श्रीगजेन्द्र उवाच
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्।
योऽस्मात् परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्॥
य: स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्वचिद् विभातं क्व च तत् तिरोहितम्।
अविद्धदृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोऽवतु मां परात्पर:॥
कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु।
तमस्तदासीद् गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभु:॥
न यस्य देवा ऋषय: पदं विदु-
र्जन्तु: पुन: कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमण: स मावतु॥
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं
विमुक्तसङ्गा मुनय: सुसाधव:।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतात्मभूता: सुहृद: स मे गति:॥
अन्वयः
भूतात्मभूता: (भूतेषु उच्चावचेशु आत्मभूताः आत्मतुल्यताम् प्राप्ताः)
सुहृद: (आत्मसमदर्शिनः) सुसाधव: मुनय: यस्य (भगवतः)
सुमङ्गलं (नित्यसुखस्वरूपं)
पदं दिदृक्षवो (साक्षात् कर्तुमिच्छवः)
विमुक्तसङ्गा (विमुक्तः संगः शब्दादिविषयेषु आसक्तिः यैः ते तथाभूताः सन्तः)
वने (अरण्ये) अव्रणम् (अच्छिद्रम्)
अलोकव्रतम् (इतरजनैः कर्तुमशक्यं व्रतं ब्रह्मचर्यादिकम्)
चरन्ति (आचरन्ति) सः (तादृशः भगवान)
मे (मम) गतिः (आश्रयः भवतु)
सुसाधु, त्यक्तसंग,
तमाम प्राणी में समदृष्ठि संपन्न सुहृद,
जितने मुनि हैं
जिनके सुमंगल पद दर्शन करने की वासना से
अरण्य में, वन में अक्षत ब्रह्मचर्य व्रत
आचरण करते हैं, वही भगवान मेरे आश्रय हो जाए।
कहते हैं, भगवान को तो कोई नहीं जान सकता है
मैं कैसे उनका महात्म्य कीर्तन करूँ?
ऋषि मुनि लोग वो भी मोह प्राप्त हो जाते हैं
और देवता के अंदर में
ब्रह्मा आदि श्रेष्ट देवता वो भी मोह प्राप्त हो जाते हैं
मैं कैसे उनका महात्म्य कीर्तन कर सकता हूँ?
बोला हाँ, कीर्तन कर सकते हैं, कौन?
इस प्रकार जो व्यक्ति है, सुसाधु त्यक्तसंग
तमाम प्राणी में समदृष्ठि संपन्न सुहृद
जो मुनि हैं
वे भगवान के पादपद्म दर्शन करने के लिए वासना लेकर
वन में अक्षत ब्रह्मचर्य पालन करते हैं
ब्रह्मचर्य का मतलब क्या होता है?
ब्रह्मचर्य का मलतब होता है वीर्य धारण
हम लोगों की एक गोष्टी थी
हमारे एक साथ में अभी,
वही आसाम में कोई स्थान पर गए, जलाह
वहाँ पर गुरूजी गए, वहाँ बहुत भक्त हैं
एक ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारी नहीं, युवक नए लड़के आए
चार-पांच आकर हमारे गुरूजी से मिले
हम लोग ब्रह्मचर्य पालन करने के लिए चेष्टा कर रहे हैं
आपके पास शिक्षा लेने के लिए आए
तब गुरूजी मेरे पास भेज दिया, मैं तो ब्रह्मचारी हूँ।
वो उनके पास जाओ
वे आके बोले – आपके गुरूजी के पास गए थे, गुरूजी आपके पास भेज दिए
वो मेरा अपना ही ब्रह्मचर्य नहीं हुआ मैं क्या शिक्षा दूँगा?
तो गुरूजी का हुकुम पालन करना पड़ेगा, क्या करे?
तब मैं कहा, देखिये वैसे तो ब्रह्मचर्य वीर्य धारण है; कोपीन पहन लिया ये सब…
कर्मेन्द्रिय..
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥
सब संयम किया बाहर में कोपीन पहन लिया
इससे ही वीर्य धारण नहीं होता है
जब मन में मन में चिंता करे तब उसका संग हो जाता है
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
जब हम चिंता करेंगे इन्द्रियों के विषय
तब वही विषय प्राप्त करने के लिए इच्छा होगी
उसमे बाधा होगी तब क्रोध होगा
when there will be an obstacle then we should become furious
क्रोध होगा, क्रोध से तब वो
बहुत कुछ गन्दा काम कर सकता है
तब लोग याद नहीं रहते हैं
पिता-माता, गुरु कोई बोध नहीं रहता है उस समय
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
इसलिए बाहर में यह करने से; ब्रह्मचर्य मतलब ब्रह्म की परिचर्या
भगवान की सेवा
भगवान के विमुख होने से तब शरीर में मैं बुद्धि होती है
शरीर में मैं बुद्धि होने से शरीर की प्राकृत इन्द्रियों की (जरुरत)
प्राप्त करने के लिए इच्छा होती है
यह अज्ञान से होता है
अभी अँधेरे में
वहाँ पर सांप है उसको रस्सी बोलकर पकड़…
पकड़ने को जाएँगे, काट देगा
अँधेरे में रस्सी है, रस्सी को सांप समझकर डरते हैं
अँधेरे में… रोशनी में
सांप को सांप देखेगा रस्सी को रस्सी देखेगा
इसी प्रकार जब भगवान के विमुख होते हैं तब अज्ञान आ जाता है अज्ञान में
स्वरुप भ्रम होता है, स्वरुप भ्रम से असत् तृष्णा होती है
असत् तृष्णा से गंदे काम करते हैं, पाप करते हैं
पाप का मूल कारण है भगवत् विमुखता
भगवान की आराधना, वह भगवान की आराधना
वही आराधना गुरुपदाश्रय करके करनी पड़ती है
गुरु की सेवा, सद्गुरु की सेवा यह होता है ब्रह्मचर्य; वास्तव में
जो है, और यह होता है भागवत्-व्रत यहाँ पर लिखा
जो भागवत-व्रत वो जो व्रत धारण करते हैं
और कोई भय नहीं रहता है
ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये।
अञ्ज: पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान्॥