गजेंद्र मोक्ष – 15

श्रीगजेन्द्र उवाच
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्।
योऽस्मात् परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्॥
य: स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्‍वचिद् विभातं क्‍व च तत् तिरोहितम्।
अविद्धद‍ृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोऽवतु मां परात्पर:॥
कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्‍नशो
लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु।
तमस्तदासीद् गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभु:॥
न यस्य देवा ऋषय: पदं विदु-
र्जन्तु: पुन: कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमण: स मावतु॥
दिद‍ृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं
विमुक्तसङ्गा मुनय: सुसाधव:।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतात्मभूता: सुहृद: स मे गति:॥
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा
न नामरूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय य:
स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति॥
तस्मै नम: परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे॥
नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।
नम: कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥
नम: शान्ताय घोराय गूढ़ाय गुणधर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥

गजेन्द्र पूर्व अभ्यास से,
इन्द्रद्युम महाराज भगवत भक्त थे
वही स्तव कर रहा है
करने के बाद भगवान के चरणों में सहारा ले रहा है
स्तव कर रहा है, सहारा ले रहा है मेरी रक्षा करो
बाद में उसके दिल में दीनता आ गई
मैं एक जंतु जानवर हूँ
हाथी हूँ
मैं कैसे भगवान का महात्म्य कीर्तन कर सकता हूँ?
उनका महात्म्य हजार-हजार वर्ष तप करके ऋषि मुनि लोग…
ब्रह्मा रुद्रादि देवता
सब मोह प्राप्त हो जाते हैं
भगवान की माया से
ब्रह्मा भी मोहित हो गए, रूद्र भी मोहित हो गए
मैं कैसे उनका वर्णन कर सकता हूँ?
तो वर्णन करने का कोई उपाय नहीं है?
हाँ है, वो होता है अलोकव्रत
अक्षत ब्रह्मचर्य कब होगा?
जब भागवत धर्म का आश्रय करेंगे

धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह॥

भगवान का आश्रय
ज्ञानी योगी अपनी तपस्या करते हैं
ब्रह्म साम्य अवस्था प्राप्त करते हुए
योग में ऊपर उठते हुए फिर पतन हो जाता है
किसलिए? भगवान का आश्रय नहीं लिया
भक्त पहले भगवान का आश्रय लेते हैं
गिरने से भगवान पकड़ लेते हैं
शरणागत रक्षक
आँखे बंद करके भी चले तब भी
पार हो जाएगा समुद्र;

अपार संसार समुद्र सेतुम् भजामहे भागवत स्वरूपम्…

इस प्रकार
भगवान को आश्रय लेने से
भगवान का स्वरूप है
यहाँ पर जितने देखते हैं
किसी से हम बात करते हैं, किसी से ज्ञान लेते हैं
सबका स्वरूप है..स्वरूप किसको कहते हैं?
जड़ पदार्थ को नहीं कहते हैं
शरीर में जो चेतन आता है, तब उसकी कीमत है
चेतन चला जाएगा मुर्दे की कोई कीमत नहीं है
अणु चेतन तमाम जीव, विभु चेतन भगवान
अणु चेतन जब व्यक्ति है विभु चेतन व्यक्ति नहीं हैं?
वो व्यक्ति होने से powers to the infinite, असीम व्यक्ति…
सीमा के अंदर में रहते हुए भी असीम है, अचिंत्य महाशक्ति
भगवान का है… उनका
हम लोग के माफिक रूप नहीं है
गुणदोष; सत्त्व गुण में गुण, तमो गुण में दोष
यह सब निर्गुण भगवान में नहीं है
यहाँ का रूप बिगड़ जाता है
नाम भी जड़िय नाम है, शब्द है
इस प्रकार का नाम, रूप, गुण भगवान में नहीं हैं
भगवान अरुपाय
इस प्रकार नाशवान हड्डी गोश्त के आकर नहीं हैं
लेकिन उरुरूपा हैं
भगवान के बहुत रूप हैं
भगवान का कोई प्राकृत गुण नहीं है
लेकिन भगवान अप्राकृत स्वरुप
अप्राकृत अखिल कल्याण गुण
षड़ ऐश्वर्य भगवान का एक गुण
इसलिए अखिल कल्याण गुण, उसमे सौन्दर्य भी है
श्री है
इसलिए यह भगवान का… आश्चर्य कर्मणे
अप्राकृत रूप लेकर भी सीमा के अंदर में असीम हैं, उनको कोई नहीं पकड़ सकता हैं
यह भगवान का अविचिंत्य महाशक्ति
अनंत जीव को, अनंत ब्रह्माण्ड को, अनंत वैकुण्ठ को
प्रकाश करते हुए भी
अनंत शक्ति हैं, तीन शक्ति हम लोग देखते हैं—चित् शक्ति
जीव शक्ति, माया शक्ति,
और मिश्र शक्ति बहुत हैं
स्वयं निर्विकार रहते हैं
उनका विकार नहीं होता हैं
जो वेदव्यास मुनि का शक्ति परिणाम वाद
वो कैसे ठीक है? उनकी कृपा प्रार्थना करो
और शक्ति परिणाम होने से जब वस्तु विकारी हो गई
अतएव विवर्त वाद…

ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापर:

उल्टी बात करते हैं
यह बात नहीं है
एक स्पर्श मणि को
ऐसा एक दुनियादारी का स्पर्श मणि है, phylosopher stone
कोई धातु स्पर्श होने से सोना हो जाता है
भीतर में कोई शक्ति है, लेकिन स्वयं निर्विकार रहते हैं
एक जड़ पदार्थ की ऐसी शक्ति रह सकती है भगवान की नहीं रह सकती?
सारी शक्ति को अपना-अपना
जो परिणाम हैं वो करते हुए
स्वयं निर्विकार रहते हैं भगवान
भगवान का अविचिंत्य महाशक्ति
कोई ज्ञानी इसको समझता नहीं
इसलिए अप्राकृत हैं सब
इन्द्रियों के अतीत
यहाँ पर हम लोगों ने पहले आलोचना किया
न विद्यते यस्य जन्म च
जन्म भी उनका अप्राकृत है
जन्म कर्म च मे दिव्यम्
यह गीता का हम लोगों ने श्लोक आलोचना किया पहले
इसी प्रकार
जब भी यह जगत
वो कभी-कभी प्रकाश होता है, कभी-कभी नाश हो जाता है
यहाँ पर ब्रह्मा रूप से सृष्टि
मायिक जगत में देखा जाए, रूद्र रूप से नाश
यह तो काल में होता है लेकिन और अमाया, माया-शून्य,
विष्णु का जो हैं वो स्वरुप ऐसा नहीं हैं, वो हमेशा हैं
विष्णु के अनंत स्वरूप हैं, अनंत लीला हैं
कुर्म भगवान, नरसिंह भगवान, मत्स्य भगवान
वराह भगवान ऐसा हैं
ईश्वरों के ईश्वर हैं
परब्रह्म तत्त्व हैं, अनंत शक्तियुक्त हैं
इसलिए वही भगवान
कहते हैं, हमारे अंदर में विराजमान हैं

ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्‍त्रारूढानि मायया॥
(श्रीमद् भगवद् गीता 18.61)

साक्षी रूप से हैं
जीव अच्छा-बुरा कर्म कर सकता है
जीव जो वास्तव में आत्मा है, वह आत्मा कहाँ से आई?
परमात्मा से आई

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥
(श्रीमद् भगवद् गीता 18.61)

वो जो आत्मा, आत्मा का कारण परमात्मा हैं

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते।
येन जातानि जीवन्ति। यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।
तद्विजिज्ञासस्व। तद् एव ब्रह्म।
(तैत्रिय उपनिषद्)

ऐसे ही आसमान से गिर गया ऐसा नहीं है
यहाँ पर जितने जीव हैं
चेतनयुक्त जीव व्यक्ति हैं
जब चरम कारण व्यक्ति नहीं हो,
चेतन नहीं हो, तो कहाँ से आये?
nothing से something हो गया?
ऐसा नहीं होता है, उनके अंदर में दो चिड़िया हैं, वो शरीर
मनुष्य के शरीर में
एक चिड़िया अच्छा-बुरा काम करती है, फल भोग करती है
और एक चिड़िया गवाही रूप से, साक्षी रूप से, witness रूप से रहती है
He is controlling the fruits of the actions

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
(श्रीमद् भगवद् गीता 2.47)

कर्म करने के लिए हमारा अधिकार है
bhagavan is controlling the fruits
you cannot get the fruits by your own
sweet will, ऐसा नहीं होता है
वही परमात्मा साक्षी रूप से हैं
वे प्रकृति के अतीत हैं
जीव जड़िय मन और जड़िय वाक्य द्वारा वहाँ नहीं जा सकता है; इसलिए कहते हैं
वाक्य मन वहाँ नहीं पहुँच सकते हैं
जड़िय मन, जड़िय वाक्य
logical fallacy भी देखनी पड़ेगी
वाक्य है, वाक्य नहीं जा सकता है
हमारा जड़िय शब्द नहीं जा सकता है
यह ज्ञान कहाँ से हुआ? शब्द से हुआ
logical fallacy
वो शब्द होता हैं transcendental sound
भगवान का स्वरूप होता है, प्रणव
शब्द से ही तमाम दुनिया, अनंत ब्रह्माण्ड हैं

शब्दब्रह्म परं ब्रह्म ममोभे शाश्वती तनू॥
(श्रीमद् भागवत् 6.16.15)

शाश्वती तनू हैं
वहाँ से तमाम वस्तु निकली हैं
वहाँ पर भगवान और भगवान का नाम
वो जो है एक ही है
यहाँ पर शब्द, शब्द उद्दिष्ट वस्तु अलग है
जड़िय शब्द
आग कहने से जबान जलती नहीं
आग शब्द ही वस्तु नहीं है
एक शब्द द्वारा वस्तु को निर्देश किया जाता है, वहाँ पर,
भगवान का नाम और नामी एक ही है
उनको मैं प्रणाम करता हूँ
उनको कैसे प्राप्त कर सकते हैं?
हमारे मन बुद्धि के अतीत हैं
मन बुद्धि के अतीत, पहले बोल दिया
सत्त्वेन, विशिद्ध सत्त्व
निर्गुण भूमिका में
नैष्कर्म्य, नैष्कर्म्य कब होगा?
ऐसे हम कर्म छोड़ दिया

ज्ञानाग्न‍िः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।
(श्रीमद् भगवद् गीता 18.61)

फिर ज्ञानी व्यक्ति
सब अपने तपो बल से ऐसा करके
फिर क्यों जाते हैं?
सौभरि ऋषि
दस हजार वर्ष तप करने के बाद, ज्ञानी महाज्ञानी थे,
उसके बाद मान्धाता की पचास कन्या से शादी की
फिर क्यों गया?
जो प्राकृत शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध की मांग किसलिए हुई?
भगवान के जब विमुख हुए, भगवान अप्राकृत शब्द स्पर्श रूप रस गंध के विषय हैं, मदनमोहन
उनसे सम्बन्ध नहीं है
इसलिए उनकी छाया को देखा, माया
जो उनका विमुख हो गया माया, छाया
देखने में नित्य के माफिक
ज्ञानमय आनंदमय माफिक
प्राकृत शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध बहुत आनन्द है ऐसा मालूम होता है
लेकिन वो एक किस्म की माया है, not that वहाँ पर नहीं है
छाया में
वहाँ पर जाकर भोग करने के लिए गया, छलांग मारा
बस
एक-एक इन्द्रिय का गुलाम होकर
एक-एक प्राणी अपने जीवन को नाश कर देते हैं
तमाम पांच इन्द्रियों को जब हम
उसके पछे-पीछे टहलते रहेंगे तब कैसे हम उद्धार पा सकेंगे?
पांच जड़ इन्द्रियों का कारण पांच चिन्मय इन्द्रियाँ हैं
उनके विषय हैं कृष्ण
काम गायत्री
हृदय में स्फुरित होने से तब तो समझेंगे
इसलिए कहते हैं
वही अप्राकृत कामदेव
उनके साथ जब सम्बन्ध होगा
इसको कहते हैं विशुद्ध भक्ति
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण नैष्कर्म्य वहाँ रहता है
जहाँ पर कर्म का कारण होता है, अहंकार
मैं सात्त्विक राजसिक तामसिक हूँ
सत्त्व अभिमान जो किया वो सात्विक-कर्म, राजसिक-कर्म, तामसिक-कर्म, मिश्र-कर्म ये सब अभिमान हैं
यह झूठ अभिमान है
इससे कर्म होता है, अज्ञान से
वो कर्म को हम छोड़ दिया
लेकिन अपना स्वरुप जो है
चिन्मय स्वरुप उसमें प्रतिष्टित नहीं हुआ
चिन्मय अप्राकृत स्वरुप, कोई संग नहीं मिला

आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं तत: पतन्त्यधोऽनाद‍ृतयुष्मदङ्घ्रय:॥
(श्रीमद् भागवत् 10.2.32)

ब्रह्म साम्य अवस्था प्राप्त होते हुए भी गिर जाएगा
किसलिए? भगवान की अवज्ञा की, इसलिए
वही कारण है
इसलिए कहते हैं
वही शुद्ध सत्त्वात्मक जो
निर्गुण भक्ति योग है, उससे भगवान मिलेंगे
शुद्ध प्रेमनाथ, शुद्ध प्रेम के नाथ हैं
केवला भक्ति, कैवल्य का मतलब कैवल्य नहीं जिसमें ब्रह्म में मिल जाते हैं
केवला भक्ति का स्वरुप है, किसलिए?
जब (गजेन्द्र की) ऐसी कुछ प्रार्थना होती कि हम एकदम निर्वापण कैवल्य
भगवान के साथ, तब भगवान उसी प्रकार उनको दे देते
लेकिन भगवान स्वयं आए, कृपा करने के लिए
किसलिए? उसके दिल में आकांक्षा है हमारे प्रभु का दर्शन करेंगे
हम यह सब नहीं चाहते हैं
ब्रह्मादि देवता का आश्रय नहीं कर रहा है
यह सब किसीका आश्रय नहीं कर रहा है
मैं, परमेश्वर जो हैं, भगवान
अनंत गुणयुक्त कल्याणमय मूर्ति जो हैं
वहाँ पर मोक्षानन्द तो अपने आप आ जायेगा
उनको मैं प्रणाम करता हूँ
उसके बाद

नम: शान्ताय घोराय गूढ़ाय गुणधर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥

शान्ताय (साधुनां प्रसन्नाय)
घोराय (खलानाम् उग्राय)
गूढ़ाय (संसारिणाम् प्रच्छनाय)
गुणधर्मिणे (सत्त्वादिगुणानां आश्रयाय)
नमः। निर्विशेषाय (हेयगुण-रहिताय)
साम्याय (भक्तेसु वैसम्यरहिताय)
ज्ञानघनाय च(जाड्यरहिताय सदैव स्वानंदतुष्टाय)

वही उस प्रकार स्तव किया, मैं प्रणाम करता हूँ भगवान को
कैसे हैं, शान्ताय
भगवान शांत हैं
उग्र हैं, उग्रता है,
कैसे शांत होते हैं? ओर संगे-संगे उग्र-विक्रम
शेरनी है,
शेर से शेरनी बहुत हिंसक है
लेकिन अपने बच्चे के ऊपर नहीं
अपने बच्चे के ऊपर बहुत वात्सल्य है
दूसरे जानवर के लिए भयंकर है
और अपना जो बच्चा है उसके पास वो शांत है
साधू जो हैं, अनन्य भक्त
भक्त के पास वात्सल्ययुक्त है
नरसिंह देव भक्त के पास वात्सल्य युक्त हैं
और अभक्त के पास भयंकर हैं
अभी नरसिंह देव जब आविर्भूत हुए
वही हिरन्यकशिपू
प्रह्लाद जी से कहा तेरा भगवान कहाँ हैं?
मुझे डरता नहीं, मेरी आज्ञा के खिलाफ़ कर रहा है
मुझे छोड़कर भगवान इस दुनिया में कोई है कि नहीं
सारे देवता मेरे अधीन हैं
तेरा भगवान कहाँ हैं?
भगवान सर्वत्र हैं
तो क्यों खम्भे में नहीं दीखता?
खम्भे में भी हैं
-हैं? -हाँ हैं
तेरे भगवान को पहले खत्म करूँगा
एक जबरदस्त घुसा मारा
खम्भा टूट गया
सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं
जब भक्त बोल दिया यहाँ पर हैं
भृत्य का भाषण सत्य करने के लिए भगवान वहाँ से निकल गए
नरसिंह भगवान
सायं काल में,
भीषण गर्जन कर रहे हैं
अभी गदा से लड़ाई की
हिरन्यकशिपू विद्वान है, सब कुछ हैं
बहुत तप किया
लेकिन भक्ति नहीं है
वो समझा अद्भुत जानवर कहाँ से आ गया
प्रह्लाद जी भी हैं वहाँ, देखते हैं, साक्षात् भगवान
परम मंगलमय
हिरन्यकशिपू देखता है भयंकर
यह कोई अद्भुत जानवर है, इसको मारो, खत्म करो
अभी लड़ाई करने के बाद थोड़े वक्त बाद
फिर सिंहासन पर बैठकर
सब ब्रह्मा जी की जितनी
शर्त हैं, conditions हैं सब
पालन करते हुए उनको अपना नाख़ून से विदारित कर दिया
नाड़ी गुडी सब पहन लिया
भयंकर गर्जन कर रहे हैं
सब देवता लोगों को
भय हो गया ओर
ब्रह्मा रुद्रादी इंद्र सब जितने विष्णु उपासक हैं सब आए
और देवता की जितनी गोष्टी हैं, अंदर बाहर सब
सब आकार स्तव करने लगा
अभी ब्रह्मा जी कहते हैं – अभी प्रलय का समय नहीं हुआ
अभी आप क्रोध संवरण कीजिये
[नृसिंह देव – ] घ्रूम…..
उनकी बात सुनी नहीं उल्टा उनको सुना दिया, क्या किया? बापरे…
रूद्र बोल दिया, रूद्र आया [नृसिंह देव – ] घ्रूम….
जो बोलते हैं उसका उत्तर देते हैं
सिंह के माफिक आवाज करके – घ्रूम….
सब स्तव करके सब बोलें
सर्वनाश हो गया। ऐसा तो देखा नहीं भगवान का गुस्सा होता है।
उसके बाद लक्ष्मी देवी को कहा – आप जाइए
आप उनको प्रसन्न कीजिए
मैं अपने प्रभु का इतना गुस्सा देखा नहीं
मेरा भी साहस नहीं है जाने का
हिम्मत नहीं है
जब पत्नी
प्रभु, पति यहाँ पर
प्रभु-भृत्य संबंध जो भी है
वो बहुत क्रुद्ध होता है ना,
जब स्त्री उनके सामने में जाती है
भय पाता है
नहीं आता है
तब ब्रह्मा जी कहते हैं प्रह्लाद को तुम्हारे लिए
भगवान का यह गुस्सा है
प्रह्लाद जी सुन रहे थे उनका स्तव
तुम जाओ और किसीकी उनके सामने जाने के लिए हिम्मत नहीं है
प्रह्लाद एकदम सामने में चला गया
जाकर साष्टांग प्रणाम किया
प्रह्लाद जब प्रणाम किया
उनका सारा क्रोध चला गया
एकदम ठंडा हो गया
ठंडा होकर वात्सल्ययुक्त होकर, अपना कर कमल प्रह्लाद के सिर पर स्थापित किया
क्यों? पहले इतना गुस्सा किसलिए किया?
प्रह्लाद,
उसको मारने के लिए तैयार हुआ
उनके पास नहीं जाकर तुम लोग मेरा स्तव कर रहे हो
क्रोध भक्त द्वेषी जने
उसके पास जाकर उसकी तसल्ली करो
वो नहीं करके मेरे पास आया, स्तव करने लिए
घ्रूम…
घ्रूम… घ्रूम… घ्रूम… नहीं सुनेगा
जब प्रह्लाद आया….
इस प्रकार होता है