प्रशन -मैंने कई धार्मिक पंथों में आध्यात्मिक खोज की है। लेकिन मैं संतुष्ट नहीं हुआ क्योंकि उनमें या तो आध्यात्मिक विज्ञान अनुपस्थित था या भक्ति का अभाव था अथवा दोनों की ही कमी थी। लेकिन जब मैंने गौड़ीय साहित्य का अध्ययन किया तो मुझे यह बहुत अच्छा लगा और मेरी इन शिक्षाओं की ओर रुचि बढ़ती गई। मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं इस पथ पर आगे बढ़ सकूँ।
श्री कृष्ण प्रेम अंतर्निहित है ।
आपके पत्र को पढ़ने से मुझे यह अनुभव हुआ कि आप भक्ति मार्ग को पसंद करते हैं। हमारे प्रामाणिक शास्त्रों में उल्लेख किया गया है कि जाने- अनजाने में संचित पिछली सुकृतियों के बिना आपमें इस तरह भक्ति सहित श्रीकृष्ण की आराधना करने की प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं हो सकती है।
इसी कारण से ही अन्य मतों के उपदेशों में परमार्थ की खोज करने के बाद भी आपको संतुष्टि नहीं मिली। वास्तव में प्रत्येक जीवात्मा का अपने नित्य स्वरूप में भगवान् श्रीकृष्ण से स्वाभाविक प्रेम होता है। उदाहरण के लिए चुम्बक और लोहे को लीजिए—चुम्बक लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है तथा लोहा चुम्बक के प्रति आकर्षित होता है। जब लोहे पर जंग लग जाता है तब यह आकर्षण दिखलायी नहीं पड़ता है। किन्तु यदि लोहे पर से धूल आदि को हटा दिया जाये तो लोहा अपने आप चुम्बक की और भागा चला जायेगा।
अत: श्रीकृष्ण ही सर्वशक्तिमान भगवान् हैं, जो सभी को अपनी ओर खींचते हैं तथा सभी को सुख प्रदान करते हैं। अन्य सजीव प्राणी कार्ष्ण हैं, जो उनके द्वारा आकर्षित होते हैं। जब जीव अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करता है तब वह श्रीकृष्ण के विमुख हो जाता है, फलस्वरूप उसे भगवान् की माया घेर लेती है और उसे अपने असली स्वरूप के प्रति अपभ्रान्ति हो जाती हैं। माया के जाल में फंस जाने के बाद वह भूल जाता है कि वह श्रीकृष्ण का नित्य दास है। जन्म-मृत्यु के चक्र से गुजरने के बाद अंत में उसे यह मनुष्य जन्म का सौभाग्य प्राप्त होता है।
भगवान् ने मनुष्यों को अच्छे-बुरे तथा नित्य-अनित्य के अंतर को समझने की बुद्धि प्रदान की है। मनुष्यों में उस नित्य सत्य को स्वीकार करने तथा अनित्य वस्तुओं को त्याग करने की योग्यता है। भगवान् को मनुष्य की सृष्टि करके संतुष्टि हुई क्योंकि मनुष्य में ही भगवान् की भक्ति करने की योग्यता है। हमें यह दुर्लभ मानव जन्म केवल सच्चिदानंद भगवान् की भक्ति करने के लिए ही प्राप्त हुआ है।
श्रीकृष्ण के प्रति प्रत्येक जीव आत्मा का प्रेम अंतर्निहित (जन्मजात) होता है। बस शुद्ध-भक्तों के संग से इसे प्रकाशित करना होता है। श्रीचैतन्य चरितामृत में कहा गया है कि — ‘हमारे वास्तविक स्वरुप में श्रीकृष्ण के लिए शुद्ध भक्ति सर्वदा विद्यमान रहती है; इसे कहीं से लाना नहीं पड़ता है।’ निष्कपट (शुद्ध) हृदय से किसी शुद्ध भक्त की वाणी का श्रवण करने पर ही यह प्रकाशित होती है।
एक जागृत आत्मा कई सुप्त (सो रही) आत्माओं को जगा सकती हैं। जब नित्य स्वरूप की अहैतुकि भक्ति जागृत हो जाती है, तब कोई भी व्यक्ति उस जागृत आत्मा के हृदय की उत्सुकता और व्याकुलता को नहीं रोक सकता है। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में जोर देकर कहा है कि –‘एक निष्कपट जीव के साथ कभी धोखा नहीं होगा।’ भगवान् सर्वत्र विराजमान हैं तथा उनकी कृपा के प्रकाश विग्रह वैष्णवगण भी सब जगह विद्यमान हैं। भगवान् सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हैं। चूँकि वे संपूर्ण सत्य हैं, वे निरपेक्ष भी हैं। कोई भी व्यक्ति ऐसा कुछ नहीं कर सकता जो उनकी जानकारी में ना हो।
भक्तों के लिए आवश्यक है कि वह कम से कम सप्ताह में एक बार मिले तथा भक्ति के मूल अंग श्रवण तथा कीर्तन का पालन करें। परम दयालु श्री गुरु गौरांग आप पर कृपा करें ।