तृतीय याम

तृतीय याम साधन (पूर्वाह्नकालीन भजन-निष्ठा भजन)

आराध्य वस्तु पर मन को स्थिर करना

जब सभी जागतिक कामनाये दूर हो जाती हैं, तब हम अपने मन को आराध्य वस्तु पर केंद्रित कर सकते हैं। मन की इस प्रकार की स्थिरता को निष्ठा कहते हैं।

निरपराध रूप से हरिनाम करने का अधिकारी कौन है? हरिनाम करने का तरीका क्या है? इसके लिए चैतन्य महाप्रभु द्वारा हमें तृतीय श्लोक में हरिनाम करने की प्रणाली का निर्देश किया है—

तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:॥
(श्री शिक्षाष्टक का तीसरा श्लोक)

शिक्षाष्टक के तीसरे श्लोक में नाम संकीर्तन करने का अधिकारी बताया गया है। जो साधक तृण से भी अधिक सुनीच (दीन) होकर , वृक्ष से अधिक सहनशील होकर, स्वयं मानशून्य होकर दूसरों को सम्मान देने से हरिनाम-कीर्तन करने का अधिकार होता है।

ये रूपे लइले नाम प्रेम उपजय।
तार लक्षण श्लोक शुन, स्वरूप-रामराय॥
उत्तम हञा आपनाके माने तृणाधम।
दुइ प्रकारे सहिष्णुता करे वृक्षसम॥
(श्री चैतन्य चरितामृत अन्त्य 20/20, 22)

श्रीचैतन्य महाप्रभु, स्वरूप दामोदर और राय रामानंद को संबोधित करते हुए कहते हैं, “जिस प्रकार से नाम ग्रहण करने पर ‘प्रेम’ उदित होता है, उसके लक्षणों को वर्णन करनेवाले शास्त्रोक्त श्लोक को सुनो। ऐसा व्यक्ति गुणों में उत्तम होने पर भी स्वयं को तृण से भी सुनीच (अधम) मानता है।

जब तक किसी भी प्रकार का जागतिक अभिमान रहता है तो वहाँ पर अपराध होने की संभावना रहती है। तृण (घास के तिनके) में भी यह जागतिक अभिमान होता है, की मैं इस संसार का हूँ। जब बकरी, गाय, तृण पर पैर रखते हैं तो वह झुक जाता है। परन्तु पैर उठाते ही वह फिर से खड़ी हो जाता है। ऐसा भी नहीं करना है, तृण संसार को यह बताना चाहता है कि वह इसी संसार का है। जब तक जागतिक अभिमान रहेगा ( मैं इस जगत का हूँ ), तब तक कोई तृणादपि सुनीचेन नहीं हो सकता। इसलिए हमें सभी सांसारिक अभिमान त्याग देना चाहिए। जब ​​तक हमारे अंदर किसी भी प्रकार का जागतिक अहंकार होगा, तब तक अपराध करने की पूरी संभावना बनी रहेगी।

वृक्ष येन काटिलेह किछु ना बोलय।
शुकाइया मैले कारे पानी ना मागय॥
(श्री चैतन्य चरितामृत अन्त्य 23)

उस व्यक्ति में वृक्ष की भांति दो प्रकार से सहिष्णुता-गुण देखे जाते हैं—वृक्ष काटे जाने पर भी कुछ नहीं कहता; सहन करता है एवं स्वयं सूख जाने पर भी कदापि अपने लिए जल की मांगकर किसी को कष्ट नहीं देता है। अपने सुख के लिए दुसरो को कष्ट नहीं देता है।

येइ ये मागये, तारे देय आपन धन।
घर्म-वृष्टि सहे, आनेर करये रक्षण॥
(श्री चैतन्य चरितामृत अन्त्य 24)

यदि कोई वृक्ष की शाखाएँ काटता है, और यदि वह व्यक्ति वृक्ष के निकट जाता है, तो वह उसे भी अपना धन देता है। अपना धन मतलब आश्रय देते हैं, धूप, वर्षा से रक्षण प्रदान करते हैं। इस संसार के बद्धजीवों के लिए ऐसी सहनशीलता होना असंभव लगता है। हम कह सकते हैं, “वह मुझे इतना कष्ट देता है, मैं कैसे सहन करूँ?” यदि आप सहन नहीं करेंगे तो आप हरिनाम कैसे करेंगे?

इस पेड़ के उदाहरण से समझिए कि यदि आप पेड़ की शाखा काट दें, तो क्या होगा। पेड़ को पानी न भी मिले तो भी वह किसी को कष्ट नहीं देगा। तब भी वह सभी को अपना धन /लाभ देता है। यदि कोई व्यक्ति हमारे साथ भी इस प्रकार का व्यवहार करे, तब हम क्या करेंगे? तो हम उसे अपनी दृष्टि से दूर चले जाने के लिए कहेंगे। किन्तु एक वृक्ष किसी की उपेक्षा न करते हुए, सभी को सूर्य की किरणों और वर्षा से रक्षण प्रदान करता है। हम इस संसार में ऐसी सहिष्णुता की कल्पना भी नहीं कर सकते। तो फिर हम हरिनाम कैसे कर सकते हैं?

उत्तम हञा वैष्णव हबे निरभिमान।
जीवे सम्मान दिवे जानि ‘कृष्ण’-अधिष्ठान॥
(श्री चैतन्य चरितामृत अन्त्य 25)

वैष्णव को इस संसार का कोई भी अहंकार, मिथ्या अहंकार नहीं रखना चाहिए। वे सभी जीवों का सम्मान करते हैं]। कोई व्यक्ति बुरा भी हो तो भी वैष्णव उसे यह सोचकर सम्मान प्रदान करते हैं कि उनके आराध्य देव उस जीव के हृदय में विराजमान हैं, कृष्ण-अधिष्ठान। इस विचार से वैष्णव सभी का सम्मान करते हैं। व्यक्ति दुष्ट हो, बहुत बुरा हो परन्तु भगवान् सबके हृदय में विराजमान हैं। वैष्णव दूसरों से कोई अपने सम्मान की इच्छा न रखते हुए भी दूसरों को यथायोग्य सम्मान प्रदान करता है। इस संसार के बद्धजीव ऐसा नहीं कर सकते। ऐसी शिक्षा श्रवण करने के बाद भी यदि कोई कुछ बुरा कहता है तो हम उसे थप्पड़ मारने के लिए तैयार हो जाते हैं।

श्री राधाकृष्ण की पूर्वान्ह लीलाएँ:

हरिनाम करते समय तुम्हें इसका चिंतन करना चाहिए, तब तुम्हारा मन पवित्र हो जाएगा और ये सभी लीलाएँ तुम्हारे हृदय में प्रकट हो जाएँगी।

पूर्वाह्ने धेनुमित्रैर्विपिनमनुसृतं गोष्ठलोकानुयातं,
कृष्णं राधाप्तिलोलं तदभिसृतिकृते प्राप्ततत्कुण्डतीरम्।
राधां चालोक्य कृष्णं कृतगृहगमनामार्ययार्कार्चनायै,
दिष्टां कृष्णप्रवृत्त्यै प्रहितनिजसखीवर्त्मनेत्रां स्मरामि॥
(गोविन्द-लीला-अमृतम् 5/1)

सुबह और दोपहर के बिच के समय को पूर्वाह्न कहते हैं।

पूर्वाह्न काल में भोजन ग्रहण करने के पश्चात कृष्ण को गोचारण के लिए जाता देख नन्द महाराज, यशोदा देवी और अन्य सभी व्रजवासी जन व्याकुल हो जाते है, कृष्ण को जाता देख उनके प्राण जा रहे हैं; उन्हें कृष्ण अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है! चूँकि उन्हें गायों और बछड़ों को चराना है, इसलिए वे उन्हें जाने से मना नहीं कर सकते। जब तक कृष्ण उन्हें दृष्टिगोचर होते हैं, तब तक कृष्ण का अनुगमन करते हुए, उनके पीछे-पीछे चलते हैं किन्तु कृष्ण जब अति दूर चले जाते हैं, तब वे हताश होकर वापिस लौटते हैं। उन्हें कृष्ण से विरह का अनुभव होता है। जहाँ प्रेम है, वहाँ विरह है, थोड़े समय के बाद दुबारा कृष्ण का दर्शन होगा किन्तु वे थोड़ा-सा भी विरह सहन नहीं कर सकते। कृष्ण ग्वालबालों के साथ विचरण कर रहे हैं। पूर्वाह्न काल में राधारानी राधाकुण्ड पर कृष्ण की प्रतीक्षा कर रही हैं। राधा-प्रेम से वशीभूत होकर कृष्ण उनसे मिलने के लिए राधाकुण्ड जाने की इच्छा करते हैं तब कृष्ण सखाओं को आश्वासन देते हुए कहते हैं, “तुम लोग कुछ देर यहीं रहो। मैं कुछ देर घूमकर वापस आ जाऊँगा।” ग्वालबालों ने कहा, “कन्नैया, तुम कहाँ जा रहे हो?” कृष्ण ने कहा, ” तुम चिंतित मत हो, मैं वापस आ जाऊँगा, उसके बाद हम बात करेंगे। मैं वापस आकर तुम सबके साथ यहाँ रहूँगा।” उन्हें समझाकर कृष्ण राधाकुण्ड पर राधारानी से मिलने जाते हैं। ग्वालबालों का राधाकुण्ड की लीलाओ में प्रवेश का अधिकार नहीं है। राधाकुण्ड की लीलाओ में केवल मात्र गोपियों के प्रवेश का अधिकार है। अब उनके प्राण निकल रहे हैं, किन्तु वे क्या कर सकते हैं? कृष्ण, राधारानी के विशुद्ध प्रेम से वशीभूत होकर उनसे मिलने के लिए राधाकुण्ड की ओर प्रस्थान करते हैं उन श्री कृष्ण का मैं स्मरण करता हूँ।

यहाँ राधारानी की लीलाओ के विषय में वर्णन दिया गया है? उन्हें पहले से ही कृष्ण के बछड़ों या गायों के साथ वन जाने की सूचना प्राप्त हो चुकी है। वे कृष्ण से मिलने के लिए वहाँ जाने के लिए बहुत उत्सुक हैं। वे सोचती है, “मुझे वहाँ जाना है। मैं कैसे जा सकती हूँ?”

राधारानी अपने पति के स्थान पर है, वास्तव में, पति तो भगवान् श्री कृष्ण ही हैं, परन्तु बाह्य रूप से वे कुछ लीलाएँ कर रहे हैं, कृष्ण के साथ उनके मिलन में कुछ बाधाएँ हैं। वे कृष्ण से मिलने के लिए बहुत उत्सुक है। कोई भी उन्हें श्री कृष्ण से मिलने और उनकी सेवा करने की अनुमति नहीं देगा। उनकी सास जटिला बहुत कठोर स्वभाव वाली है। उनकी अनुमति के बिना राधारानी कहीं कैसे जा सकती है?”

कृष्ण राधारानी को सलाह देते हैं, “तुम क्यों चिंतित हो? तुम अपनी सास से प्रार्थना करो। यदि तुम कहती हो कि तुम मुझसे मिलने जा रही हो, मेरी पूजा करने की इच्छा रखती हो तो वह अनुमति नहीं देगी। गृहस्थ लोगों को सांसारिक लाभ के लिए देवी-देवताओं की पूजा करने में अधिक रुचि होती है।ताकि उन्हें धन, पुत्र, पत्नी आदि जैसे भौतिक लाभ प्राप्त हो सकें। तुम उनसे कहो कि तुम सूर्य देव की पूजा करना चाहती हो। तब वह तुम्हें अनुमति प्रदान कर देगी।” राधारानी अपनी सास के पास गईं, “मुझे सूर्य देव की पूजा करने की इच्छा हुई है।”जटिला, “ओह, यह अच्छा है, अच्छा है, अच्छा है। जाओ और सूर्य देव की पूजा करो। सूर्य देव की पूजा से लाभ मिलेगा। सूर्यदेव की पूजा के नाम पर वे कृष्ण से मिलेंगी और उनकी पूजा करेंगी। एक संदेशवाहक, एक विश्वासपात्र (सखी, एक गोपी) को यह जानने के लिए भेजा जाता है कि वे कहाँ जाएँगी और कृष्ण से मिलेंगी। वे उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रही हैं कि उनकी विश्वासपात्र आएगी और उन्हें कृष्ण के बारे में संदेश देगी। हमें ऐसी राधारानी को प्रातःकाल स्मरण करना चाहिए जो संदेश पाने के लिए हृदय से व्याकुल होकर प्रतीक्षा कर रही हैं।