हमारे गुरुवर्ग ने हमें निर्देश दिये है कि यदि संभव हो, श्रेष्ठ वैष्णवों के संग में प्रतिदिन श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण करें। साधुओं से शास्त्र श्रवण को प्रधानता दी गयी है। दामोदर मास में,श्रीमद् भागवतम् के 8 वे स्कन्द से गजेंद्र मोक्ष लीला का पाठ करना अत्यंत मंगलकारी है। गजेंद्र मोक्ष लीला हमें भगवान में पूर्ण शरणागति की शिक्षा देती है।
तत्रैकदा तद्गिरिकाननाश्रय: करेणुभिर्वारणयूथपश्चरन्।
सकण्टकं कीचकवेणुवेत्रवद् विशालगुल्मं प्ररुजन्वनस्पतीन्॥
यद्गन्धमात्राद्धरयो गजेन्द्रा व्याघ्रादयो व्यालमृगा: सखड्गा:।
महोरगाश्चापि भयाद्द्रवन्ति सगौरकृष्णा: सरभाश्चमर्य:॥
वृका वराहा महिषर्क्षशल्या गोपुच्छशालावृकमर्कटाश्च।
अन्यत्र क्षुद्रा हरिणा: शशादय- श्चरन्त्यभीता यदनुग्रहेण॥
स घर्मतप्त: करिभि: करेणुभिर्वृतो मदच्युत्करभैरनुद्रुत:।
गिरिं गरिम्णा परित: प्रकम्पयन् निषेव्यमाणोऽलिकुलैर्मदाशनै:॥
सरोऽनिलं पङ्कजरेणुरूषितं जिघ्रन्विदूरान्मदविह्वलेक्षण:।
वृत: स्वयूथेन तृषार्दितेन तत् सरोवराभ्यासमथागमद्द्रुतम्॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.2.20-24)
परीक्षित महाराज ने श्री शुकदेव गोस्वामी से बारह स्कंधों वाली श्रीमद् भागवतम् सुनी थी। यह संस्कृत भाषा में लिखी गई है। उस समय संस्कृत भाषा प्रचलन में थी। आजकल इसका महत्व समाप्त हो गया है, क्योंकि इसका कोई भौतिक उपयोग नहीं रह गया है। आज की सरकार उस भाषा पर जोर देती है, जिससे भौतिक लाभ हो। यही कारण है कि हमारे गुरुदेव ने संस्कृत शिक्षण केंद्र खोला था, क्योंकि अधिकांश वैदिक शास्त्र उसी भाषा में लिखे गए हैं। जब संस्कृत सीखना अप्रचलित हो जाएगा, तो सनातन धर्म सीखना भी अप्रचलित हो जाएगा। हम इस भाषा के महत्व को नहीं समझते। हम श्रील गुरुदेव का 100वां प्राकट्य उत्सव मना रहे हैं। हमें उनके मनोभीष्ट के अनुसार कार्य करना चाहिए। हमें संस्कृत भाषा का अध्ययन करना चाहिए और उसका विस्तार भी। उनकी कृपा से सब सफल होगा। हम साधारणतः संस्कृत बोलने से डरते हैं।
त्रिकूट पर्वत पर गजेन्द्र नामक हाथियों का राजा रहता था। वह वरुणदेव (पश्चिमी देशों में जिन्हें नेपच्यून, sea god कहते हैं) के ऋतुमत नामक उद्यान में स्थित एक सरोवर की ओर जा रहा है। उसके साथ हथिनियाँ भी हैं। गर्मी का मौसम है और बहुत गर्मी है इसलिए वे तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। उनके रास्ते में विभिन्न पेड़, बाँस के जंगल आदि हैं। एक विशेष प्रकार का बाँस का पेड़ है जो आकार में छोटा ओर अंदर से खोखला होता है। उसमें जोर से हवा जाने से सीटी बजने जैसी (whistling sound) आवाज निकलती है। इसे कीचक (पोला बाँस) कहते हैं। भगवान की बांसुरी इसी बाँस से तैयार होती है। बाँस के अतिरिक्त वहाँ अन्य पेड़ और लताएँ भी हैं। हाथी सरोवर की ओर बढ़ते समय पथ में आने वाले सभी पेड़, लता, गुल्म सभी को कुचलता हुआ आगे बढ़ रहा है। वह बहुत प्यासा है। वह जल पान करने की व स्नान करने की इच्छा से द्रुत (तेज) गति से सरोवर की ओर जा रहा है। पथ साफ़ हो जाने के कारण उसके पीछे चल रहे हाथी-हथिनियों को कोई कष्ट नहीं हो रहा।
इस विशेष विशालकाय हाथी की गंध पाकर बड़े-बड़े शेर, बाघ, गैंडे, बड़े-बड़े सांप आदि वहाँ से भाग जाते हैं। क्योंकि यदि वे उसके सामने रुकेंगे तो मारे जाएँगे। वे उस विशेष विशालकाय हाथी से डरते हैं। भेड़िये, खरगोश, भैंसे, मेंढक, हिरण आदि जैसे छोटे जानवर उससे नहीं डरते और सभी बिना किसी डर के घूम रहे हैं। ये जानवर इसलिए स्वतंत्रता से घूम रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि इस विशालकाय हाथी की अवस्थिति में कोई और कोई जानवर आकर उन पर हमला नहीं करेगा।
स घर्मतप्त: करिभि: करेणुभिर्वृतो मदच्युत्करभैरनुद्रुत:।
गिरिं गरिम्णा परित: प्रकम्पयन् निषेव्यमाणोऽलिकुलैर्मदाशनै:॥
सरोऽनिलं पङ्कजरेणुरूषितं जिघ्रन्विदूरान्मदविह्वलेक्षण:।
वृत: स्वयूथेन तृषार्दितेन तत् सरोवराभ्यासमथागमद्द्रुतम्॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.2.23-24)
हाथियों के सरदार गजेन्द्र का शरीर उतना भारी है की उसके चलने से पूरा त्रिकुट पर्वत कम्पित हो रहा है। वह पसीने से तरबतर हो रहा है। उसका पसीना साधारण नहीं नहीं है, उसमें मधु है जिसे पान करने के लिए अनेक मधुमक्षिकाएँ (मधुमक्खी) भी उसके साथ-साथ जा रही है। द्रुत गति से चलते-चलते गजेन्द्र उस सरोवर तक पहुँच जाता है। सरोवर में अनेक कमल के पुष्प हैं। कमल के पुष्पों के कारण वह पूरा स्थान सुगन्धित हो उठा है।
विग्राह्य तस्मिन्नमृताम्बु निर्मलं हेमारविन्दोत्पलरेणुरूषितम्।
पपौ निकामं निजपुष्करोद्धृत- धृतमात्मानमद्भि: स्नपयन्गतक्लम:॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.2.25)
गजेन्द्र ने सरोवर में प्रवेश करके स्नान किया व शीतल जल पान किया। उसका सारा श्रम दूर हो गया। सरोवर में स्वर्ण पंखुड़ियों वाले कमल और अन्य अनेक कमल के फूल थे, जिनसे पराग कण निकल कर सरोवर के जल में मिलकर उसे अमृत जैसा सुस्वादु बना रहे थे। आजकल ऐसे सरोवर नहीं मिलते। हम देख सकते हैं कि गंगा नदी की वर्तमान स्थिति क्या है! इसे पुनर्स्थापित करने के लिए आजकल बहुत सारा पैसा खर्च किया जा रहा है। कोई भी गंगा को प्रदूषित नहीं कर सकता, लेकिन लोगों ने भौतिक लाभ प्राप्त करने के लिए इसे कई टुकड़ों में काट दिया है (विभिन्न स्थानों पर बाँध बनाकर)। इस कलियुग में जब गंगा नदी और गोवर्धन पर्वत दोनों लुप्त हो जाएँगे, तब बहुत अशुभ होगा। अभी उनके रहने से कुछ शुभ है। अतः यदि कोई केवल अपनी इन्द्रिय-तृप्ति के बारे में ही सोचता है, तो उसका यही हश्र होगा। धर्म को छोड़कर हम जो कुछ भी करेंगे, उसका परिणाम केवल दुःख ही होगा।
गजेन्द्र ने अपनी सूंड से जितना चाहा उतना जल पी लिया।
स पुष्करेणोद्धृतशीकराम्बुभि- र्निपाययन्संस्नपयन्यथा गृही।
घृणी करेणु: करभांश्च दुर्मदो नाचष्ट कृच्छ्रं कृपणोऽजमायया॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.2.26)
आध्यात्मिक ज्ञान से रहित तथा अपने परिवार के सदस्यों के प्रति अत्यधिक आसक्त मनुष्य के समान, हाथी ने भी कृष्ण की बाह्य शक्ति से मोहित होकर अपनी पत्नियों तथा बच्चों को स्नान कराया तथा जल पिलाया। वास्तव में, उसने अपनी सूंड से सरोवर से जल उठाया तथा उन पर छिड़का। इस प्रयास में उसे कठिन परिश्रम की कोई परवाह नहीं थी। यहाँ एक गृहस्थ का उदाहरण दिया गया है जो अपने घर तथा परिवार से बहुत आसक्त है, वह अपनी पत्नी तथा बच्चों के लिए बहुत परिश्रम करता है। फिर भी उसे इतनी मेहनत का दर्द महसूस नहीं होता। ऐसी बातें वहाँ होती हैं जहाँ सम्बन्ध तथा आसक्ति होती है। उस मूर्ख हाथी ने अपनी पत्नियों तथा बच्चों के प्रति स्नेह के कारण अपनी सूंड में सरोवर का जल लिया तथा उन्हें स्नान कराने के लिए उन पर फेंका, यद्यपि उन्होंने ऐसा करने के लिए उससे कहा नहीं था। ऐसा करने में यदि दर्द भी हुआ, तो भी उसे दर्द महसूस नहीं हुआ। ऐसी भावनाएँ वहाँ आती हैं जहाँ बहुत अधिक आसक्ति होती है। इसके विपरीत जहाँ आसक्ति नहीं होती, वहाँ व्यक्ति कुछ भी करता है तो उसे लगता है कि मैंने बहुत कुछ कर लिया और सोचता है कि और कितना करेंगें?
हमारे गुरुमहाराज एक उदाहरण देते थे। वे मद्रास में गौड़ीय मठ में दस वर्ष तक रहे। वहाँ एक सत्संग-भवन (संकीर्तन और हरिकथा के लिए एक हॉल) का निर्माण करना था। वहाँ एक ठेकेदार था जो बहुत अमीर था और उसके पास कई घर थे। उसने और अधिक पैसे कमाने के लिए उनमें से कुछ घरों को किराए पर दे दिया था। गुरुमहाराज एक व्यक्ति के साथ, जो तमिल भाषा जानता था, उसके घर गए ताकि वह दुभाषिया का काम कर सके। गुरुदेव ने उससे कहा, “देखो हमारा मंदिर बन गया है लेकिन सत्संग-भवन नहीं है, इसलिए मैं तुम्हारे पास आया हूँ।” जब हमारे गुरुमहाराज पहली बार वहाँ गए तो उन्होंने उस व्यक्ति के बगीचे में एक व्यक्ति को काम करते देखा। गुरुदेव ने सोचा कि वह उस व्यक्ति का नौकर होगा और उस व्यक्ति को बुलाया और उस धनवान व्यक्ति से मिलने की इच्छा व्यक्त की। उत्तर में उस व्यक्ति ने कहा कि वह स्वयं ही वह व्यक्ति है जिसे गुरुदेव खोज रहे हैं। मद्रास गौड़ीय मठ में जो सत्संग-भवन बनाया गया, उसका नाम उस व्यक्ति की इच्छानुसार ‘श्रीकृष्ण संकीर्तन भवन’ रखा गया।
जब सत्संग-भवन के निर्माण के बारे में चर्चा चल रही थी, तो उस व्यक्ति ने गुरुदेव से कहा कि इसके निर्माण के लिए जितनी भी ईंटें लगेंगी, वे सब मैं खरीदूंगा। जब गुरुदेव ने पूछा कि सीमेंट, रेत आदि कौन देगा, तो उस व्यक्ति की पत्नी ने अपने पति से कहा, “आप सीमेंट आसानी से खरीद सकते हैं, इसलिए आपको ही खरीद लेना चाहिए।” वह व्यक्ति तुरंत सहमत हो गया। गुरुदेव ने उससे निर्माण के लिए आवश्यक श्रम की कीमत के बारे में भी पूछा, जिस पर उस व्यक्ति की पत्नी ने अपने पति को श्रम की कीमत वहन करने के लिए फिर से राजी किया और वह व्यक्ति तुरंत उसके प्रस्ताव पर सहमत हो गया। उनका एक ही बेटा था जो पहले राजमिस्त्री था, फिर वह इमर्सन रेलवे का ठेकेदार और कैलटेक्स पेट्रोल का एकमात्र एजेंट बन गया। उनके पास बहुत सारी इमारतें थीं। उस समय पैसे का बहुत महत्व था। उनका बेटा उस समय 40,000 रुपये कमाता था। उन्होंने उसे पेट्रोल की एजेंसी भी दे दी थी। साथ ही बेटे को उन इमारतों से बहुत किराया मिलता था, जिन्हें वे किराए पर देते थे। अपने बेटे के लिए इतना कुछ करने के बावजूद माता-पिता कहते थे कि वे उसके लिए कुछ नहीं कर सके। उस समय राजमिस्त्री को प्रतिदिन केवल चौदह आने मिलते थे। तो उनका बेटा राजमिस्त्री होने पर ही इतना कमाता था। लेकिन उसके माता-पिता द्वारा किए गए निर्माण कार्यों और अन्य व्यवस्थाओं के कारण अब वह 40,000 रुपये प्रतिमाह कमाता था। चूँकि धनवान व्यक्ति को अपने बेटे के प्रति दृढ़ आसक्ति थी, इसलिए अपने बेटे के कल्याण के लिए इतना प्रयास करने के बाद भी उसे लगा कि वह उसके लिए पर्याप्त धन अर्जित नहीं कर सका। इसलिए जहाँ दृढ़ आसक्ति होती है, वहाँ बहुत कुछ करने पर भी आपको उसका अनुभव नहीं होता। यहाँ भी, एक आसक्त गृहस्थ की तरह, हाथी अपनी पत्नियों और बच्चों के लिए इतना कठिन परिश्रम कर रहा था, फिर भी उसे ऐसा नहीं लगा कि मैंने उनके लिए कुछ विशेष किया है। लेकिन चूँकि हमें गुरु, वैष्णव और भगवान से आसक्ति नहीं है, इसलिए हम उनकी थोड़ी-बहुत सेवा करने पर भी ऐसा महसूस करते हैं कि हमने इतना कर लिया है कि अब और करने की आवश्यकता नहीं है।
तं तत्र कश्चिन्नृप दैवचोदितो ग्राहो बलीयांश्चरणे रुषाग्रहीत्।
यदृच्छयैवं व्यसनं गतो गजो यथाबलं सोऽतिबलो विचक्रमे॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.2 27)
“हे राजन! विधाता की कृपा से एक बलवान मगरमच्छ हाथी पर क्रोधित हुआ और उसने जल में हाथी के पैर पर हमला कर दिया। हाथी निश्चित रूप से बलवान था, और उसने विधाता द्वारा भेजे गए इस संकट से बचने के लिए हर संभव प्रयास किया।”
यहाँ सम्पूर्ण इतिहास का वर्णन करने के पीछे एक उद्देश्य है। हम देख सकते हैं कि गजेंद्र एक पशु है, लेकिन हम उसके पिछले जन्म के बारे में नहीं जानते हैं और न ही यह जानते हैं कि उसे हाथी का शरीर कैसे मिला। चूँकि हम सर्वज्ञ नहीं हैं, इसलिए हमें दूसरों के साथ व्यवहार में बहुत सावधान रहना चाहिए। जिस सरोवर में गजेंद्र अपने परिवार के साथ बहुत आनंद से स्नान कर रहा था, वहाँ विधाता की कृपा से एक बहुत शक्तिशाली मगरमच्छ रहता था। मगरमच्छ ने सोचा कि मैं इस स्थान का राजा हूँ, ये हाथी कहाँ से आ गए? गजेंद्र अक्सर उस सरोवर में स्नान करने और पानी पीने के लिए जाता था, इसलिए वह उस स्थान से परिचित था और निश्चिंत था। मगरमच्छ ने देखा कि हाथी पानी को हिला रहा है और उस स्थान पर अपना प्रभाव फैलाने की कोशिश कर रहा है, तो वह उस पर बहुत क्रोधित हुआ और उसका पैर पकड़ लिया। हाथी भी कम शक्तिशाली नहीं था। उसने विधाता द्वारा भेजे गए इस संकट से बचने के लिए बहुत कोशिश की। हम सोच सकते हैं कि यह दुर्घटनावश हुआ था, लेकिन यह दुर्घटना नहीं थी। हम अपने कर्मों का फल भोगते हैं, प्रारब्ध कर्मों का फल (जिन कर्मों का फल मिलना शुरू हो चुका है)। हमें दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए। उसके पिछले कर्मों के कारण अब उन कर्मों का फल मगरमच्छ के रूप में आया और उसने हाथी पर हमला कर दिया। सभी जीवों को अपने अच्छे या बुरे कर्मों का फल भोगना पड़ता है। एक बुद्धिमान व्यक्ति दूसरों को दोष नहीं देता, बल्कि वह खुद को बचाने की कोशिश करता है।
तथातुरं यूथपतिं करेणवो विकृष्यमाणं तरसा बलीयसा।
विचुक्रुशुर्दीनधियोऽपरे गजा: पार्ष्णिग्रहास्तारयितुं न चाशकन्॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.2 28)
अन्वय:
बलीयसा (प्रभुतबलशालीना ग्राहेन) तरसा (बलेन) विकृष्यमाणं (आकृस्यमाणम्) तथा (तादृशं) आतुरं (दुःखितं) यूथपतिं (गजेन्द्रं प्रति) दीनधियः (दीना मलिना धीः बुद्धि यासां ताः दीनबुद्धयः) करेणवः (तत्पत्न्याः) विचुक्रुशुः (रुरुदुः) पार्ष्णिग्रहाः (पुष्ठतः उपोद्वलकाः) अपरे (साहाय्यकारिणः) गजाः (अपि तं गजेन्द्रं) तारयितुं (तस्माद् ग्राहात् विमोचयितुम्) न च अशकन् (न समर्थाः बभुवुः)
गजेन्द्र ने ग्राह की पकड़ से बचने ले किए बहुत चेष्टा की किन्तु ग्राह बहुत बलशाली है। उसने गजेन्द्र को इतना जोर से पकड़ लिया कि वह स्वयं को छुड़ाने के लिए सफल नहीं हो पाया। उसके लिए बहुत मुश्किल हो गई। गजेन्द्र की ऐसी हालत देखकर उसकी सभी स्त्री-हाथी रोने लगीं। किन्तु इस समस्या का उनके पास कोई उपाय नहीं था। पानी के अंदर में वे क्या कर सकती हैं? अन्य हाथी जो गजेन्द्र के संग में हैं वे उसे छुड़ाने की चेष्टा कर रहे हैं किन्तु वे भी कुछ नहीं कर पाएं। जब तक हम अपनी चेष्टा से कुछ कर सकते हैं तब तक किसीका सहारा नहीं लेते हैं। गजेन्द्र के चरित्र में हमारे लिए शिक्षा है कि यदि हम अपनी चेष्टा से संसार रूपी ग्राह से मुक्त होने का प्रयास करेंगे तो मुक्त नहीं हो पाएँगे। हमें जब इस बात का जब अनुभव हो जाएगा तब हम भगवान का आश्रय लेंगे। गुरु-वैष्णव जोकि शक्तिशाली हैं उनका आश्रय लेंगे।
गजेन्द्र अपने पूर्व जन्म में भक्त थे किन्तु किसी कारण से उन्हें हस्ती योनी प्राप्त हुई ओर वे भगवान को भूल गए। किसी व्यक्ति की कोई एक क्रिया देखकर, उनके विषय में कुछ बोलना ठीक नहीं है। वैसा करने से मुश्किल हो जाएगीा अजामिल पहले बहुत अच्छा था, उसने वेश्या का संग किया। कुछ ख़राब काम किया किन्तु बाद में क्या हुआ? बाद में उनको, वे जो द्वादश गुण-ब्राह्मण थे उससे भी अधिक लाभ हो गया। इसलिए किसी में दोष दर्शन करना व उसके विषय में कुछ बोलना ठीक नहीं है। हम लोग भूतकाल व भविष्य नहीं जानते हैं। भगवान की प्रीति सभी के ऊपर है
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(श्रीमद्भगवद्गीता 9.30-31)
परमेश्वर ने हमें सावधान किया है, हमें किसी के बाह्य आचरण को देखकर उसके बारे में बुरा नहीं सोचना चाहिए। ऐसा करने से परमेश्वर नाराज होते हैं। परमेश्वर कहते हैं, “पिछले कुछ पापों के कारण वह घृणित कार्य कर सकता है, लेकिन उसने भक्ति नहीं छोड़ी है। पिछले पापों के फल की शक्ति बहुत शक्तिशाली होती है। भक्तिविनोद ठाकुर ने लिखा है, प्राक्तन वायुर वेग सहिते ना पारी—अपने प्रयासों से कर्मों के फलों के प्रवाह का विरोध करना संभव नहीं है। आगे वे कहते हैं, काँदिया अस्थिर मन, ना देखि काँडारी –मैं किसी ऐसे रक्षक को नहीं देख पा रहा हूँ जो मुझे कर्मों के फलों के प्रवाह से बचा सके।
गजेंद्र अपने पिछले जन्म में एक भक्त थे। वे पाण्डु राज्य के राजा इन्द्रदुम। मुनि के श्राप के कारण उन्हें हाथी का शरीर मिला था। लेकिन वे अपने पूर्वजन्म में परमेश्वर के चरणकमलों में की गई भक्ति को नहीं भूले थे। प्रत्यक्षतः ऐसा प्रतीत होता था कि वे सब कुछ भूल गए थे, लेकिन ऐसा नहीं था। किसी के बुरे कर्मों को देखकर आप उसे इन्द्रियभोगी नहीं समझ सकते, क्योंकि भक्ति कभी भी प्रकट हो सकती है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, अपि चेत् सुदुरचारो – जिसने बहुत ही घृणित कार्य किया हो, यहाँ तक कि किसी स्त्री के साथ अवैध यौन संबंध भी बनाया हो, तो भी हमें उसे असाधु नहीं कहना चाहिए। चूँकि उसने मेरी शरण ली है, इसलिए उसमें मेरे प्रति भक्ति है, ऐसा मेरा मत है। वह अब सही मार्ग पर है। वह मेरी भक्ति में लगा हुआ है, लेकिन पिछले कर्मों और ग्रहण किए गए विचारों के कारण उसने कुछ घृणित कार्य किया था। चूँकि वह सही मार्ग पर है, इसलिए उसे शाश्वत शांति मिलेगी। वह एक धर्मात्मा व्यक्ति बन जाएगा। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “हे कुंतीपुत्र! कर्मियों, ज्ञानियों, योगियों और देवताओं के उपासकों की सभा में यह बात निर्भीकता से कहो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।” भगवान को अपने भक्तों से कितना प्रेम है!
अर्जुन भगवान से पूछ सकता है, “आप स्वयं क्यों नहीं कहते?” जिसके उत्तर में कृष्ण कह सकते हैं, “मैं अपनी प्रतिज्ञा तोड़ सकता हूँ, लेकिन मैं अपने भक्त के वचनों का उल्लंघन कभी नहीं कर सकता। मैंने प्रतिज्ञा की थी कि मैं कुरुक्षेत्र युद्ध में हथियार नहीं उठाऊँगा, लेकिन मेरे भक्त भीष्म ने प्रतिज्ञा की थी कि वे मुझे हथियार उठाने के लिए मजबूर करेंगे, इसलिए मैंने उनकी प्रतिज्ञा को बचाने के लिए अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी।”
ऐसा लग सकता है कि भक्ति में लीन व्यक्ति इन्द्रिय भोगी है, लेकिन अंदर कुछ और ही है। जिसने एक बार भक्ति कर ली, उसकी भक्ति कभी नष्ट नहीं होती। वह हमेशा भीतर ही रहती है। कुछ कारणों से भक्ति ढक सकती है, लेकिन एक बार उन परिस्थितियों का प्रभाव समाप्त हो जाने पर व्यक्ति को फिर से शुरू से प्रारंभ नहीं करना पड़ता है, वह वहीं से शुरू कर सकता है, जहां से उसने छोड़ा था।
नियुध्यतोरेवमिभेन्द्रनक्रयो- र्विकर्षतोरन्तरतो बहिर्मिथ:।
समा: सहस्रं व्यगमन् महीपते सप्राणयोश्चित्रममंसतामरा:॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.2.29)
“हे राजन, हाथी और मगरमच्छ एक हजार वर्षों तक इसी प्रकार लड़ते रहे, एक दूसरे को पानी में खींचते रहे। यह लड़ाई देखकर देवता बहुत आश्चर्यचकित हुए।”
मगरमच्छ के पास सरोवर में भोजन है, लेकिन गजेंद्र के पास वहाँ कोई भोजन नहीं है, उसके पास केवल पानी है, और कुछ नहीं। भोजन के बिना वह 1,000 वर्षों तक लड़ता रहा।