अभी पहले से शुरू नहीं करेंगे
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-
र्दुष्प्रापणाय गुणसङ्गविवर्जिताय।
मुक्तात्मभि: स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं चाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम्॥
एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं
वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्ना:।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमङ्गलं
गायन्त आनन्दसमुद्रमग्ना:॥
तमक्षरं ब्रह्म परं
परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम्।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर-
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे॥
यहाँ पर गजेन्द्र
उतावला होकर स्तव कर रहा है
जो मेरे माफिक पशु
जो पाश, पाश का मतलब ग्राह
ग्राह से आक्रान्त हुआ है
उससे मुक्ति के लिए
आपके पास प्रार्थना करता हूँ
और ग्राह क्या है, यहाँ पर ग्राह?
वो ग्राह होता है
अविद्या तस्य विशेषेण मोक्षणम्
असल में भगवान की माया से मोहित होकर जो मैं संसार में आ गया हूँ
उससे आप मुक्ति दे सकते हैं
मैं एक पशु हूँ
पशु होकर जन्म लिया
और जो पशु-पाश जो बाहर में दिखलाई पड़ता है, ग्राह
वो ग्राह से और ग्राह का मतलब
मैं आपको भूल के संसार में आ गया
इस संसार में गिर गया हूँ
आप ही मुझे यह संसार से मुक्त कर सकते हैं
और कोई नहीं, मुझे [मुक्त] कर सकता है ऐसा कोई नहीं है
आपका मैं पहले भजन करता था ना
याद होगा आपको
बहुत दिन भजन नहीं किया, सेवा नहीं की
छोड़ दिया, भूल गया
इसलिए भगवान नाराज होंगे
भगवान ऐसे नहीं हैं
संसार में कोई है
उसको जब सेवा करे, वो सेवा में लगा दे
सेवा करने के बाद अपनी इच्छा से सेवक चला जाता है
उसके बाद जब फिर आता है
और जगह सुविधा नहीं हुई
फिर आ गया? क्यों आया?
नहीं कह के, नहीं बोल के चला गया
तुम मरो, तुमको हम और नहीं लेंगे
मुझे सेवक की जरुरत नहीं है
आप ऐसा नहीं करते
आप ऐसे संसार के माफिक व्यक्ति नहीं हैं
आप अशेष करुणामय हैं, करुणा का लय नहीं है
अशेष कृपामय हैं
इसलिए मेरे अपराध को आप मार्जन करेंगे
इस विषय में कोई संदेह नहीं है
और आप जो हैं
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत
यहाँ पर लिखा है
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।
(गीता 10.42)
एक अंश में,
एक चतुर्थांश यह मायिक वैभव हैं
भगवान का एक अंश हैं, भगवान सर्वत्र विद्यमान हैं
हमें भगवान के पास दुःख ज्ञापन करने की कोई जरुरत नहीं
ज्ञापन भाषा से है
भीतर जब है
भगवान उसका क्या हो रहा है वो उनको मालुम है
और भीतर में वो उद्धार होने के लिए चाहता है
भाव तो भीतर में है
भाव को भगवान देखते हैं
कोई भाषा से ज्ञापन करेगा
तब भगवान…
भाव को नहीं देखेगा ऐसा नहीं है
भगवान भीतर में बैठे हैं
भीतर में सब जानते हैं
इसलिए आप भगवान हैं
आप सर्वशक्तिमान हैं
और सबसे बृहद् हैं, सर्वव्यापक हैं
सर्वद्रष्टा हैं, आपको मैं प्रणाम करता हूँ
आप मेरी रक्षा कीजिए
यह सुना, हम लोगों ने आलोचना सुनी
उसके बाद कहते हैं
दुनिया का जो हैं
स्थूल देह और सूक्ष्म देह
इसमें जब आसक्ति रहे तब भगवान दुष्प्राप्य होगा
मन, पुत्र, गृह, वृत्त
जड़िय मन
जो मन अभी दुनिया में
मन
जड़ वस्तु के साथ संबंध करा देता है, मन
आत्मा [बंधन में] direct नहीं आता है
आत्मा तो गुणातीत है, निर्गुण है
मन के माध्यम से हम जड़ वस्तू से आसक्त होते हैं
जड़िय मन के द्वारा पुत्र, गृह, वृत्त
और विश्वस्त भृत्य
यह इसमें हम आसक्त जब रहेंगे तब दुष्प्राप्य
इसमें थोड़ा
प्रह्लाद चरित्र जब पढ़ेंगे तब
ज्ञान होगा
जो घर में आसक्त है
वो स्वयं भगवान का भजन नहीं कर सकता है
दूसरे को भी नहीं करा सकता है
छः सौ करोड़ आदमी हैं, पृथ्वी में
जो सब बद्ध जीव हो, आसक्त हो एक व्यक्ति को भक्ति नहीं दे सकते
जब हिरण्यकशिपु ने पूछा प्रह्लाद जी से
मैं तो यहाँ पर बहुत पहरा रखा
कोई वैष्णव नहीं आया
और तुम्हारे गुरु शंड अमर्क ने तुमको शिक्षा नहीं दी
कैसे तुम्हारी कृष्ण में मति हुई?
बोला ना
तब उसका जवाब देते हैं
मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो वा मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं पुन: पुनश्चर्वितचर्वणानाम्॥
(भा. 7.5.30)
मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो वा मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्।
जो गृहव्रत है, गृह को व्रत करके,
गृह को केंद्र करके जो घूमता है
विषय को केंद्र करके जो घूमता है, विषयी है स्वयं
वो जो गृहव्रत है, गृह में आसक्त है, विषय में आसक्त है
वो अपनी चेष्टा से मन को भगवान में नहीं लगा सकता है
उसी प्रकार विषयासक्त
सारी दुनिया के पुरुष एक आदमी को भी
भगवान की भक्ति,
भगवान में मन लगा ने के लिए शक्ति नहीं दे सकते हैं
मुसीबत यही है
गृहव्रत, एक तो गृह [का अर्थ] मकान है
और हमारे गुरु महाराज समझाते थे
न गृहं गृहं इति आहुर गृहिणी गृहं उच्यते
जो गृह है, गृह में तो हम लोग भी हैं
वहाँ त्यागी लोग भी रहते हैं
उसको तो गृहव्रत नहीं कहते हैं
मकान में तो रहते हैं
लेकिन जो जिसकी स्त्री है,
जो स्त्री को केंद्र करके घूमता है
उसको गृहव्रत कहते हैं
स्त्री को केंद्र करके जो उसमें आसक्त होता है
इसलिए कहते हैं न गृहं गृहं इति आहुर गृहिणी गृहं उच्यते
तो उस प्रकार गृहव्रत जो है,
जो गृह मेधी है,
जो एकदम इतना अत्यासक्त है,
जो स्त्री अत्यासक्त होकर,
पिता को माता को किसीको मानता नहीं
सब को छोड़ देते हैं देखा हैं ना, वो ठीक नहीं है
एक होता है धर्म के लिए पुत्र के लिए शादी करते हैं
गुरुजनों के सामने में वो अलग है
और एक होता है आसक्त होकर रहते हैं
और सबको
जो योग्यता जिसका जो सेवा करने का
विचार है समाज में रहने के लिए
वो जब हम नहीं करेंगे तब उसका अधर्म होता है
वो धर्म नहीं है, हमारा सनातन धर्म में इसको धर्म नहीं कहते हैं
जब मैं जिस प्रकार व्यवहार पिता के साथ करूँगा
मेरा पुत्र आगे भी ऐसा करेगा, जब मैं पिता हूँगा
to every action there is equal and opposite reaction
मैं मेरे पिता की अवज्ञा करूँ, माता की, जो हमको लालन-पालन करके बड़ा किया
उनका तो हक है मुझ पर शासन करने का मैं तो शासन नहीं कर सकता
अभी मैं जब उनको अवज्ञा करूँगा
मेरा पुत्र मेरे पास झूठ बोलेगा
अरे! झूठ बोलता है..
to every action, there is equal and opposite reaction
इसलिए भारत वर्ष में इसको नहीं अच्छा समझता
देव देवी के माफिक चिंता करके सेवा करते हैं
पुत्र उत्पादन करने के लिए, भोग करने के लिए संतान ऐसा नहीं
ऐसा विचार नहीं है
इसलिए वो उसी प्रकार
न गृहं गृहं इति आहुर गृहिणी गृहं उच्यते
और गृह होता है स्थूल शरीर
शरीर एक किस्म का गृह होता है, मकान
शरीर तो मैं नहीं हूँ शरीर के अंदर में हूँ
शरीर तो मेरी एक सम्पत्ति है, मिला है
मेरा कर्म से मिला है
वही शरीर को केंद्र करके जो घूमता है, शरीर का सुख…
रात दिन वही चिंता, वह गृहव्रत है
शरीर में अत्यासक्ति, शरीर का सौंदर्य करके, शरीर को अच्छा करेंगे
शरीर को सुखी बनाएंगे, ऐसे शरीर की चिंता….
शरीर सम्बंधित व्यक्तियों की चिंता
उनकी जो शाररिक
जरुरत है उसके लिए चिंता जो दुनिया के आदमी कर रहे हैं
बद्ध जीव उसका ही धंधा करते हैं
रात दिन हम लोग देखेंगे आस-पास में
वही बातें हैं लेकीन
मनुष्य शरीर हुआ
सिर्फ अपने शरीर की इच्छा पूर्ति करने के लिए नहीं
यह शरीर किसके लिए हुआ? भगवान का भजन करने के लिए
वो छोड़ दिया। सूक्ष्म शरीर, मन के ख़याल के माफिक चलेगा
मन जो बोलेगा वो करेगा वो गृहव्रत है
जो mental-speculation करते हैं
जो मन में आसक्त है, सूक्ष्म शरीर में आसक्त है
मन माफिक चलता है
देह के सुख के लिए हर वक्त चिंता करेंगे
और घर में आसक्त हैं, स्त्री में आसक्त है
देह सम्बंधित व्यक्ति में आसक्त है
इस प्रकार व्यक्ति जो स्वयं बद्ध है
वो और बद्ध को कैसे उद्धार कर सकता है?
वो स्वयं नरक में जाएगा, ऐसा बोला
मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो वा मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं पुन: पुनश्चर्वितचर्वणानाम्॥
(भा. 7.5.30)
जो गृहव्रत है, गृह में आत्म बुद्धि है
असंयत इद्रियों द्वारा भोग करते-करते वो नरक में चला जाएगा
वो अपने को ही उद्धार नहीं कर सकता दूसरों को उद्धार करेगा कैसे?
गुरु महाराज जी ने इसकी व्याख्या की
हम लोगों ने सुना, भागवत में हैं | यहाँ पर
मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो वा मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्।
अपनी चेष्टा यहाँ पर,
गुरु की चेष्टा, शंड अमर्क
और सम्मिलित प्रचेष्टा
वो भी तथा कथित गुरु, जो भगवान की भक्ति शिक्षा नहीं देते हैं
धर्म अर्थ काम बढ़ाने की शिक्षा देते हैं
वो गुरु की कृपा से मेरा यह मन भगवान में नहीं लगा
मेरी अपनी चेष्टा से… जो किसी की चेष्टा से नहीं हुआ
मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो वा
मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं
जो देह में आत्म बुद्धि करते हैं उनकी असंयत इन्द्रियों द्वारा भोग करते-करते वो नरक में चले जाएँगे
उनका उद्धार कैसे होगा?
संभावना नहीं है, इसलिए कहते हैं
वही वो कौन उद्धार करेगा? कब उद्धार हो पाएँगे?
जो अभी
मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो वा मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं पुन: पुनश्चर्वितचर्वणानाम्॥
न ते विदु: स्वार्थगतिं हि विष्णुं दुराशया ये बहिरर्थमानिन:।
अन्धा यथान्धैरुपनीयमाना- स्तेऽपीशतन्त्र्यामुरुदाम्नि बद्धा:॥
(भा. 7.5.31)
यह जो है जो गुरु
गुरु विषयासक्त जब होगा
जिसके पास से हम सहायता लेते हैं वो जब विषयासक्त हो,
आपका गुरु ने जब
वेदज्ञ होते हुए आपको कृष्णा-भक्ति की शिक्षा नहीं दी
तब कृष्ण-भक्ति अवैदिक है?
फिर हमारे गुरु वेद पढ़ने से, वेद का तात्पर्य जो कृष्ण-भक्ति है वो समझा ही नहीं
उसकी फल-श्रुति में आसक्त होकर
उसको ही, कर्म-काण्ड को ही समझा
उसी प्रकार…
वो स्वयं ही अपना मंगल नहीं समझा
स्वयं भजन नहीं करता हमको कैसे भजन कराएगा?
न ते विदु: स्वार्थगतिं हि विष्णुं दुराशया ये बहिरर्थमानिन:।
अन्धा यथान्धैरुपनीयमाना- स्तेऽपीशतन्त्र्यामुरुदाम्नि बद्धा:॥
(भा. 7.5.31)
जब महतो महीयान जो भगवान हैं
वो भगवान को छोड़कर और कोई कामना जहाँ पर नहीं है
वो नारद गोस्वामी की कृपा से
नारद गोस्वामी जो महतो महीयान ब्रह्म वस्तु में नियुक्त है
और दुनिया की कोई वस्तु नहीं मांगी
उनकी पदरज द्वारा स्नात होने से तब भक्ति मिलेगी
भक्त की भक्ति
भक्त की कृपा मिलने से तो भक्ति होगी
आप लोगों का तो समय हो गया है
आज तो दूसरा प्रसंग हो गया ना
क्या करे? समय कम है