया। वैध उस बालक को, “रसगुल्ला खाओगे?” बालक ने तुरंत उत्तर दिया, “हाँ! हाँ! दो! दो!” वैध ने उसे कहा, “तुम पहले यह औषधि लोगे तो तुम्हें यह रसगुल्ला मिल जाएगा।” बालक ने कहा,”दो! दो!” रसगुल्ले के लालच में उस बालक ने औषधि लेना स्वीकार कर लिया। यहां वैद्य का उद्देश्य बालक को रसगुल्ला खिलाना नहीं था अपितु किसी प्रकार से उसके रोग को दूर करना था।
इस संसार के लोग भी उस बालक के समान हैं। वे एकादशी व्रत पालन करने के बदले कुछ भौतिक लाभ की कामना करते हैं। इसीलिए शास्त्रों में एकादशी व्रत पालन करने के लिए भौतिक लाभों का उल्लेख किया गया है ताकि उनकी तरफ आकर्षित होकर जीव एकादशी व्रत का निरन्तर पालन कर सकें। एकादशी तिथि भगवान श्रीहरि की अत्यन्त प्रिय हैं। यह भक्ति के 64 प्रकार के अंगों में से एक मुख्य अंग है। यदि कोई एकादशी तिथि का पालन किसी धाम में रहकर करे तो उसे करोड़ों गुना अधिक लाभ प्राप्ति होती है। जहां पर शुद्ध भक्त एकत्रित होकर भगवान के नाम कीर्तन का महिमा गुणगान करते हैं वह भी धाम कहलाता है। वह स्थान जहां पर भगवान का एक शुद्ध भक्त पूजा साधना के लिए मठ मन्दिर का निर्माण करता है वह भी साक्षात धाम कहलाता है। इसलिए यदि कोई इस प्रकार के स्थानों पर एकादशी व्रत का पालन करता है तो उसे करोड़ों गुना लाभ की प्राप्ति होती है।
महाराज अम्बरीष ने एक वर्ष तक मथुरा मण्डल में वास करते हुए एकादशी तिथि का नियम पूर्वक पालन किया। उन्होंने एकादशी तिथि पालन करके श्री भगवान को इस प्रकार प्रसन्न किया कि महा शक्तिशाली ऋषि दुर्वासा जो हजारों वर्ष तक बिना भोजन ग्रहण किए रह सकते थे तथा हजारों वर्षों का भोजन एक ही दिन में ग्रहण कर सकते थे, उनका अभिशाप भी महाराज अम्बरीष को स्पर्श न कर सका। इसीलिए हमें एकादशी तिथि का पालन एकमात्र श्री भगवान की प्रेममयी सेवा प्राप्ति के लिए करना चाहिए। भक्त एकादशी व्रत का पालन कर्म काण्डात्मक फल की प्राप्ति के लिए नहीं किन्तु भगवान् की प्रसन्नता लिए करते हैं।
आदौ गुरु पादाश्रय, कृष्ण-दीक्षादि-शिक्षा
विश्रम्भेण गुरु-सेवन, सद् धर्म शिक्षा,
साधु वर्तमानुवर्त्मन,कृष्ण प्रित्ये भोग त्याग,
कृष्ण तीर्थे वास, यवादार्थानुवर्दिता, एकादशी उपवास
धात्री अश्वथ गौ,विप्र, वैष्णव पूजन, सेवा नामापराध दूरे विसर्जन।
इस प्रकार शास्त्रों में वर्णित है कि भक्ति के 64 प्रकार के अंगों में से जो 10 मुख्य अंग हैं उनमें से एक एकादशी तिथि का पालन करना है।
आजकल वैशाख मास को कैलेंडर का पहला मास माना जाता है किन्तु इससे पूर्व यह अग्रहायण था। इसी अग्रहायण मास में पड़ने वाली एकादशी को उत्पन्ना एकादशी के नाम से जाना जाता है। आपने उत्पन्ना एकादशी की महिमा के बारे में सुना होगा जिसमें भगवान उस दिव्य स्त्री से स्वयं कह रहे हैं, जो उनके दिव्य विग्रह से प्रकृटित हुई थीं, “तुम मेरी परा शक्ति हो, आन्तरिक शक्ति।” इस संसार में तुम एकादशी नाम से विख्यात होगीं। जो कोई एकादशी तिथि का श्रद्धा पूर्वक पालन करेगा, मुझे उस जीव से अत्यधिक प्रसन्न होऊँगा। अतः उसी दिन से एकादशी तिथि की महिमा प्रकाशित हुई। वह स्वयं भगवान के द्वारा उनके श्री अंग से प्रकृटित हुई तथा उनकी परा शक्ति भी है।
शास्त्रों में सफला एकादशी की महिमा का वर्णन किया गया है। जिसके अनुसार महिष्मत नाम के एक राजा अपने राज्य की राजधानी चंद्रावती में वास किया करते थे। उनके चार पुत्र थे, जिनमें से सबसे बड़े पुत्र का नाम लुम्पक था। वह सदैव अनेक प्रकार के पाप क्रियाओं में संलिप्त रहता था, जैसे कि ज्ञात वेश्याओं के साथ सम्बन्ध बनाना, मद्य-पान करना तथा जुआ खेलना इत्यादि। वह सदा देवी-देवताओं, ब्राह्मणों तथा वैष्णवों की निन्दा करता रहता था। इसीलिए राजा महिष्मत धार्मिक थे उन्होंने अपने पुत्र के इस प्रकार के निन्दित और असहनीय कृत्यों को देखते हुए उसे राज्य से निर्वासित कर वन में भेज दिया। लुम्पक ने अपनी जीविका चलाने के लिए बर्तन इत्यादि सब बेच दिए। कुछ समय पश्चात जब उसके पास जीविका चलाने का कोई साधन ना बचा तो वह रात्रि के समय राज्य में जाकर मूल्यवान वस्तु चुराने लगा। नगर वासियों ने उसको कई बार पकड़ा किन्तु राजा का बड़ा पुत्र होने के कारण उसको बिना दण्ड दिए छोड़ दिया जाता। वह वृक्षों से फल तोड़कर खाता तथा जानवरों को मारकर उनका मांस खाता। वह वन में एक पुराने बरगद के वृक्ष के नीचे रहता था। बरगद का पेड़ श्री भगवान को अत्यन्त प्रिय है। लुम्पक द्वारा इस प्रकार की क्रियाए करते करते कुछ दिन पश्चात सफला एकादशी तिथि का आगमन हुआ। एकादशी से एक दिन पूर्व अर्थात दशमी के दिन दोपहर के समय भूख और प्यास के कारण वह किसी जानवर या पक्षी को मार नहीं पाया तथा अचेतन अवस्था में पड़ा रहा। अगले दिन एकादशी तिथि पर दोपहर के समय उसे चेतना आई किन्तु उस दिन भी वह जानवर या पक्षियों को मारने का अवसर प्राप्त ना कर सका। उस समय कुछ थोड़े से फल जमीन पर गिरे मिले उसने उन फलों को भगवान को निवेदन किया। भूख से पेट में जलन होने के कारण वह सारी रात्रि सो नहीं पाया। इस प्रकार लुम्पक द्वारा एकादशी तिथि के दिन बिना खाए तथा रात्रि में जागरण के कारण एकादशी तिथि का सम्पूर्ण पालन हुआ। उसी समय एक सुन्दर घोड़ा आकर उसके पास खड़ा हो गया तथा और आकाशवाणी हुई कि यह घोड़ा तुम्हारे लिए है तुम्हारे सारे पाप नष्ट हो गए। तुम इस पर सवार होकर अपने घर जाओ। भगवान की कृपा तथा सफला एकादशी तिथि पालन के कारण तुम्हारे सब पाप नष्ट हो गए हैं। तुम्हारा राज्य बिना किसी असुविधा के तुम्हें प्राप्त हो जाएगा। राजा ने लुम्पक को उसका राज्य लौटा दिया और उसे सुन्दर स्त्री तथा पुत्र की प्राप्ति हुई। इस प्रकार सफला एकादशी तिथि पालन करने से उसका जीवन सफल हो गया (श्रील गुरुदेव हँस रहे हैं, ये एकादशी का वास्तविक फल नहीं है।)
वेदव्यास जी सभी प्राणी मात्र के गुरु हैं। उन्होंने अठारह पुराणों की रचना की। उन्होंने महाभारत तथा श्रीमद्भगवत गीता जो कि महाभारत के अंतर्गत आती है, जैसे ग्रंथों की रचना की। उन्होंने वेदान्त लिखा तथा वेदों को चार भागों में विभाजित किया। उन्होंने बद्ध जीवात्माओं की आवश्यकता के लिए धर्म, अर्थ काम तथा मोक्ष के बारे में लिखा। उन्होंने उन लोगों के लिए धर्मशास्त्र लिखा जो मृत्यु के पश्चात स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं। जिन लोगों के मन में धन की कामना है उन लोगों के लिए उन्होंने अर्थशास्त्र की रचना की तथा वह लोग जो भौतिक इच्छाओं को पूरा करना चाहते हैं उनके लिए उन्होंने काम शास्त्र की रचना की। किन्तु इतने सारे शास्त्रों की रचना करने के पश्चात भी उनके हृदय को शान्ति प्राप्त नहीं हुई। वे विचार करने लगे कि संसार के इन बद्ध जीवों के कल्याण के लिए मैंने इतने सारे शास्त्रों की रचना की। मैंने इनको वह प्रत्येक वस्तु प्रदान करने की चेष्टा की जिसको प्राप्त करके यह सभी शान्ति तथा प्रसन्नता प्राप्त कर सकें। किन्तु क्या कारण है कि इतना करने पर भी मेरे मन को शान्ति नहीं मिल रही? इस प्रकार सोच कर वे बद्रीनारायण की ओर चले गए तथा वहां जाकर वे अपने गुरुदेव नारद गोस्वामी का स्मरण करने लगे। नारद गोस्वामी उनके सामने प्रकट हुए। वेदव्यास जी ने उनको प्रणाम किया तथा उनसे कृपा याचना की।
तब नारद गोस्वामी ने वेदव्यास जी के अंदर का भाव समझ कर उनसे पूछा, “तुम्हारी शरीर या मन सम्बंधित आत्मा कुशल तो है न?” उन्होंने वेदव्यास जी से सीधे-सीधे नहीं पूछा, तुम कुशल में हो? क्योंकि शरीर का कोई स्वतन्त्र अनुभव नहीं है, शरीर के अंदर आत्मा रूपी चेतना रहती है तब तक ही उसमें अनुभूति रहती है। नारद गोस्वामी ने इसी आत्मा के बारे में पूछा जो सब समय प्रसन्न तथा शान्ति से रहती है। उसकी कुशलता पूछने की क्या आवश्यकता है? किन्तु जब यही आत्मा भौतिक तथा सूक्ष्म शरीर में उलझ जाती है तो वह सुख तथा दुःख का अनुभव करती है।
वेदव्यास जी ने उत्तर दिया,” हे मुनि! श्रेष्ठ आप सभी के हृदयों के ज्ञाता हैं, मैंने जीवो के मंगल के लिए अनेक प्रकार के शास्त्रों की रचना की। फिर भी मुझे शान्ति प्राप्त नहीं हो सकी। नारद गोस्वामी ने पूछा, तुमने कौन से शास्त्रों की रचना की है? वेदव्यास जी ने कहा, मैंने अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा कामशास्त्र इत्यादि ग्रन्थों की रचना की है। नारद गोस्वामी ने उत्तर दिया।
तुमने जिस प्रकार की धर्म व्यवस्था की है वह सबसे नीचले स्तर का कार्य किया है। क्योंकि भौतिक जीव पहले से ही धर्म, अर्थ तथा काम की ओर आकर्षित रहते हैं। और तुमने एक प्रकार से धर्म के नाम पर उनको इस प्रकार के कार्य करने के लिए प्रोत्साहन दिया है। हमें यह शरीर भगवान की परा शक्ति द्वारा प्राप्त हुआ है। भगवान की माया शक्ति द्वारा यह भौतिक संसार तीन गुणों द्वारा नियन्त्रित होता है। जिसमें रजोगुण द्वारा जीव का जन्म होता है। सत्व गुण द्वारा यह स्थिर रहता है तथा तमोगुण द्वारा इसका नाश होता है। ब्राह्मणों में सत्व गुण प्रधान होता है। क्षत्रियों में रजोगुण प्रधान होता है। वैश्य में रजोगुण तथा तमोगुण दोनों ही प्रधान होते हैं तथा शुद्र में तमोगुण प्रधान होता है। यदि हम शरीर में ‘मैं’ बुद्धि तथा अहंकार को लेकर कर्म करेंगे तो हमें इसके नाशवान परिणाम प्राप्त होंगे। यह शरीर नाशवान है तथा हमारी इन्द्रियों से सम्बन्धित विषय जैसे कि रूप,रस तथा गन्ध इत्यादि भी नाशवान हैं। हम इस संसार की नाशवान वस्तुओं का संग करते हैं जो आनन्द तथा ज्ञान से रहित हैं। इसलिए आनंद और ज्ञान के भाव का ही संग होता है। यह उस मृगतृष्णा के समान है जहां हम मरुस्थल में जल की उपस्थिति होने का अनुभव करते हैं। किन्तु वास्तव में वह एक भ्रम मात्र है। जब सूर्य की किरणें रेत पर पड़ती है तो वह वहां पर जल की उपस्थिति का भ्रम उत्पन्न करवाती है। किन्तु वास्तविकता में वहां पर जल नहीं होता तथा हिरण जल के लिए दौड़ता है जैसे-जैसे वह दौड़ता है,वैसे-वैसे जल की उपस्थिति भी उससे दूर होती जाती है और अन्त में वह तृष्णा से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इसलिए यदि हम नाशवान वस्तुओं की प्राप्ति के लिए चेष्टा करें या स्वर्गलोक, जनलोक तथा तपलोक जैसे उच्च लोकों की कामना करेंगे तब भी हमें अपने बुरे तथा अच्छे कर्मों का भोग करने के लिए इस भौतिक संसार में फिर से आना पड़ेगा।
क्षीणे पुण्ये मर्त्य लोकम विशन्ति।
अर्थात पुण्य कर्मों के समाप्त हो जाने के उपरान्त दोबारा इस भौतिक संसार में आना पड़ेगा।
ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव
गुरु कृष्ण प्रसादे पाय भक्ति लता बीज,
माली हैया करे सेइ बीज आरोपण
श्रवण, कीर्तन जले करये सिंचन,
उपाजीये बढे लता ब्रह्माण्ड भेदी याये
वीरजा ब्रह्म लोक भेदी पर व्योम पाय।
वीरजा नदी भी दुःखमय स्थान है। किन्तु इस जगत में दुःख अधिक है, हम कह सकते हैं कि इस जगत में दुःखों की लहरें है। क्योंकि वीरजा नदी में कोई सृष्टि नहीं है इसीलिए वहां रजोगुण की कोई क्रिया नहीं है। किन्तु वहां अज्ञानता की उपस्थिति है। यह दुःख की सम्यक अवस्था है। इसीलिए वहां पर दुःखों की लहर नहीं है। वीरजा नदी से ऊपर ब्रह्म लोक है। यह लोक भौतिक संसार तथा वीरजा दोनों से ही श्रेष्ठ है। यहां पर कष्ट नहीं है किन्तु आनन्द की लहरें नहीं हैं। आनन्द की लहरें तो पर-व्योम में उपस्थित है। इसलिए यदि किसी को पर-व्योम में प्रवेश करना है तो उसे ब्रह्म लोक का छेदन करके जाना होगा। वहां पर आनन्द की लहरें शान्त रस, दास्य रस तथा सख्य रस द्वारा की गई भगवान नारायण की सेवाओं के रूप में उपस्थित रहती हैं।
शुकदेव गोस्वामी परीक्षित महाराज से कहते हैं, “ज्ञानी लोग भगवान के जिस ब्रह्म रूप को अनुभव करने की चेष्टा करते हैं, उस ब्रह्म रूप के अनुभव में मैं बाल्यकाल से ही प्रतिष्ठित था।” किन्तु जब मैंने अपने पिता से कृष्ण की दिव्य लीलाओं का श्रवण किया तब भगवान कृष्ण ने मेरे हृदय को पूर्णतया अपनी ओर आकर्षित कर लिया। अतः हे राजन, मैं आपको यह परामर्श देता हूँ कि आप स्वयं को अन्य ऋषियों, मुनियों द्वारा कहे गए ध्यान, तप, योग, कर्म तथा ज्ञान आदि क्रियाओं में संलग्न ना करें। आप सब कुछ छोड़ कर मात्र सात दिनों के लिए स्वयं को निरन्तर भगवान श्री कृष्ण की दिव्य लीला महिमा को श्रवण करने में संलग्न करें। पूर्व में मैं पूर्णतया ब्रह्मानन्द में प्रतिष्ठित था किन्तु भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का महिमा गुणगान सुनने के पश्चात पूर्णतया उनकी ओर आकृष्ट हो गया तथा ब्रह्मानन्द की प्राप्ति के उस अनुभव का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं रहा। इसलिए आप सात दिन के लिए श्रीमद्भागवतम् को श्रवण करें। उस समय वहाँ पर अनेक महान ऋषि तथा मुनि उपस्थित थे। किन्तु किसी में भी शुकदेव गोस्वामी के परामर्श का खण्डन करने का साहस नहीं हुआ।
वेदव्यास जी ने नारद गोस्वामी से कहा,”मैंने मोक्ष के बारे में भी लिखा है।” तब नारद गोस्वामी ने कहा कि यह तो और भी घृणित कार्य है। आपने जीवों के प्रेमानंद की प्राप्ति के सभी रास्ते पूर्णतया बन्द कर दिए। आपने अनन्त समय के लिए उन जीवो को कृष्ण प्रेम प्राप्ति से वन्चित कर दिया है। यह आपके द्वारा प्राणियों को दी गई बहुत बड़ी क्षति है। आपने उनके प्रति हिंसा की है। किसी के द्वारा भगवान की प्राप्ति के पथ में किसी भी प्रकार का विघ्न उत्पन्न करना बहुत बड़ी हिंसा है।
इस वस्तु को हम एक स्त्री के उदाहरण द्वारा अच्छे से समझ सकते हैं जो अपने पति की सेवा तो करती है किन्तु उसके बदले में उसकी कुछ कामनाएं हैं। कामना पूर्ण होने पर ही वह सेवा करती है जैसे कपड़े, आभूषण इत्यादि। उसके पति ने उसे बड़े प्यार से समझाया कि तुम्हारी जो भी इच्छाएं हैं वह सब पूर्ण हो जाएंगी तुम मात्र मुझे हृदय से प्रेम तथा स्नेह-पूर्वक सेवा करो। तुम सेवा के बदले में कुछ पाने की इच्छा क्यों करती हो? तुम सेवा किसी अन्य उद्देश्य मत करो। किन्तु वह स्त्री ऐसा नहीं कर पाती। जब पति ने थोड़ा समझाने का प्रयत्न किया तो वह क्रोधित हो गई तथा बोली कि ठीक है, मैं सब कुछ छोड़ दूंगी। यह बोलकर वह स्वयं के गले में रस्सी डालकर आत्महत्या कर लेती है। अब वह पति की सेवा से पूर्णतया वन्चित हो गई। पहले की स्थिति फिर भी अच्छी थी। कम से कम वह अपने पति की सेवा कर सकती थी चाहे उसके मन में कुछ कामनाऐं थी। इस प्रकार जीव द्वारा मोक्ष की कामना करना वास्तव में कपटता है, जो भगवान की सेवा के सुयोग को जड़ सहित समाप्त कर देती है तथा जीव भगवान की प्रेममयी सेवा से वन्चित हो जाता है।
अज्ञान तमेर नाम कहिए कैतव
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, वान्छा आदि सब,
तार मध्ये मोक्ष वान्छा कैतव प्रधान
यहाँ हैते कृष्ण भक्ति हैय अन्तर्धान।
अज्ञानता रूपी अंधकार को कैतव कहा जाता है। कपटता करने का आरम्भ जीव द्वारा धार्मिकता, आर्थिक विकास, इन्द्रिय तृप्ति तथा मुक्ति पाने की इच्छाओं से होता है। और इनमें से सबसे बड़ी कपटता जीव द्वारा मुक्ति पाने की इच्छा है जिसमें वह भगवान में विलीन हो जाता है तथा भगवान कृष्ण की आनन्दमयी सेवा के अवसर को सदा के लिए खो देता है।
इसलिए नारद गोस्वामी ने वेदव्यास जी से कहा, “तुमने जीवों को सबसे अधिक क्षति पहुंचाई है, अब तुम उनके वास्तविक कल्याण के लिए कार्य करो।”
वेदव्यास मुनि बोले, अच्छा होगा यदि कोई और आदरणीय व्यक्ति जीवों के कल्याण तथा मंगल के बारे में लिखें।
नारद गोस्वामी ने कहा नहीं,आप समाज में एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। यदि आप लिखेंगे तो सभी का ध्यान इस ओर आकर्षित होगा। जिस मुख से आपने धर्म,अर्थ, काम तथा मोक्ष आदि का वर्णन किया उसी मुख से कृष्ण का महात्मय कीर्तन करो।
वेदव्यास जी बोले, मैंने भगवान की महिमा का वर्णन महाभारत में गीता में किया है।
नारद गोस्वामी ने कहा, यह यथेष्ट नहीं है। आपको मात्र भगवान की सन्तुष्टि के लिए लिखना चाहिए। आपको भगवान कृष्ण की महिमा का कीर्तन उनकी प्रसन्नता के लिए करना चाहिए।
आपने गीता में जो लिखा है वह अन्य-अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए है।
इस प्रकार बोलकर नारद गोस्वामी ने उन्हें चतुःश्लोकी भागवतम् ( पूर्व में श्रीमद्भागवत मात्र चार श्लोकों में ही सम्पूर्ण थी) प्रदान की। इसके पश्चात भगवान श्री कृष्ण के कृपा-अवतार रूप नारद गोस्वामी की कृपा से उन्होंने ध्यान किया तथा फल स्वरुप जो शक्ति प्राप्त हुई उसके द्वारा उन्होंने भगवान के नाम रूप, गुण, लीला का दर्शन किया तत्पश्चात श्रीमद्भागवतम् की रचना की।
उन्होंने लिखा किस प्रकार एक साधारण जीव इस संसार के भौतिक बन्धनों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
उपरोक्त शिक्षा के अनुसार हमें किन उद्देश्यों के लिए एकादशी तिथि का पालन करना चाहिए?
उपावृत्तस्य पापेभ्यो यस्तु वासो गुणः सह।
उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः”॥
(श्री हरि भक्ति विलास-13.14)
अर्थात सभी प्रकार के पापों से मुक्त होकर और सभी सद्गुणों को के साथ भगवान के निकट वास करना वही एकादशी व्रत का वास्तविक उद्देश्य है।
उपावृत्तस्य य पापेभ्यो-हमें सभी प्रकार के भोगों को त्याग कर अर्थात पापमयी क्रियाओं तथा पुण्य कार्यों आदि को त्याग कर तथा सद्गुणों को अपनाकर और भौतिक संसार के तुच्छ सुखों को त्याग कर भगवान के निकट रहना चाहिए। किन्तु मैं भगवान के निकट कैसे रह सकता हूं? वह तो इस भौतिक जगत से परे हैं तो भला मैं कैसे इस भौतिक शरीर के साथ उनके साथ रह सकता हूं? मैं उस स्थान पर कैसे जा सकता हूँ जो इस भौतिक प्रकृति से परे है? भगवान इस प्रकृति के तीन गुणों से परे हैं तो भला मैं प्रकृति के तीन गुणों से बने इस शरीर के साथ कैसे भगवान के निकट वास कर सकता हूँ? इस सम्बन्ध में बताते हुए कहते हैं।
आदौ गुरु पादाश्रय, कृष्ण-दीक्षादि-शिक्षा
विश्रम्भेण गुरु-सेवन, सद् धर्म शिक्षा
१. सर्वप्रथम जीव को एक ऐसे गुरु का चरणाश्रय करना चाहिए जो श्रोत्रियम हो अर्थात उन्होंने भगवत ज्ञान की प्राप्ति एक ऐसे ब्रह्म-निष्ठ तथा वास्तविक प्रमाणिक गुरु परम्परा से प्राप्त की हो जो पूर्ण रूप से भगवत ज्ञान में प्रतिष्ठित हो।
२. तत्पश्चात उनसे दीक्षा ग्रहण कर कृष्ण शिक्षा प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए।
३. उत्साह पूर्वक निष्कपट हृदय से गुरुदेव की सेवा करनी चाहिए।
४. वैष्णवों द्वारा बतलाए गए पथ पर चलना चाहिए।
महत कृपा बिना कोन कर्में भक्ति नाइ,
कृष्ण भक्ति रहु संसार नहीं क्षय।
अर्थात जब तक कोई शुद्ध भक्त का आश्रय ग्रहण नहीं करेगा तब तक वह अध्यात्मिक सेवा की प्राप्ति नहीं कर सकता। कृष्ण भक्ति के बिना कोई भी इस संसार से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।
जैसा कि हम चैतन्य चरितामृत में देखते हैं।
दीक्षा काले शिष्य करे आत्मसमर्पण,
सेइ काले कृष्ण तारे करे आत्मसम।
सेइ देह करे तारे सिद्ध आनन्दमय,
अप्रकट देहे कृष्ण चरण भजये।
अर्थात दीक्षा मन्त्र ग्रहण करते समय शिष्य गुरु के चरणों में स्वयं को आत्मसमर्पण कर उनका पूर्ण रूप से आश्रय ग्रहण करता है। भगवान का श्री विग्रह भगवान से सर्वथा अभिन्न है। भगवान श्री कृष्ण गुरुदेव के माध्यम से भक्तों को सिद्ध आनन्दमय स्थिति प्रदान करते हैं जिसके द्वारा भगवान श्री कृष्ण की इस प्राकृतिक देह द्वारा सेवा की जा सकती है।
भगवान श्री हरि संसार में सर्वत्र विराजान है। जैसा कि पहले कहा गया है, दीक्षा काले शिष्य करे आत्मसमर्पण- हमें पूर्ण रूप से आत्मसमर्पण अर्थात शरणागत होकर गुरु पदाश्रय ग्रहण करना चाहिए। श्रील गुरुदेव भगवान का कृपा स्वरूप हैं। किन्तु मैं गुरु नहीं हूँ। हमारे गुरुजी ही सबके गुरुदेव है। मैं तो मात्र उनका आदेश पालन करने के लिए मन्त्र प्रदान करता हूँ। जब मेरे गुरुदेव ने इस नश्वर संसार को छोड़ा था, तब उनके गुरु भ्राता तथा मेरे शिक्षा गुरु श्रील भक्ति प्रमोद पूरी गोस्वामी महाराज ने मुझे हमारी संस्था (मठ) का उत्तरदायित्व लेने का आदेश दिया था।उसके बाद श्रील सन्त गोस्वामी महाराज ने भी मुझे संस्था का दायित्व लेने के लिए बाध्य किया था तथा कहा था कि यदि तुम यह दायित्व नहीं लोगे तो तुम्हारे गुरुदेव द्वारा बनाई गई इस संस्था को बहुत बड़ी क्षति पहुंचेगी जिसका कारण तुम बनोगे। तब मैंने उनकी मनोदशा को समझते हुए तथा उनके आदेश को ग्रहण करके संस्था के दायित्व को संभाला। इसलिए हमें गुरुदेव के आदेश का पालन करना चाहिए। क्योंकि वे श्री हरि से सर्वथा अभिन्न है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी लिखते हैं……
एमन दुर्मति संसार भीतरे पडिया आछिनु आमि।
तव निज जन कोन महाजने पाठाइया दिले तुमी।।
दया करि मोरे पतित देखिया कहिल आमारे गिया।
ओहे दीन जन शुन भाल कथा उल्लसित हबे हिया।।
तोमारे तारिते श्रीकृष्णचैतन्य नवद्वीपे अवतार।
तोमा हेन कत दीन हीन जने करिलेन भवपार।।
वेदेर प्रतिज्ञा राखिवार तरे रुक्मवर्ण विप्रसुत।
महाप्रभु नामे नदीया माताये संगे भाई अवधूत।।
नन्दसुत यिनी चैतन्य गोसाईं निज नाम करि दान।
तारिल जगत तुमिओ याइया लह निज परित्राण।।
से कथा शुनिया आसियाछि नाथ तोमार चरणतले।
भक्तिविनोद कांदिया कांदिया आपन काहिनी बले।।
मैं व्यक्तिगत रूप से यह अनुभव करता हूँ कि यह कीर्तन प्रत्यक्ष रूप से मेरे जीवन से सम्बन्धित है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने जितने भी ग्रन्थों तथा कीर्तनों की रचना की है, वह सब मेरे हृदय को गहराई से स्पर्श करते हैं।
श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद महाप्रभु का कृपामयी रूप है तथा हमारे गुरुदेव श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज उन्हीं प्रभुपाद का विस्तार रूप हैं। उन्होंने कृपा पूर्वक मुझे अपनी शरण में लिया। यदि हम गुरु का पूर्ण रुप से आश्रय ग्रहण करेंगे तो भगवान गुरु के माध्यम से हमें सच्चिदानन्द अवस्था प्रदान करेगें।
सद्गुरु के पास जाकर तथा पूर्ण रूप से शरणागत होकर उनका आश्रय ग्रहण करना अत्यन्त कठिन है किन्तु श्रीमन महाप्रभु ने इसे अत्यन्त सरल बना दिया। श्रीमन महाप्रभु ने एकादशी तिथि के दिन श्रीवास आंगन में क्या किया?
श्रीहरि वासरे हरि कीर्तन विधान,
नृत्य आरम्भिला प्रभु जगतेर प्राण।
श्रीमन महाप्रभु सभी जीवों की आत्मा तथा प्राण स्वरूप हैं। वह स्वयं श्री कृष्ण हैं, जो श्रीमती राधा रानी का भाव लेकर इस धरा पर अवत्तीर्ण हुए हैं।
पुण्यवन्त्त श्रीवास आंगने शुभारम्भ,
उठिला कीर्तन ध्वनि गोपाल गोविन्द,
हरि ओ राम, हरि ओ राम।
यही कीर्तन ऊंचे स्वर से करते हुए महाप्रभु ने चांद काजी को बचाया था।
तो इस प्रकार हमें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। एक शुद्ध वैष्णव के संग में रहकर तथा भगवान जो हमारे हृदय में वास करते हैं, उनको पूर्ण रूप से शरणागत होकर, यदि हम हृदय से स्मरण करेंगे तो वह निश्चय ही हमारी रक्षा करेंगे।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर अपने एक अन्य कीर्तन में लिखते हैं-
आत्म निवेदन तुया पदे करी
हईनु परम सुखी,
दुःख दूरे गेल चिन्ता ना रहिल
चोदिके आनन्द देखी।
यहाँ तुया का अर्थ है, “आपका”। किन्तु “आपका” शब्द से क्या अभिप्राय है? “आपका” से अर्थ है, भगवान के “श्री चरण कमल”।
जहाँ मैंने स्वयं को पूर्ण रूप से आत्मसमर्पण कर दिया है। हम उन्हें प्रत्यक्ष रूप से नहीं देख सकते। भगवान् हृदय में विराजमान हैं, जब हम हृदय से उन्हें पुकारेंगे, वे अवश्य ही सुनेंगे।
प्रतिष्ठानपुर नामक स्थान पर एक गरीब ब्राह्मण वास करता था। वह स्वयं के लिए एक समय के प्रसाद की व्यवस्था भी नहीं कर पाता था। गरीब होने पर भी वह नियम भंग किए बिना प्रतिदिन भगवान की पूजा अर्चना करता था। एक दिन ब्राह्मण के मन में भगवान को भोग में खीर अर्पित करने की इच्छा हुई। उन्होंने उस खीर को मानसिक रूप से तैयार किया। और भगवान को भोग अर्पण करने का समय हो चुका है। इसलिए उन्होंने मानसिक रूप से खीर को एक कटोरे में डालकर भगवान को भोग अर्पण किया। अचानक उन्होंने अनुभव किया की खीर बहुत गर्म होगी तथा बहुत अधिक गर्म वस्तु भगवान को भोग में अर्पण नही की जा सकती। उन्होंने इसका सत्यापन करने के लिए अपनी उंगली खीर वाले कटोरे में डाली। किन्तु वह यह सब मानसिक रूप से कर रहे थे। ना तो वहाँ प्रत्यक्ष रूप से कोई खीर थी, ना कोई आग तथा ना ही कोई अन्य वस्तु। सब कुछ मानसिक रूप से हो रहा था। जैसे ही उन्होंने अपनी उंगली कटोरे में डाली तो वह जल गई। वह यह सोच कर चिन्तित हो गए तथा विचार करने लगे की मुझसे अवश्य ही भगवान विष्णु के चरण कमलों में कोई अपराध हुआ है। ब्राह्मण द्वारा की गई इस प्रकार की सेवा क्रिया के साक्षी भगवान विष्णु जो वैकुण्ठ में लक्ष्मी द्वारा सेवित हो रहे थे, अचानक जोर-जोर से हंसने लगे। जब लक्ष्मी देवी ने इसका कारण पूछा, तो उन्होंने ब्राह्मण के सेवा मनोभाव के बारे में बतलाया। इतना विशाल ब्रह्माण्ड होने पर भी प्रभु को यह ज्ञात है कि इसके प्रत्येक कोने में क्या हो रहा है। भगवान प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा रूप में विराजित हैं। उनके साथ कोई भी छल नहीं कर सकता। क्योंकि वह सभी के हृदय में स्थित हैं, इसलिए हम जब भी उन्हें हृदय से पुकारेगें वह निश्चय ही हमारी बात सुनेंगे। यदि कोई हमें किसी अन्य स्थान से पुकारे तो हम सुन नहीं पाएंगे। किन्तु भगवान कहीं पर भी हो यदि उन्हें हृदय से पुकारा जाए तो वह उसी स्थान पर अवतरित हो जाते हैं।
आत्म निवेदन तुया पदे करी
हईनु परम सुखी,
दुःख दूरे गेल चिन्ता ना रहिल
चोदिके आनन्द देखी।
इस प्रकार यदि कोई भगवान को सम्पूर्ण रुप से आत्मसमर्पण करता है तो उसे परम शान्ति लाभ प्राप्त होगा। उसके सभी प्रकार के दुःख दूर हो जाएंगे तथा किसी भी प्रकार की चिन्ता नहीं रहेगी।
वह सभी दिशाओं में आनन्द ही आनन्द देखेगा। किन्तु यह तभी सम्भव है, यदि हम अपने हृदय से पूर्ण रूप से प्रभु को आत्मसमर्पण करें, केवल बोलने मात्र से ऐसा नहीं हो पाएगा। यदि हम सभी दिशाओं में आनन्द नहीं देख पा रहे हैं तथा हमारे दुःख दूर नहीं हो पा रहे हैं, तब हमें यह समझ लेना चाहिए कि हमने पूर्ण रूप से प्रभु को आत्मसमर्पण नहीं किया है। हमने मात्र मुख द्वारा बोला है, उसे व्यवहारिक रूप में नहीं ला पाए। किन्तु शुद्ध भक्तों की संगति के बिना ऐसा करना सम्भव नहीं है। छह प्रकार की शरणागति प्राप्त करने के लिए शुद्ध वैष्णवौं का संग अत्यन्त आवश्यक है।
अशोक अभय अमृत आधार
तोमार चरण द्वय,
ताहाते एखन विश्राम लभिया
छाड़िनु भवेर भय।
अर्थात आपके श्री चरण कमल अमर अमृत भण्डार रूप हैं, जहाँ व्यक्ति दुःख तथा भय से मुक्त रहता है। अब मैंने आपके श्री चरणो में परम शान्ति प्राप्त की है तथा इस संसार के भय से मुक्त हो गया हूँ ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे।
हमें इस महामन्त्र का जप हृदय से करना चाहिए।
तोमार संसारे करिब सेवन
नाहिब फलेर भागी,
तव सुख जाहे करिब
हये पदे अनुरागी।
यह संसार भगवान का है, हमारा संसार नहीं है,हम उनके द्वारा बनाई गई सृष्टि में रहते हैं। यह हमारी नहीं है। इसलिए हमें उनकी सेवा करनी चाहिए तथा उस सेवा से प्राप्त फल का आनन्द लेने का प्रयास नहीं करना चाहिए।किन्तु हम अपने द्वारा की गई सेवा का फल चाहते हैं। मात्र उनके सुख के लिए यत्न करना चाहिए। यदि हमें दुखों से निवृत्त होकर सुख चाहिए तो हमें स्वयं को पूरी तरह से उनके चरणों में समर्पित करना चाहिए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे।
तोमार सेवाये दुःख होय जत
सेई तो परमसुख,
सेवा सुख दुःख परम सम्पद
नाशे अविद्या दुःख।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे।
यदि हम भगवान को हृदय से स्मरण करेंगे तो वे स्वयं हमारे पास आ जाएंगे और हमें उन्हें बुलाने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी।
आमि तो तोमार तुमि तो आमार की काज आपर धने।
मैं भगवान श्री कृष्ण का हूँ और भगवान मेरे हैं। मैं उनका हूँ, मेरा यह शरीर भी उन्हीं का है। फिर भला मुझे किसी ओर के धन की क्या आवश्यकता है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
भक्ति विनोद आनन्दे डुबिया
तोमार सेवार तारे,
सब चेष्टा करे तव इच्छा मत
थाकिया तोमार घरे।
यदि हम पूर्ण रूप से भगवान के शरणागत हो जाएंगे तो हमारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे। सब कुछ स्वयं ही ठीक हो जाएगा।
गौर हरि बोल!!!!