श्रील गुरुदेव, श्रील श्रीधरदेव गोस्वामी महाराज की महिमा गान करते हुए उनकी शिक्षाओं को स्मरण रहे हैं। श्रील गरुदेव बताते हैं कि कैसे जब तक श्रील महाराज का स्वास्थ्य अच्छा रहा वे हमारे मठ के सभी उत्सव में उपस्थित होकर अपनी कृपा बरसाते रहे।
आज हमारे गुरुजी के ज्येष्ठ गुरुभ्राता एवं विश्वव्यापी श्रीचैतन्य मठ एवं श्रीगौड़ीय मठ के प्रतिष्ठा, नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद 108 श्री श्रीमद् भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद के निजजन—नित्यलीला प्रविष्ट परम पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्री श्रीमद् भक्ति रक्षक श्रीधर देव गोस्वामी महाराज की आविर्भाव तिथि है।
मैं गुरुजी के साथ उनके मठ में बहुत बार गया। वे भी हमारे मठ में आते थे। उन्होंने संस्कृत में ऐसी गीतियाँ लिखीं कि बड़े-बड़े संस्कृत के पण्डितों के लेख में भी ऐसा माधुर्य मिलना कठिन है।
अपने अन्तर्धान समय में श्रील प्रभुपाद ने श्रील श्रीधर देव गोस्वामी महाराज जी से ‘श्री रूपमंजरी पद’ कीर्तन सुनने के लिए इच्छा व्यक्त की थी। वे इतनी धीमी आवाज़ में भाषण देते थे कि उनकी हरिकथा उनके सामने रहकर बहुत ध्यान देकर सुनने से समझ में आती थी। श्रील महाराज ऐसी युक्ति से बात करते थे जिसका खण्डन करना असम्भव था। उन्होंने अंग्रेज़ी भाषा में बहुत लेख लिखे हैं। वे ऐसी तात्त्विक भाषा का व्यवहार करते थे कि साधारण व्यक्ति समझ नहीं सकते थे। उनका मुख देखने से ऐसा लगता जैसे वे हर समय किसी विषय पर गहन चिंतन कर रहे हैं।
श्रील गरुदेव के साथ उनका बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध था। वे गुरुजी को अपने साथ विभिन्न स्थानों में प्रचार में लेकर जाते थे। गुरुजी, श्रील यायावर गोस्वामी महाराज जी तथा अन्य-अन्य वैष्णव हमें नवद्वीप उनके मठ (श्रीचैतन्य सारस्वत मठ, कोलेरगंज) में प्रत्येक वर्ष वार्षिक उत्सव में साथ ले जाते थे। वहाँ जाकर हम बस प्रसाद सेवन व हरिकथा श्रवण करते थे। वे सभी गुरुभाई साथ में मिलकर बातें करते थे। वह सब दिन अब चले गए।
श्रील श्रीधर देव गोस्वामी महाराज जी गुरु महाराज जी को मुम्बई में लेकर गए। मद्रास में बहुत बड़ा मठ स्थापित हो गया था तथा मुम्बई में मठ स्थापन करने के लिए प्रभुपाद जी की इच्छा थी। इस विषय में गुरुजी विचार कर रहे थे कि मुम्बई में जाकर प्रोग्राम करेंगे।
उस समय वहाँ के एक व्यक्ति, एम. पी. इंजीनियर जो कि Central Government के एक retired अधिकारी एवं स्थानीय Theosophical Society के प्रेसिडेंट थे, यह पाता चलने पर कि श्री श्रीधर महाराज जी व गुरु महाराज जी मुम्बई आए हुए हैं, उन्हें मिलने वहाँ आए। उन्होंने कहा, “आपने मद्रास में बहुत बड़ा मठ स्थापित किया तो मुम्बई किसलिए वंचित रहेगा? यहाँ भी मठ कीजिए। किन्तु यहां पर मठ होने के लिए यहां के व्यक्तिओं से परिचय होना आवश्यक है। हमारी Theosophical Society में बहुत बड़े-बड़े व्यक्ति आते हैं। यदि आप वहाँ जाकर भाषण देंगे तो लाभ होगा।”
तब गुरुजी ने उन्हें कहा, “मैं तो इस विषय में सोच ही रहा था। भगवान ने आपको स्वयं ही इस कार्य के लिए निमित्त बना दिया।” उस समय Theosophical Society में अंग्रेज़ी में ही भाषण दिया जाता था। किन्तु चंडीगढ़, शिमला इत्यादि में हमने देखा कि Theosophical Society में भी अब हिन्दी में भाषण होता है। गुरु महाराज जी Rotary Club इत्यादि अनेक स्थानों पर अंग्रेज़ी भाषा में भाषण देते थे। अभी श्रील श्रीधर महाराज जी जो की श्रील गुरुदेव से senior हैं, Theosophical Society में प्रवचन देने के लिए गए। श्रीधर गोस्वामी महाराज जी ने एक घण्टे तक प्रवचन दिया। अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा, “पूर्णवस्तु असीम है, उसे कोई नहीं जान सकता है, कोई नहीं प्राप्त कर सकता है। यदि कहें कि हमने असीम को प्राप्त कर लिया, पूर्ण को जान लिया, तो पूर्ण की पूर्णता की हानि होती है। असीम की असीमता की हानि होती है। इसलिए “Infinite is unknown and unknowable.” इस सिद्धान्त को स्थापित किया।
वहां सभा में समय पर सब समाप्त करना पड़ता है। अतःजब 9:00 बज गए, तो श्रील महाराज ने अपना वक्तव्य शेष कर दिया गया। तब एम. पी. इंजीनियर ने कहा, “आपका भाषण बहुत गम्भीर था, किन्तु मेरा एक प्रश्न है। आपने कहा कि भगवान असीम हैं, पूर्ण हैं, उन्हें कोई नहीं जान सकता, कोई नहीं प्राप्त कर सकता; यदि प्राप्त करने जाते हैं तो उनकी असीमता की हानि होती है। तब आप लोगों ने संन्यास किसलिए लिया? आप संन्यास लेकर इतना वैराग्य करते हैं। जब भगवान मिलेंगे ही नहीं तब उनके लिए संन्यास लेकर वैराग्य करने का, इतनी तपस्या करने का क्या लाभ है?”
श्रील श्रीधरदेव गोस्वामी महाराज जी ने कहा, “समय हो गया था, इसलिए मैंने प्रवचन बंद किया। यदि इस विचार को विस्तार से सुनने की इच्छा है तो आपको मुझे और समय देना होगा।” तब उन्होंने महाराज जी को और समय दिया। श्रील महाराज जी ने कहा, “असीम को , पूर्ण को कोई अपनी हिम्मत से नहीं जान सकता, यदि जान लें, तो उनकी असीमता की हानि होती है। जो भगवान असीम हैं, पूर्ण हैं, उनमें यदि स्वयं को जनाने की शक्ति न रहे, तब भी उनकी सर्वशक्तिमत्ता की हानि होती है। यदि हम लोग स्वयं जान लेंगे तब भी उनकी सर्वशक्तिमत्ता की हानि होती है और यदि भगवान के पास स्वयं को जनाने की शक्ति न हो, तब भी उनकी सर्वशक्तिमत्ता की हानि होती है। हम लोग अपने प्रयास से भगवान को नहीं जान सकते किन्तु वे कृपा करके हमें स्वयं को जना सकते हैं।” यह सुनने के बाद सब बहुत सन्तुष्ट हुए। इस प्रकार शास्त्र प्रमाण एवं सुन्दर युक्ति के साथ बात करते थे श्रील महाराज जी।
एक बार मैं श्रील श्रीधरदेव गोस्वामी महाराज जी से मिलने के लिए उनके मठ में गया। उस समय महाराज जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। अतः मुझे उनके सेवकों ने कहा कि अभी दर्शन नहीं होगा। मेरे मन में बहुत दुःख हुआ। थोड़ी देर बाद उनके सेवकों ने कहा कि महाराज जी बाहर आएँगे। तब महाराज जी बाहर आए और हमें उनके दर्शन एवं उन्हें प्रणाम करने का अवसर मिला।
मैं हर समय वैष्णवों के चरणों अपराध करता हूँ, सेवा करने की प्रवृत्ति या योग्यता नहीं है। गुरु महाराज जी की भी सेवा नहीं कर पाया। जब मैं सेवा करने के लिए गया, गुरूजी मुझे Labour dung बोल दिया। गुरुजी मुझसे कहा करते थे—“तुमसे यह सेवा नहीं होगी। जाओ, मदन प्रभु को, गिरी महाराज को, दामोदर महाराज को बुला आओ।” भक्तों का संग किया किन्तु कुछ सेवा नहीं कर पाया। इसलिए आज की तिथि में श्री श्रीधर गोस्वामी महाराज जी के पादपद्मों में अनन्त कोटि साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके उनकी कृपा प्रार्थना करता हूँ, जानकर अथवा नहीं जानकर कितने अपराध किए। वे वैष्णव हैं, दयालु हैं, इसलिए आज की तिथि में उनके चरणों में प्रार्थना करता हूँ कि वे मुझे क्षमा करें।
आज सखीचरण दास बाबाजी महाराज जी की तिरोभाव तिथि भी है। उनका पहले बाबाजी महाराज नाम नहीं था। पहले वे गृहस्थ भक्त थे। उनका श्रीचैतन्य मठ के निर्माण में बहुत योगदान है। वे बहुत वैष्णव सेवा करते थे तथा जब अपने घर में उत्सव करते थे तब बहुत प्रकार के पकवान तैयार करते हम लोग कई बार उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए उनके पास जाते थे। बाद में उन्होंने इमलीतला-वृन्दावन में बाबाजी वेश धारण किया।
आज की तिथि में ही वे नित्य लीला में प्रविष्ट हुए। वे प्रभुपाद जी के आश्रित भक्त थे। उनके चरणों में भी हमारा अपराध हो सकता है। अतः उनके चरणों में भी हम कृपा-प्रार्थना करते हैं। योगपीठ में भीतर प्रवेश करते ही बाबाजी महाराज का एक छोटा स्थान है, हमें वहाँ प्रणाम करने का अवसर मिलता है। वे बहुत धनी थे परन्तु उन्हें कोई अभिमान नहीं था। उनके चरणों में साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए उनकी कृपा प्रार्थना करते हैं।