सचेत सामाजिकगण ! अपने को भक्ति की संज्ञा से भूषित करने के लिए सर्वप्रथम भक्ति के प्राकृत स्वरूप का अनुसंधान करना होगा। श्रीमन्महाप्रभु ने भक्त प्रवर श्रीपादरूप गोस्वामी से कहा था कि कृष्ण का अनुशीलन करना ही भक्ति है।
अनुशीलन शब्द से निरन्तर या अनुक्षण सेवा का बोध होता है। ‘अनु’ शब्द से पीछे-पीछे अर्थात् अन्तर रहित से है। ‘शील’ धातु का अर्थ एकान्तिक भाव से प्रवृत्त होना है। अनुशीलन दो प्रकार का है—1.चेष्टा रूप 2. भावना रूप। 1. कृष्ण के लिए कायिक, वाचिक और मानसिक चेष्टा-समूह ‘चेष्टारूप’ अनुशीलन है। इसके दो भेद हैं—सेवा के अनुकूल कायिक, वाचिक और मानसिक अनुशीलनरूप प्रवृत्यात्मक (विधि-मूलक) और प्रतिकूल वर्जन-रूप निवृत्यात्मक (निषेध-मूलक)। 2. प्रीति विषयक मानसिक अनुशीलन ही भावनारूप (रागानुगा) अनुशीलन है।