Harikatha

भक्ति श्रीरूप सिद्धान्ति गोस्वामी महाराज की महिमा

आज हमारे शिक्षागुरु नित्यलीला प्रविष्ट परम पूज्यपाद परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डिस्वामी श्री श्रीमद् भक्ति श्रीरूप सिद्धान्ति गोस्वामी महाराज जी की शुभ आविर्भाव तिथि है। अधिक समय नहीं है, तब भी उनकी कृपा-प्रार्थना करते हुए संक्षेप में उनकी महिमा-कीर्तन करेंगे। वे निमंत्रण करके हमें उनके मठ में ले गए और इस प्रकार उन्होंने कृपा करके अपना दर्शन दिया तथा अपनी हरिकथा सुनने का अवसर भी दिया। प्रसाद में उनकी अपार निष्ठा थी। हमारे शिक्षागुरु परम पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्री श्रीमद् भक्ति कुमुद सन्त गोस्वामी महाराज जब अपने कलकत्ता मठ में थे तो उनकी हरिकथा सुनने के लिए स्वयं जाते थे। वे जीवों के कल्याण के लिए शुद्धभक्ति सिद्धान्त का निर्भीक रूप से प्रचार करते थे। एक बार हरिकथा में उन्होंने ऐसी बात कह दी कि कई श्रोताओं को असुविधा हुई तथा उन्होंने गौड़ीय मठ का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया। सभी को भय हो गया किन्तु उस समय हमारे परम गुरुजी नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद 108 श्री श्रीमद् भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी ने कहा कि उन्होंने ऐसा कहकर हमारा लाख रुपए का काम कर दिया। उस समय लाख रुपयों का बहुत मूल्य था।

मैं उनके कलकत्ता मठ में बहुत बार गया। वे स्वयं भी हमारे कोलकाता मठ में कई बार आए हैं। मैंने उनके मठ में जैसा अनुशासन देखा, वैसा किसी भी मठ में नहीं देखा। अन्य मठों में जयध्वनि के समय जब जय देते हैं तो सब लोग ‘जय’ नहीं कहते, आपस में वार्तालाप करते हैं, इधर-उधर घूमते हैं इत्यादि। जयध्वनि देने का तात्पर्य होता है—गुरु, वैष्णव व भगवान की कृपा-प्रार्थना करना।

Jai-dhvani is not unnecessary. Without the grace of Guru, Vaishnava and Bhagavan we cannot get their service. Many of the devotees utter ‘Jai’ without giving sincere attention.

In Srila Siddhanti Maharaj’s Math, I have seen everybody uttering ‘Jai’. The person who is giving ‘Jai’, he is also loudly uttering the names, praying for the grace and all others are giving their approval by saying ‘Jai.. Jai..’ When I saw, I asked, “What is this?”

(जयध्वनि अप्रयोजनीय नहीं है। गुरु-वैष्णव-भगवान की कृपा के बिना हम उनकी सेवा प्राप्त नहीं कर सकते। अधिकतर भक्त जयध्वनि में ध्यान दिए बिना ही ‘जय’ शब्द का उच्चारण कर देते हैं। मैंने श्रील सिद्धान्ति महाराज जी के मठ में देखा कि जयध्वनि देने वाले वैष्णव उच्च स्वर से नाम का उच्चारण करके जय देते थे और उनके पीछे-पीछे सब भक्त ‘जय….जय’ का उच्चारण किया करते थे।) जब मैंने पूछा कि यह क्या है तब भक्त कहते हैं—“हमारे गुरुदेव श्रील सिद्धान्ति महाराज जी ने ऐसा नियम बनाया है कि जो जयध्वनि देने वाले के पीछे-पीछे जय नहीं देगा, उसे प्रसाद नहीं मिलेगा। यदि जय कहेंगे तभी प्रसाद मिलेगा इसलिए भय के कारण सभी ‘जय……जय’ कहते हैं।” उनका अपने शिष्यों के प्रति स्नेह है, इसीलिए ऐसा करते हैं। हमने देखा कि उनके मठ में जय देने का इस प्रकार नियम है। वहाँ जैसा नियम कहीं और नहीं देखा।

बलदेव विद्याभूषण प्रभु ने ‘गोविन्द भाष्य’ लिखा तथा श्रील सिद्धान्ति महाराज जी ने उसका बंगला में अनुवाद करके विस्तार रूप से लिखा। It is a great contribution to the Gaudiya society. It is in four volumes ( गौड़ीय समाज में यह एक बहुत बड़ा अवदान है। यह चार खण्डों में प्रकाशित हुआ।). उन्होंने बहुत परिश्रम किया।

एक समय दिन रामानुज सम्प्रदाय के कुछ आचार्य जयपुर के महाराजा को कहने लगे कि गौड़ीय सम्प्रदाय की कोई वेदान्त की व्याख्या नहीं है। इसलिए वह चार वैष्णव सम्प्रदायों से बाहर है। तब राजा ने विश्वनाथ चक्रवर्तीपाद को इसका उत्तर देने के लिए कहा। अतः महाराज ने उन्हें पत्र भिजवाया और जयपुर में आने के लिए प्रार्थना की। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती वृद्ध होने के कारण नहीं गए तथा श्री बलदेव विद्याभूषण को भेज दिया। श्री बलदेव विद्याभूषण ने वहाँ जाकर उन्हें समझाया कि श्री वेदान्त के रचयिता वेदव्यास मुनि ने वेदान्त का अर्थ स्वरूप श्रीमद्भागवत ग्रन्थ लिखा। तब अलग से अर्थ करने की क्या आवश्यकता है? परन्तु तब भी न मानने पर उन्होंने उनसे सात दिन का समय माँगा। तब उन्होंने गोविन्द देव जी के मंदिर में जाकर उन्हें प्रणाम किया और उनसे आशीर्वाद माँगा। तब उन्हें उनकी प्रसादी माला मिली। उसके बाद उन्होंने लिखना प्रारम्भ किया तथा सात दिन में सारा वेदान्त भाष्य लिख लिया। तब गलता गद्दी में सभा हुई और उन्होंने वहाँ पर वह भाष्य सुनाया। उनके प्रेमपरक भाष्य को सुनकर सभी विस्मित हो गए एवं कुछ न बोल सके।

इस प्रकार श्रील बलदेव विद्याभूषण प्रभु ने ब्रह्म-मध्व-गौड़ीय सम्प्रदाय की मर्यादा की रक्षा की। उन्होंने संस्कृत भाषा में भाष्य लिखा तथा पूज्यपाद सिद्धान्ति महाराज जी ने उसका बंगला में अनुवाद किया। इसलिए हम सभी उनके ऋणी हैं।

वैष्णव अपनी आविर्भाव तिथि में विशेष रूप से उदार होते हैं, अपराध करने पर भी यदि हम हृदय से क्षमा-प्रार्थना करें तो वे क्षमा कर देंगे। इसलिए इस अवसर को हम क्यों गँवाएँगे? प्रभुपाद जी के निजीजन हैं, हमारे गुरुजी के गुरु भाई हैं, सब तरह से हमारे पूज्य हैं। उनके पादपद्मों में साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके उनकी कृपा प्रार्थना करता हूँ। जानकर अथवा न जानकर जो कोई अपराध किया हो वह क्षमा करें।