गुरु-पूजा उपलक्ष में

कुछ वर्ष पहले, गुरु-पूजा (राम नवमी) के पवित्र अवसर पर, ॐ विष्णुपाद श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज ने बड़ी विनम्रता के साथ और हम पर कृपा-वर्षण करते हुए अपने बारे में बात की थी।

अब मैं आप सभी श्रोतागणों के समक्ष अपने हृदय की उस समय की स्थिति का वर्णन करने जा रहा हूं जब मैंने प्रथम बार अपने श्रील गुरुदेव के चरण कमलों का आश्रय ग्रहण किया था। तब मैं अपने बहनोई जो एक अधिकारी पद पर अधिनस्थ थे, के साथ रहता था तथा मैं अध्ययन के लिये कलकत्ता विश्वविद्यालय जाता था। श्रील गुरुदेव के साथ प्रथम साक्षात्कार में मैंने उनसे कहा, “मेरा इस संसार के प्रति लम्बी अवधि से उदासीन (विरक्त) भाव था। मुझे अनुभव होता है कि यह संसार शाश्वत ( नित्य) नहीं है तथा एक दिन मेरी मां, पिता, भ्राता, बहन तथा अन्य सभी एक दिन चले जायेंगे। सब कुछ समाप्त हो जायेगा। इस प्रकार विचार कर मैं दु:खी हो जाता हूं तथा मेरा मन करता है कि इस संसार को त्याग दूं। किन्तु मुझ में कामना और सुख भोगने की इच्छा है। इसीलिए मैं इस संसार को त्यागने के विचार से डरता हूं। यदि मैं किसी प्रकार इस संसार का त्याग कर देता हूं तथा कुछ समय पश्चात किसी कारणवश पुन: लौटना पड़ जाये तो मेरे मित्र मेरा उपहास करेंगे और इस संसार के लोग मुझ पर हसेंगे। इसीलिए अब आप कृपा कर मुझे बतलायें, क्या मेरे लिए भौतिक संसार को त्यागना श्रेयकर है या नहीं”।

इसके उत्तर में श्रील गुरुदेव ने मुझे बड़े प्रीति भाव से समझाते हुए कहा, “ठीक है, तुम्हारे में कुछ कमियां हो सकती हैं। किन्तु भगवान में किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं है। वह अनन्त हैं; उनकी कृपा की कोई सीमा नहीं है”।

उसके पश्चात मैंने श्रील गुरूदेव से कहा, “मेरे भोलेपन को देखकर मेरे पिता जी का मेरे प्रति अन्य भाइयों से अधिक स्नेह भाव है। उन्होंने मेरा पालन पोषण किया है, मुझे शिक्षित किया है, तथा उनको मुझसे बहुत अपेक्षाएं हैं। अभी मेरे पास धन अर्जित करने तथा उनकी सेवा करने अवसर है। यदि मैं इस समय पर उन्हें छोड़ कर जाऊंगा तो क्या मुझे पाप नहीं लगेगा”?

तब श्रील गुरूदेव ने भगवद्गीता का यह शलोक का उच्चारण किया :-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
(भ. 18.66)

उन्होंने बड़ी प्रीति पूर्वक इस शलोक की व्याख्या की, “यदि आप अपने सभी उत्तरदायित्व छोड़कर यहां आते हैं, तो श्री कृष्ण आपको सभी प्रकार के पापों से मुक्त कर देंगे। आपको इस विषय में चिन्ता करने या किसी प्रकार का भय करने की आवश्यकता नहीं है। यह तो एक प्रकार से आपके पिता की ही सेवा होगी”।

श्रील गुरूदेव का उपदेश श्रवण करने के पश्चात मुझे अनुभव हुआ कि उनकी मेरे प्रति प्रीति भाव है। मैंने उनसे दोबारा पूछा, “मैं घर छोड़कर किस प्रकार आऊं? यदि मैं अपने साथ बिछौना (बेडिंग) लेकर आऊंगा तो वे मुझे पकड़ लेंगे”।

श्रील गुरूदेव ने उत्तर दिया, “हां, बहुत अच्छा, तुम्हें बिछौना (बेडिंग) साथ लाने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप चाहो तो कुछ वस्त्र साथ लेकर आ सकते हो”।

मैं घर गया, और जब अपने कुछ वस्त्रों के साथ घर से निकलने लगा तब मेरे पिता जी ने मुझसे पूछा, “आप अपने वस्त्रों को साथ लेकर कहां जा रहे हो”? मैंने उत्तर दिया, “मेरा एक मित्र है। उनसे मिलकर हम लाभान्वित होंगे; इसिलिये मैं उनसे मिलने जा रहा हूं” मेरे पिता ने सोचा कि मेरा एक मित्र है, जिससे मिलकर मुझे कोई भौतिक लाभ प्राप्त होगा। इसीलिये उन्होंने प्रसन्नता सहित मुझे घर से जाने की अनुमति दे दी। किन्तु वे यह नहीं जानते थे कि केवल एक साधु ही सच्चा मित्र हो सकता है। इस प्रकार मैं घर से भागकर श्रील गुरूदेव के पास आ गया।

जब मैं मठ मन्दिर से युक्त हुआ, तब मैंने देखा कि सभी सन्यासीगण अपने गुरूदेव के आविर्भाव (प्रकट दिवस) पर गुरु पूजा करते हैं। इसीलिये हमारे गुरूदेव भी उनकी स्वयं की आविर्भाव तिथि पर श्रील प्रभुपाद की पूजा किया करते थे। इसीलिये उत्थान एकादशी गुरूदेव सर्वप्रथम प्रभुपाद की पूजा किया करते थे तत्पश्चात हूं सभी मिलकर गुरूदेव की पूजा किया करते थे। श्रील गुरूदेव भगवान के नित्य पार्षद हैं। प्रभुपाद भी कोई साधारण मनुष्य नहीं थे। उन्होंने सम्पूर्ण संसार को हिला कर रख दिया। हमारे गुरूदेव दिन चौबीस घण्टे ही भगवान की सेवा किया करते थे। वह एक आदर्श चरित्रवान व्यक्ति थे। यहां तक कि उन्होंने मुझ जैसे दुष्ट को भी शासन कर सुधार किया। क्या आप जानते हैं कि गुरूदेव ने मुझे एक आचार्य क्यों बनाया?

उन्होंने विचार किया कि, “इसमें अनेक दोष हैं। जब तक यह वैष्णवों की सेवा नहीं करेगा तब तक इसका उद्धार सम्भव नहीं है। यदि मैं इसे आचार्य बनाता हूं, तो इसे सभी वैष्णवों की देखभाल करनी होगी तथा उनकी सेवा करनी होगी। इस प्रकार इसका उद्धार सम्भवपर होगा”। ऐसा विचार कर श्रील गुरूदेव ने मुझे आचार्य नियुक्त किया। हमारी संस्था प्रणाली में अध्यक्ष या मठ प्रभारी बनने का अर्थ उस संस्था का स्वामी बनना नहीं है। मुझे आचार्य नियुक्त किया गया ताकि मैं श्रील गुरूदेव के अश्रितजनों की सेवा कर सकूं। यदि मैं आचार्य पद पर अधिनस्थ हो गया हूं तो इसका अर्थ यह नहीं कि मैं कोई बड़ा व्यक्ति या पूजनीय व्यक्ति बन गया हूं तथा सभी को मेरी सेवा करनी चाहिये। ऐसा विचार नरक का द्वार खोलता है।

आज भगवान रामचन्द्र का आविर्भाव तिथि है। मेरी उनके विषय में बोलने की इच्छा है किन्तु समय अभाव है। अधिक बोलना कठिन होगा, किन्तु मैं उनकी एक लीला का कीर्तन करूंगा। यह बात तब की है जब भगवान रामचन्द्र बनवास के बाद पुन: अयोध्या लौटकर आये थे। उन्हें बड़े सम्मान पूर्वक राजा के रूप में नियुक्त किया गया था। राजा बनने के पश्चात उन्होंने भोजन ग्रहण करने से पूर्व लक्ष्मण को द्वार पर खड़े रहकर यह निरीक्षण करने का आदेश दिया की द्वार पर कोई भूखा व्यक्ति तो नहीं।

लक्ष्मण ने श्री रामचन्द्र से आकर कहा कि उन्होंने निरीक्षण के लिये पुकारा किन्तु वहां कोई भी भूखा व्यक्ति नहीं था। भगवान रामचन्द्र ने उन्हें दोबारा से वहां जाकर उच्च स्वर में पुकार लगाकर निरीक्षण करने को कहा ताकि यह पता चल सके की वहां कोई भूखा व्यक्ति बाकी ना रह गया हो। भगवान रामचन्द्र के आदेश का पालन करते हुये लक्ष्मण ने बाहर जाकर फिर से उच्च स्वर में पुकारा। उन्होंने वहां किसी भी व्यक्ति को नहीं देखा किन्तु उन्होंने वहां एक कुत्ते को रोते हुये देखा। लक्ष्मण ने लौटकर भगवान रामचन्द्र को बतलाया कि वहां कोई व्यक्ति नहीं ही किन्तु एक कुत्ता रो रहा है। भगवान रामचन्द्र ने कुत्ते को बुलाया। भगवान सभी भाषाओं के ज्ञाता हैं, इसीलिये उन्होंने कुत्ते से पूछा, “तुम क्यों रो रहे हो?”

कुत्ते ने उत्तर दिया, “एक ब्राह्मण ने मुझे छड़ी से पीटा”।

भगवान रामचन्द्र ने उस ब्राह्मण को बुलवाया और पूछा क्या कुत्ता सत्य बोल रहा है? ब्राह्मण ने उत्तर दिया, “हां, यह कुत्ता मेरे मार्ग पर सो रहा था; इसीलिये मैंने इसे पीटा। ये कुत्ते कहीं भी और किसी भी जगह सो जाते हैं। इसीलिए इन्हें छड़ी से पीटना चाहिये”।

भगवान रामचन्द्र समझ गये कि दोष ब्राह्मण का है, किन्तु आप ब्राह्मण को क्या कह सकते हैं? इसीलिये उन्होंने कुत्ते से पूछा, “यह ब्राह्मण तुम्हें छड़ी से पीटता है। अब तुम क्या चाहते हो”?

कुत्ते ने उत्तर दिया, “भगवान, आप इन्हें मठ का अध्यक्ष (प्रभारी) बना दें”।

कुत्ते का उत्तर सुनकर भगवान ने मन्दहास करते हुये कुत्ते से पूछा, “इस ब्राह्मण ने तुमको छड़ी से पीटा और तुम्हारी इच्छा है कि इन्हें मठ का अध्यक्ष नियुक्त किया जाये? यह अध्यक्ष बनकर अनेक प्रकार की सेवाएं तथा शिष्यों को प्राप्त करेंगें। इससे तुमको क्या लाभ प्राप्त होगा”?

तब कुत्ते ने उत्तर दिया, “मैं भी पूर्व में मठ का अध्यक्ष था। तब मुझसे कुछ ऐसे अनुचित कार्य हुए जिस कारण से मुझे इस जन्म में कुत्ते की योनि प्राप्त हुई तथा अब प्रत्येक व्यक्ति से छड़ी द्वारा पीटा जा रहा हूं। यदि यह ब्राह्मण मठ का अध्यक्ष बन जाता है, तो फिर यह अपने अनुचित कार्यों द्वारा यह एक कुत्ते की योनि प्राप्त करेगा तथा छड़ी द्वारा पीटा जाएगा। इस प्रकार इसका दण्ड पूरा हो जाएगा”। इसीलिए मठ का अध्यक्ष बनने में एक बड़ा संकट है।

श्रील गुरुदेव का व्यक्तित्व पूर्ण रूप से अद्वितीय था। वे असम्भव कार्यों को भी बड़ी सरलता से सम्भव बना देते थे। जगन्नाथपुरी में श्रील प्रभुपाद के जन्म स्थान को संरक्षित करने के कार्य को प्रत्येक व्यक्ति द्वारा असम्भव घोषित कर दिया गया था, किन्तु श्रील गुरूदेव ने उस असम्भव कार्य को सम्भव कर दिखलाया। एक बार श्रील गुरुदेव, श्रील प्रभुपाद के जन्म स्थान के कार्य के लिए उड़ीसा के राज्यपाल के घर गए। जब हम वहां पहुंचे तब गवर्नर अपनी कार में जा रहे थे। किन्तु श्रील गुरुदेव का बाहरी रूप ही इतना आकर्षक था कि जब राज्यपाल ने दूर से श्रील गुरुदेव को देखा तो उन्होंने अपनी कार रोक दी। उस समय श्रील गुरुदेव अपनी कार से बाहर निकल रहे थे। राज्यपाल भी अपनी कार से बाहर निकले तथा उन्होंने श्रील गुरुदेव को प्रणाम ज्ञापन किया। कुछ देर वार्ता करने के पश्चात राज्यपाल ने श्रील गुरुदेव से आने का कारण पूछा।

श्रील गुरुदेव ने उन्हें संक्षेप में श्रील प्रभुपाद के जन्म स्थान के विषय में बतलाया। राज्यपाल ने बड़े ही ध्यान तथा विश्वास के साथ श्रील गुरुदेव की बात सुनी और उन्हें अन्दर आने के लिए कहा। यहां मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि श्रील गुरुदेव बाहरी रूप से भी इतने आकर्षक थे कि कोई भी अज्ञात व्यक्ति उन्हें देखकर आकर्षित हो जाता था। मुझमें सभी प्रकार के बुरे गुण हैं। इसीलिए श्रील गुरुदेव ने मेरे उद्धार के लिए मुझे वैष्णव के बीच में रखा। यदि मेरा पतन हो जाता है तो वे मेरी रक्षा करेंगे। अब प्रत्येक व्यक्ति मुझे विदेश में प्रचार करने के भेजना चाहता हैं। मैं सोचता हूं कि विदेशी देशों में क्या है? मैं स्वयं का ही उद्धार नहीं कर सकता हूं, तो मैं दूसरों का उद्धार किस प्रकार करूंगा? यहां वृन्दावन धाम, पुरी धाम, अयोध्या धाम, मायापुर धाम तथा अन्य अन्य अनेक धाम हैं।मेरी रक्षा के लिये चारों और वैष्णव हैं। श्रील गुरूदेव तो नहीं हैं किन्तु उनके ज्येष्ठ गुरु भ्राता का आदेश है कि मैं प्रचार के लिये विदेश जाऊं। मेरे प्रति अत्याधिक कृपालु होने के कारण उन्होंने मुझे पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने लिख कर आदेश दिया है कि मुझे प्रचार के लिये विदेशों में जाना ही होगा। यदि मैं उनके आदेश की अवेहलना करता हूं तो तो यह अपराध होगा। मैंने उनसे पूछा, “यदि मेरा पतन हो जाये तो क्या होगा? पतन का अर्थ है, भगवान को छोड़कर अन्य विचारों का मन में आना। तो फिर क्या होगा”?

उन्होंने उत्तर दिया, “तुम्हें भय करने की आवश्यकता नहीं है। यह मेरा उत्तरदायित्व है। तुम अवश्य ही जाओ”। इसीलिए अब वैष्णवों की आज्ञा का पालन करने के लिए मैं विदेश प्रचार में जा रहा हूं। अब बहुत विलम्भ हो गया है। थोड़ा कीर्तन करना चाहिये।

श्री चैतन्य गौड़ीय मठ, चंडीगढ़ के एक हिंदी प्रकाशन से अनुवादित