[पंजाब में प्रचार करने के बाद श्रील गुरुदेव अपने पार्षदों के साथ कोलकाता वापस आ गये। उस समय श्रील गुरुदेव जी को एक पत्र मिला जिसमें दो व्यक्तियों ने पारमार्थिक विषय में उत्पन्न सन्देहों को व्यक्त किया था और उन्होंने श्रील गुरुदेव जी से अपनी उपदेश-वाणी द्वारा उन्हें दूर करने के लिये प्रार्थना की थी। श्रील गुरुदेव जी ने जो उपदेश-वाणी उन दोनों के लिये दी वह नीचे दी जा रही है।]
प्राचीन वैष्णवजन धीरे-धीरे इस लोक को छोड़कर हम लोगों को परमार्थ की ओर अधिक ध्यान देने का संकेत दे रहे हैं। हम लोगों की आयु बहुत ही कम है। फिर भी श्रीकृष्ण पादपद्म प्राप्ति का अवसर, उसके अनुरूप सुविधा और पथ के विषय में जानते हुये भी हम तीव्रता से भजन करने का कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं। जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों के कारण हम अपने वास्तविक स्वरूप को भूल गये हैं। जिस कारण हम देह-गेह (शरीर और घर) या उससे सम्बन्धित मायिक वस्तुओं को ही अपना धन और सर्वस्व समझ बैठे हैं। इसीलिये हम अपने वास्तविक सर्वस्व- अखिल रसामृत मूर्ति – श्रीकृष्ण की प्राप्ति से वन्चित हो गये हैं। जब तक हमारा अहंकार नहीं बदलेगा तब तक श्रीकृष्ण का वास्तविक अनुशीलन सम्भव नहीं है। सांसारिक अभिमान से जो भी साधन किया जाता है, वह अध्यात्म मार्ग में आगे नहीं ले जा सकता। जब तक इस मायिक barrier को tanscend (अतिक्रमण) नहीं किया जायेगा तब तक परमात्मा का अनुशीलन नहीं हो सकता।
अप्राकृत भूमिका में संसार के प्रति लोभ या कर्त्तव्यबोध अन्तर्हित हो जाता है। तदीय अभिमान जाग्रत होने पर श्री कृष्ण और उनके भक्त तथा उनसे सम्बन्धित चाहे कोई भी वस्तु क्यों न हो, उसमें प्रीति उत्पन्न हो जायेगी। सम्बन्ध-ज्ञान के साथ श्रीकृष्ण और उनके प्रियजनों की सेवा ही हरिभजन है। शुद्ध सम्बन्धज्ञान उदित न होने तक किये गये प्रत्येक कर्मार्पण आदि मिश्रा-भक्ति के कार्य हो सकते हैं। शुद्धभक्ति दुष्प्राप्य होने पर भी हमारी अन्वेषणीय है। कर्म-काण्डियों के बगीचे में जन-साधारण को मोहित करने के लिये जो कुछ भी देखा जाता है उसके द्वारा श्रीकृष्ण का शुद्ध अनुशीलन नहीं हो सकता। आत्मज्ञान में स्थित हुये बिना वैकुण्ठभजन नहीं होता। भेड़-चाल का अनुसरण करते हुये अनावश्यक कार्यों के लिये जीवन नष्ट करना हमारे लिये बुद्धिमत्ता नहीं है। ‘To make the best of a bad bargain’ की policy ग्रहण करना आवश्यक है।
शास्त्रों में विशेषतः हमारे पूर्वाचार्यों ने कर्म, ज्ञान, योग, याग, व्रत, तपस्यादि को छोड़कर केवल हरिनाम करने के लिये ही उपदेश दिया है।
हरेर्नाम, हरेर्नाम, हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव, नास्त्येव गतिरन्यथा।।
(वृहन्नारदीय-वचन 38/26)
अर्थात् कलियुग में नाम के सिवा जीव की कोई दूसरी गति नहीं है, दूसरी गति नहीं है, दूसरी गति नहीं है। कलियुग में स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ही नामरूप में अवतरित हुए हैं। हरिनाम के द्वारा ही सारे जगत् का उद्धार होता है। जड़-बुद्धि वाले लोगों की हरिनाम में दृढ़ता के लिए ‘हरेर्नाम’ पद को तीन-बार तथा ‘एव’ पद का प्रयोग किया गया है। पुनः ज्ञान, योग, तप आदि कर्मों के परित्याग निश्चित करने के लिए ‘केवल’ शब्द कहा गया है। जो व्यक्ति शास्त्र के इस आदेश की अवज्ञा करता है, उसका उद्धार कदापि सम्भव नहीं है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए अन्त में ‘नास्त्येव’ पद का भी तीन बार प्रयोग किया गया है।
यदि हम दूसरे सभी प्रकार के साधनों का मोह छोड़ दें और श्रीनाम और नामी को अभिन्न समझकर एकांतभाव से श्रीनाम-भजन कर पायें तो तीव्रता से फल देने वाला उससे श्रेष्ठ और कोई भी साधन नहीं है। श्रीनाम-संकीर्तन ही हज़ारों प्रकार के भक्ति अंगों में सर्वश्रेष्ठ है। श्रीनाम-भजन ही चैतन्यदेव जी की शिक्षा का सार है। श्रीभगवान् को बुलाना ही श्रीनाम-भजन है। श्रीभगवान् को बुलाने का अभिनय करने दूसरे किसी को बुलाना यह श्रीनाम-भजन नहीं है, वह तो नामापराध मात्र है। आप अगर निरन्तर प्रेमभाव से श्री कृष्णनामानुशीलन करें तो मैं अपने आपको कृतार्थ समझूंगा।