आजकल मुझे हरिकथा बोलने और हमारे आराध्यदेव श्री गुरु गौरांग राधा श्यामसुंदर, पंच पांडवों और वैष्णवों के दर्शन करने का अवसर नहीं मिलता है। यह मेरा दुर्भाग्य है। मेरे एक मित्र ने मुझे सलाह दी कि आज नहीं कुछ दिन बाद बोलने से अच्छा है। लेकिन मैंने उत्तर दिया, “आज वामन एकादशी है। हर कोई अपना स्वार्थ देखता है; मेरा भी अपना स्वार्थ है, क्यों? क्योंकि इस दिन यदि आप हरिकथा सुनते या बोलते हैं, तो आपको अन्य दिनों की तुलना में कई गुना अधिक लाभ मिलेगा। भक्त अपने घर में कीर्तन कर सकता है, उसे कुछ लाभ मिलेगा किन्तु यदि वह धाम में जैसे कि- मथुरा-धाम, व्रज-मंडल, नवद्वीप-धाम या पुरुषोत्तम-धाम में- व्रत पालन या कीर्तन करता है तो उसे करोड़ों गुना अधिक फल मिलेगा। शुद्ध भक्त जहाँ पर अपने आराध्य देव को प्रकाशित करते हैं तथा जहाँ भी भक्त एकत्रित होते हैं और भगवान की महिमा गाते हैं, वह स्थान भी धाम है। शास्त्रों में लिखा है, मद-भक्त यत्र गायंति तत्र तीष्टमी नारद- कृष्ण नारद से कह रहे थे, “मैं कहाँ रहता हूँ? मेरे भक्त मेरे नाम, रूप, गुण, लीलाओं और मेरे भक्तों की महिमा का गान करते हैं, वहाँ मैं रहता हूं।
किन्तु यदि इन्द्रियतृप्ति में रत होकर आप बाह्य रूप से धाम में रहते हैं, तो आप वास्तव में अपने धाम में नहीं हैं। धाम एक अप्राकृत भूमि है, प्राकृत शरीर और सांसारिक कामनाओं के साथ आप पवित्र धाम में प्रवेश नहीं कर सकते। यह संभव नहीं है। जिस स्थान पर शुद्ध भक्त भगवान की महिमा गाते हैं, वह स्थान भी धाम है। चैतन्य गौड़ीय मठ भी धाम है, यह दिल्ली का हिस्सा नहीं है जो पंच महाभूत से बना है। हमारे परमगुरुदेव, नित्यालिला प्रविष्ट ओम विष्णुपाद भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर बागबाजार गौड़ीय मठ, कोलकाता में निवास कर रहे थे। एक दिन उन्होंने मठ में रहने वाले सभी भक्तों, गृहस्थ भक्तों, अन्य बाहरी लोगों को बुलाया और उनसे कहा, “मैं कली के स्थान कालीकाता (कोलकाता) में नहीं रहता।” सभी लोग हैरान हो गए और कहा, “किन्तु आप तो कोलकाता में ही रहते हैं”। वास्तव में उनके आराध्यदेव गुरु गौरांग राधा गोविंद कोलकाता में हैं। भगवान के विग्रह, धाम और भक्त एक दूसरे से अभिन्न हैं। भगवान के धाम का अवतरण होता है; यह कोलकाता का हिस्सा, पंच महाभूत का विकार नहीं है। हमारी दृष्टी प्राकृत है इसलिए हम ऐसे देखते हैं। प्रभुपाद के शब्दों में निर्देश था कि भक्तों द्वारा स्थापित विग्रह जहां कहीं भी स्थापित होते हैं, वही धाम होता है। और यदि आप वहां भजन करते हैं तो आपको करोड़ों गुना अधिक लाभ मिलेगा। मैं यहां भक्तों के बीच अपने स्वार्थ के लिए आया हूँ। कोलकाता के मठ में दूर-दूर से बड़ी संख्या में भक्त आते हैं। यदि जन्माष्टमी, राधाष्टमी या अन्नकूट जैसा कोई विशेष अवसर नहीं है किन्तु फिर भी मठ भक्तों से भरा है तो आपको समझना चाहिए कि यह हरिवासर-तिथि का दिन है। वैष्णव कैलेंडर देखने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। भक्त सोचते हैं, “हमारे लिए प्रतिदिन मठ जाना बहुत कठिन है, हम एकादशी के दिन जायेंगे, पन्द्रह दिनों में एक बार हम गुरु-गृह, मठ में जायेंगे। और हम पंद्रह दिनों के लिए जाने का लाभ प्राप्त कर लेंगे। कम समय, कम ऊर्जा, अधिक लाभ।”
आज वह दिन है जब भगवान अपनी दूसरी ओर करवट बदलते (पार्श्व-परिवर्तन) हैं। वे अपनी बाईं ओर से आज अपनी दाईं ओर करवट बदलेंगे। भगवान चार महीने शयन करते हैं इसलिए इसे चतुर्मास्य-व्रत (चार महीने का व्रत) के रूप में जाना जाता है। यह शयन-एकादशी से आरंभ होता है, जो अषाढ़ मास की शुक्ल-पक्ष की एकादशी है जब भगवान शयन लीला करते हैं। आज वे अपनी बायीं ओर से दाहिनी ओर पार्श्व-परिवर्तन करेंगे और उत्थान-एकादशी के दिन जागरण लीला करेंगे। इन चार मास के लिए शास्त्रों में तीव्र भजन और विशेष तपस्या करने का आदेश है। भारत में, कर्मी, ज्ञानी, योगी और भक्त सभी चातुर्मास्य-व्रत का पालन करते हैं। हमारे परमगुरुदेव ने मायापुर धाम में चातुर्मास्य-व्रत का पालन किया था। उन्होंने इन चार मास के लिए गो-ग्रास (हाथों का उपयोग किए बिना फर्श पर प्रसाद रख कर गाय की तरह खाना) किया। उन्होंने भूमि पर शयन कर, दाढ़ी आदि रख कर तीव्र तपस्या की और वैराग्य दिखाया। श्रीमन चैतन्य महाप्रभु ने भी वेंकट भट्ट के घर में चातुर्मास्य-व्रत का पालन किया।
भगवान ने सभी प्रकार के लोगों के लिए एकादशी व्रत की महिमा बताई है। किन्तु शुद्ध भक्त केवल भगवान की संतुष्टि के लिए इस व्रत का पालन करते हैं; वे इसे किसी अन्य उद्देश्यों के लिए नहीं। वैवस्वत पुराण में, युधिष्ठिर महाराज ने कृष्ण से एक प्रश्न पूछा था, “मुझे आपके मुखारविंद से इस पार्श्व-एकादशी (वामन-एकादशी) की महिमा सुनने की इच्छा है।” कृष्ण कहते हैं, “यह एकादशी महा-पुण्यवती है। वह आपको स्वर्गीय में निवास या मुक्ति प्रदान कर सकती है। इसे पालन करने से आप कितने पुण्य फल अर्जित कर सकते हैं। और इस वामन-एकादशी पर यदि आप वामनदेव की पूजा करते हैं तो अन्य लोग भी आपकी पूजा करते हैं।” तो इस तरह के प्रलोभन सांसारिक लोगों को एकादशी व्रत के प्रदर्शन के लिए प्रोत्साहित करने के लिए दिए जाते हैं। किन्तु भक्त ऐसे भौतिक मोह में नहीं फंसते। यहां एक उदाहरण दिया गया है- एक छोटा लड़का बीमार था और डॉक्टर उसे बार-बार दवा लेने के लिए जोर दे रहे थे किन्तु वह मना कर रहा था। डॉक्टर ने उसे चेतावनी भी दी कि यदि वह दवा नहीं लेगा तो कभी ठीक नहीं होगा, किन्तु फिर भी लड़का अपनी प्राणों की कीमत पर भी दवा नहीं लेने के लिए बहुत दृढ़ था। तब डॉक्टर ने माता-पिता से पूछा कि लड़के को क्या खाना पसंद है जिस पर माता-पिता ने उत्तर दिया कि उसे रसगुल्ला पसंद है। तो डॉक्टर ने उसे रसगुल्ले का लालच दिया किन्तु इस शर्त पर कि उसे पहले दवा लेनी होगी और उसके बाद ही रसगुल्ले खा सकता है। लड़का रसगुल्ले की लालच में दवा लेने के लिए तैयार हो गया। डॉक्टर का मुख्य उद्देश्य उसे रसगुल्ले खिलाना नहीं था, बल्कि किसी तरह उसे ठीक करने के लिए दवा खिलाना था। इसी तरह हम भी इस भौतिक जीवन और संबंधों में रोगग्रस्त हैं और इस प्रकार शास्त्रों में एकादशी-व्रत का पालन करने वाले के लिए भौतिक लाभों का उल्लेख केवल उन लाभों से हमें लुभाने के लिए किया जाता है ताकि हम व्रत का पालन करे। इसलिए शास्त्र में यह भी लिखा की चातुर्मास्य-व्रत करने से महा-पुण्य होगा। चातुर्मास-व्रत का पालन करने से अक्षय स्वर्ग-सुख लाभ होगा किन्तु होने से क्या है महाप्रलय में स्वर्ग-लोक भी नाश हो जाएंगे। चातुर्मास-व्रत के विषय में और भी लिखा इसे पालन करने से सभी प्रकार के पाप नाश हो जाता हैं, वाजपेयी यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त हो सकता है, मुक्ति भी मिल सकती है। किन्तु शुद्ध भक्त इस प्रकार के भौतिक लाभ प्राप्त करने के लिए व्रत आदि पालन नहीं करते हैं। इसलिए ‘एकादशी-महात्मय’ पुस्तक की प्रस्तावना में हमें स्पष्ट रूप से चेतावनी दी गई है कि किसी भी सांसारिक अस्थायी लाभ के लिए हम इस तरह के व्रतों का पालन न करें।
वेदव्यास ऋषि ने हमें अपने जीवन से शिक्षा दी है। जगत के लोग शुद्ध भक्ति नहीं करना चाहते हैं इसलिए उनके लिए उन्होंने धर्म, अर्थ और काम (भौतिक इन्द्रियतृप्ति) की व्यवस्था की। उन्होंने मोक्ष (मुक्ति) का मार्ग भी दिया। और उसके बाद में उन्होंने कैसी लीला का प्रदर्शन किया? इतने शास्त्रों को लिखने के बाद भी वे अपने हृदय में वास्तविक आनंद का अनुभव नहीं कर सके। उन्होंने अपने गुरुदेव नारद की शरण ली और उनके सामने अपना हृदय खोल दिया। नारद ने कहा, “तुमने क्या किया? तुमने जो कुछ भी किया है वह निंदनीय है। बद्धजीव को पहले से ही इस प्रकार की नाशवान वस्तु की कामना हैं, तुमने उसमें इंधन दे दिया। वे अपनी भौतिक इच्छाओं को पूरा करना चाहते हैं और इस दुनिया में नाशवान भौतिक भोग चाहते हैं। तुमने उनकी इच्छाओं को हवा दी है और उनकी भौतिकवादी मानसिकता का समर्थन किया है। तुमने शांति नहीं दी है। तुमने आनंद नहीं दिया है; तुमने दूसरों को अशांति दी है, इसलिए तुम्हें शांति नहीं मिल सकती।
“मैंने मुक्ति के बारे में, मोक्ष के बारे में भी लिखा है।”
तब नारद गोस्वामी ने कहा, “यह और भी अधिक घृणित कार्य किया, जीवों के लिए प्रेमानंद प्राप्ति के रास्ते को बंध कर दिया। तुमने कृष्ण का महात्म्य कीर्तन नहीं किया।”
“मैंने महाभारत गीता में भी कृष्ण के बारे में बात की है।”
“वह तुमने मोक्ष प्रकरण के अंतर्गत किया जिसके पीछे का उद्देश्य कृष्ण की संतुष्टि के लिए नहीं है। तुम्हें कृष्ण की प्रसन्नता के लिए कृष्ण की महिमा का गान करना है।”
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा।
क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम्॥
(श्रीमद् भागवतम् 7.5.23-24)
भगवान् में समर्पित होकर, भगवान् का होकर भगवान् की प्रीति के लिए उनकी महिमा कीर्तन करनी चाहिए। मैं एक उदाहरण देता हूँ। बांग्लादेश में, जो पहले भारत का हिस्सा था, कई नदियाँ और तालाब हैं। इसलिए, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए, लोग नाव की सहायता लेते थे। हमारी सामाजिक व्यवस्था में वर और उसकी पार्टी विवाह समारोह के लिए कन्या के घर जाते हैं। एक बार, एक दूल्हा और उसकी पार्टी एक नाव पर सवार हुए। दूल्हे ने नाविक से कहा, “रात को दो बजे विवाह का समय निश्चित है उससे पहले तुम हमें गंतव्य स्थान पर पंहुचा दो।”
“चिंता मत कीजिए!” पायलट ने कहा। “मैं बारा बजे से पहले ही आपको वहाँ पहुच दूंगा।”
वे अपनी यात्रा पर निकल पड़े। नाव चलने लगी, या कम से कम उन्हें लगा कि नाव चल रही है। ठंडी हवा चल रही थी। सब भूखे हो गए। दूल्हे की पार्टी यात्रा के लिए कई अच्छे व्यंजन लेकर आई थी और सभी को खूब आचे से भोजन कराया गया। भोजन के बाद उन्हें नींद आने लगी और वे सब सो गए। जब वे जागे तो सुबह हो चुकी थी। “अरे! सर्वनाश हो गया। मेरी शादी खराब हो गई। तुम रात भर खाली बैठे रहे!” बड़ी बहस छिड़ गई।
“नहीं नहीं नहीं!” नाविक ने कहा। “मैं रात भर नाव चलता रहा। मुझे पसीना भी आ गया!”
“हम उसी जगह पर हैं जहां से हमने शुरुआत की थी। हम पूरी रात एक इंच भी आगे नहीं बढ़े!”
पार्टी ने चारों ओर देखा और यह देखकर चौंक गए कि जब उन्होंने अपनी यात्रा शुरू की थी तब किसी ने लंगर नहीं उठाया था। बिना लंगर उठाये केवल चप्पू चलाते रहे। हम भी इस भौतिक संसार में अहंकार का लंगर डाले हुए हैं। हम सोचते हैं, “मैं इस दुनिया का हूँ, मैं इस परिवार का हूँ, मैं पति का हूँ, मैं इस बेटे का हूँ, मैं फलाने के परिवार का हूँ, मैं इस गांव का हूं, मैं दिल्ली का हूँ। मैं कोलकाता का हूँ, मैं भारत का हूँ।” यदि इस तरह के झूठे भौतिक अहंकार के साथ, हम इस भजन करते हैं, तो हम संसार में ही उलझे रहेंगे।
हम जीवन भर भजन करते रहते हैं और अंत में देखते हैं कि हम एक ही स्थान पर हैं। हम एक इंच भी आगे नहीं बढ़े हैं।यदि हम सैकड़ों और हजारों जन्मों तक ऐसा करते रहे, तब भी हम अपने प्रयासों में सफल नहीं होंगे। तो पहले लंगर उठाओ, और लंगर कौन उठाएगा? शुद्ध भक्त उठा लेगा। जब आप सोचते हैं, “मैं इस दुनिया का नहीं हूँ, मैं कृष्ण का हूँ”, तो आप सफल होंगे।
इसलिए सांसारिक लोगों को वेदों की ओर आकर्षित करने के लिए शास्त्रों में भौतिक लाभों का उल्लेख किया गया है। कहा जाता है कि एकादशी व्रत पालन करने से पुत्र की प्राप्ति होती है, इसलिए पुत्र की इच्छा रखने वाले इस व्रत को करने के लिए आकर्षित होते हैं। पुत्र होने से उसमें आसक्त होकर संसार में फंस जायेंगे।
हमें वामन देव की महिमा बहुत ध्यान से सुननी चाहिए। वास्तव में भगवान किस पर अपनी कृपा बरसाएंगे, वहां लिखा है। इस पार्श्व-एकादशी के दिन वामन देव ने बली महाराज के आश्रम में अपने विग्रह की स्थापना की। और एक मूर्ति क्षीरसागर में स्थापित हैं, जहाँ अनंत देव निवास करते हैं। हमें सोचना चाहिए कि बली महाराज ने वामन देव की आराधना कैसे की। कल वामनदेव का आविर्भाव है लेकिन हमें आज से ही इसके लिए स्वयं को तैयार कर लेना चाहिए। आज वामन-एकादशी है और कल वामन-द्वादशी है। हमें किस प्रयोजन से एकादशी-व्रत का पालन करना चाहिए, इस पर ध्यान देना चाहिए।
त्रेता-युग में बलि महाराज राक्षसों के राजा थे, देवताओं के राजा इंद्र ने देवताओं और राक्षसों के बीच लड़ाई में बलि महाराज और उनके प्रमुख सेनापतियों को मार डाला। जब देवराज-इंद्र ने पूरे राक्षस वंश को नष्ट करने की प्रतिज्ञा के साथ राक्षसों का वध करना शुरू किया, तो पितामह ब्रह्मा जिनके ऊपर सम्पूर्ण सृष्टि का दायित्व है, उन्होंने इस तरह के जघन्य कृत्य को रोकने के लिए इन्द्र के पास नारद ऋषि को भेजा। जब नारद ऋषि ने इंद्र को राक्षसों वध करने से निषेध किया और ब्रह्मा के आदेश के बारे में सूचित किया, तभी वह रुक गया।
राक्षसों के कुलगुरु शुक्राचार्य ने मृत-संजीवनी की विद्या का उपयोग करके बलि महाराज और उनके प्रमुख सेनापतियों और राक्षसों को पुनर्जीवित किया। शुक्राचार्य के कार्य को देखकर सभी देवता चिंतित हो गए।
देवताओं ने सोचा, “शुक्राचार्य मृत-संजीवनी जानते हैं, तो राक्षसों को मारने का क्या फायदा है? शुक्राचार्य उन्हें फिर से जीवित कर देंगे। हमें उनसे वह विद्या प्राप्त करनी चाहिए। किन्तु उनसे यह विद्या प्राप्त करने कौन जाएगा?” उन्होंने सोचा, “बृहस्पति के पुत्र, कच, बहुत सुंदर और अच्छे व्यवहार वाले हैं। यदि वे जाते हैं तो शुक्राचार्य और उनकी बेटी देवयानी उनकी ओर आकर्षित होंगे और फिर वहीं रहकर वे उनसे वह मंत्र सीख सकते हैं। उन्होंने कच को शुक्राचार्य के पास जाने की सूचना दी। कच ने वहां जाकर शुक्राचार्य और देवयानी को प्रणाम किया। उसकी सुंदरता को देखकर दोनों उसकी ओर आकर्षित हो गए। उन्होंने कहा, “मैं आपका शिष्य बनने आया हूँ। मैं बृहस्पति का पुत्र हूँ।” शुक्राचार्य ने उत्तर दिया, “ठीक है।” तब कच वहीं रहे और शुक्राचार्य की पांच सौ वर्ष तक सेवा की। एक दिन वे आश्रम के बाहर गए और वहाँ अन्य राक्षसों ने उनको देखा। उन्होंने सोचा, “वह हमारे जैसा नहीं है। वह एक देवता के पुत्र की तरह दिखता है।”
उन्होंने उनसे पूछा, “आप कहाँ से आए हैं?”
उन्होंने उत्तर दिया, “मैं बृहस्पति का पुत्र हूँ।”
“तुम यहाँ क्या कर रहे हो? यह स्थान शुक्राचार्य के शिष्यों के लिए है।”
वे समझ गए कि उसका वहां होने का उद्देश्य में ठीक नहीं है। उन्हें उनसे भय का अनुभव हुआ। तब उन दुष्टात्माओं ने तुरन्त उन्हें वहाँ से ले जाकर मार डाला, और उनके शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर कुत्तों और गीदड़ों जैसे जंगली जानवरों को खिया दिया। इधर, देवयानी उसके बारे में सोचती है कि वह वापस क्यों नहीं आ रहा है? उसने अपने पिता से कहा, “वह आज क्यों नहीं लौट रहा है। मुझे भय है कि अन्य राक्षसों ने उसे मार डाला होगा। आप कृपया मृत-संजीवनी मंत्र का प्रयोग करें और उसे जीवित करें।”
शुक्राचार्य ने उत्तर दिया, “मृत-संजीवनी सब स्थान पर प्रयोग नहीं की जानी चाहिए।”
देवयानी रो पड़ी। अपनी बेटी को रोता देख शुक्राचार्य कच को जीवित करने के लिए अपने मंत्र का उपयोग करने के लिए तैयार हो गए। जैसे ही उन्होंने मंत्र का उच्चारण किया, सभी जानवर, जिन्होंने भी कच खाया था, उनके पेट फट गए और वे मर गए। उनके पेट से उसके शरीर के सभी टुकड़े बाहर निकल आए और फिर से मिल गए और वह जीवित हो गया। ऐसी मंत्र में शक्ति है।
फिर कुछ दिनों के बाद राक्षसों ने फिर से कच को देखा, उन्होंने सोचा, “ओह! हमने उसे मार डाला था और वह फिर से वापस आ गया है। हमारे गुरुदेव हमारे शत्रु के रूप में कार्य कर रहे हैं। उन्होंने उसे जीवित कर दिया। वे हमारे शत्रुओं की सहायता कर रहे हैं।” राक्षस उसके पास गए और उन्होंने उसे एक बार फिर मार डाला। इस बार उन्होंने उसके शरीर को पानी की तरह बनाया और उसे समुद्र के पानी में मिला दिया। देवयानी के अनुरोध पर फिर से शुक्राचार्य ने उस मंत्र का पाठ किया और उसे जीवित कर दिया।
अब इस बार शुक्राचार्य के आश्रम से कच बाहर नहीं निकल रहा है, दैत्यों ने आश्रम में आकर उसे वहीं देखा। इस बार उन्होंने सोचा, “हमें अपने गुरु को सबक सिखाना चाहिए।” उन दिनों ब्राह्मण मद्यपान करते थे (शुक्राचार्य के श्राप के बाद उन्होंने इसे पीना बंद कर दिया।)। राक्षसों ने फिर से कच को मार डाला और उसके शरीर को शुक्राचार्य की शराब में मिला दिया। शुक्राचार्य ने इसे पी लिया। अब फिर देवयानी के अनुरोध पर शुक्राचार्य ने उन्हें जीवित करने के मंत्र का जाप किया। इस बार उन्होंने कच की आवाज सुनी, “गुरुजी, मैं आपके पेट में हूँ।” शुक्राचार्य राक्षसों पर क्रोधित हो गए क्योंकि उन्होंने उनको सूचित किए बिना एक ब्राह्मण की हत्या की। क्रोध में आकर उन्होंने कच को मृत्यु-संजीवनी मंत्र सिखाने का निश्चय किया। उन्होंने उस मंत्र को न देने के अपने संकल्प को तोड़ दिया। उन्होंने कच से कहा, “मैं तुम्हें मंत्र दूंगा। तुम एक अच्छे शिष्य हो। तुम विश्वास घात नहीं करोगे। तुम मेरा पेट फाड़ कर बाहर आओ। बाहर आकर मुझे मंत्र से जीवित कर दो।
शुक्राचार्य ने कच को मंत्र दिया। कच ने बाहर आकर उस मंत्र का जाप करके शुक्राचार्य को जीवित कर दिया। अब जब उसने वह मंत्र सीख लिया, तो वह अपने स्थान पर जाने के लिए तैयार हो गया। उस समय देवयानी ने उससे विवाह करने की इच्छा प्रकाशित की। उत्तर में, कच ने कहा, “आप मेरे गुरुदेव से संबंधित हैं, इसलिए मुझे आपकी सेवा करनी चाहिए, मैं आपसे विवाह नहीं कर सकता।” और उसने देवयानी से विवाह नहीं कीया। तब क्रोधित देवयानी ने उसे यह कहते हुए शाप दिया, “मंत्र का पाठ फलदायी नहीं होगा।” उत्तर में, कच ने कहा, ” मेरा मंत्र का पाठ व्यर्थ हो, किन्तु जिसे मैं यह मंत्र दूंगा वह फलदायी होगा।”
शुक्राचार्य ने तब राक्षसों को निर्देश दिया, “आपको विश्वजीत यज्ञ करना चाहिए। आपको देवताओं से भय है किन्तु इस यज्ञ के बाद वे आपको परास्त नहीं कर पाएंगे। इस यज्ञ से आपको बहुत से अस्त्र-शस्त्र मिलेंगे।” राक्षस उस यज्ञ को करने के लिए तैयार हो गए। भृगु वंश के ब्राह्मणों ने यज्ञ किया। इससे दैत्यों को बहुत शस्त्र मिले। वे इतने शक्तिशाली हो गए कि कोई भी उनके सामने लड़ने की हिम्मत नहीं कर सकता था। और उस शक्ति के साथ, बलि महाराज ने स्वर्ग को घेर लिया। सभी देवता स्वर्ग के राजा इंद्र के पास गए और उनसे कहा, “जिस व्यक्ति को आपने मार डाला उसने अब स्वर्ग को घेर लिया है।” यह सुनकर इंद्र अपने ‘ऐरावत’ नाम के हाथी पर सवार होकर बलि महाराज से युद्ध करने आए। किन्तु बलि महाराज का वैभव देखकर उनके सामने खड़ा भी नहीं हो सके। वे चकित हो गए और भागकर अपने गुरुदेव, बृहस्पति के पास गए। उनसे कहा, “हम एक बड़ी मुसीबत में हैं। राक्षस इतने शक्तिशाली हो गए हैं कि हम उनके सामने खड़े भी नहीं हो सकते। वे इतने शक्तिशाली कैसे हो गए ?”
बृहस्पति ने उत्तर दिया, ” भृगु वंशीय ब्राह्मण बलि महाराज का समर्थन कर रहे हैं, उन्होंने यज्ञ किया जिससे श्री हरि प्रसन्न हैं। उनके द्वारा यज्ञ से बलि महाराज शक्तिशाली हो गए हैं। यदि आप इस समय उससे लड़ने जाएंगे तो आप जीत नहीं पाएंगे। आप निश्चित रूप से बुरी तरह पराजित होंगे। इसलिए यह मेरी आज्ञा है कि तुम अपना स्वर्ग का राज्य छोड़ दो और अंतरिक्ष में छिप जाओ।
बृहस्पति के कहने पर इंद्र और अन्य देवताओं ने स्वर्ग छोड़ दिया और गुप्त रूप से अंतरिक्ष में रहने लगे। अपने पुत्रों की दुर्दशा देखकर उनकी माता अदिति को बहुत दु:ख हुआ। उनके साथ उनके पति कश्यप ऋषि भी नहीं थे। वे तपस्या करने गए थे। उन्होंने भोजन और पानी लेना बंद कर दिया और उदास रहने लगी। वे घर के सभी कामों के प्रति उदासीन रहती थी और दिन-ब-दिन वे क्षीण होती जा रही थी। माता अदिति उत्सुकता से अपने पति कश्यप ऋषि की प्रतीक्षा करने लगी। लंबे समय के बाद, कश्यप ऋषि अपनी तपस्या समाप्त करके घर लौट आए। अपनी पत्नी को दुर्बल और निस्तेज देखकर चकित होकर उन्होंने ने अदिति से पूछा, “तुम्हारा शरीर ऐसा क्यों हो गया है? क्या हुआ है? तुमने किसी ब्राह्मण का अपमान किया होगा।”
अदिति ने उत्तर दिया, “नहीं, नहीं, मैंने ऐसा नहीं किया।”
“तो किसी अतिथि का अनादर किया होगा।”
अदिति ने रोते हुए अपने पति को उत्तर दिया, “राक्षसों ने हमारे पुत्रों को स्वर्ग के राज्य से निकाल दिया है। मैं आपके चरण कमलों से प्रार्थना करती हूँ कि आप कृपया राक्षसों को स्वर्ग से भगाकर मेरे पुत्रों को उनके राज्य में वापस ले आइये। जब तक मेरे पुत्रों को स्वर्ग का राज्य प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक मेरा दुःख कम नहीं होगा, मैं जीवित नहीं रहूंगी।”
कश्यप ऋषि ने उत्तर दिया, “तुम इसप्रकार से कैसे मोहित हो गयी? इस अनित्य संसार में फँसकर किसी को अपना मित्र और किसी को शत्रु मान रही हो? तुम देवताओं को अपना और राक्षसों को शत्रु मान रही हो। शत्रु और मित्र के द्वैत का यह दर्शन उन्हें ही होता है जो माया से मोहित हो जाते हैं। व्यक्ति स्वयं ही अपना शत्रु है। कोई और शत्रु नहीं है। यह मानव जन्म भगवान् के भजन के लिए है। यदि हम भजन नहीं करते हैं तो हम जन्म और मृत्यु के चक्र में फंस रहेंगे।
अदिति ने उत्तर दिया, “आपके उपदेश बहुत अच्छे हैं। किन्तु जब तक मेरे पुत्रों को उनका राज्य वापस नहीं मिल जाता, तब तक मुझे प्रसन्नता नहीं होगी।”
कश्यप ऋषि ने सोचा, “अदिति मेरे सभी निर्देशों का पालन करती थी और अब वह उनका पालन करने के लिए तैयार नहीं है। ऐसा क्यों है? हालांकि, वह हमेशा मेरी आज्ञाकारी थी, और अब वह ऐसा बोल रही है। इसके पीछे अवश्य कोई कारण रहा होगा।” सब कुछ परमेश्वर की इच्छा से होता है। देवताओं की सहायता के लिए भगवान् उनके पुत्र के रूप में प्रकट होना चाहते हैं।
उन्होंने कहा, “ठीक है, यदि तुम्हारी प्रबल इच्छा है कि देवताओं को स्वर्ग के राज्य में वापस मिल जाए, तो तुम्हें बारह दिनों के लिए केशव-तोषणीव्रत (केशव को प्रसन्न करने के लिए एक व्रत) करना होगा (उनका एक दिन मनुष्य के एक वर्ष के बराबर होता है अर्थात् बारह वर्ष तक व्रत करना होगा)। भगवान केशव के अलावा और कोई तुम्हारी इस इच्छा को पूरा नहीं कर पाएगा।”
जयदेव गोस्वामी ने लिखा है:
छलयसि विक्रमणे बलिमद्भूत-वामन
पद-नख-नीरजनितजनपावन
केशव धृत-वामन-रूप जय जगदश हरे
(श्री जयदेव का दशावतार-स्तोत्र, पाँचवाँ श्लोक)
क्या केशव और वामन एक दूसरे से अलग हैं? औपचारिक रूप से, वे वही हैं किन्तु उनकी लीलाओं में अंतर है।
कश्यप ऋषि के निर्देशानुसार, माता अदिति ने केशव-तोषणीव्रत किया। भगवान माता अदिति के सामने प्रकट हुए और उन्हें आश्वासन दिया कि उचित समय पर वे उनके पुत्र के रूप में प्रकट होंगे और उनकी इच्छा पूरी करेंगे।
भाद्र मास की द्वादशी को, अभिजीत नक्षत्र के बहुत ही शुभ क्षण में, भगवान अदिति के गर्भ से शंख, चक्र, गदा, पद्म के साथ प्रकट हुए थे। वे पहले भगवान कश्यप ऋषि के हृदय में प्रकट हुए। तब कश्यप ऋषि ने दीक्षा के माध्यम से अदिति को दिव्य ज्ञान प्रदान किया। भगवान पहले अदिति के हृदय में प्रकट हुए और फिर उनके गर्भ में प्रवेश किया। जब ब्रह्मा और अन्य देवताओं ने अनुभव किया कि भगवान अदिति के गर्भ में प्रकट हुए हैं, तो वे अदिति के गर्भ की स्तुति करने लगे।
कश्यप ऋषि और माता अदिति ने देखा कि जैसे ही भगवान उनके सामने चतुर्भुज में प्रकट हुए, साथ-साथ उन्होंने चमत्कारिक रूप से एक बटु (वामन) का रूप धारण किया। वामन के सुंदर रूप को देखकर कश्यप ऋषि और माता अदिति आनंद से भर उठे और अपने बच्चे के प्रति स्नेह से पूरी तरह अभिभूत हो गए। बच्चे के सभी जन्म संस्कार (शुद्धिकरण अनुष्ठान) शास्त्रों के निर्देशों के अनुसार किए गए। वामनदेव के उपनयन समारोह में, स्वयं सूर्य-भगवान ने उन्हें मंत्र प्रदान किये, बृहस्पति ने उन्हें यज्ञोपवित भेंट किया, कश्यप ऋषि ने उन्हें एक कमरबंद दिया, धरती माता ने उन्हें बैठने के लिए एक मृग-चर्म और चन्द्र-देवता, जो वनों के राजा हैं, ने उन्हें एक ब्रह्म-दंड (ब्रह्मचारी का दंड) दिया। माता अदिति ने उन्हें कौपिन-वासन दिया, स्वर्ग के राजा इन्द्र ने उन्हें एक छाता दिया, भगवान ब्रह्मा ने उन्हें एक कमंडलु दिया, सप्त-ऋषियों उन्हें कुश-घास का आसन दिया, सरस्वती ने उन्हें रुद्राक्ष की एक माला दी, कुवेर ने भिक्षा-पात्र दिया और माता भगवती ने उन्हें भिक्षा दी।
उपनयन संस्कार के बाद ब्राह्मण को भिक्षा मांगने जाना पड़ता है। इस प्रथा का पालन करते हुए, वामनदेव ने भिक्षा मांगने के लिए अपना दंड, कमण्डलु और छाता लेकर, बलि महाराज की यज्ञ-स्थली की ओर प्रस्थान किया। बलि महाराज ने नर्मदा नदी के तट पर भृगुकच्छ के नाम से विख्यात क्षेत्र में यज्ञ का अनुष्ठान आरंभ किया था। वामनदेव अपना छाता पकड़े हुए चल रहे थे। आकार में छोटे होने के कारण वे पूरी तरह से छतरी से ढके हुए थे। जब ब्राह्मणों ने उन्हें दूर से देखा तो उन्हें लगा कि छाता अपने आप चल रहा है, तो वे बहुत चकित हुए कि छाता अपने आप कैसे चलकर जा सकता है। बाद में वे दौड़कर आगे गए तो उन्होंने देखा कि छाते के नीचे छोटे कद का ब्राह्मण लड़का है। जो यज्ञ-स्थली में पहले पहुंचेगा उसे अधिक दान मिलेगा, इसलिए बाकि ब्राहमणों के कहा तुम पीछे रहो हम आगे जायेंगे और उन्होंने उनसे आगे निकलने का बहुत प्रयास किया किन्तु भगवान् की माया से वे फिर पीछे हो जाते थे। वामनदेव ने अपनी माया से सभी ब्राह्मणों को हतप्रभ कर दिया और सब से पहले यज्ञ स्थली में पहुंच गए। वामनदेव का शत सूर्य की भांति तेजस्वी परम सुन्दर रूप देखकर सब चकित रह गए, उन्होंने अपने तेज़ से यज्ञ में प्रजवलित अग्नि के तेज़ तो भी एकदम फीका कर दिया। वहाँ उपस्थित लोग यह तो नहीं समझ पाए कि वे स्वयं भगवान् हैं किन्तु उनको कोई विशेष प्रभावशाली ब्राहमण समझकर सब अपने आसन से उठे और उचित सम्मान देकर उनका स्वागत किया। उचित विधि-विधान अनुसार उनकी पूजा करने के बाद, बलि महाराज ने भगवान वामनदेव से इस प्रकार कहा: “आप निश्चित रूप से मुझसे कुछ माँगने आए हैं। इसलिए, जो कुछ आप चाहेंगे, चाहे वह धन हो या राज्य, मैं आपको दूंगा। यदि आप विवाह करने की इच्छा रखते हैं, तो मैं आपकी इच्छा के अनुसार आपको एक योग्य कन्या दूँगा।”
बटु वामनदेव ने उत्तर दिया, “मैं आपको और आपके महान वंश के पूर्वजो को जानता हूँ। आपने हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप वंश में जन्म लिया है। आपके पितामह प्रह्लाद महाभागवत थे। उनके स्मरण मात्र से ही जीव शुद्ध हो जाता है। आपके पिता विरोचन, एक ब्राह्मण को दान देने का वचन देने के बाद उसे पूरा करने में कभी असफल नहीं हुए। मुझे ज्ञात है कि आप भी अपना वचन पूरा करने से पीछे नहीं हटेंगे। इसलिए मैं आपसे त्रिपाद भूमि माँगता हूँ।”
यह सुनकर बलि महाराज ने मुस्कुराते हुए कहा, “आपने मेरे पूर्वजों के उन महान कार्यों का वर्णन किया है, जिनके बारे में मुझे भी पता नहीं था। हालाँकि, आपने बहुत तुच्छ चीज़ की भिक्षा माँगी है।आपके छोटे कदमों से मापी गई तीन पग भूमि प्राप्त करने से क्या उद्देश्य पूरा हो सकता है? क्या आप जानते हैं मैं कौन हूँ? मैं तीनों लोकों का स्वामी हूँ। मैं आप को जम्बूद्वीप (एशिया) दे सकता हूँ। मुझ से भिक्षा ग्रहण करने के बाद यदि आप किसी और से भिक्षा मांगेंगे, तो मेरा अपयश होगा। इसलिए मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि कृपया आप इस विषय पर पुनर्विचार करें।”
श्री वामनदेव ने कहा, “मैं जानता हूँ कि आप तीनों लोकों के स्वामी हैं और आप मुझे बहुत कुछ दे सकते हैं। किन्तु मैं ब्राह्मण हूँ। ब्राह्मण को थोड़े से ही संतुष्ट होना चाहिए। यदि ब्राह्मण अनेक इन्द्रियतृप्ति के विषयों की इच्छा रखते हैं, तो वे अपना तेज़ खो देते हैं। इन्द्रियतृप्ति की इच्छा कभी समाप्त नहीं होती। यदि आप मुझे जम्बूद्वीप दोगे, तो मैं सारी पृथ्वी को चाहूँगा। आगे मैं रसातल, फिर स्वर्ग और अंत में ब्रह्मा की पदवी की भी कामना करूंगा। इसका कोई अंत नहीं है। आपके द्वारा दिए गए दान के रूप में, मैं अपने कदमों से मापी गई त्रिपाद भूमि से ही संतुष्ट हो जाऊंगा।”
उस समय राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य भी वहाँ उपस्थित थे। वे समझ गए कि भगवान विष्णु देवताओं के उद्देश्य को पूरा करने के लिए एक बटु ब्राह्मण के रूप में प्रकट हुए हैं। त्रिपाद भूमि के बहाने वे अपने शिष्य बलि से तीनों लोकों को छीन लेंगे।
शुक्राचार्य ने अपने शिष्य का कल्याण चाहते हुए बलि महाराज से कहा, “बलि! तुम इस बौने ब्राह्मण की वास्तव पहचान नहीं जानते। वे स्वयं भगवान् हैं। देवताओं के उद्देश्य को पूरा करने के लिए, वे तुमसे दान मांगने आए हैं। वे त्रिविक्रम रूप धारण कर तीन पग भूमि मांगने के बहाने वे तुमसे तीनों लोकों को छीन लेगे। तब तुम कहाँ रहोगे? क्या करोगे? बिना धन के, तुम अपने धर्मार्थ और धार्मिक कर्तव्यों का पालन कैसे करोगे? वे एक पग में ही सम्पूर्ण आकाश को घेर लेंगे तुम त्रिपाद भूमि दे नहीं पाओगे इसलिये मेरा तुम्हें यह उपदेश है, कि तुम उन्हें भूमि न देना।” अपने गुरु के इन शब्दों को सुनकर, बलि महाराज ने कहा, “मैंने एक ब्राह्मण को अपना वचन को दिया है। आप कहते है ये भगवान् हैं और फिर कहते हैं मैं उन्हें दान ना दूँ? गुरु तो शिष्य को भगवान् की सेवा में नियोजित करते हैं और यदि ये भगवान हैं तो मैं देने से मना भी कर दूं तो भी वे बलपूर्वक ले लेंगे। मैं वचन दे चूका हूँ अपना वचन कैसे तोड़ सकता हूँ? मैं झूठ कैसे बोल सकता हूँ? यदि यह बौना ब्राह्मण स्वयं भगवान है, तो मुझे दान के लिए उनसे अधिक योग्य पात्र कहाँ मिल सकता है?
शुक्राचार्य ने फिर से बलि को यह कहकर समझाने का प्रयास किया, “देखो बलि, कुछ विशेष परिस्थितियों में धर्म और धन की रक्षा के लिए झूठ भी बोलना पड़ता है, नहीं तो धर्मं और धन की रक्षा नहीं होती है; उदाहरण के लिए, यदि कोई धनि व्यक्ति सब जगह यह कहेता रहे कि उसके पास कितना धन है तो उसका धन सुरक्षित नहीं रहता। चोर, डाकू, income tax officer, sale tax officer सब उसका धन छीन लेंगे। यदि किसी का धन सुरक्षित नहीं है, तो धर्म(धार्मिक कार्य) भी संरक्षित नहीं है। शुक्राचार्य ने कहा कौन बोलता है कि झूठ बोलना ठीक नहीं है, यदि कोई दुष्ट व्यक्ति एक सती स्त्री का सतीत्व नष्ट करने के लिए उसका पीछा कर रहा है और यदि वह कहीं छिप जाती है, कोई एक दूसरा व्यक्ति यह जानता है कि वह स्त्री कहाँ छिपी हुई है। दुष्ट व्यक्ति आकर यदि उससे उस स्त्री के बारे में पूछे तो उस समय उस व्यक्ति के लिए सच बोलना अधर्म है और झूठ बोलना धर्म है। अतः सभी परिस्थितियों में सत्य बोलना धर्म नहीं है। इसलिए तुम्हें उसे कभी भी तीन कदम भूमि नहीं देनी चाहिए। यह, फिर से, मेरा निर्देश है। शुक्राचार्य के इसप्रकार के निर्देश देने के बाद भी, जब उन्होंने देखा कि बलि महाराज अपने वचन से पीछे नहीं हटेंगे, तो शुक्राचार्य ने क्रोधित होकर बलि को अभिशाप दिया कि उनका सम्पूर्ण ऐश्वर्य नष्ट हो जाये।
बलि महाराज अपने गुरु द्वारा शाप दिए जाने के बाद भी अपने वचन पर खरे उतरे। वे दान देने के उद्देश्य से संकल्प करने के लिए नल से कमण्डलु में जल निकालने लगे। शुक्राचार्य अपने शिष्य की मूर्खता को सहन नहीं कर पा रहे थे, और स्नेह-वात्सल्य के कारण वे नल के मुख में प्रवेश कर गए थे, जिससे पानी बहना बंद हो गया। तब बलि महाराज ने तिनके की सहायता से अवरुद्ध जल का मार्ग साफ करना आरंभ किया। इससे अन्दर बैठे शुक्राचार्य की एक आंख नष्ट हो गई। शुक्राचार्य ‘काना शुक्र’ कहलाने लगे। अन्यथा सोचकर शुक्राचार्य के चरणों में अपराध नहीं करना चाहिए। ऐसा उन्होंने अपने शिष्य के प्रति स्नेह-वात्सल्य के कारण किया।
बलि महाराज की पत्नी का नाम विंध्यावली और उनकी पुत्री का नाम रत्नावली था। बौने वामन की सुंदरता देखकर, रत्नावली का माता की तरह वात्सल्य भाव उदित हुआ और उसे बटु वामन को गोद में उठाकर स्तनपान कराने और चुम्बन करने की इच्छा हुई।
जैसे ही बलि महाराज ने जब हाथ में जल लेकर भूमि-दान करने का संकल्प लिया, तब बटु ब्राह्मण बड़े होने लगे, बड़े होते-होते विशाल त्रिविक्रम रूप धारण किया, और पुरे नभो-मंडल को आच्छादन करते हुए उन्होंने अपने दो चरणों से ही तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया। तीनों लोकों का अतिक्रमण करते हुए वे सत्यलोक पहुंच गए। भगवान के चरण कमलों को देखकर ब्रह्मा और अन्य देवता बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उचित विधिनुसार से उन चरणकमलों की पूजा की। वामनदेव ने तब बलि महाराज से एक पैर भूमि मांगी। भगवान वामन ने चेतावनी दी, ” एक और पैर रखने के लिए भूमि कहाँ है? तुम वचन देकर मुकर रहे हो, तुम्हारे पिता ने ऐसा कभी नहीं किया।”
बलि महाराज ने उत्तर दिया, “मेरा सब कुछ चला गया किन्तु मैं इससे दु:खी नहीं हूँ। हालाँकि, मैं अपना वचन पूरा करने में असमर्थ हूँ इस कारण से दु:खी हूँ। भगवान् ने तब गरुड़ को आज्ञा दी कि बलि को वरुण पास से बांध दिया जाए। जब बलि महाराज को बंदी बना लिया गया, राक्षस क्रोधित हो गए और वामनदेव को मारने के लिए उनके पास पहुंचे, तब अद्भुत नारायणी सेना वामनदेव के शरीर से निकली और राक्षसों से लड़ने लगी। नारायणी सेना द्वारा राक्षसों को मरते देख बलि महाराज ने उन्हें युद्ध रोकने के लिए कहा। उन्होंने कहा, “हमारा समय अभी अशुभ है, इसलिए लड़ाई का परिणाम भी अशुभ होगा।” तब वामनदेव ने बलि महाराज के पास जाकर कहा, “तुम्हारे वंश में किसी ने ब्राह्मण को वचन देकर तोडा नहीं। तुम मुझे एक कदम और भूमि क्यों नहीं दे रहे हो? तुम धार्मिक हो, फिर भी अधार्मिक व्यवहार कर रहे हो।”
बलि महाराज की पत्नी, विंध्यावली, एक धर्मपरायण और भक्तिपूर्ण स्त्री थी। उसने अपने पति से कहा, “आपने आपके पास जो कुछ संपत्ति थी, वह वामनदेव को दे दी, वास्तव में सब कुछ तो भगवान् का ही था किन्तु आपने स्वयं को तो नहीं दिया है, यह सबकुछ मेरा है—इस मिथ्याभिमान को तो नहीं दिया।” अपनी भक्तिमयी पत्नी के वचनों को सुनकर बलि महाराज संतुष्ट हुए और उन्होंने वामनदेव को एक और चरण रखने के लिए स्थान के रूप में अपना मस्तक आगे कर दिया। उस समय वामनदेव के नाभि-कमल से एक पैर निकला और बलि महाराज के मस्तक के ऊपर स्थापित हुआ। बलि महाराज ने उन चरण कमलों का स्पर्श प्राप्त किया, जो ब्रह्मा और अन्य देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। बलि महाराज के महान भाग्य को देखकर, स्वर्ग में दुंदुभी बजने लगी, पुष्पों की वर्षा हुई और बलि महाराज की जय-जयकार होने लगी। बहुत प्रसन्न होकर भगवान वामनदेव ने बलि महाराज से कहा, “मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। अब तक तुम देने वाले दाता थे और मैं ग्रहीता था। अब मैं दाता हूँ और तुम ग्रहीता हो। तुम जो चाहोगे मैं तुम्हें वह दूंगा।” हमारी तरह कोई संसार में आसक्त व्यक्ति होता तो कहेता आपने जो ले लिया वह सब वापस कर दीजिए। किन्तु बलि महाराज प्रार्थना की, “हे भगवन् ! आपके पादपद्म, जो आपने मेरे मस्तक पर रखे हैं, सदैव वहीं रहें।”
हमें भगवान् से सांसारिक धन और सांसारिक लाभ की इच्छा नहीं करनी चाहिए। बलि महाराज से प्रसन्न होकर, वामनदेव ने उन्हें सुतल-पुरी का आधिपत्य दिया जो वैकुंठ की भांति परम आनंदमय है, और सुदर्शनचक्र को सदैव उनकी रक्षा करने का आदेश दिया।
पार्श्व-एकादशी के दिन वामन देव ने सुतल-पुरी में बलि महाराज के आश्रम में अपने विग्रह की स्थापना की। इस प्रकार वामन देव अपने एक रूप में सदा के लिए सुतल-पुरी में बलि महाराज के पास निवास कर रहे हैं। वह वैकुंठ बन गया,वामन देव का नित्य स्थान बन गया। और दूसरे रूप वे अनंतदेव के रूप में क्षीरसागर में रहते हैं।