Harikatha

श्री मुरारि गुप्त के तिरोभाव महोत्सव पर

आज मुरारि गुप्त जी की तिरोभाव तिथि है । मुरारि गुप्त हनुमान के अवतार हैं। वे भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु के पार्षद हैं। प्रसंग बहुत लम्बा है किन्तु तिथि पालन करने के लिए कुछ अवश्य बोलना चाहिए। हमारे गौरपार्षद ग्रन्थ में मुरारि गुप्त का नाम छापने में भूल हुई है। उनके नाम में ‘र्’ को दीर्ध इकार(‘ई’) नहीं, हरस्व इकार(‘इ’) है। मुर+अरि=मुरारि। हमारे मठ की पंजिका में भी यही भूल की हुई है। गौड़ीय मठ के ग्रन्थों में ऐसी कोई भूल नहीं रहनी चाहिए। जब भी कोई सन्देह हो तो शब्दकोश देखना चाहिए। एक बार भूल हो जाए तो आगे भी चलती रहती है। अभी के समय में ऐसा है कि जो कुछ भी लिख दो, जो कुछ भी करो। संस्कृत हमारी प्रमुख भाषा है। संस्कृत की शिक्षा के बिना शास्त्र में प्रवेश नहीं होगा। जब हम बिना समझे अपने ज्ञान से भूल ठीक कर लें, उससे ठीक संस्कृत नहीं होगी। संस्कृत को मर्यादा प्रदान करने के लिए जैसे उल्लेख किया है उसी प्रकार शब्द लिखना चाहिए। वैसे ही करना चाहिए। विशेष रूप से जहां से धर्म प्रचार हो, वहाँ संदेह होता है उसको ठीक प्रकार से देखना चाहिए।

मुरारि गुप्त वह हैं जिनके हृदय में भगवान मुरारि(श्रीचैतन्य देव) गुप्त रूप से वास करते हैं। वे हनुमान से अभिन्न हैं, जिन्होंने अपनी छाती फाड़कर उसमें भगवान रामचन्द्र के दर्शन करवाए थे। मुरारि गुप्त जी की उनके श्रीपाट में महाप्रभु के साथ अनेकों लीलाएँ हैं। परिक्रमा के समय हम लोग वहां पर उनकी लीला श्रवण करते हैं। उनकी लीला में विशेष शिक्षा यही है कि अपने इष्टदेव में निष्ठा होनी चाहिए। मुरारि गुप्त ने हमें यही शिक्षा दी कि बहुत जगह प्रेम नहीं होता है। प्रेम एक ही जगह होता है। भगवान की बहुत लीलाएँ हैं। किन्तु अनन्य भक्त अनन्य रूप से एक में ही प्रीति करते हैं। मुरारि गुप्त ने हमें यह शिक्षा दी कि अपने इष्टदेव में अनन्य भक्ति होनी चाहिए। एक बार महाप्रभु ने मुरारि गुप्त को कहा, “देखो, कृष्ण का आराधना करो।” मुरारि गुप्त महाप्रभु को साक्षात् रामचंद्र देखते हैं। महाप्रभु स्वयं भगवान होकर मुरारि को उपदेश दे रहे हैं तथा मुरारि चुपचाप सुन रहे हैं। महाप्रभु कहते हैं, “सर्वोत्तम आराधना, नन्दनन्दन, व्रजेन्द्रनन्दन कृष्ण की आराधना करो। उनके पास हर प्रकार का रस मिलेगा। कृष्ण समस्त अवतारों के अवतारी हैं। उनकी आराधना करने से तुम्हारा अपना लाभ तो होगा ही, अन्यों का भी होगा। यही मेरा उपदेश है।”

महाप्रभु की आज्ञा मानकर मुरारि गुप्त ने उन्हें कहा—“ठीक है, मैं ऐसा ही करूँगा।” घर में आकर अपने आराध्यदेव सीताराम के सामने आकर रोना शुरू कर दिया और निवेदन करने लगे, “मैंने अपने मस्तक को सीताराम के चरणों में बेच दिया है तथा अब महाप्रभु को वचन भी दे दिया है कि मैं कृष्ण भजन करूँगा। जब अपनी बात से पीछे हट जाऊँ तो मेरा अपराध होगा।

अतः मेरा मरना ही अच्छा है। मैं अब जीवित नहीं रहना चाहता।” वे बहुत दुःखी हुए। दूसरे दिन जब महाप्रभु उनके पास आए तो महाप्रभु ने देखा कि मुरारि गुप्त बहुत दुःखी हैं। महाप्रभु ने उनसे इसका कारण पूछा। तब मुरारि गुप्त ने कहा कि मेरा बहुत अपराध हो गया। मैंने आपके पास वचन दिया कि मैं कृष्ण की आराधना करूँगा। आपने बहुत अच्छे से समझाया कि कृष्ण ही सर्वोत्तम हैं परन्तु मैंने अपने मस्तक को रामचंद्र जी के पादपद्मों में समर्पित कर दिया है। वहां से मस्तक उठाने पर मेरी छाती फट जाएगी। अब मैं क्या करूँ? महाप्रभु मुस्कुराए व कहा—“तुम रामदास हो।”

महाप्रभु ने श्रीवास आंगन में महाप्रकाश लीला के समय सब को अपना रूप दिखाया था। तब मुरारि गुप्त को राम रूप में दर्शन दिए थे। मुरारि गुप्त एवं महाप्रभु एक ही साथ में एक ही साथ पर पढाई-लिखाई करते थे। वे आयु में महाप्रभु से थोड़े बड़े हैं, श्रीहट्ट से आकर नवद्वीप में रहते थे। श्री चैतन्य भागवत में ऐसा वर्णन है कि वे महाप्रभु के आविर्भाव से पहले उनके पार्षद रूप से आए। महाप्रभु उनके साथ विचार विमर्श करते थे। विचार करके आवश्यकता पड़ने पर उनका खण्डन भी करते थे किन्तु भीतर में महाप्रभु उन पर बहुत प्रसन्न होते थे। तब मुरारि गुप्त सोचते थे, “यह कितने बड़े विद्वान हैं और जब वे मेरा हाथ पकड़ते हैं तो मुझे ऐसा अनुभव होता है कि यह कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं, बहुत आनन्द होता है। जब महाप्रभु ने श्रीवास आंगन में वराह रूप धारण किया था, तब अचानक ‘गरुड़! गरुड़’ चिल्लाने लगे। गरुड़ और हनुमान में कोई अन्तर नहीं है। मुरारि गर्जन करते-करते वहाँ आ गए तथा महाप्रभु उनके कन्धों पर चढ़ गए।

मुरारि गुप्त ने हमें अनन्य भक्ति करने के लिए शिक्षा दी। हमें इसे याद करना चाहिए। आज मुरारि गुप्त की तिरोभाव तिथि में मैं उनके पादपद्मों में अनंत कोटि साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ। वह महाप्रभु के प्रिय जन हैं। हम लोग नवद्वीप धाम परिक्रमा में उनके स्थान पर जाते हैं, प्रणाम करते हैं। उनकी जिस प्रकार अपने इष्ट देव में निष्ठा है, उसी प्रकार हमारी भी हो जाए ऐसी उनके चरणों में प्रार्थना है।