Harikatha

श्रीनरोत्तम दास ठाकुर

श्रीनरोत्तम दास ठाकुर कृष्ण-लीला में रूप मंजरी के अधीनस्थ, चंपक मंजरी हैं। यदि हम भक्ति में प्रगति करना चाहते हैं तो हमें वैष्णवों की कृपा के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। वैष्णवों के स्मरण से हमारी सभी जागतिक इच्छाएं दूर हो जाती हैं और हमारे चरम उदेश्य, कृष्ण-प्रेम की प्राप्ति होती है। हम अपने भौतिक मन से उनकी कृपा के लिए प्रार्थना नहीं कर सकते। हम नहीं जानते कि उनकी कृपा के लिए प्रार्थना कैसे करें। हम उनकी कृपा के लिए प्रार्थना करने से भी डरते हैं। कृपा की प्रार्थना करते हुए हम उनसे वास्तविकता में सांसारिक लाभ चाहते हैं।

सबसे पहले मैं पतितपावन, परमाराध्यतम, श्रीभगवान के अभिन्न-प्रकाश-विग्रह, श्रीभगवद्ज्ञान-प्रदाता, श्रीभगवान की सेवा में अधिकार प्रदानकारी, परमकरुणामय, श्रीलगुरुदेव के पादपद्मों में अनन्त कोटि साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ। पूजनीय वैष्णव वृन्द के श्रीचरण में प्रणत होकर उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ। भगवद्कथा श्रवण-पिपासु, दामोदर व्रत पालनकारी भक्तवृन्दों को मैं यथायोग्य अभिवादन करता हूँ, सबकी प्रसन्नता प्रार्थना करता हूँ।

आज नरोत्तम ठाकुर की तिरोभाव तिथि है। उनका अविर्भाव आविर्भाव माघी पूर्णिमा में है।एक विचार से हम लोगों को ‘नरोत्तम परिवार’ भी कहा जाता है। नरोत्तम ठाकुर, कृष्ण लीला में रूप मंजरी के अधीन चंपक मंजरी हैं। रूपमंजरी, रूप गोस्वामी का प्रेम प्रदान करने के लिए ही हमारे परम गुरुजी(प्रभुपाद) आए थे। (उनका)सीधा सम्बन्ध है नरोत्तम ठाकुर से। हम प्रतिदिन गुरु परंपरा में स्मरण करते हैं—कृष्णदास कविराज गोस्वामी, उनके बाद नरोत्तम ठाकुर, विश्वनाथ चक्रवर्तीपाद, बलदेव विद्याभूषण इत्यादि। वैष्णवों की आविर्भाव-तिरोभाव तिथि में उनको स्मरण करने की व्यवस्था है। उनके स्मरण से ही सब कुछ प्राप्त जाएगा।

गुरु,वैष्णव, भगवान — तिनेर स्मरण
तिनेर स्मरणे हय विघ्न विनाशन
अचिराते हय निज अभीष्ट पूरण।।
(चै॰च॰आदि 1.1.20-1)

By remembering only, we can get everything. We should remember vaishnavas daily. Shad Goswamis used to remember daily, thousands of vaishnavas and offered prostrated obeisances to them. They taught us if you want to have progress in bhakti, you should pray the grace of the vaishnavas. By remembrance you can remove all ulterior desires and get the highest objective—Krishna Prem.

(वैष्णवों को केवल याद करने मात्र से ही हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। हमें प्रतिदिन वैष्णवों को स्मरण करना चाहिए। षड्गोस्वामी प्रतिदिन हज़ारों वैष्णवों का स्मरण करते थे और उन्हें दण्डवत् प्रणाम करते थे। उन्होंने अपने आचरण द्वारा हमें यह शिक्षा दी कि यदि हम भक्ति में उन्नति करना चाहते हैं, तो हमें वैष्णवों की कृपा प्रार्थना करनी चाहिए। उन्हें स्मरण करने से आप की सब प्रकार की अन्याभिलाषायें को दूर कर हो जाएगी और चरम लक्ष्य, कृष्णप्रेम की प्राप्ति हो सकती है।)

हमें उनकी कृपा प्रार्थना करनी चाहिए। वैष्णवों की कृपा से सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त हो जाती है।

वैष्णवेर गुण गान करिले जीवेरे त्राण—वैष्णवों का महात्म्य-कीर्तन करने से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान किसे कहते हैं? जो भक्त में भक्तिमान हैं। भक्त किसे कहते हैं? जो भगवान में भक्तिमान है। भक्तों भगवान को बहुत प्रिय है। भक्तों का महात्म्य कीर्तन करने से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है।

But the difficulty is that we cannot remember vaishnavas, their transcendental form, their transcendental pastimes by our material mind. That is the difficulty. By material mind you cannot remember. By remembrance you will get everything but it is impossible to remember them by material mind. We cannot also pray for their grace.

(किन्तु इसमें मुश्किल यही है कि हम वैष्णवों के अप्राकृत स्वरूप, उनकी अप्राकृत लीलाओं को अपनी जड़ बुद्धि द्वारा नहीं जान सकते। निस्सन्देह उन्हें स्मरण करने से सब कुछ प्राप्त हो सकता है किन्तु इस जड़ मन द्वारा उन्हें स्मरण कर पाना असम्भव है। हम उनकी कृपा प्रार्थना भी नहीं कर सकते।)

कृपा-प्रार्थना करो, कृपा-प्रार्थना करो—कह देने से नहीं होगा। How to pray grace we did not know. हम लोग कृपा प्रार्थना करने के लिए भी डरते हैं। हम उनसे संसार की वस्तु माँगते हैं।

यहाँ, बठिंडा में एक जैन धर्मशाला थी। पहले वार्षिक उत्सव के समय हम वहाँ ठहरते थे। जब वार्षिक उत्सव के दिनों मैं वहाँ ठहरा हुआ था तो लोग वहाँ प्रणाम करने आते थे। एक बार वहाँ एक माताजी आकर बैठ गई, जाती ही नहीं। हम लोगों ने सोचा क्या बात है? बहुत पूछने के बाद वह कहने लगी—“स्वामी जी! मैं बहुत दुःखी हूँ।”

बहुत पूछने के बाद उसने बताया, “मेरा विवाह तो हो गया है किन्तु अब तक कोई बच्चा नहीं हुआ। इसलिए मैं दुःखी हूँ। आप कुछ ऐसा बोल दीजिए जिससे मेरा बच्चा हो जाए।”

तो वह साधु के पास पुत्र की कामना से आई थी। तब मैंने उसे कहा, “हाँ! बच्चा तो होगा, किन्तु बलपूर्वक बच्चा माँगने से कोई लाभ नहीं है। जब भगवान् ने बच्चा नहीं दिया तो कृष्ण को गोपाल रूप से प्रीति करो। आपको इसके लिए अवसर मिल गया। नाशवान बच्चे की क्या आवश्यकता है?”

इस प्रकार यह सब कामना लेकर हम लोग भगवान और भक्तों के पास जाते हैं। संसार की वस्तु के लिए कृपा प्रार्थना करते हैं। वास्तविक कृपा प्रार्थना करने की मुझ जैसे व्यक्ति में हिम्मत नहीं है। वास्तविक कृपा प्रार्थना करनेवाले लोग दुर्लभ है, Very rarely to be found. I am also one of them. I also want name, fame and other ulterior desires. Then how Krishna will come to me? Krishna is residing within our heart. भगवान् हमारे हृदय में बैठे हैं। हम क्या चिंता कर रहे हैं वह पहले ही समझ लेते हैं। उनसे छुपाकर हम कोई विचार भी नहीं कर सकते हैं। इसलिए वह चिंता के अनुरूप फल देंगे। According to the thought, not what words you are saying. You will not get fruit from the Lord like that. According to your thinking you’ll get.

इसलिए वह कृपा प्रार्थना करना भी मुश्किल है। भगवान तो निर्गुण और अप्राकृत हैं। भगवान के भक्त भी अप्राकृत हैं, प्रकृति के अतीत हैं। उनका महात्म्य बद्ध जीव कैसे वर्णन करेंगे? उनका महात्म्य वर्णन करना ही मुश्किल है।

वैष्णवेर गुण गान करिले जीवेरे त्राण, तो तो बोल दिया, किन्तु वैष्णव तो अप्राकृत हैं। उनका गुणगान अपनी जड़ जिह्वा, जड़ मन अथवा जड़ बुद्धि के द्वारा कैसे करेंगे? वैष्णवों का गुणगान कीर्तन करने के लिए भी वैष्णवों की कृपा चाहिए।

वैष्णव की कृपा प्रार्थना करने के लिए वैष्णव की कृपा चाहिए। वैष्णव को स्मरण करने के लिए भी वैष्णवों की कृपा चाहिए। अन्य कोई उपाय नहीं है। तब भी, चेष्टा करने से वैष्णव की कृपा होती है (इसी विचार से हम उन्हें स्मरण करेंगे)।

नरोत्तम ठाकुर का आविर्भाव माघी पूर्णिमा में हुआ। वे रूपमंजरी के अनुगत चंपक मंजरी हैं। श्रील नरोत्तम ठाकुर माघी पूर्णिमा में राजशाही जिले के खेतुरी धाम में, राजा कृष्णानंद दत्त और नारायणी देवी को अवलम्बन करके आविर्भूत हुए। माघी पूर्णिमा, मघायुक्त पूर्णिमा है, इस पूर्णिमा से कलयुग का प्रारंभ होता है। माघी पूर्णिमा में आविर्भाव और कार्तिक कृष्ण पंचमी तिथि में उनका तिरोभाव है। कार्तिक पूर्णिमा में संसार त्याग और श्रावण पूर्णिमा में लोकनाथ गोस्वामी से दीक्षा ग्रहण की। सब कुछ पूर्णिमा में हुआ।

ऐसे तो बाहरी रूप में दिखाई पड़ता है कि श्रील नरोत्तम ठाकुर दत्त कुल में आए, परन्तु ऐसा होने पर भी वह वैष्णवों में श्रेष्ठ हैं।

वैष्णवे जाति-बुद्धि नारकी सः।
जातिकुल सब निरर्थक जानाइते।
जन्माइलेन हरिदास म्लेच्छ कुलेते॥

भगवान को जनाने के लिए जन्म, कुल आदि सब निरर्थक हैं।

जब चैतन्य महाप्रभु संन्यास के बाद दूसरी बार वृन्दावन के लिए जा रहे थे, तब उनके साथ असंख्य लोग यात्रा कर रहे थे। इस कारण उन्होंने वृन्दावन जाने का विचार छोड़ दिया और कानाई नाटशाला से लौट गए तथा पुरी के लिए प्रस्थान किया। वहाँ उन्होंने ‘नरोत्तम! नरोत्तम!’, पुकारा। नरोत्तम ठाकुर का तो उस समय जन्म भी नहीं हुआ था? नरोत्तम ठाकुर तो महाप्रभु का बहुत प्रिय है। चंपक मंजरी है। नरोत्तम-नरोत्तम पुकारने से सबको आश्चर्य हो गया। यद्यपि नित्यानन्द प्रभु सब जानते हैं, किन्तु सबको समझाने के उद्देश्य से उन्होंने महाप्रभु से पूछा, “आप नरोत्तम बोलकर किसे पुकार रहे हैं?”

तब महाप्रभु कहते हैं—“देखो, यहाँ पर नरोत्तम आएगा। अभी नहीं, बाद में प्रकट होगा।”

“मैंने जब संन्यास ग्रहण किया था, तुम मेरे लिए बहुत रोए थे। तुमने जो अश्रु बहाये थे तुम्हारे वह प्रेम-रूपी अश्रु इकट्ठे करके मैंने पद्मानदी को दे दिए हैं। वही ‘प्रेम’ नरोत्तम को देने के लिए मैं पद्मानदी को बोलकर आ गया।”

हम ऐसा सोच सकते हैं कि ‘पद्मा’ तो नदी है, एक जड़ पदार्थ है। उसमें चेतना कैसे हो सकती है? इसके लिए हमें वैदिक दृष्टि से देखना होगा। हमें वैदिक संस्कृति को समझना होगा।

But we have to understand the Vedic culture. What is the instructions of the Vedas. Behind everything there is consciousness. हमारे शरीर के भीतर जब तक चेतना रहेगी, तब तक शरीर रहेगा। चेतना जब चली जाएगी शरीर नहीं रहेगा। बिल्डिंग के बीच में जब तक चेतन व्यक्ति रहे तब तक बिल्डिंग रहेगी। जब वहाँ से व्यक्ति चला जाएगा तो 500-1000 साल बाद बिल्डिंग गिर जाएगी।

सूर्य देखने में जड़ पदार्थ है, परन्तु उसकी रक्षा करने के लिए उसके पीछे एक (अधिष्ठाता) देवता है। गंगा नदी के पीछे उनकी अधिष्ठात्री गंगा देवी हैं। इसी प्रकार पद्मा नदी की अधिष्ठात्री पद्मावती देवी हैं। 10 दिशाओं की पूजा होती है, उन दिशाओं के पीछे उनके अधिष्ठाता देवता हैं।

Western countries are not able to understand this. Behind everything, there is a spiritual principle. Without it, it cannot be maintained or sustained.

(पाश्चात्य देश के लोग इसे नहीं समझ पाएँगे।प्रत्येक वस्तु के पीछे एक चेतन तत्व होता है। उसके बिना उस वस्तु का अस्तित्व नहीं रह सकता।}

तो महाप्रभु ने वह दिव्य प्रेम पद्मा के पास रख दिया। जब नरोत्तम ठाकुर का जन्म हुआ, गौर-नित्यानन्द के प्रेम से महापुरुष के जितने गुण हैं, सब उनमें प्रकाशित हुए।वे उनके पार्षद ही हैं। नरोत्तम राजा कृष्णानंद दत्त के पुत्र रूप से आविर्भूत हुए। कृष्णानंद के कनिष्ठ भाई, पुरुषोत्तम दत्त के पुत्र का नाम संतोष दत्त था। जब नरोत्तम ठाकुर जी की आयु मात्र 12 वर्ष की थी, तब नित्यानन्द प्रभु जी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर कहा, “तुम इतना रोते क्यों हो? तुम्हारे लिए गौरांग महाप्रभु ने प्रेम रख दिया है।”

उस स्थान का नाम है—कुतुबपुर। हमारे गुरूजी का आविर्भाव स्थान भी पद्मावती नदी के किनारे पर है। जब नरोत्तम ठाकुर को वहाँ पर प्रेम मिला, उसके बाद इस स्थान का नाम प्रेमतली हो गया। महाप्रभु ने पद्मा नदी को कहा था कि यहाँ पर स्नान करने जब नरोत्तम आएगा, उसे यह प्रेम देना। तब पद्मा नदी ने कहा कि मैं उसे कैसे पहचानूँगी? कितने हजारों व्यक्ति यहाँ स्नान करते हैं। तब महाप्रभु कहते हैं कि नरोत्तम के स्नान करने से तुम्हारा जल उछल उठेगा। तुम समझ जाओगी।

तो नरोत्तम को स्वप्न में नित्यानंद प्रभु ने स्वप्न में बोल दिया कि तुम्हारे लिए चिंता की कोई बात नहीं है। तुम इतने व्याकुल क्यों होते हो? तुम्हारे लिए पहले ही महाप्रभु ने व्यवस्था करके रख दी है। तुम्हारे लिए प्रेम रख दिया। वहाँ जाकर स्नान करने से प्रेम मिल जाएगा। स्वप्न देख कर नरोत्तम वहाँ चले गए। वहाँ जाकर जब नदी में स्नान किया तो नदी का जल उछल उठा। तब पद्मा नदी, पद्मा देवी मूर्ति धारण करके कहती हैं, “महाप्रभु आपके लिए प्रेम देकर गए हैं। इसे आप ले लीजिए।”

वह प्रेम ग्रहण करने के बाद अगले ही क्षण उनका भाव, वर्ण सब परिवर्तित हो गया। वह निरन्तर ‘कृष्ण! कृष्ण!’ उच्चारण करने लगे। इस संसार के सब प्रकार के सम्बन्ध छोड़कर वे घर से भाग गए और रो-रोकर ‘कृष्ण! कृष्ण!’ पुकारने लगे। राजा का पुत्र होने पर भी बिना किसी सेवक, धन या भोजन को साथ लिए, वे अकेले ही घर से निकल गए। ‘कृष्ण! कृष्ण!’ बोलते हुए वृन्दावन की ओर चल दिए। रो-रोकर जा रहे हैं, रात-दिन चल रहे हैं। वे लगातार दो दिन बिना कुछ खाए-पिए चलते रहे। उनकी पैरों में फुंसी हो गई।वे चलने में असमर्थ हो गए। एक स्थान पर जाकर वे गिर पड़े और बेहोश हो गए। तब गौरांग महाप्रभु ब्राह्मण रूप से वहाँ पर आए और एक लोटा दूध दिया।महाप्रभु ने कहा तुम दूध पियो। किन्तु दूध पीने का सामर्थ्य उनमें नहीं है। तब रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी वहाँ पर प्रकट हो गए। उस समय तक तो महाप्रभु, रूप-सनातन गोस्वामी इस धरातल से अंतर्धान हो चुके थे किन्तु वहाँ प्रकट हुए। अभी भी वे प्रकट हो सकते हैं, नरोत्तम ठाकुर भी प्रकट हो सकते हैं।किन्तु उस प्रकार की योग्यता होनी चाहिए। वे लोग तो नित्य हैं, नित्य पार्षद हैं। किसी भी स्थान पर प्रकाशित हो सकते हैं। रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी ने प्रकट होकर उनके शरीर को स्पर्श किया और उन्हें दूध पिला दिया। उनके सम्पूर्ण शरीर में शक्ति संचारित हो गई। उसके पश्चात् वे अन्तर्धान हो गए। नरोत्तम ठाकुर तब पुनः चलने लगे।

‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’

कौन आकर उन्हें दूध पिलाकर गया, खिला दिया, किसने दिया?

इस प्रकार भगवान को पुकारते-पुकारते वे वृन्दावन पहुँच गए। राजा के पुत्र हैं, थोड़ा विचार करके देखिये वे राजा के पुत्र हैं। और हम लोग ब्रजमण्डल नवदीप धाम अथवा पुरी परिक्रमा आने के समय पहले ही कहकर रखते हैं कि हमारे लिए जगह ठीक रखना, अच्छा कमरा होना,साथ में बाथरूम होना चाहिए इत्यादि। यदि व्यवस्था अच्छी हो, तब तो ठीक है अन्यथा हम असंतुष्ट हो जाते हैं। किन्तु नरोत्तम ठाकुर ने राजा का पुत्र होते हुए भी साथ में कुछ भी नहीं लिया। कोई साधारण व्यक्ति यह कर सकता है? इसलिए हमें समझना चाहिए कि यद्यपि इन्होंने मनुष्य रूप से जन्म लिया परन्तु वास्तव में वे भगवान के पार्षद हैं। भगवान के विरह में व्याकुल चलते-चलते वृन्दावन जा रहे थे।

उस समय वहाँ वृन्दावन में लोकनाथ गोस्वामी उपस्थित थे। चैतन्य महाप्रभु जी के आदेश से गौड़ीय वैष्णवों में से सर्व-प्रथम वे ही श्रील भूगर्भ गोस्वामी जी को साथ लेकर वृन्दावन आए थे। श्रील लोकनाथ गोस्वामी तीव्र वैराग्य के साथ भजन करते थे। उन्होंने ऐसा संकल्प लिया हुआ था कि वे किसी को भी शिष्य नहीं बनाएँगे क्योंकि शिष्य ग्रहण करने से शिष्य की चिंता करनी पड़ेगी। जबकि दूसरी ओर नरोत्तम ठाकुर का संकल्प था कि वे लोकनाथ गोस्वामी से ही मन्त्र लेंगे।

जब नरोत्तम ठाकुर उनके पास गए और पूछा तो लोकनाथ गोस्वामी ने कहा कि मैं किसी को मन्त्र नहीं देता। तब क्या किया? उस समय शौचक्रिया करने जंगल में जाया करते थे। अभी शहर बन गया है परन्तु उस समय ऐसी व्यवस्था नहीं थी। पहले हमने वृन्दावन में जहाँ पर भी भ्रमण किया, सब जगह जंगल में ही शौच आदि किया। अभी तो बिल्डिंग में शौचालय बनाना पड़ता है।

नरोत्तम ठाकुर ने देखा कि लोकनाथ गोस्वामी जंगल-पानी के लिए कहाँ जाते हैं। जहाँ वे जाते थे, मध्य रात्रि में जाकर नरोत्तम ठाकुर उस जगह को एकदम साफ करके रख देते और साथ ही हाथ धोने के लिए साफ मिट्टी और जल भी एक कोने में रख देते थे। वे सफाई करने के पश्चात् झाड़ू को वृक्ष की ओट में मिट्टी के नीचे छिपा कर रख देते थे। लोकनाथ गोस्वामी जब आकर देखते थे तो आश्चर्यचकित हो जाते थे कि कौन व्यक्ति यह कार्य कर रहा है। शौचक्रिया आदि सब क्रियाएँ पूर्ण होने के बाद लोकनाथ जी अपना भजन करने के लिए चले जाते। इस प्रकार प्रतिदिन उन्हें वह स्थान स्वच्छ मिलता। एक दिन लोकनाथ जी ने सोचा कि आज यहीं पेड़ के नीचे बैठकर भजन करूँगा और देखूँगा कि कौन ऐसा करता है। मध्य रात्रि में उन्होंने देखा कि राजा का पुत्र नरोत्तम सब कुछ साफ कर रहा है। यह देखकर लोकनाथ गोस्वामी दूर से ही पूछते हैं—कौन है? कौन यह गंदा काम कर रहा है? नरोत्तम घबरा गए और उत्तर दिया कि मैं नरोत्तम हूँ। लोकनाथ गोस्वामी ने कहा कि तुम राजपुत्र होकर ऐसा कर रहे हो। तुम्हारा यह काम करना ठीक नहीं है।

नरोत्तम कहते हैं, “मुझे आपकी कृपा चाहिए” और ऐसा कहकर वह रोने लगे। तब लोकनाथ गोस्वामी ने उनकी सेवा से संतुष्ट होकर उन्हें ही मन्त्र प्रदान किया।

हमारे परम गुरुजी(श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर) भी नरोत्तम ठाकुर की तरह ही थे। गौर किशोर दास बाबाजी महाराज भी बहुत वैराग्य के साथ भजन करते थे। टूटी हुई नाँव के नीचे बैठकर निरन्तर दिन-रात हरिनाम करते थे, कभी गंगा का जल पी लिया, कभी मिट्टी खा ली, यदि माधुकरी मिलती तो उसे थोड़ा सा खा लेते। श्रील प्रभुपाद ने ऐसा संकल्प किया था कि वे उन्हीं सी मन्त्र लेंगे। वे कहते हैं कि मैं किसी को मन्त्र नहीं दूँगा। किन्तु प्रभुपाद उनके पास जाकर प्रार्थना करने लगे। बार-बार प्रार्थना करने पर भी मन्त्र देने से मना किया। 13 बार उन्हें वापस भेज दिया। उसके बाद बाबाजी ने कहा कि देखिए मैं चैतन्य महाप्रभु से पूछूँगा। वे जो कहेंगे, वैसा ही होगा। अगली बार जब प्रभुपाद बाबाजी महाराज के पास गए और उनसे पूछा, तब बाबाजी ने कहा कि मैं पूछना भूल गया। हम लोगों के समान कोई होता तो क्रोधित हो जाता और सोचता कि बहुत गुरु हैं, एक गुरु के पास मंत्र नहीं मिला तो क्या हुआ, दूसरे गुरु के पास जाकर ले लेंगे। किन्तु श्रील प्रभुपाद ने उन्हें छोड़ा नहीं। प्रभुपाद पुनः बाबाजी महाराज जी के पास गए और पूछा कि महाप्रभु ने क्या कहा। तब बाबाजी महाराज ने कहा कि वे कहते हैं कि आपके जैसे दाम्भिक व्यक्ति को मन्त्र नहीं देना। तब प्रभुपाद ने कुछ नहीं कहा। यह सुनकर प्रभुपाद का मुख काला पड़ गया(वे हताश हो गए)। उसके बाद ऐसा हुआ कि जिन बाबाजी का पैर छूने से वे अभिशाप दे देते थे कि तुम्हारा सर्वनाश हो जाए , उन्होंने स्वयं अपने ही चरणों की रज हाथ में लेकर प्रभुपाद के अंगों में लगा दी। उन्होंने प्रभुपाद से कहा, “तुम्हीं चैतन्य महाप्रभु का धर्म प्रचार करने के लिए योग्य हो।” ऐसा कहकर बाबाजी ने उन्हें मन्त्र प्रदान किया तथा उनमें शक्ति-संचार कर दी। प्रभुपाद ने अकेले ही पूरे विश्व को हिला दिया। हजारों-लाखों व्यक्तियों की आवश्यकता नहीं पड़ी। नरोत्तम ठाकुर का भी इसी प्रकार है।

श्रीरूप-सनातनादि के अप्रकट होने के पश्चात श्रीजीव गोस्वामी उत्कल–गौड़–माथुरमण्डल के गौड़ीय सम्प्रदायों के सर्वश्रेष्ठ आचार्य के पद पर अधिष्ठित हुए थे एवं वे वृन्दावन में विश्ववैष्णव राजसभा के श्रेष्ठ पात्र राज थे। उन्होंने नरोत्तम को ‘ठाकुर’, श्रीनिवास को ‘आचार्य’ और दुःखी कृष्णदास को ‘श्यामानंद’ उपाधि/नाम प्रदान किए। और उन्होंने तीनों को ताल पत्रों में लिखे हुए गोस्वामियों के ग्रंथों से भरे एक पिटारे के साथ बंगाल में प्रचार करने के लिए भेज दिया। हमारा जो ग्रन्थ(गौर-पार्षद)है उसमें से आप पढ़ सकते हैं, श्री नरोत्तम ठाकुर की महिमा में के विषय में बहुत बाते हैं, समय लगेगा किन्तु वे हमारे गुरु हैं उनके विषय में आज चिंतन करना चाहिए।

नरोत्तम ठाकुर को श्रील लोकनाथ गोस्वामी का भी एक आदेश हुआ था। जब नरोत्तम ठाकुर लोकनाथ गोस्वामी की सेवा करते थे तो जब कोई अतिथि आता, तो नरोत्तम ठाकुर उनका स्वागत करते—“आइए, आइए। बैठिए, बैठिए।”

जब लोकनाथ गोस्वामी ने ऐसा देखा तो उनसे कहा कि तुम तो राजा के पुत्र हो न, तुम्हारा तो बहुत काम है, तुम अभी खेतुरी में जाओ, वहाँ जाकर विग्रह प्रतिष्ठा करो और वहाँ रहो। वास्तव में उनका उद्देश्य था कि वहाँ के जीवों का उद्धार हो जाए। लोकनाथ गोस्वामी ने शिक्षा दी कि हरिनाम करने से ही सभी की सेवा हो जाती है, अन्य कुछ करने की आवश्यकता नहीं होती। वे भली भांति जानते थे कि नरोत्तम भगवान् के पार्षद, रूप गोस्वामी के अनुगत मंजरी हैं, इसलिए उन्होंने नरोत्तम ठाकुर को खेतुरी जाने और विग्रह प्रतिष्ठा करने का आदेश दिया गया। श्रीनिवासाचार्य प्रभु ने भी नरोत्तम ठाकुर को उनके गुरु का आदेश स्मरण करवाया। जब श्रील जीव गोस्वामी के आदेश से श्रील श्रीनिवासाचार्य, श्रीश्यामानन्द तथा श्रीनरोत्तम ठाकुर बंगाल में प्रचार करने जा रहे थे, तो यात्रा करते समय तीन रात तक जागरण करके रातभर ग्रंथों को पहरा दिया। उस समय मुसलमानों का राज था। उस समय चोर, डाकू का भय होता था। जब वे वन-विष्णुपुर में पहुँचे, तो यह सोचकर कि यहाँ पर हिन्दू राजा है, वे तीनों निश्चिन्त हो गए और थोड़ा विश्राम करने लगे। वहाँ का राजा, वीर हंबीर डाकुओं का सरदार भी था। इसलिए वह दिन में राजा का कार्य करता था, शाम को भागवत पाठ सुनता था और रात में डकैती करता था। एक ज्योतिषी ने उन्हें बताया कि आपके राज्य में बहुत धन आ रहा है। उस धन को लूट कर ले आओ।

तब राजा ने देवी की पूजा की और डकैती करने गया। वहाँ जाकर देखा कि तीन यात्री गहरी निद्रा में हैं और उनके पास एक बहुत बड़ी पेटी है। राजा ने सोचा कि हम लोगों को इन्हें मारकर पाप करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी, यह तो वैसे भी नींद में ही हैं। अतः वे पेटी को वहाँ से उठाकर ले आए और सोचने लगे कि हमें धन मिल गया। जब राजा ने पेटी को खोला तो देखा कि इसमें तो पुस्तकें हैं। तब राजा ने उन पुस्तकों को रखने के लिए कह दिया। किन्तु ग्रन्थ का भी प्रभाव होता है। ग्रन्थ को देखने से भी पवित्रता का भाव आता है। जब सुबह उठकर देखा कि ग्रन्थों की पेटी नहीं है, तो वे तीनों रोने लगे और सोचने लगे कि अब इस जीवन को धारण का क्या लाभ है? हमारे गुरुवर्गों ने हमारे ऊपर इतना बड़ा दायित्व दिया था और हम आराम करने के लिए सो गए। बहुत दुःखी हुए।

तब श्रीनिवासाचार्य ने नरोत्तम ठाकुर को उत्तर बंग, श्यामानंद प्रभु को उत्कल देश में भेज दिया और स्वयं वहाँ रह गए और ऐसा संकल्प लिया कि मुझे जब तक ग्रन्थ नहीं मिलेंगे, मैं यहीं रहूँगा। कुछ समय बाद वहाँ के स्थानीय व्यक्तियों ने कहा कि हम लोगों को ऐसा संदेह है कि राजा ने ही वह पेटी चुराई है।

उन लोगों ने बताया कि वह राजा संध्या के समय भागवत-पाठ सुनता है। संध्या के समय श्रीनिवास आचार्य प्रभु जहाँ भागवत पाठ होता था वहाँ पहुँच गए, उनका बाह्य-रूप, मुखावदन इत्यादि चैतन्य महाप्रभु की भांति था महाप्रभु ही श्रीनिवास नाम रखा था, वे महाप्रभु से अभिन्न थे उनके दर्शन से ही सब आश्चर्य-चक्ति हो जाते हैं। श्रीनिवासाचार्य जब वहाँ पहुँचे तो दिव्य कांति युक्त विराट पुरुष को देखकर सब आश्चर्य-चक्ति हो गए। वे वहाँ श्रोता रूप से बैठ गए। वीर हम्बीर राजा देखता है कि कौन है वह? श्रीनिवासाचार्य प्रभु ने भागवत पाठ में जब भक्ति सिद्धांत विरुद्ध कुछ बात सुनी तो वे ‘आह’ कहकर चिल्लाए। तब राजा उनको बोलते हैं आप क्यों चिल्लाए? श्रीनिवास प्रभु ने कहा यह जो भागवत व्याख्या किया यह तो ठीक नहीं हुई। तब राजा ने कहा कि आप भागवत पाठ करने से अच्छा है।

श्रीनिवासाचार्य प्रभु पाठ करने के लिए प्रस्तुत हुए किन्तु भीतर में उनकी इच्छा यह थी कि वे देखना चाहते थे कि ग्रन्थ की पेटी उनके पास है कि नहीं। नरोत्तम ठाकुर एवं श्यामानंद प्रभु कीर्तन से ही प्रचार किया। जबकि श्रीनिवासाचार्य ने कीर्तन और पाठ दोनों के द्वारा प्रचार किया। उनसे भागवत पाठ सुनते सुनते वीर हंबीर राजा और उनके परिवार के सब लोगों का हृदय परिवर्तन हो गया। वे सब श्रीनिवासाचार्य प्रभु के शिष्य बन गयें। किन्तु इतने दिन रहने से भी ग्रंथ मिले नहीं तब श्रीनिवासाचार्य को बहुत दुख हुआ और वे द्वार बंद कर कमरे के अन्दर रो रहे हैं।राजा ने द्वारा के छिद्र से देखा कि गुरूजी रो रहे हैं।

वह बहुत दुखी होकर सोचने लगे कि कदाचित हम से गुरूजी की सेवा में अपराध हो गया, सर्वनाश हो गया। जब द्वार खोला तो राजा उनके चरणों में गिरकर रोने लगे। तब श्रीनिवास आचार्य ने कहा कि मेरी मृत्यु हो जाए तो ही अच्छा है, उन्होंने समग्र वृतांत राजा को सुनाया तो राजा ने कहा कि हमारे यहाँ पर एक ऐसा ही एक पेटी है जब राजा ने पेटी दिखाया तब श्रीनिवासाचार्य प्रभु ने कहा कि यही तो वह है। उन्होंने सबको यह सुखद संवाद भेज दिया।

नरोत्तम ठाकुर उत्तर बंग से प्रचार करते हुए मणिपुर तक पहुँच गएँ। उन्होंने मात्र कीर्तन के द्वारा ही मणिपुर के प्रायः 95% लोगों को वैष्णव बना दिया। वे ऐसा कीर्तन करते थे कि उन्होंने कीर्तन से ही सबको मोहित कर दिया।मणिपुर से कीर्तन पार्टी आई थी हमने देखा उनके कीर्तनों के अक्षर बांग्ला है किन्तु भाषा बिल्कुल अलग है।

हम उसे समझ नहीं सकते। किन्तु वे लोग जब वृंदावन में आते हैं तब बांग्ला कीर्तन ही करते हैं, तिलक करते हैं और ये सब कीर्तन करते हैं। वे जब अगरतला में आए थे, उन्होंने नरोत्तम ठाकुर के बहुत कीर्तन किए थे, मणिपुर के लोगों के संस्कार ही इस प्रकार है ।

वही आज नरोत्तम ठाकुर की तिरोभाव तिथि है, उनकी महिमा में अनेक बाते हैं, बोलने के लिए बहुत समय लगेगा, इसलिए संक्षिप्त में थोड़ा कुछ कह देता हूँ। जो बहुत ब्राह्मण लोग नरोत्तम ठाकुर के शिष्य हुए वे लोग देवी पूजा करते थे। एक दिन एक ब्राह्मण ने देवी को बलि देने के लिए एक बकरी खरीद लाने अपने पुत्र को भेजा। वह लड़का अच्छा बकरी लेकर रास्ता में आ रहा था तो उसको नरोत्तम ठाकुर का दर्शन हुआ। उसकी बातों से नरोत्तम ठाकुर को पता चल कि वे यह बकरी किस लिए लेकर जा रहे हैं तब वे उन्हें कहते हैं यह ठीक नहीं है। जीव हिंसा करना अच्छा नहीं है। इससे मंगल नहीं होगा। भगवान की उपासना करनी चाहिए। मनुष्य जन्म भगवान का भजन करने के लिए हुआ। किसी जीव के प्रति हिंसा नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार बहुत समझाने पर उन लोगों का हृदय परिवर्तन हो गया। किन्तु बकरी तो खरीद ली अब क्या करें? नरोत्तम ठाकुर ने कहा इसको छोड़ दो। उन्होंने बकरी छोड़कर उनसे फिर मंत्र ले लिया। उस लड़के के पिता को बहुत गुस्सा आ गया। यह हमारा पूजा बंद कर दिया। किन्तु बाद में वह गंगा नारायण चक्रवर्ती, रामकृष्ण भट्टाचार्य यह लोग सब शिष्य हो गएँ। जब बहुत ब्राह्मण शिष्य होए लगे तब ब्राह्मणों ने इर्ष्या वश होकर राज नरसिंह को शिकायत की। राजा और ब्राहमणों ने मिलकर ये निर्णय किया की दिग्विजय पंडित रूपनारायण के द्वारा नरोत्तम को तर्क में परास्त करवाना पड़ेगा। दिग्विजय पंडित को बुलवाया गया। र्राजा स्वयं पंडित को लेकर खेतुरी धाम नरोत्तम ठाकुर के पास जायेंगे। जब नरोत्तम ठाकुर के दो शिष्यों, रामचंद्र कविराज तथा गंगानारायण चक्रवर्ती को यह बात पता चली तो उनको बहुत दुःख हुआ, तब वे कुमारपुर नामक स्थान पर कुम्भार एवं पानवाले का वेश लेकर दुकान खोल कर बैठ गएँ जहाँ पर राजा और पंडित खेतुरी जाने के रास्ते में विश्राम करने के लिए रुके हुए थे। जब सब लोग जाते हैं वे लोग संस्कृत में बात करते हैं। राजा और पंडित ने सुना कि साधारण मिट्टी के बर्तन बनानेवाला और पानवाला भी संस्कृत में बात करते हैंतो लोग वहाँ गएँ ।तब उन्हें पता चला कि दोनों नरोत्तम ठाकुर के शिष्य है,उनसे तर्क आरंभ हो गया और उन दोनों ने पंडित के सभी भक्ति विरोधी विचारों को खंडन कर दिया। तब राजा कहते हैं तुम पंडित होकर उनके शिष्यों से परास्त हो गए तो उनके गुरु के पास जाकर क्या स्थिति होगी, वहाँ जाने की आवश्यकता नहीं है।

वही नरोत्तम ठाकुर की आज तिरोभाव तिथि है और वे ही हम लोगों के पूर्व गुरु है और गुरु सर्वस्व हैं। श्री रूपमंजरी पद में कहते हैं…

श्री रूपमंजरी पद सेई मोर संपद, सेई मोर जीवनेर जीवन…

गुरु ही सर्वस्व है यह कीर्तन भी होना चाहिए। होगा?आज नरोत्तम ठाकुर के चरणों में अनंत कोटि साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हुए उनकी कृपा की प्रार्थना करता हूँ। जाने-अनजाने में जो भी अपराध कियें उनके लिए वे क्षमा करें उनका तो साक्षात दर्शन नहीं हुआ तो किन्तु उनके ही अभिन्न स्वरूप हमारे श्री गुरुजी को देखा। गुरुजी के चरणों में कितने अपराध किए, गुरुजी साक्षात नरोत्तम ठाकुर का अभिन्न स्वरूप है। आज यही तिथि में उनके पादपद्मों में अनंत कोटि साक्षात दंडवत प्रणाम करता हूँ, और जाने -अनजाने में उनके चरणों में किए गए अपराधों को मार्जन करने के लिए एवं उनके पादपद्म की सेवा प्रदान करने के लिए प्रार्थना करता हूँ।