गजेन्द्र उवाच
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्।
योऽस्मात् परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्॥
य: स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्वचिद् विभातं क्व च तत् तिरोहितम्।
अविद्धदृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोऽवतु मां परात्पर:॥
कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु।
तमस्तदासीद् गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभु:॥
न यस्य देवा ऋषय: पदं विदु-
र्जन्तु: पुन: कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमण: स मावतु॥
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं
विमुक्तसङ्गा मुनय: सुसाधव:।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतात्मभूता: सुहृद: स मे गति:॥
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा
न नामरूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय य:
स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति॥
तस्मै नम: परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे॥
नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।
नम: कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥
नम: शान्ताय घोराय गुढ़ाय गुणधर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नम:॥
नमो नमस्तेऽखिलकारणाय
निष्कारणायाद्भुतकारणाय।
सर्वागमाम्नायमहार्णवाय
नमोऽपवर्गाय परायणाय॥
गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि॥
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि
प्रतीत-प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-
र्दुष्प्रापणाय गुणसङ्गविवर्जिताय।
मुक्तात्मभि: स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं चाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम्॥
एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्ना:।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमङ्गलं
गायन्त आनन्दसमुद्रमग्ना:॥
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम्।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर-
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे॥
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचरा:।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृता:॥
यथार्चिषोऽग्ने: सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिष:।
तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो
बुद्धिर्मन: खानि शरीरसर्गा:॥
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ् न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तु:।
नायं गुण: कर्म न सन्न चासन् निषेधशेषो जयतादशेष:॥
जिजीविषे नाहमिहामुया कि-
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम्॥
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम्।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम्॥
गजेन्द्र व्याकुल हये भगवानेर काछे प्रार्थना करछे
उतावला होकर
लड़ाई कर रहा है ग्राह से
उसके अंदर में कष्ट हो रहा है, हज़ारो साल लड़ाई की
मनोबल, शरीर बल, इन्द्रिय बल, सब क्षय हो गया है
सामने में मृत्यु देखता है
उसी हालत में लड़ाई करने के वक्त
भगवान का स्तव कैसे होता है?
जरा सी शरीर में कुछ गड़बड़ हो
हम लोग सब भूल जाते हैं, भगवान का भजन भी भूल जाते हैं
गजेन्द्र कैसे कर रहा है?
गजेन्द्र पिछले जन्म में भी भक्त थे
भक्ति कभी नाश नहीं होती है
अगस्त्य ऋषि के अभिशाप से हस्ती (हाथी) देह प्राप्त किया
इतने दिन याद नहीं था
हज़ारो साल लड़ाई करने के बाद
पिछले जन्म में जो अभ्यस्त था
भगवान का स्तव करते थे वो याद आ गया
वो तो आत्मस्थ होकर करते थे
अपना एक स्वरुप है इसलिए
आत्मा की नित्य-वृत्ति जब प्रकाश होती है
शरीर मन यह तो आत्मा है तब तो है
यह शरीर मन की स्वतंत्र चेतनता नहीं है
वही आत्मा की नित्य-वृत्ति प्रकाश होने से
यह शरीर की जो मुसीबत है
उनको इसमें कोई बाधा नहीं हुई किसलिए?
अहैतुकी भक्ति प्रकाश हो गई अप्रतिहता
इसलिए इसी हालत में भी धीर स्थिर रूप से स्तव कर रहा है
यह तो असंभव बात है
थोड़ा ज्यादा कीर्तन होने से हम लोगों का शरीर खराब हो जाता है
रात को नींद नहीं होने से शरीर खराब हो जाता है
खाना पीना नहीं करने से तो शरीर खराब, भजन बंद हो जाता है
शरीर की ऐसी कुछ बीमारी हो तो और मुसीबत आती है
लेकिन यहाँ पर एक हज़ार साल लड़ाई करने के बाद
और ग्राह पैर को पकड़कर उनको कष्ट दे रहा है
उनके साथ लड़ाई भी कर रहा है और स्तव भी कर रहा है
यह एक किस्म का असंभव मालुम होता है
लेकिन असंभव नहीं है
वही पूर्व अभ्यस्त [स्तव]
उनको आत्मा में स्फूर्ति हो गया
इसलिए यह शरीर और मन का जो
बंधन है, जो दुःख होता है
वही दुःख से उनका स्तव बंद नहीं हुआ
उसी प्रकार जब हम स्तव कर सके तब हमारा भी
संसार से.. ग्राह से मुक्ति…
संसार से मुक्ति भगवान के पादपद्म…
इसलिए पहले बोल दिया
किसके पास शरणागत हो रहा है?
सब जितने ब्रह्मादि देवता इंद्र सब फल्गु, फल्गु हैं
जितना दुनिया में जो कुछ है वो भगवान से ही
आता है, भगवान में ही रहता है, भगवान में ही चला जाता है
जो भगवान से, भगवान की माया शक्ति से प्रकाशित हुआ
भगवान से जैसे..
यथाग्नेः क्षुद्र विस्फूलिंगा व्युच्चरन्ति एवम् एव अस्माद् आत्मनः
सर्वे प्राण:, सर्वे लोक:, सर्वे देवाः, सर्वाणि भूतानि व्यौच्चरन्ति (बृहद-अरण्यक उपनिषद 2.1.20)
जैसे आग की चिंगारी
सूरज से रोशनी-कण आते हैं
अनगणित आते हैं और सूरज में चले जाते हैं
इसी प्रकार यह ब्रह्मादि देवता के पास मैं शरणागत नहीं हो रहा हूँ
भगवान से सब आते हैं, भगवान में ही चले जाते हैं
वो फल्गु अंश हैं, उनकी कोई कीमत नहीं है
मैं उनके पास शरणागत नहीं हो रहा हूँ
जो गुणसम्प्रवाहः है
उनके पास मैं शरणागत नहीं हो रहा हूँ, भगवान का अत्यंत जो अंश द्वारा
ब्रह्मादि देवता, सामादि चतुर्वेद
स्थावर जंगमात्मक लोक सकल
भिन्न-भिन्न नाम रूप विशिष्ट होकर
यह सृजन होता है फिर जैसे अग्नि-शिखा
और सूरज की जो स्वांश किरण
बार-बार सूरज से आती हैं, सूरज में जाती हैं
इसी प्रकार यह सब मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ
देह-वर्ग, गुण-वर्ग अनुरूप प्रपंच
वहाँ से आते हैं, वहाँ ही जाते हैं
देवता, पशु, मनुष्य, तिर्यक
स्त्री, पुरुष, नपुंशक, पहले तीन
लिंग छोड़कर और लिंग हैं, जंतु
और गुण कर्म
सत् का मतलब चेतन, असत् का मतलब जड़
यह नेति नेति इसी में मैं शरणागत नहीं हो रहा हूँ
यह नेति नेति का अशेषात्मक जितना हैं सब में नेति करके
भगवान् में, अशेषात्मक भगवान्
सम्पूर्ण जो भगवान्
पूर्णतम् भगवान्, उनके चरण में
मैं उनका जय गान कर रहा हूँ
उनकी कृपा प्रार्थना कर रहा हूँ
मैं और किसी की नहीं
किसके पास में शरणागत हो रहा हूँ वो
वो सम्पूर्ण रूप से साफा (स्पष्ट) करके बता रहा है
और जो शरणागत, मैं परमेश्वर के पास हो रहा हूँ
सिर्फ यह हस्ती योनी से
अभी यह हस्ती योनी में बचने के लिए नहीं
बचने के बाद फिर अपने स्त्री-पुत्र को लेकर रहेंगे
इसके लिए नहीं
यह तो अज्ञान से हस्ती देह प्राप्त हुआ
अंतर बाहर में अज्ञानता है
यह अज्ञान से मैं मुक्ति चाहता हूँ
भगवान् की माया से मोहित होकर
यह देह में जो आत्म बुद्धि है
जिससे हम भगवान को भूल गया, सब कुछ भूल गया था
यह हस्ती देह में फिर आने के लिए मेरी इच्छा नहीं है
इससे मुक्ति, सिर्फ इससे मुक्ति नहीं
मैं चाहता हूँ
सिर्फ भगवान के पादपद्म की सेवा
सिर्फ मुक्ति नहीं
काले अविनाश्य आत्म प्रकाशे अज्ञान मोक्ष कामना करी ना
इसमें व्याख्या की
वो व्याख्या क्या है?
एक तो माया के आवरण से मुक्ति
और एक है, वैकुण्ठ धाम
आत्मलोक आवरण
वैकुण्ठ धाम का जो आवरण है, द्वार है
दरवाजा है उसको भी
जो मेरे लिए कोई बाधा हो, उसको बाधा को हटा दीजिए
जिससे मैं वो भगवान के नित्य धाम में जा सकता हूँ
तोमार धाम लाभेर आकांक्षा करि, यही अर्थ किया है
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम्।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम्॥
सः अहम् (मुमुक्षुः) विश्वसृजं (विश्वस्य सृष्टारं)
विश्वं (विश्वरूपं)
अविश्वं (विश्वव्यतिरिक्तं)
विश्ववेदसं (विश्वं वेदः धनं उपकरणं यस्य तं)
विश्वात्मानं (विश्वस्य आत्मानम्)
अजं (नित्यं) परम् (उत्कृष्टं) पदम् (आश्रयं)
ब्रह्म (एव केवलं) प्रणतः अस्मि (न तू तं जानामि)
यहाँ कहते हैं जब ऐसा ही है
यह हस्ती देह प्राप्त करने के लिए इच्छा नहीं है
भगवत् धाम में जाने के लिए इच्छा है
तब भक्ति करो
भक्ति करने से भगवान् के धाम में चले जाओगे
तब कहते हैं
मुक्ति-कामी मुमुक्षु मैं
मैं तो मुसीबत में हूँ
किसलिए? ग्राह ने मुझको पकड़ा है
व संसार पकड़ा कि ग्राह पकड़ा
मैं कैसे? भक्ति किस प्रकार करते हैं मैं नहीं जानता हूँ
कैसे मैं भक्ति करूँ?
जो विश्व मैं देख रहा हूँ
वही विश्व का कोई सृष्टा है
भक्ति मुझे मालुम होने से मैं भक्ति कर सकता था
मैं तो मुसीबत में हूँ
भक्ति किस प्रकार से करनी पड़ती है, मैं नहीं जानता हूँ
जो मेरी इन्द्रियाँ हैं उससे जो कुछ देख रहा हूँ
यह विश्व को देख रहा हूँ
यह विश्व का कोई कर्ता होगा
उनको भी मैं, शरीर से
मैं प्रणाम करूंगा वो भी मेरी हालत नहीं है
मैं मन से, मन द्वारा उनको मैं प्रणाम करता हूँ
मैं तो एक जानवर हूँ, पशु हूँ
यह विश्व भगवान ही हैं
विश्वरूप और भगवान् अविश्वं भी
स्वरूप-शक्ति द्वारा विश्व व्यतिरेक
विश्व ही भगवान का रूप है, भगवान की बहिरंगा शक्ति का प्रकाश है
रूप कहने से उसमें दोष नहीं है
स्वरुप नहीं हो सकता है, रूप
अविश्वं स्वरुप शक्ति द्वारा विश्व व्यतिरिक्त
English में कहते हैं
God is immanent and transcendental
Supreme Lord is all-pervading
and also Supreme Lord is beyond this, transcendental
विश्ववेदसं.. जिनी विश्वज्ञाता
विश्वेर आत्मा
ताहाके आमि प्रणाम करी उनको मैं प्रणाम कर रहा हूँ
जब भी मैं अज्ञ हूँ, मेरी कोई अक्कल नहीं है
तब भी
विश्व से फरक होते हुए भी जो परमेश्वर
विश्वरूप से विराज मान
विश्व जाहाँर उपकरण
और जिनी विश्वेर आत्मा, विश्व के आत्मा रूप से हैं
जन्म-रहित
भगवान का कोई जन्म नहीं है, पहले ही बोला
अप्राकृत, उनका रूप है, प्राकृत रूप नहीं है
अरूपायोरुरूपाय
सेई परमपद स्वरुप ब्रह्म वस्तुके आमि प्रणाम करि
योगरन्धितकर्माणो हृदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम्॥
मेरा तो यह अधिकार नहीं है
तब भी उनका ज्ञान प्रकाशित हुआ, पहले स्तव किया था ना
योगरन्धितकर्माणः
(योगेन भगवत् धर्मेण भक्तियोगेन् रन्धितानि दग्धानि कर्माणि येषां ते तादृशाः)
यथाग्नि: सुसमृद्धार्चि: करोत्येधांसि भस्मसात्।
तथा मद्विषया भक्तिरुद्धवैनांसि कृत्स्नश:॥
(भा. 11.14.19)
जैसे आग जब प्रज्वलित होती है
वही आग लकड़ी को अपने आप ध्वंश कर देती है उनको
ध्वंश करने के लिए अलग कोई कोशिश करनी नहीं पड़ती है
आग को जलाया कोई रसोई करने के लिए
कुछ चीज बनाने के लिए
लेकिन लकड़ी को ध्वंश करने के लिए अलग कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ती है
लकड़ी अपने आप ध्वंश हो जाती है
करोत्येधांसि भस्मसात् तथा मद्विषया भक्तिः
(भा. 11.14.19)
जो अहैतुकी भक्ति भगवान् में जो भक्ति है
वो भक्ति आग के माफिक है
और भक्ति इतर वस्तु सबको नाश करती है
दुसरी भक्ति से नहीं होगा
जहाँ पर वही पारत्रिक सुख की कामना है, कर्म-योग
जहाँ पर ब्रह्म में लय होने के लिए इच्छा है
भगवान की प्राप्ति के लिए इच्छा नहीं है
सिद्धि प्राप्ति करने के लिए इच्छा है
उससे नहीं.. शुद्ध भक्ति जो आग के माफिक है
वो सारा जितना कर्म, ज्ञान, योग इत्यादि सब को नाश कर देगी
दग्धानि कर्माणि तादृशाः
योगिनः योगविभावित (योगेन विभाविते विशोधिते)
भक्तियोगे दग्धकर्मा योगिगण योगविशोधित हृदय मध्ये जाँहाके प्रत्यक्ष करेन
गीता तो आप लोग पढ़ते हैं
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक:।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥
(गीता 6.46)
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥ (गीता 6.47)
भगवान में जिनकी, कृष्ण में अहैतुकी भक्ति है
वो योगी श्रेष्ठ है
जो मेरा भजन करते हैं
भगवान कहते हैं ‘मेरा’ व्यक्ति, निर्विशेष निराकार नहीं
‘मद्गतेनान्तरात्मना श्रद्धावान्भजते यो मां’ व्यक्ति
वही भक्ति योगी
उनके इश्वर हैं, उनके आराध्य देव हैं,
मैं जो भक्त के आराध्य देव हैं
शुद्ध भक्त के आराध्य देव हैं
वही परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने॥
असह्यवेगशक्तित्रयाय
त्रिगुणात्मिक शक्ति जो है इसको पार करना
संभव नहीं है, कठिन है
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥ (गीता 7.14)
मैं तो त्रिगुणात्मक माया से आबद्ध हूँ
जो भगवान में शरणागत है
बोलते हैं, भगवान उनको ही माया से उद्धार करेंगे
दूसरा कोई उपाय नहीं है
मैं तो शुद्ध भक्त नहीं हूँ
शरणागत नहीं हूँ… दीनता से बोल रहा है
सूत्रान (इसलिए) जो भगवान की गुणमयी माया
वही माया से आप मुझे, मैं आक्रांत हूँ
यही माया को जय करना मेरे लिए बहुत मुश्किल है
असह्यवेग गुणत्रयशाली
लेकिन यह तो प्राकृत शरीर, प्राकृत इन्द्रियाँ
अप्राकृत भगवत् भक्त हैं
अप्राकृत इन्द्रियाँ से
अप्राकृत शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का अनुभव होता है, गुण हैं
सर्वेद्रियाणां गुणाय
वहाँ पर जो इन्द्रियाँ, हम लोगों की हैं, प्राकृत इन्द्रियाँ, भोगमय इन्द्रियाँ
लेकिन यह जगत में भोग करने के लिए क्यों आया?
भीतर में अपने स्वरुप में वही
उस प्रकार शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध भोग करने के लिए इच्छा थी
वो misplaced हो गया
अभी रेगिस्तान में मृगतृष्णा देखते हैं
वहाँ असल में पानी नहीं है
सूरज की रोशनी गिरी, दूर से मालुम होता है पानी है
वहाँ जाने से पानी मिलेगा नहीं
जितना जाएँगे उतना और आगे बढ़ते चला जाएगा
सब माया हैं
प्राकृत इन्द्रियों से जब हम जाएँगे तब माया की तरफ पहुचेंगे
और जो लोग, अखिल धी
तमाम समग्र ज्ञान जहाँ पर है
जिनका ज्ञान है, चिन्मय इन्द्रियों के द्वारा जो अनुभव कर रहे हैं
जिनसे आकृष्ट होने से
बद्ध जीव का आकर्षण वहाँ नहीं होता है
उनको आकर्षण कर रहा है
वो जो अप्राकृत इन्द्रियाँ जिनकी हैं
अप्राकृत शरीर, भगवान के अप्राकृत गुण वही देख सकते हैं
जो कदिन्द्रिय.. मेरी जो कुत्सित इन्द्रियाँ हैं
भोग करने की प्रवृत्ति है
इससे, इस इन्द्रियों से भगवान को नहीं प्राप्त कर सकते हैं
(कुत्सितानि इन्द्रियाणि येषां तेषाम् अजितेन्द्रियणाम्)
अनवाप्यवर्त्मने (अनवाप्यं दुरकामं वर्त्म)
देखिये नारद गोस्वामी का संसार हुआ आप लोग जानते हैं
नारद गोस्वामी ने कृष्ण के पास माया देखने के लिए इच्छा की थी
कृष्ण कहते हैं तुम भी मोहित हो जाओगे
माया देखने की क्या जरुरत है?
मेरा नाम तुम कीर्तन करते हुए सारी दुनिया को उद्धार करो
नारद गोस्वामी (कहते हैं)
मैं तो आपका भक्त नहीं हूँ, जब भक्ति की बू रहे
मेरी इच्छा पूर्ति कीजिये, जीव क्या कष्ट पाते हैं वो थोड़ा अनुभव करना होगा
यह आप लोग जानते हैं
तो फिर नारद गोस्वामी को भगवान ने माया दिखाई
जब तक भगवान रहे सामने में तब तक माया दिखाना मुश्किल होगा
तब भगवान् ने देखा मुझे भूलना पड़ेगा
नहीं भूलने से तो मैं माया दिखा नहीं सकता हूँ
इसलिए भगवान् ने अंतर्धान किया
और जहाँ पर वो सरोवर में स्नान किया
उसको समुद्र कर दिया
और उनके शरीर को स्त्री-शरीर कर दिया
शरीर परिवर्तन कर दिया
सागर से उठके देखा स्त्री शरीर
पानी-पानी चारों तरफ देखा
मुझे कौन उद्धार करेगा?
चारों तरफ पानी
एक राजा वहाँ आए थे
समुद्र किनारे पर देखा, उनकी बहुत फौज हैं
वही राजा को इशारा किया उद्धार करने के लिए
अभी उनको माया ने पकड़ लिया
इतना वक्त भगवान् के सहारे में थे
अभी सहारा किया एक राजा उद्धार करेगा
माया आ गई
राजा उनको ले गया
लेकर उनके साथ शादी हुई, उनके कितने लड़के हुए
पचास लड़के
और राजा को
लेकर रहा, राजा हमारा राजा हैं, हमारा पति हैं, यह लड़के हैं
याद ही नहीं हुआ
उनका वहाँ पर भी राज प्रशासन में मंदिर है
वहाँ कृष्ण मंदिर है, पुजारी आते हैं, जन्माष्टमी में आपको आना चाहिए
बोलें हमारा बहुत काम है
पचास लड़के हैं, उनको देखना पड़ता है तुम लोग पूजा करो ले जाओ पैसा
नहीं गए, उनके पास समय नहीं है
उसके बाद वो लड़कों की शादी की
धूमधाम से.. इतने वक्त तो आनन्द है
शादी करने के बाद बहु घर में आने के बाद झगड़ा शुरू हो गया
माताजी लोग कुछ नहीं, ऐसा मन में नहीं करना
यह लिखा ब्रह्म वैवर्त पूराण में, वेदव्यास मुनि ने
भाइयों में झगड़ा होते-होते आपस में लड़ते-लड़ते सब मर गए
और एक लायक लड़का मरे तो कितना शोक होता है
पचास लड़के मर गए
वो रानी केवल रोती है
उनको वो सम्पद कोई अच्छा नहीं लगती
चिल्लाके रोतीं हैं
राजा का इतना नहीं हुआ रानी का हुआ
तो वहाँ पर कृष्ण फिर आ गए, ब्राह्मण रूप में
ब्राह्मण को देखकर प्रणाम किया
“आप लोग सुखी हैं?” “हमारा सर्वनाश हो गया” “क्या हो गया?” “हमारे लड़के मर गए सब”
तब उनको समझा ने लगे, आपके लड़के हैं?
आपके लड़के होते तो आपके पास आपकी इच्छा से आते आपकी इच्छा से चले जाते
भगवान् की इच्छा से आए, भगवान् की इच्छा से चले गए
आपके लड़के नहीं हैं.. बहुत समझाया
जितना समझाते हैं, गीता का प्रणाम देते हैं, सब देते हैं
तब तो चुपचाप रहती हैं, फिर रोती हैं
आखिर में बोलें
कि आपको तो लड़के मिलेंगे नहीं
आप वो सरोवर में स्नान करके आईए
मैं विधान देता हूँ, आपके पुत्रों का कल्याण होगा
वो कहते हैं, ब्राह्मण!
आप मुझे आशीर्वाद कीजिए, मैं मर जाऊँ
मैं जिन्दा रहने के लिए नहीं चाहती हूँ
मैं मर जाऊँ
ठीक है, आप बोलते हैं मैं स्नान करके आती हूँ
लेकिन मेरी कोई इच्छा नहीं है ज़िंदा रहने की
और स्नान करके जब आई तो एकदम नारद होकर आ गए
सामने में कृष्ण को देखते हैं, देखकर ऐसा देख रहे हैं
-तुम क्या देख रहे हो? -मैंने क्या देखा?
-क्या देखा? -ऐसा-ऐसा सब देखा
-यह मेरी माया है, आप देखना चाहते थे ना? बोलें, और नहीं
जब कृष्ण याद हुए, अप्राकृत स्वरुप मिला
अप्राकृत इन्द्रियाँ मिली और कृष्ण का अप्राकृत
गुण अनुभव हो गया तब सारा ही चला गया
जब भूल गया था तब प्राकृत शरीर में मैं बुद्धि करके प्राकृत सम्बंधित व्यक्ति के लिए
मेरी बुद्धि करके बस शोक मोह सब कुछ आ गया
तब ही भगवान की माया हमको संसार में ले आती है
इसलिए
मैं तो अजितेन्द्रिय हूँ, पशु हूँ
मेरी कदिन्द्रियाँ हैं
इसलिए मेरे लिए यह संसार पार होना मुश्किल है
लेकिन
आप जो अपार शक्ति संपन्न,
आपकी असीम शक्ति है
आप कृपालु हैं
आपके चरणों में आश्रय करने से आपके लिए कुछ असंभव नहीं है
मेरे माफिक व्यक्ति को उद्धार करना
आप शरणागत के रक्षक हैं
और अपार शक्ति संपन्न हैं इसलिए आपके चरणों में मैं शरणागत होता हूँ
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम्।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम्॥
time हो गया लेकिन यह
समाप्त कर देते हैं वहा पर वृन्दावन में थोड़ा इसको
विशेष रूप से चर्चा करेंगे
यहाँ पर स्तव यहाँ शेष होगा
यहाँ कहते हैं अयं (जनः) यच्छक्त्या (यस्य मायया)
यच्छक्त्या
(यस्य मायया) अहम्-धिया (देहात्माभिमानेन) हतम् (आवृतं)
स्वम् आत्मानम् (स्वकीयतत्त्वं) न वेद (जानाति)
तं दुरत्ययमाहात्म्यं (दुरत्ययं माहात्म्यं यस्य तं दुर्बोधमाहात्म्यं भगवन्तं)
अहम् इतः (आश्रितः) अस्मि॥
जिनकी माया
माया से मैं यह देहात्म बुद्धि लेकर रहता हूँ
आवृत
अपने आत्मा को भूल गया
वही जो भगवान दुर्बोध माहात्म्य
अभी मेरा कोई जितना
बद्ध जीव हूँ
जितनी मेरी अक्कल है मैंने तो
परमेश्वर के पास प्रार्थना की है
मेरा और कुछ नहीं है
मारबि राखबि जो इच्छा तोहारा
नित्यदास प्रति तुया अधिकारा
मैं और कुछ नहीं जानता हूँ
मेरी आपके बारे में कुछ बोलने के लिए और योग्यता है ही नहीं
आपकी इच्छा मार भी सकते हैं और रख भी सकते हैं
आपके चरणों में मैं सहारा लेता हूँ
अभी there is no scope of speaking in english
it going to be late क्या करे?
वहाँ पर I shall speak about this there in Vrindavan