द्वितीय याम

प्रातः 5:46 बजे से प्रातः 8:10 बजे तक। हे भगवन्! आपका नाम ही जीवों को नित्य मंगल प्रदान करता है, क्योंकि आपके अप्राकृत मुख्य नाम—कृष्ण, गोविन्द, गोपीनाथ इत्यादि—का इस अनित्य जड़ जगत् के साथ कोई प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष सम्बन्ध नहीं है। आपके श्रीनाम इस जगत् में अवतरित हुए हैं। आपने अपनी समस्त शक्ति अपने नाम में अर्पण की है, और नाम-ग्रहण में किसी प्रकार का स्थान, काल इत्यादि का कोई नियम भी नहीं रखा है। हे प्रभो! जीवों के प्रति आपकी अपार करुणा है; करुणा-परवश होकर आपने अपने नाम का उच्चारण और स्मरण अत्यंत सुलभ कर दिया है तथापि, श्रीनाम के प्रति दस प्रकार के अपराध रूपी दुर्भाग्य के कारण श्रीनाम में मेरा अनुराग नहीं हुआ।

द्वितीय याम साधन

प्रातःकालीन भजन-साधु संगे अनर्थ निवृत्ति

श्रेष्ठ साधु का संग तथा गुरुपदा आश्रय करना तथा गुरुदेव के निर्देशानुसार भजन करना चाहिए, भजन करने से ‘अनर्थ निवृत्ति’, दूसरे याम साधन में इस प्रकार क्रम लिखा है। भजन करने से सभी जागतिक कामनायें दूर हो जाती है।

नाम ग्रहणेर कालाकाल-विचार नाई,
नाम सर्वशक्ति समन्वित

नाम-ग्रहण का कोई काल-अकाल विचार नहीं है। भगवान ने अपनी समस्त शक्तियों को हरिनाम में संचारित कर दिया है। नाम में समस्त शक्ति अर्पण की है। आप हरिनाम किसी भी समय, किसी भी स्थान पर कर सकते हैं। नाम सर्वशक्तिमान है।

नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-
स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।
एतादृशी तव कृपा भगवन्! ममाऽपि
दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥
(श्रीशिक्षाष्टक का द्वितीय श्लोक)

“हे भगवन्! आपका पवित्र नाम ही जीवों को सर्व मंगल विधान प्रदान करता है। आपके प्रमुख नाम कृष्ण, गोविंदा, गोपीनाथ आदि हैं। आप अपने नाम के रूप इस जगत् में अवतरित हुए हैं। और आपने अपनी समस्त शक्ति अपने नाम में अर्पण की है और नाम-ग्रहण में किसी प्रकार का स्थान, काल इत्यादि का कोई नियम भी नहीं रखा है। हे प्रभो! जीवों के प्रति आपकी अपार करुणा है; करुणा-परवश होकर आपने अपने नाम का उच्चारण और स्मरण अत्यंत सुलभ कर दिया है तथापि, श्रीनाम के प्रति दस प्रकार के अपराध रूपी दुर्भाग्य के कारण श्रीनाम में मेरा अनुराग नहीं हुआ।”

चैतन्य महाप्रभु ने दूसरे श्लोक में अत्यंत दुःख व्यक्त किया है कि “हे भगवन्! आपका पवित्र नाम ही जीव का सम्पूर्ण रूप से मंगल विधान कर सकता है। इसलिए आप कृष्ण, गोविंद, गोपीनाथ, मदनमोहन इत्यादि आपके प्रमुख नाम नामों के रूप में इस जगत में प्रकट हो। और आपने अपनी समस्त शक्तियों को नाम में ही अर्पण कर दिया है। आपने पवित्र नामों के स्मरण और कीर्तन के लिए देश काल आदि नियम विधि विचार नहीं रखा। जीवों के प्रति आपकी इतनी कृपा है, इस प्रकार कृपा कर के, आपने अपने नाम को जीवों के लिए सुलभ कर दिया। परन्तु नामअपराधों के कारण यह मेरा दुर्दैव है कि सुलभ नाम में भी मेरा अनुराग नहीं हुआ।”

अनेक लोकेर वांछा अनेक प्रकार।
कृपाते करिल अनेक नामेर प्रचार॥
खाइते शुइते यथा तथा नाम लय।
देश-काल नियम नाहि, सर्वसिद्धि हय॥
सर्वशक्ति नामे दिला करिया विभाग।
आमार दुर्दैव, नामे नाहि अनुराग॥
(श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य 20/17-18)

आप निरंतर हरिनाम कर सकते हैं, आप खाते समय, सोते समय, या चलते समय, सर्वत्र, हरिनाम कर सकते हैं, यहाँ तक की आप बिना माला के शौचालय में भी हरिनाम कर सकते हैं।

सर्वशक्ति नामे दिला करिया विभाग।
आमार दुर्दैव, नामे नाहि अनुराग॥
(श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य 20.19)

यह इतना सहज बना दिया गया है, परन्तु मेरा बड़ा दुर्भाग्य यह है कि मेरा हरिनाम में अनुराग उत्पन्न नहीं हुआ है।

एकान्त भक्तेर मात्र कीर्तन-स्मरण।
अन्य पर्वे रुचि नाहि हय प्रवर्तन॥
भावेर सहित हय श्रीकृष्ण-सेवन।
स्वारसिकी-भाव क्रमे हय उद्दीपन॥
एकान्त भक्तेर क्रिया मुद्रा रागोदित।
तथापि से सब नहे विधि-विपरीत।

हरिभक्ति विलास में प्रमाण देते हुए कहा गया है कि कीर्तन सर्वोपरि है। और कीर्तन से ही भक्ति के अन्य सभी अंगों का पालन हो जाता है। कीर्तन स्मरण के साथ करना है। स्मरण के बिना भजन संभव नहीं है। इसलिए यदि कीर्तन किसी अन्य उद्देश्य से किया जाता है, तो वह भजन नहीं है और इसलिए कीर्तन में स्मरण जोड़ दिया गया। ‘कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा’ यह दो बार क्यों दोहराया गया है, यह जानना चाहिए। स्मरण होना चाहिए, इसलिए लिखा है।

हमने कोलकाता मठ में इसके विषय में श्रवण किया था। एक भक्त भजन करने के लिए मठ में आये थे। वे कीर्तन में नहीं बैठते थे, जब प्रसाद परिवेषण होता था तब केवल प्रसाद के लिए आते और बैठते थे। जब उनसे पूछा गया कि तुम कीर्तन में नहीं बैठते हो, तो उन्होंने कहा कि कीर्तन सुनते ही मेरा सिर घूमने लगता है और प्रसाद पाना अच्छा लगता है। ऐसा करना उचित नहीं है। यह एक बीमारी है।

एकान्त भक्तेर मात्र कीर्तन-स्मरण।
अन्य पर्वे रुचि नाहि हय प्रवर्तन॥

एकान्त भक्त की केवल कीर्तन-स्मरण में ही रुचि होती है, तथा उन्हें बलपूर्वक भी किसी अन्य साधन में नियोजित नहीं किया जा सकता।

भावेर सहित हय श्रीकृष्ण-सेवन।
स्वारसिकी-भाव क्रमे हय उद्दीपन॥

जब कोई कृष्ण की सेवा सम्बन्ध ज्ञान युक्त (स्थायी भाव) के साथ करता है, तो ऐसी सेवा शुद्ध प्रेम से प्रेरित होती है, तथा किसी बलपूर्वक नहीं होती, स्वाभिक रूप से सेवा की प्रवृति रहती है। यह सम्बन्ध के कारण होता है। भौतिक जगत में हम ऐसे उदाहरण देखते हैं। मुझे बचपन में देखी एक घटना याद है। जो मैंने प्रत्यक्ष रूप से देखी थी। हमारी माता जी अस्वस्थ थी। उन्हें आराम करने की सलाह दी गई थी। पिताजी ने कहा कि उन्हें पूरा विश्राम करना चाहिए और शौच के लिए भी नहीं उठना चाहिए। पिताजी ने कहा इन्हे लेटे लेटे ही सब कार्य (शौच क्रिया इत्यादि) करने होंगे, परन्तु हमलोग (भाई-बहन) गंदे, मैले वस्त्र पहन कर घूम रहे थे। हम, मैं और मेरी बहनें, हमने कौन सी पैंट या फ्रॉक पहनी है, इसकी कोई चिंता किए बिना ही इधर-उधर घूम रहे थे। परन्तु माँ यह सोचकर चिंता में थी कि मेरे बच्चों की देखभाल करने वाला कोई नहीं है, उनके कपड़े बदलने वाला कोई नहीं है। वह अपने बिस्तर से नीचे उतरी, हमें साफ़ सुथरे वस्त्र पहनाए और जो हमारे मैले वस्त्र धोने के लिए बैठ गई। अस्वस्थ व्यक्ति जो बिस्तर पर पड़ा हुआ है इसके लिए यह कैसे संभव है? यह प्रेम है! प्रेम में माँ स्वयं को हो रहे कष्ट की भी चिंता नहीं करती।

हमें गुरु, वैष्णव भगवान की सेवा करने में कोई रूचि नहीं है। क्यों? क्योंकि हमारा उनके साथ कोई सम्बन्ध (प्रेम सम्बन्ध) स्थापित नहीं हुआ है। जब प्रीती सम्बन्ध हो जायेगा। तब आप उनकी सेवा किये बिना नहीं रह पाएंगे। सेवा करने की हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति होगी। स्वाभाविक रूप से आपकी उनके प्रति सेवा करने की प्रवृति जागृत हो जाएगी। परन्तु हमारा उनसे सम्बन्ध न होना ही, सेवा में रूचि न होने का मूल कारण है।

एकान्त भक्तेर मात्र कीर्तन-स्मरण।
अन्य पर्वे रुचि नाहि हय प्रवर्तन॥
भावेर सहित हय श्रीकृष्ण-सेवन।
स्वारसिकी-भाव क्रमे हय उद्दीपन॥
एकान्त भक्तेर क्रिया मुद्रा रागोदित।
तथापि से सब नहे विधि-विपरीत।

वे विधि के प्रतिकूल कार्य करके भी, भगवान् और भक्तों को सुख प्रदान करते हैं। उनका प्रत्येक क्षण भगवान् के चिंतन में ही व्यतीत होता है, भगवान् उन्हें निर्देश दे सकते हैं ऐसा करो ऐसा करो, परन्तु विधि-भक्ति के विरुद्ध कार्य करने से भगवान् की सेवा होगी ये बात केवल मात्र शुद्ध भक्त ही जानते है। जिनका अनुराग है। एक कनिष्ठ भक्त इसे नहीं समझ सकता। विधि क्या है? भगवान् को प्रसन्न करना, गुरुजी को प्रसन्न करना ही विधि है।

सर्वत्याग करिलेओ छाड़ा सुकठिन।
प्रतिष्ठाशा-त्यागे यत्न पाइबे प्रवीण॥

हम सब कुछ त्याग सकते हैं, किन्तु प्रतिष्ठा की कामना को त्यागना अत्यंत कठिन है। ‘सुकठिन’ अर्थात् लगभग असंभव, नाम और प्रतिष्ठा की कामना को छोड़ना, जो माया का अंतिम जाल है। यदि आप इस पर विजय प्राप्त नहीं कर पाते, तो आप भक्ति मार्ग में प्रगति नहीं कर सकते हैं।

प्रभाते गभीर रात्रे मध्याह्ने सन्ध्याय।
अनर्थ छाड़िया लओ नामेर आश्रय॥

अर्थात् निरंतर, आपको बिना किसी जागतिक कामना के हरिनाम करना चाहिए।

एइ-रूपे कीर्तन स्मरण जेइ करे।
कृष्ण-कृपा हय शीघ्र, अनायासे तरे॥

केवल ध्वनि करने से लक्ष प्राप्त नहीं होगा। उद्देश्य आपको समझना होगा। इस प्रकार आपको सभी जागतिक कामनाओं इच्छाओं को त्याग कर हरिनाम करना होगा। एकान्त भक्ति के साथ यदि आप कीर्तन स्मरण करेंगे तो कृष्ण सोचेंगे, उनके पार्षद सोचेंगे, गुरुदेव सोचेंगे कि यह निष्कपट है, यह वास्तव कुछ प्राप्त करने की इच्छा रखता है और वे हमारी पीठ पीछे आएंगे अर्थात् हमारी सहायता करेंगे। तब हमारा उद्धार होगा।

श्रद्धा करि साधु-संगे कृष्ण-नाम लय।
अनर्थ सकल याय निष्ठा उपजय॥

जब वे सभी कामनायें दूर हो जाएँगी तब मन की एकाग्रता होगी, मन अपने आराध्य में स्थिर हो जाएगा।

प्रातःकाले नित्य-लीला करिवे चिन्तन।
चिन्तिते चिन्तिते भावेर हइबे साधन॥

वैसे व्यक्ति का मन कहीं और है। इसलिए वो यहाँ नहीं है। शिक्षाष्टक कीर्तन के साथ-साथ सभी लीलाओं का चिंतन भी करना होगा।

राधा-कृष्ण की प्रातःकालीन लीलाएँ:

राधां स्नातविभूषितां व्रजपयाहूतां सखीभि: प्रगे,
तद्गेहे विहितान्नपाकरचनां कृष्णावशेषाशनाम्।
कृष्णं बुद्धमवाप्तधेनुसदनं निर्व्यूढगोदोहनं,
सुस्नातं कृतभोजनं सहचरैस्तां चाथ तं चाश्रये॥
(श्रीगोविन्दलीलामृत 2/1)

ये नित्य लीलाएँ हैं और जो कुछ हम इस संसार में देख रहे हैं, वह सब अनित्य सम्बन्ध हैं, जो कुछ हम कर रहे हैं, वास्तव में उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। ऐसा लगता है कि हमारा नित्य सम्बन्ध है, पर ये सब नाशवान हैं, क्षणभंगुर हैं, हमारे साथ कुछ भी नहीं जाएगा। प्रातःकाल यशोदा देवी के बुलाने पर राधारानी अपनी सखियों के साथ जावट से नन्दग्राम आती हैं। यशोदा देवी सोचती हैं कि राधारानी के हाथ का बना भोजन खाने से मेरे लाडले पुत्र की आयु बढ़ जाएगी, इसलिए वे राधारानी को आमंत्रित करती हैं। और राधारानी हर समय सेवा प्राप्ति के लिए उत्कंठित रहती हैं। इसलिए प्रातःकाल स्नान के पश्चात् अपनी सखियों के साथ सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित होकर आती हैं, राधारानी सुन्दर वस्त्र और आभूषण दूसरों को दिखाने के लिए नहीं, अपितु श्रीकृष्ण को आनन्द प्रदान करने के लिए धारण करती है, उनका उद्देश्य कृष्ण को आनन्द प्रदान करना है, यह बात हम अपनी प्राकृत बुद्धि द्वारा नहीं समझ सकते। हमने अपने गुरु महाराज से एक वृतांत श्रवण किया था। श्रील गोस्वामी महाराज हमारे गुरु महाराज के जेष्ठ गुरु-भ्राता थे। वे संन्यासी थे।

उनके गुरुदेव (प्रभुपाद) ने उन्हें बुलाया और कहा कि भगवा वस्त्र पहन कर लंदन जाकर प्रचार कार्य संभव नहीं हो पायेगा।

श्रील गोस्वामी महाराज :- मुझे क्या करना होगा?

प्रभुपाद :- एक बड़ा कोट ले आओ।

उन्होंने उन्हें वह कोट पहना दिया।

श्रील गोस्वामी महाराज :- मैं गृहस्थ जीवन त्याग कर आया हूँ और मुझे इतना बड़ा कोट पहना दिया गया है। क्या करें?

प्रभुपाद :- ये पादुका नहीं, इन्हें उतार दो। अच्छे जूते ले आओ, वहाँ लोग उनका सम्मान नहीं करते जो जूते नहीं पहनते, वे सभी जूते पहनते हैं।

उन्हें अच्छे जूते दिलवाए और पहना दिए।

श्रील गोस्वामी महाराज चिंतित हो गए और सोचने लगे कि ये क्या हो रहा है, मेरा तो सर्वनाश हो गया!!

प्रभुपाद :- आपको ऐसे ही जाना होगा और वहाँ प्रचार करना होगा।

प्रभुपाद ने उन्हें तुलसी की माला (जपमाला) जप कर के दे दी।

श्रील गोस्वामी महाराज:- क्या करें? गुरुदेव जो आदेश दें, मुझे उसका पालन करना होगा। तो वे प्रचार पर चले गए।

यह सब देखकर एक संन्यासी ने सोचा कि मैं भी ऐसा कर सकता हूँ। मैं भी भिक्षा करने जाता हूँ, मुझे और भी महंगा कोट मिल जाएगा, और मैं एक बहुत अच्छा जोड़ा जूता खरीदूँगा और पहनूँगा। उन्होंने कोट भी खरीदा और जूते भी खरीदे और उन्हें पहन लिया। प्रभुपाद ने यह देखा और कहा कि इनका सर्वनाश हो गया है!! एक को उन्होंने कहा सर्वनाश हो गया और दूसरे को उन्होंने कोट पहना दिया। गोस्वामी महाराज ने अपनी इच्छा से पोशाक धारण नहीं की, अपितु गुरुदेव ने कहा प्रचार के लिए ऐसी पोषाक की आवश्यकता है इसलिए गुरु की आज्ञा समझकर उसे स्वीकार किया। परन्तु दूसरे संन्यासी ने स्वीकृति के पीछे की भावना को नहीं समझा और सोचा कि मैं भी संन्यासी हूँ, यदि मैं भी महंगे जूते पहनता हूँ तो मुझे अधिक भक्ति मिलेगी। उनकी यह सोच है। बुद्धिहीन! जिसकी भगवान और भक्तों की सेवा पर कोई ध्यान नहीं है वे नहीं समझ पाएँगे। जिनका ध्यान सेवा में हैं वे समझ जाएँगे कि प्रभुपाद ने ऐसा क्यों कहा।

तो यहाँ राधारानी का सम्पूर्ण प्रयास कृष्ण को सुख प्रदान करने के लिए है न कि स्वयं के सुख के लिए या दूसरों को दिखाने के लिए। राधारानी की सम्पूर्ण चेष्टा केवल मात्र कृष्ण के सुख के लिए ही होती है। वे अपनी सखियों के साथ रसोई करने आती है। और जो नई सेविकाएँ हैं वे समूह से बहुत दूर रहती हैं और यह सोचकर निराश होती हैं कि ओह! हमें सेवा का कोई अवसर प्राप्त नहीं होगा। राधारानी का ध्यान सब पर रहता है और वे नई सेविका को बुलाकर उसे बर्तन धोने की सेवा प्रदान करती है। इस प्रकार वे सबको सेवा का अवसर प्रदान करती हैं। वे वहाँ बड़े प्रेम से भोजन बनाती हैं और कृष्ण के भोजन करने के बाद परम तृप्ति के साथ कृष्ण का अवशेष प्रसाद ग्रहण करती हैं, वे कृष्ण प्रसाद के अतिरिक्त अन्य कुछ ग्रहण नहीं करती है। और वहाँ उनकी सखियाँ, गोपियाँ भी प्रसाद ग्रहण करती हैं। यह राधारानी की लीला है। वे रसोई करती हैं और हर समय कृष्ण की सेवा में नियोजित रहती हैं। कृष्ण भी सभी को आनंद प्रदान करते हैं, ऐसा नहीं है कि वे केवल कांत-रस के भक्तों को ही आनंद प्रदान करेंगे और अन्य (वात्सल्य रस के सेवक-सेविका, सख्य रस के सेवक-सेविका) को नहीं, ऐसा नहीं है। वे सभी उनके पार्षद हैं। यशोदा माता नंद महाराज और सखा भी हैं, वे सबको आनंद प्रदान करते हैं। अब कृष्ण जागते हैं। हमने गोविंदलीलामृत में लिखी उनकी विभिन्न लीलाओं के विषय में श्रवण किया है, किन्तु उस विषय में बोलने का हमारा अधिकार नहीं है। कृष्ण उठते हैं और अपने सखाओं को अपने पास देखकर वे फिर सो जाते हैं। उनकी लीलाएँ हमारी समझ से परे हैं। और अंत में जब वे जागते हैं, तो यशोदा मैया नंद बाबा बहुत आनंदित होते हैं कि हमारा बच्चा उठ गया है। सखा भी आनंदित होते हैं क्योंकि वे काफी समय से उन्हें जगाने की चेष्टा कर रहे थे और सखाओं को उनकी रात्रि लीलाओं के विषय में कोई जानकारी नहीं है।

वे सामान्य मनुष्य की भांति लीलाएँ कर रहे हैं। फिर कृष्ण अपने सखाओं के साथ गौशाला में गायों को सुख प्रदान करने के लिए गोदोहन करने जाते हैं। वे गोदोहन के लिए सखाओं के साथ जाते हैं। सखा कृष्ण से इतने अधिक आसक्त हैं कि वे उन्हें बिल्कुल भी नहीं छोड़ते। जब वे उन्हें नहीं देखते हैं, तो ‘’कन्नैया, कन्नैया” कहते हुए रोते हैं। कृष्ण कहते हैं, “यहाँ आओ, यहाँ आओ, हम स्नान करें।” वे एक साथ स्नान करते हैं और एक साथ भोजन ग्रहण करने बैठते हैं। यशोदा देवी अत्यंत प्रीति के साथ उन्हें भोजन परोसती हैं।