गजेंद्र मोक्ष – 11

श्रीगजेन्द्र उवाच
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्।
योऽस्मात् परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्॥
य: स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्‍वचिद् विभातं क्‍व च तत् तिरोहितम्।
अविद्धद‍ृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोऽवतु मां परात्पर:॥
कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्‍नशो
लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु।
तमस्तदासीद् गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभु:॥
न यस्य देवा ऋषय: पदं विदु-
र्जन्तु: पुन: कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमण: स मावतु॥
दिद‍ृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं
विमुक्तसङ्गा मुनय: सुसाधव:।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतात्मभूता: सुहृद: स मे गति:॥
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा
न नामरूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय य:
स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति॥
तस्मै नम: परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे॥
आशा है वही गजेन्द्र का स्तव

पाठ करते हैं, जब
गजेन्द्र के स्तव से भगवान ने प्रसन्न होकर उनको दर्शन दिए;
उद्धार किया
वही गजेन्द्र का स्तव
मेरे मुख पर तो आएगा नहीं`
तब भी आशा है
उसे उच्चारण करने से भगवान प्रसन्न हो जाए, भगवान प्रसन्न हो जाए आशा लेकर
जो समय जाता है, लेकिन
आशा तो छोड़ नहीं सकते हैं न!
होता नहीं, पाठ का भाव भी नहीं है
यहाँ पर गजेन्द्र स्तव में कहते हैं
जो भगवान का महात्म्य मैंने वर्णन किया
महाप्रलय में सब कुछ नाश होने से भी भगवान रहते हैं
मैं उनका सहारा लेता हूँ
मुनि ऋषि कितने हजारों हजारों साल तप करके उनका महात्म्य अब तक
नहीं वर्णन कर पाए
जो देवतागण सब
मुह्य हो जाते हैं, मुह्यमान हो जाते हैं
इसी प्रकार
ब्रह्मा रुद्रादी देवता सब मोहित हो जाते हैं
मैं एक जानवर हूँ, हाथी हूँ
मैं भगवान का महात्म्य क्या वर्णन करूँ?
भगवान को मैं…
जिसको जिस बारे में कोई अक्कल ही नहीं है, तो मैं क्या वर्णन करूँ?
अपनी दीनता प्रकाश की
तो [क्या]भगवान को कोई नहीं जान सकते हैं?
अपनी चेष्टा से नहीं जान सकते हैं
जब उनकी कृपा हो
उनकी कृपा से जब शुद्ध भक्ति का आश्रय करें
शुद्ध भक्ति को आश्रय करनेवाला ही होता है सुसाधु
बाहर में भगवा कपड़ा पहने से साधु नहीं होता है
मय्यनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये द‍ृढाम्। साधु का स्वरुप लक्षण
नहीं जान सकते हैं, यह बात नहीं
लेकिन उसी प्रकार शुद्ध भक्ति द्वारा जान सकते हैं
यहाँ पर ‘अलोकव्रतम्’ का इस प्रकार अर्थ किया
विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने टिका में लिखा है
यह तो वर्णाश्रम धर्म है
मनु आदि ऋषि प्रणित
उसमे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, क्षुद्र हैं
और चार आश्रम हैं ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास
अभी हम उसमें कहते हैं, वही ब्रह्मचर्य आश्रम
यहाँ पर जो अर्थ किया
उसका विश्वनाथ चक्रवर्ती टीका में लिखे हैं
सर्वात्म्यैवादृश्यत्वेहपि
भागवतव्रतदृश्यत्वमाह पदं चरणकमलं
विमुक्तसंगास्त्यक्तसंगा
मुक्तेभ्योहपि विशिष्ठा ये भक्ता
तत्संगिनश्च अलोकव्रतं
ऐसे तो हम लोग समझते हैं
ब्रह्मचर्य पालन करना बहुत बड़ा काम है
वास्तव में ब्रह्मचर्य पालन
सिर्फ बाहर में कोपीन पहने से
कुछ तप-तपस्या करने से नहीं होता है
हम तो साधारण जीव हैं, [मैं साधारण] जीव हूँ
ऐसे कि जो
विश्वामित्र महायोगी थे
महायोगी (नूतन) नया विश्व सृष्टि कर सकते हैं
उस प्रकार योग्यता प्राप्त हैं
प्राप्त होते हुए भी
मेनका का दर्शन से उनका
और ज्ञानी, ज्ञानी के अंदर में
जो ऋषि हैं सर्वोत्तम
दस हजार (10,000) साल पानी के अंदर में रहकर तप किया
सौभरि ऋषि ने दस हजार (10,000) साल पानी के अंदर में रहकर तप किया
हम लोग तो एक मिनट या दो मिनट भी नहीं रह सकते हैं
दस हजार (10,000) साल
फिर वहाँ पर इतना तप करने के बाद
मछली की मैथुन क्रिया देखकर
उनके अंदर में कामभाव जागृत हो गया
महाराज मांधाता के पास गए, जाकर पचास कन्या से शादी की
पचास कन्या का अलग-अलग…
योग विभूति द्वारा वैभव तैयार किया
सब के रहने के लिए अलग व्यवस्था कर दी
ऐसी योग विभूति; विभूति भी प्राप्त की
और पांच हजार संतान हो गई
इतने बड़े ऋषि का भी इस प्रकार हो गया
इसलिए गीता जी में कृष्ण ने लिखा है
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥
बाहर में विषय से निवृत्त होने से ही निवृत्ति नहीं होती है
इन्द्रियों को तत् तत् विषय से प्रत्याहार किया जैसे कि ज्ञानी योगी करते हैं
लेकिन वही प्राकृत इन्द्रियों की जो अप्राकृत इन्द्रियाँ हैं
उनके विषय हैं, मदनमोहन
वही भगवान से जब विमुख हो जाते हैं
प्राकृत मदन हम लोगों को खीच के संसार में गिरा देता है
प्राकृत शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध
लेकिन मदनमोहन का जब आस्वादन हो जाए, अप्राकृतत्व
और उनका पतन नहीं होता है
श्रेष्ठ रस मिलने से निकृष्ट के लिए आकर्षण नहीं रहता है
जब तक श्रेष्ठ रस नहीं मिले तब तक होगा नहीं
एक किस्म का गुड है
सिरा वो गन्दी चीज है
थोड़ा मीठा लगता है लेकिन गन्दी चीज है
एक व्यक्ति वो गुड ही खाता है, सिरा गुड
एक आदमी ने उसको समझा दिया तुम इसको क्यों खातो हो?
यह तो गन्दी चीज है
इसको छोड़ दो; बहुत समझा बुझा के छुड़ा दिया
छोड़ देने से भी छिपा के खा लेगा
यह थोड़ा मीठा लगता है ना?
जब अच्छा गुड मिले कि चीनी मिले
और मिश्री मिले तब और सिरा वो खाने को जाएगा?
उसकी इच्छा ही भीतर में नहीं रहेगी
इसलिए कहते हैं
यह जो बाहर में इन्द्रिय को दबाकर करते हैं,

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥

हमारे भक्तिविनोद ठाकुर ने लिखा है यह महामुर्ख के लिए
महामुर्ख
जो यह प्राकृत इन्द्रियों की जो अप्राकृत इन्द्रियाँ है
उनके विषय मदनमोहन की,
उनके माधुर्य की जब गंध मिल जाए
और कोई वस्तु, दुनिया की कोई भी वस्तु उनको खींच ही नहीं सकती
इसलिए उसको कहते हैं भागवत व्रत
भागवत व्रत
भागवत… भगवान स्वयं
जो अपना ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये।
अञ्ज: पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान्॥
भागवत धर्म किसको कहते हैं?
वर्णाश्रम धर्म मनु आदि ऋषि द्वारा प्रणित
भागवत धर्म… भगवान खुद ही जो उपाय बतलाएँ
अपनी प्राप्ति के लिए
उसको कहते हैं भागवत धर्म
ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये। परमात्मा
कोई व्यक्ति अपने घर के बारे में रास्ता बतला देते हैं
वो मालिक है घर का
उनका, वही व्यक्ति का
जो मार्ग हैं वो मार्ग से लेकर ठीक उनके घर में पहुँच जाएँगे
बाहर का आदमी को पूछने से घूम के भी जा सकता है, नहीं भी पहुँच सकता है
लेकिन जो मालिक है मकान का
वो जब बता देगा वो सुनिश्चित होगा
इस प्रकार भगवान खुद
अपनी प्राप्ति के लिए जो उपाय बतलाएँ हैं
वही उपाय जब ग्रहण करे, कहते हैं
ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये।
अञ्ज: पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान्॥
जो मुर्ख है, जिसे ज्ञान नहीं है
मुर्ख भी आसानी से
उनको प्राप्त कर सकता है, आसानी से
सहज
और सुनिश्चित रूप से कोई संदेह नहीं है वहाँ पर, इसको भागवत धर्म कहते हैं
भागवत धर्म की जो बुनियाद है, foundation
वह foundation शरणागति जब हो जाए
तब भी यह सब संसार से आसक्ति दूर हो जाएगी
यानास्थाय नरो राजन् न प्रमाद्येत कर्हिचित्।
धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह॥
पहले शरणागत होने के बाद शरण्य भगवान के लिए जो प्रिती करते हैं उसको कहते हैं भक्ति
एकादश स्कन्ध में वर्णन किया
यानास्थाय नरो राजन् न प्रमाद्येत कर्हिचित् धावन्….
जिनको आश्रय करने से
विघ्न आने से भी उनको रोक नहीं सकते, विघ्न भी कट जाएगा
न विघ्ने हन्नते, कोई विघ्न नहीं आ सकता
यह शुकदेव गोस्वामी कहते हैं
परीक्षित महाराज को
कोई विघ्न उनको रूकावट नहीं दे सकता है
आँख बंद करके चले
तब भी उनका स्खलन नहीं, पतन नहीं
we will not slip or fall down
if by closed eyes
यह तो पद्म पुराण में भागवत के बारे में जो कहा, भागवत
द्वादश स्कन्ध
पादौ यदीयौ प्रथम-द्वितीयौ तृतीय-तुर्यौ कथितौ यदूरु
नाभिस्तथा पंचम एव षष्ठो भुजान्तरं दोर्युगलं तथान्यौ
कण्ठस्तु राजन्नवमो यदियो मुखारविन्दं दशमः प्रफुल्लम्
एकादशो यस्य ललतापट्टम् शिरोऽपि तु द्वादश एव भाति
तमादिदेवम् करुणा-निधानम् तमाल-वर्णं सुहितावतारम्
अपरा-संसार-समुद्र-सेतुम् भजामहे भागवत-स्वरूपम्
सेतु की महिमा बोल दी
पद्म पुराण में, जो भागवत हैं, पद्म पुराण में भी लिखा है
वहाँ पर कहते हैं सेतु होता है bridge, like a bridge
bridge जब हो जाए
जैसे वहाँ पर हावड़ा ब्रीज है
bridge नीचे में कोई pillar नहीं है, bridge
अभी पैदल यात्रा जा सकते हैं, पैदल
चला जाएगा, गाडी में चला जाएगा
तूफ़ान होने से भी कोई चिंता नहीं है
किस्ती डूब सकती है, जहाज डूब सकता है
वहाँ पर भी भय है
पैर नहीं होने से भी ऐसे घूमते-घूमते चला जाएगा
सेतु है ना?
इसलिए कोई भय नहीं है
तमादिदेवम् करुणा-निधानम्
भगवान कृष्ण करुणामय हैं
तमाल-वर्णं सुहितावतारम्
अर्थात् आत्यंतिक मंगल प्रदान करनेवाले हैं
भगवान की प्राप्ति का मतलब आत्यंतिक मंगल प्राप्ति
जो मंगल प्राप्ति से अमंगल होता नहीं
वही भागवत धर्म होता है
सेतु के माफिक, bridge के माफिक, आसानीसे पार हो जाएगा
लेकिन भागवत धर्म [पालन] कैसे करेंगे?
चुपचाप रहेंगे हो जाएगा?
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वानुसृतस्वभावात्।
सकलं परस्मै….
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वानुसृतस्वभावात्।
करोति यद् यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयेत्तत्॥
समर्पयेत beginning
beginning का मतलब
order हुक्कुम सब कुछ देना पड़ेगा..शरीर से जो कुछ करेगा भगवान को देना पड़ेगा
वाक्य से जो कुछ बोलेगा भगवान को देना पड़ेगा
कायेन वाचा, मन
मन से जो कुछ चिंता करे वो सब भगवान के लिए
बुद्धि द्वारा, स्वभावतः प्रेरणा द्वारा जो कुछ करेगा सब कुछ
वही भगवान में सम्यक अर्पण करना होगा
समर्पयेत्तत्—सब कुछ देना पड़ेगा
सब देना पड़ेगा?
सब नहीं देने से नहीं होगा
जब नहीं देंगे भयं द्वितीयाभिनिवेशत: स्याद्
जब भगवान के लिए नहीं देंगे
और वस्तु के लिए लग जाएगा
भगवान तो अखिल रसामृत मूर्ति
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः।
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम्॥
उनके लिए जब मैं
मेरा शरीर, इन्द्रियाँ भगवान के लिए नहीं दूंगा दूसरे काम में लगेगा
जो काम में लगेगा वहाँ हम चले जाएँगे
जो बात हम करते हैं जब भगवान के लिए नहीं बोलेंगे
तब मुख.. चुप-चाप बैठे रहेंगे?
और कोई विषय बोलेगा
चुप-चाप बैठे नहीं रहेंगे
और मन; मन जब भगवान की चिंता नहीं करें
तो और सब चिंता करेगा
सब देना पड़ेगा बुद्धि, भगवान की प्रेरणा से जो कुछ करेगा
सब तमाम अर्पण करना होगा, करना ही पड़ेगा
जब नहीं करे
भयं द्वितीयाभिनिवेशत: स्या- दीशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृति:।
तन्माययातो बुध आभजेत्तं भक्त्यैकयेशं गुरुदेवतात्मा॥
भय होगा
भगवान तो पूर्ण सत्, पूर्ण चित्, पूर्ण आनंद
जब भगवान के लिए नहीं देंगे
तब अनित्य में हम चले गए
अज्ञान में चले गए, आनंद के अभाव में चले गए
उसमें आवेश होगा.. ज्यादा होगा, अमंगल में चले गए
मङ्गलम् भगवान विष्णुः, मङ्गलम् मधुसूदनः।
स्वस्ति वाचक मंत्र
अमंगल का संग होगा, जो सारी दुनिया में हो रहा है
भगवान से विमुख होकर ..भगवान की कृपा से ही
हमको यह मनुष्य शरीर मिला,
यह विश्व में आए.. सब कुछ भगवान ही रक्षण-पालन सब कर रहे हैं
हम उनके साथ नमकहरामी करते हैं
हम समझते हैं, हम मंगल प्राप्त करेंगे
तब क्या हो गया अभी संसार में? दिन पर दिन आग जल रही है
कोई फायदा नहीं होगा
भयं द्वितीयाभिनिवेशत: स्याद्
वही भय.. ईश्वर से विमुख [व्यक्ति] में दो दोष हैं
भयं द्वितीयाभिनिवेशत: स्याद् इशादपेतस्य
जो अपना स्वरुप भूल जाते हैं
और जो नहीं वो उसको[स्वयं] समझते हैं
मैं कृष्ण का नित्य दास हूँ..भूल गया
और समझता है मैं
शरीर हूँ, मैं भोक्ता हूँ, कर्ता हूँ, मालिक हूँ
इसलिए कहते हैं उन्मुख होने के लिए भयं द्वितीयाभिनिवेशत: स्याद्
वही अनन्य भक्ति अवलंबन करके
वही भगवान का ही भजन करना पड़ेगा
भगवान से विमुख हुआ तब तो यह अवस्था हुई
इसलिए जिन भगवान से विमुख होने से ऐसा हुआ
वही भगवान का उन्मुख होना पड़ेगा, कैसे?
गुरुपदाश्रय करके, गुरूजी को अपना
सबसे श्रेष्ठ दोस्त जानना
प्रिय है और दोस्त
प्रिय है
और गुरूजी हम पर शासन करेंगे
शासन करेंगे और हमारा मंगल विधान करेंगे
वही गुरुपदाश्रय करके
अनन्य भक्ति अवलंबन करके जब भजन करे
तब भगवान में उनकी आसक्ति हो जाएगी
भगवान में आसक्ति होने से तब संसार से मुक्त हो जाएँगे
इसलिए कहते हैं यह होता है
एकदम यहाँ पर लिखा
सर्व प्रकारे अदृश्य हईलेओ
भागवतधर्मेर आचरणपरायण भक्तगनेर दृश्यत्व बलितेछे
और ज्ञानी योगी और जितना कुछ है वो लोग भगवान का दर्शन नहीं कर सकते हैं
लेकिन
कैसे भगवान का दर्शन होगा?
जब शुद्ध-भक्ति को आश्रय करे
अनन्य-भक्ति को आश्रय करे
तमाम इन्द्रियों द्वारा भगवान की सेवा करे
जाँहार सुमंगल श्रीचरणकमलेर दर्शन करिते इच्छा करिया
‘विमुक्त-संगा’—
समस्त इतर वस्तु से मुक्त हो गया
कौन? जिनकी भगवान में अनन्य प्रिती है
वो दूसरे स्थान से उठ गया
और भगवान शरणागत के रक्षक-पालक हैं
जो शरणागत होने के बाद शरण्य भगवान के लिए
सब कुछ इन्द्रिय इन्द्रियार्थ दे दिया
वो इतर वस्तु जितनी हैं, भगवत इतर वस्तुओं से मुक्त हो गया
विषयपरिजनादिर संगविमुक्त
और मुक्त गण विशिष्ठ साधुसंगी
साधुसंगी भक्तगण
‘अलोकव्रतं’—लोक बलीते वर्णाश्रम आचारयुक्त
ताहा हईते अतीत भागवत व्रतेर आचरण
वर्णाश्रम धर्म का वो भी वर्णाश्रम धर्म तो गुणमय धर्म है
मनु आदि ऋषि प्रणित
लेकिन भागवत धर्म भगवान ने स्वयं बोला, वो व्यापक है
भागवत धर्म व्यापक है और गभीर भी है
सब.. सर्वोत्तम वस्तु देने वाला है भागवत धर्म
व्यापक भी है, गभीर भी है
सागर के माफिक, सागर
सागर जैसे व्यापक है वैसे गभीर है
वर्णाश्रम धर्म करने से
ब्रह्मचर्य आश्रम…. गृहस्थ आश्रम में स्वर्ग
यह ब्रह्माण्ड में रहेगा, ब्रह्मचर्य आश्रम में जन-लोक
उसके बाद वानप्रस्थ से महर, तप-लोक
और संन्यास आश्रम से सत्य-लोक
यह ब्रह्माण्ड में रहेगा फिर घूम के फिर यहाँ पर ही आना पड़ेगा
लेकिन जब भागवत धर्म का आश्रय करे
तब यह ब्रह्माण्ड को अतिक्रम करके
ब्रह्म-धाम को भी..
जहाँ पर निर्विशेष निराकार ब्रह्म-धाम
जहाँ पर ज्ञानी लोग रहते हैं उसको अतिक्रम करके
वैकुण्ठ, वैकुण्ठ से भी ऊपर
गोलोक वृन्दावन में जाकर पहुँचेंगे
इसलिए कहते हैं,
यहाँ पर अतएव उहा ‘अव्रणं’—भ्रष्ट हईवार आशंकाहीन।
भ्रष्ट होने की कोई आशंका वहाँ पर नहीं है
जैसे एकादश स्कन्ध में नवयोगेन्द्र संवाद में बताया
धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह॥
निमी नवयोगेन्द्र संवाद में वहाँ पर
विदेह राज निमी को उपदेश किया
भागवत धर्म के बारे में
चक्षु मिलितं, जब आँख बंद कर के भी चले
उसका पतन नहीं.. स्खलन भी नहीं होगा पतन भी नहीं होगा
उसी प्रकार भागवत धर्म
इसलिए वही शुद्ध भागवत धर्म, भक्ति धर्म का आश्रय करने से
वही शुद्ध भक्ति से भगवान का दर्शन होगा
भगवान का दर्शन कर सकता है, नहीं कर सकता है ऐसा नहीं है
लेकिन शरणागत होना होगा
भगवान का स्वरुप है
स्वरुप नहीं है यह बात नहीं है, ब्रह्म, परमात्मा का भी कारण भगवान हैं
ब्रह्म तो हैं एक व्यापक दिक् है, उनकी रौशनी है
वो रौशनी में ज्ञानी लोग मुग्ध होकर वहाँ रहते हैं
ज्योतिर्भ्यन्ते अतुलं श्यामसुन्दरं ज्ञान घन विग्रहः
ज्योति के अंदर में जो श्याम सुंदर रूप देखते हैं ना
और योगी लोग परमात्मा दर्शन करते हैं
लेकिन भगवान आत्मा, परमात्मा और ब्रह्म सब के कारण हैं
और यहाँ पर कृष्ण के बारे में पहले लिखा, कृष्ण
वही..
जिनके पास शरणागत हो रहा है
स्वतः सिद्ध है वे कौन हैं? राम कृष्ण इत्यादि
वो ब्रह्म परमात्मा के भी कारण हैं
सब के कारण
जिनके चरणों में आश्रय लेता हूँ
तब प्रश्न हुआ अभी
जब उनका स्वरुप है
तो स्वरुप तो हम लोग दुनिया में देख रहे हैं
ऐसा स्वरुप होने से तो यह तो
अभी जन्म हुआ थोडे़ वक्त के बाद चला जाएगा
भगवान का स्वरुप इस प्रकार का है?
तब कहते हैं न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा
न नामरूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय य:
स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति॥
तस्मै नम: परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे॥
यस्य च (भगवतः) जन्म कर्म वा न विद्यते (नास्ति)
नामरूपे (च यस्य) न (विद्यते)
गुणदोषः एव वा (न विद्यते)
तथा अपि यः (भगवान्) लोकाप्ययसम्भवाय
(लोकानाम् अप्ययः प्रलयः, संभवः साधुनां परित्राणे जन्म तयोः द्वंद्वेक्यं तदर्थं)
तानि (जन्मादिनी) स्वमायया (आत्ममायया)
अनुकालं (निरंतरम्) ऋच्छति (स्वीकरोति)
तस्मे अनंतशक्तये परेशाय ब्रह्मणे नमः।
आश्चर्यकर्मणे (आश्चर्याणी कर्माणि यस्य तस्मे)
अरूपाय (रूप-रहिताय)
उरुरूपाय (बहुरूपाय च तस्मे भगवते) नमः
यहाँ पर यहाँ का जैसा धर्म है, कर्म है, नाम रूप ऐसा नहीं है
ऐसा नहीं है भगवान का, भगवान का स्वरुप है लेकिन इस प्रकार नहीं है
दुनिया में तो कर्म फल भोग करने के लिए
जीव जन्म ग्रहण करते है, नश्वर शरीर है
इस प्रकार जन्म भगवान का नहीं है
या इस प्रकार नाम, रूप, गुण यह सब नहीं है
तथापि लोकाप्यय अर्थात् वही
उत्त्पति के लिए
जीवों का सब
जितने मनुष्य हैं बाकी सब प्राणी की उत्पत्ति..
उत्पन्न करने के लिए
ब्रह्मा होते हैं और
नाश करने के लिए रूद्र होते हैं
और यह तो मायिक है
माया को छोड़ के अमायिक भी है
यह तो दोनों मिल के
इनके अंदर में एक अपूर्व…, अपूर्व… प्रकाश होता है
देखने में मालुम होता है इसलिए यहाँ पर लिखा है
जैसे ‘ऊ’ एक शब्द है
‘ऊ’ शब्द
उसमे ह्रस्व दीर्घकृत सब सामंजस्य रहता है
समास कहते हैं जो
दो शब्द त्रयोदीन शब्द को एक पद में ले आते हैं
their combination of separate of many.. two or more words
in one word
उसको कहते हैं समास
इसलिए वही समास में उसमें
एक सौंदर्य है, एक मायिक
मायिक स्वरुप ब्रह्म रुद्रादि रूप से
और अमायिक स्वरुप भी है
अर्थात निर्गुण स्वरुप
विष्णु स्वरुप निर्गुण हैं
वो दोनों एक साथ में होकर भगवान
यह लीला करते हैं
यह लीला में वो अद्भुत माधुर्य है
वो माधुर्य थोड़ा एक उदाहरण देकर शेष करता हूँ
लेकिन अभी तो यहाँ पर समय हो जाता है ना!
क्या करें? तो अभी वहाँ ऐसा लिखा
देखिये अभी
यह जो
consort एक किस्म का बाजना (बेंड-बाजा) है
बाजना है ना? consort बाजना
consort बाजना में बहुत व्यक्ति बजाते हैं
there are many performer in consort or music
but that should be
the music should not know breach of method
वो जो उनका रस नष्ट नहीं होता है, ताल बेताल नहीं होता है
ताल बेताल नहीं होगा
लेकिन वो ताल बेताल जो है सबको…
जैसे एक दफे लुधियाना में
लुधियाना में हम गए, लुधियाना में वहाँ एक इलायची गिरी मंदिर है
पहले हम लोग आते हैं
तो वहाँ पर.. उसके बाद
वही सनातन धर्म…
इलायची गेट मंदिर में थे
हमारा यहाँ पर विज्ञापन…
उनके घर के पास में थे
वहाँ पर old लुधियाना में पुराना
वहाँ पर जो हुआ, तो पहले तो हम लोग गए
संकीर्तन शोभा यात्रा निकली
सुबह आठ बजे निकल गए, साड़े सात-आठ बजे जाते हैं और दस बजे साड़े दस बजे वापस आते हैं
नगर कीर्तन के लिए निकले, ओ! जम गया नगर कीर्तन
तो मुझे तो केशव प्रभु ने कहा …हम ने तो इतना चिंता नहीं किया
देखिये यह क्या कीर्तन कर रहे हैं?
क्या कीर्तन कर रहे हैं?
‘निताई गौरांग’ कभी निताई शुना ही नहीं ये लोग
वो CIT गौरांग CIT गौरांग CIT गौरांग
अरे वो तो CIT गौरांग बोल रहे हैं
हम तो शुन के ताज्जुब हो गया
CIT गौरांग.. बहुत अच्छा कीर्तन हुआ
उनके वहाँ निताई को जानते नहीं ना? निताई गौरांग
लेकिन जब
वो गर्दभ रागिणी भी
बहुत रागिणी के अंदर में होता है ना?
गर्दभ रागिणी जो है गधे की
जो रागिणी है, आवाज है
voice of the ass
वो जो है वो भी जब in consort
if it will take part then it becomes sweet
संकीर्तन में हमने देखा जो उल्टा-पल्टा बेताल बेताल सब कर रहे हैं
और सब कहते हैं बहुत सुन्दर कीर्तन हुआ
कोई ताल करता है कोई बेताल करता है
हमारा पास में ठाकुरदास प्रभु थे
वो मुनि महाराज
कोई बेताल बजाने से ऐसा मारने को आते हैं
तब बाहर के आदमी नहीं समझते हैं क्या हो गया? क्या हो गया?
वो बेताल किया, बाहर के आदमी बोलते हैं-कीर्तन तो बहुत अच्छा हो रहा है
ताल बेताल सब ठीक हो जाता है संकीर्तन में.. कल बोलेंगे