श्रील गुरुदेव ने रमा एकादशी का व्रत करने से प्राप्त होने वाले भौतिक लाभों का वर्णन करते हुए शास्त्र में ऐसे वर्णन क्यों किए गए हैं उसका कारण बताया है। उन्होंने एकादशी व्रत पालन के वैष्णव विचार को ।
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आज एकादशी तिथि है। हरि की प्रिय तिथि है। इस तिथि में भजन करने से बहुत महात्म्य है। इसे घर में भी पालन कर सकते हैं परन्तु यदि धाम में पालन करें, जैसे वृन्दावन धाम, मथुरा धाम तो उसका करोड़ गुणा अधिक लाभ होता है। जीवों का उद्धार करने के लिए भगवान ने इस प्रकार की व्यवस्था कर दी है। गुरु गृह भी धाम है।
मद्भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।
धाम किसे कहते हैं? जहाँ पर शुद्ध भक्त भगवान का महात्म्य कीर्तन करते हैं, वह धाम है। यहाँ पर(मठ में) गृहस्थ भक्त, त्यक्ताश्रमी भक्त, आदि कितने भक्तों का हमें संग मिला। यह भक्त संगाश्रम है; हमारे प्रभुपाद जी व गुरुजी ने इसे प्रकाशित किया। यहाँ पर जगह-जगह से भक्त लोग आए हैं। भारत के बाहर से भी भक्त आए हैं। इसलिए मठ भी धाम है। यहाँ पर यदि हरिवासर तिथि पालन करें, तो करोड़ गुणा अधिक फल होता है। कर्मकाण्डीय ग्रन्थों में जो एकादशी का जागतिक लाभ लिखे हैं उनकी प्राप्ति के उद्देश्य से शुद्ध भक्त पालन नहीं करते। किन्तु संसारिक के लोगो के लिए जागतिक लाभों के बारे में बताया गया है।
युधिष्ठिर महाराज के द्वारा कृष्ण को प्रश्न करने पर कृष्ण बताते हैं कि आज की एकादशी का नाम रमा एकादशी है। समस्त एकादशियों के महात्म्य में ऐसा कहा जाता है कि उस एकादशी का पालन करने से समस्त पाप ध्वंस हो जाते हैं। किन्तु सांसरिक व्यक्तियों को आकर्षित करने के लिए एक और जागतिक लाभ के बारे में कहा गया है। हमारे गुरुजी, परम गुरुजी व गुरु वर्ग ने इसका समर्थन नहीं किया। किसलिए? We already have the enjoying tendency within. Why should we give impetus to it?(हमारे भीतर पहले से ही भोग प्रवृत्ति है? हम इसे और ईंधन क्यों दें?) इसलिए एकादशी महात्म्य ग्रन्थ की भूमिका में इस विषय में सतर्क कर दिया।
महाराज मुचुकुन्द एक भक्त थे। महाराज मांधाता के 3 पुत्र थे अम्बरीष(यह अम्बरीष महाराज वे नहीं है जिन का माहात्म्य हम एकादशी में हम करते हैं), पुरुकुत्स और मुचुकुन्द। मुचुकुन्द महाराज की इन्द्र से मित्रता थी। देवता भी उन्हें बहुत सम्मान करते थे। महाराज मुचुकुन्द बहुत धार्मिक राजा थे। वह राज्य को शासन करते थे, भगवान की उपासना करते थे तथा एकादशी व्रत करते थे। उनके समय में एकादशी व्रत में फलाहार भी नहीं किया जाता था। वर्तमान समय में हमारे शरीर तो अन्नगत प्राण हैं, कुछ न लेने से शरीर तड़पता है। उस समय राजा ने अपने राज्य में घोषणा कर दी कि एकादशी में कोई कुछ नहीं खा सकता; यहाँ तक कि घर के पशु भी कुछ नहीं खा सकते। उनकी एक कन्या थी जिसका नाम चन्द्रभागा था। चन्द्रभागा का विवाह वहाँ के किसी विशेष व्यक्ति, चन्द्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ। एक समय शोभन अपनी स्त्री के साथ उसके पिताजी के घर पर रमा एकादशी के अवसर पर आया। पत्नी को चिन्ता हो गई क्योंकि उनका पति शोभन व्रत नहीं रख सकता था। क्योंकि उसका शरीर दुबला है, वह कुछ भी खाए बिना नहीं रह सकेगा। उसके तो प्राण ही चले जायेंगे। तब चन्द्रभागा ने उसे अपने पिता के राज्य में पालन किए जाने वाले एकादशी के कठोर नियमों के बारे में बताया। शोभन ने अपनी स्त्री को कोई उपाय बताने के लिए कहा। इसके उत्तर में उसने शोभन से कहा—“इसका कोई उपाय नहीं है। यहाँ पर तो पशु भी एकादशी के दिन कुछ नहीं खा सकते। मेरे विचार से आप वापस घर चले जाइए, अन्यथा आपको व्रत के नियमों का पालन करना ही पड़ेगा।”
तब शोभन कहते हैं, “जो भाग्य में होगा, वही सही। मैं वापस नहीं जाऊँगा, यहीं पर व्रत पालन करूँगा।” तब शोभन ने उपवास किया। रात्रि में वह भूख से तड़पने लगा। तड़पते-तड़पते सुबह उसका शरीर समाप्त हो गया। राजा मुचुकुन्द ने अपने दामाद के अन्तिम कृत्य सम्पन्न किए। उनकी कन्या से उसकी मृत्यु सहन न हुई। मुचुकुन्द ने अपनी कन्या को शोभन के साथ चिता में प्रवेश करने से मना कर दिया। इससे चन्द्रभागा को बहुत दुःख हुआ। एकादशी व्रत पालन करने से मृत्यु के बाद शोभन को इन्द्र जैसा स्थान मिल गया जिसका इन्द्रपुरी के समान वैभव था। जहाँ पर अनेक सेवक उनकी सेवा कर रहे हैं। एक दिन राजा मुचुकुन्द के राज्य में रहने वाले ब्राह्मण, सोमशर्मा भ्रमण करते हुए शोभन के राज्य में पहुँचे।
इस स्थान को देखकर ब्राह्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ। तब उसने कहा कि ऐसा स्थान पहले कभी नहीं देखा। यह इतना सुन्दर स्थान है। तब उन्हें पता चला कि यह स्थान चन्द्रभागा के पति का है। चन्द्रभागा पहले किसी नदी का नाम था, उसी नाम पर उनका नाम चन्द्रभागा हुआ। जब शोभन ने देखा कि कोई ब्राह्मण आया है तब उन्होंने उठकर उनका स्वागत किया।
शोभन को तब याद हुआ कि मैं पहले कौन था तथा एकादशी व्रत पालन करने से उन्हें वह स्थान प्राप्त हुआ। तब शोभन ने पूछा , आप कहाँ से आए है? ब्राह्मण ने कहा मुचुकुंद के राज्य से । तब शोभन सभी के बारे में पूछा। ब्राह्मण ने बताया राज्य में सब ठीक है। सोमशर्मा के बार बार प्रश्न करने पर राजा ने अपनी पूर्व कहानी में बताया कि अनिच्छा से मैंने मुचुकुंद महाराज के राज्य में रमा एकादशी व्रत का पालन किया जिसके फलस्वरूप मुझे यह राज्य मिला लेकिन इसका स्थायित्व नहीं है। यह सारी बात अप मेरी पत्नी को बता देना। ब्राह्मण ने राज्य में जाकर चन्द्रभागा को सारा वृत्तान्त सुनाया। यह जानने पर वह उतावली हो गई तथा कहने लगी कि मैं पहले उनसे मिलूँगी।
उस राज्य में इस भौतिक शरीर द्वारा प्रवेश नहीं किया जा सकता। अतः उसने ऋषि-मुनियों की कृपा से उस प्रकार का शरीर प्राप्त किया तथा वहाँ प्रवेश किया। वहाँ प्रवेश पाकर वह अपने पति से मिली तथा बहुत आनन्दित हुई। तब शोभन ने बताया कि इस राज्य का स्थायित्व नहीं है। किन्तु तुमने तो बहुत श्रद्धा के साथ एकादशी व्रत पालन किया। अतः यदि तुम्हारे व्रत के फलस्वरूप यह राज्य स्थायी हो सकता है। तब चन्द्रभागा के एकादशी व्रत के प्रभाव से वह राज्य स्थायित्व को प्राप्त हुआ तथा वे दोनों स्थायी भाव से इन्द्रपुरी के समान उस राज्य से परम सुख के साथ रहने लगे। यह है—एकादशी व्रत करने का लाभ!(गुरुजी हँसते हैं।)
हम लोग एकादशी व्रत पालन करने का कारण यह नहीं है। हरिभक्तिविलास ग्रन्थ में इस प्रकार नहीं लिखा। हरिभक्तिविलास , कात्यायनी संहिता, ब्रह्म संहिता, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि ग्रन्थों में वर्णित है कि वास्तविकता में व्रत किसे कहते हैं?
उपावृत्तस्य पापेभ्यो यस्तु वासो गुणैः सह।
उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः॥
(हरिभक्तिविलास 13.35)सभी प्रकार के पाप से निवृत्त होकर, समस्त सद्गगुणों के साथ भगवान के निकट में वास करना—इसे उपवास कहते हैं। हम सोचते हैं स्वर्ग में जाएंगे, इन्द्रपुरी लाभ करेंगे। किन्तु स्वर्ग इत्यादि समस्त ब्रह्माण्ड तो मायिक जगत है। आविरिंची अमंगलम्। इस जगत में रहकर यदि इन्द्रपुरी मिले तो वह भी तो नाशवान है। एकादशी व्रत का यह फल नहीं है। उपवास मतलब भगवान के नजदीक में निवास करना। भगवान के नजदीक में निवास कैसे करेंगे? भगवान तो निर्गुण है, निर्गुण वस्तु के पास मैं सगुण शरीर लेकर कैसे जाऊंगा? हम नहीं जा सकते।
दीक्षाकाले भक्त करे आत्मसमर्पण
सेइ काले कृष्ण ताँरे करे आत्मसम।
सेइ देह करे ताँर चिदानन्दमय
अप्राकृतदेहे कृष्ण चरण भजय॥श्री चैतन्य चरितामृत में लिखा है, जब दीक्षा लेते हैं, शुद्ध सद्गुरु से दिव्य ज्ञान लेते हैं। सद्गुरु भगवान की ही कृपामय मूर्ति हैं, उनके माध्यम से शिष्य भगवान को आत्मसात करते हैं । …करे आत्मसम’—उस समय भगवान शिष्य को अपने समान बना देते हैं। भगवान तो सच्चिदानन्दमय, निर्गुण हैं। शिष्य का शरीर भी वैसा हो जाएगा।
अप्राकृतदेहे कृष्ण चरण भजय।
भगवान अप्राकृत हैं। जब हम भी अप्राकृत भूमिका में आएँगे, तभी तो भगवान का भजन कर सकेंगे। यह तो बहुत कठिन बात है। ऐसी चिंता करना भी नहीं कर सकते, किन्तु स्वयं भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु ने बोल दिया कि घबराने की बात नहीं है। भगवान के नज़दीक में वास करने के लिए क्या करना चाहिए?
श्री हरिवासरे हरि कीर्तन विधान।
हरिवासर तिथि में हरि कीर्तन करना विधान होता है। भगवान और भगवान का नाम एक है।
नाम: चिंतामणि कृष्णश्चैतन्य रस विग्रह:।
पूर्ण शुद्धो नित्यमुक्तोऽभिन्नत्वं नाम नामिनो:॥नाम चैतन्य रस का विग्रह है। भगवान का नाम और नामी अभेद हैं। जो कृष्ण नाम है, वही कृष्ण है। यदि भेद हो तो वह मायिक शब्द हो जाएगा। माया का शब्द यदि कोई उच्चारण करें—जैसे पानी! पानी! बोलकर प्यास नहीं बुझ सकती। पानी शब्द और पानी वस्तु अलग है। भगवान का शब्द इस प्रकार नहीं है। भगवान का शब्द भगवान ही है। ब्रह्म वस्तु में कोई माया का व्यवधान नहीं है। नाम तथा नामी एक ही है। इसी युग में सर्वोत्तम मंगल, प्रेम मिल जाएगा यदि कृष्ण नाम करें। इसलिए हरिवासर में हरि कीर्तन करने का विधान है। सर्वोत्तम हरि कौन है?
हरि का अर्थ हरण करना अर्थात् चोरी करना। सबसे बड़ा चोर कौन है?
व्रजे प्रसिद्धं नवनीतचौरं, गोपांगणानां च दुकूलचौरम्।
अनेक-जन्मार्जित-पापचौरं, चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि॥1॥वल्लभाचार्य ने कृष्ण का महात्म्य लिखा। ब्रज में सबसे प्रसिद्ध चोर कौन है? माखन चोरी करने वाला कृष्ण सबसे बड़ा चोर है; जिसने गोपियों के वस्त्र अर्थात् लज्जा का हरण कर लिया। यदि लज्जा रहे तब भगवान के पास नहीं जा सकते। भगवान ने उसको भी चोरी कर लिया। वे अनेक जन्म के पाप को भी हरण करते हैं। वे चोर के अंदर में सर्वश्रेष्ठ है।
श्रीराधिकाया हृदयस्य चौरं, नवांबुदश्यामलकान्तिचौरम्।
पदाश्रितानां च समस्तचौरं, चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि॥2॥श्री राधिका के हृदय को चोरी किया। घने बादल के रंग को चोरी किया और जो उनका आश्रय लेता है वे उनका सब कुछ चुरा लेता है। कृष्ण भजन करने से सर्वनाश हो जाएगा, इसलिए कृष्ण का भजन नहीं करना चाहिए! हरि कहने से किसे सम्बोधित किया जाता है? राम भी हरि है, नरसिंह भी हरि है, मत्स्य, कूर्म इत्यादि सभी अवतार हरि हैं किन्तु वास्तव में सबसे बड़ा चोर कौन है? कृष्ण है,नंदनन्दन कृष्ण।
श्री हरिवासरे हरि कीर्त्तन विधान।
कृष्ण कीर्तन करो ।
नृत्य आरम्भिला प्रभु जगतेर प्राण॥
पुण्यवंत श्रीवास…महाप्रभु ने श्रीवास आंगन में यह कीर्तन किया। श्रीवास प्रभु नारद जी का अवतार है। वहाँ पर चैतन्य महाप्रभु सभी भक्तों से कहते हैं ,
श्री हरिवासरे हरि कीर्त्तन विधान।
नृत्य आरम्भिला प्रभु जगतेर प्राण॥
पुण्यवन्त श्रीवास-अंगने शुभारम्भ।
उठिल कीर्त्तन ध्वनि गोपाल गोविन्द॥
हरि ओ राम राम..हरि ओ राम राम..संकीर्तन प्रवर्तन करके उन्होंने चांद काज़ी को उद्धार किया। कलियुग का महामंत्र है
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥यह महामंत्र तारक भी है तथा पारक भी है। अर्थात् हमारा त्राण भी करेगा एवं सर्वोत्तम प्रेम भी देगा। इसलिए एकादशी में दिन-रात हरिकीर्तन करो। रात में भी मत सोना। ऐसा विधान है। घड़ी भी मत देखना! तब आप सोच सकते हैं, ओहो यहाँ आकर तो भूल हो गई, अभी तो यहाँ से जाना पड़ेगा। ऐसा नहीं है। सौभाग्य की बात है कि हम को ऐसा मौका मिला । दिन-रात हरि संकीर्तन करो। क्योंकि हरिनाम तथा हरि, कृष्णनाम तथा कृष्ण एक ही हैं, अतः महामन्त्र करने से हम हर समय राधाकृष्ण के पादपद्मों में रहेंगे। रात-दिन जब भक्तों के साथ हरिकीर्तन करेंगे तो भगवान के नजदीक में निवास होगा। यह विधान इतना कठिन नहीं है। भगवान का नाम लेकर पुकारो, उसी से हो जाएगा। अप्राकृत होकर भगवान की सेवा करने वाला विधान तो कठिन है, किन्तु हरिकीर्तन करना सरल है। परन्तु यह भी साधुसंग में रहकर करना होगा। उसके लिए हम लोगों का हरिवासर तिथि है। गजेंद्र का प्रसंग श्रीमद्भागवत में लिखा है। श्रीमद्भागवत जों कृष्णप्रेम को देने के लिए चैतन्य महाप्रभु आए, उसका मूल प्रमाण है। उसमें गजेंद्र प्रसंग में लिखा है, यदि हम लोगों का नीव नहीं बने तब कैसे हम लोग कृष्ण के पास जाएंगे? शरणागति ही नहीं है। निष्कपट रूप से गजेंद्र किस प्रकार शरणागत हुआ। गजेंद्र की कृपा होने से हमारे अंदर में भी वह शरणागति आएगी। बाकी तो भगवान करेंगे लेकिन शरणागत तो हमको ही होना पड़ेगा।
श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु जीवे दया करी
सपार्षद स्वीय धाम सह अवतरी
अत्यंत दुर्लभ प्रेम करिवारे दान
शिखाये शरणागति भकतेर प्राण।।गजेन्द्र किस प्रकार से शरणागत हुआ? सीधा परमेश्वर के पास शरणागत हुआ, किसी देव-देवी के पास शरणागत नहीं हुआ। भगवान प्रत्येक परिस्थिति में रक्षा करते हैं। जिस प्रकार गजेन्द्र ने उतावले भाव से भगवान की कृपा प्रार्थना की, हमें भी इसी प्रकार हृदय से इन प्रार्थनाओं को करना चाहिए।