हमारे गुरुवर्ग ने हमें निर्देश दिये है कि यदि संभव हो, श्रेष्ठ वैष्णवों के संग में प्रतिदिन श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण करें। साधुओं से शास्त्र श्रवण को प्रधानता दी गयी है। दामोदर मास में,श्रीमद् भागवतम् के 8 वे स्कन्द से गजेंद्र मोक्ष लीला का पाठ करना अत्यंत मंगलकारी है। गजेंद्र मोक्ष लीला हमें भगवान में पूर्ण शरणागति की शिक्षा देती है।
भगवद् कथा श्रवण पिपासु दामोदर व्रत पालन कारी भक्त वृन्दों को मैं यथा-योग्य अभिवादन करता हूँ, सब की प्रसन्नता प्रार्थना करता हूँ।
आसीद् गिरिवरो राजंस्त्रिकूट इति विश्रुत:।
क्षीरोदेनावृत: श्रीमान्योजनायुतमुच्छ्रित:॥
तावता विस्तृत: पर्यक्त्रिभि: शृङ्गै: पयोनिधिम्।
दिश: खं रोचयन्नास्ते रौप्यायसहिरण्मयै:॥
अन्यैश्च ककुभ: सर्वा रत्नधातुविचित्रितै:।
नानाद्रुमलतागुल्मैर्निर्घोषैर्निर्झराम्भसाम्॥
स चावनिज्यमानाङ्घ्रि: समन्तात् पयऊर्मिभि:।
करोति श्यामलां भूमिं हरिन्मरकताश्मभि:॥
सिद्धचारणगन्धर्वैर्विद्याधरमहोरगै:।
किन्नरैरप्सरोभिश्च क्रीडद्भिर्जुष्टकन्दर:॥
यत्र सङ्गीतसन्नादैर्नदद्गुहममर्षया।
अभिगर्जन्ति हरय: श्लाघिन: परशङ्कया॥
कार्तिक व्रत में प्रतिवर्ष गजेन्द्र मोक्ष का प्रसंग सुनाया जाता है। इस प्रसंग का विशेष महत्व है। महाप्रभु उन्नत-उज्ज्वल रस देने आए हैं। श्रीमद् भागवत् इसका प्रमाण है। तो इसे प्राप्त करने के लिए हमें गजेन्द्र मोक्ष का प्रसंग सुनने की क्या आवश्यकता है? श्रीमद् भागवत् में ‘ध्रुव चरित्र’ और ‘प्रह्लाद चरित्र’ (ध्रुव और प्रह्लाद की जीवनी) है। महाप्रभु ने ध्रुव और प्रह्लाद की जीवनी एक या दो बार नहीं, किन्तु सैकड़ों बार सुनी थी। बार-बार सुनने के बाद भी वे गदाधर पंडित से उसे फिर से पढ़ने के लिए कहते थे। यद्यपि महाप्रभु सर्वोच्च दिव्य प्रेम देने आए हैं, वह तभी प्राप्त हो सकता है जब हृदय में आधार बन जाए। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अपने एक भजन में लिखते हैं, “श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु जीवे दया करि, सपार्षद स्वीय धाम सह अवतरि”—श्रीचैतन्य महाप्रभु कृष्ण-प्रेम देने के लिए अपने धाम व पार्षदों के साथ इस जगत में अवतरित हुए हैं। किन्तु उनकी एक ही शर्त है कि जीव को उस प्रेम को प्राप्त करने के लिए शरणागत होना पड़ेगा। शरणागति के छह अंग हैं। भक्तिविनोद ठाकुर हमें शरणागत भक्तों जैसे रूप और सनातन गोस्वामी के चरण कमलों में आश्रय लेने की सलाह देते हैं। ध्रुव चरित्र और प्रह्लाद चरित्र हृदय में कृष्ण-प्रेम प्राप्त करने के लिए आधार तैयार करेंगे जिसे महाप्रभु देने आए थे। ये प्रसंगों से मिलने वाली शिक्षा बद्ध जीव के लिए अति महत्वपूर्ण है जिसके आधार पर वह समर्पित होकर कृष्ण प्रेम प्राप्त करने के योग्य बन सके।
जब महाराज परीक्षित ने विस्तार से सुनने की इच्छा की कि भगवान ने गजेन्द्र हाथी का किस प्रकार उद्धार किया, तब शुकदेव गोस्वामी ने उस स्थान का वर्णन किया, जहाँ यह घटना घटी थी। ये सभी शब्द मिथ्या नहीं हैं, ये सभी शब्दब्रह्म हैं। सम्पूर्ण भागवत शब्दब्रह्म है। शुकदेव गोस्वामी ने बताया कि वह विशाल पर्वत जो अस्सी हजार मील लम्बा है, क्षीरसागर से घिरा हुआ है।
जैसे जिस लोक में हम हैं यह लोक एक ब्रह्माण्ड का भाग है। उसी प्रकार अनेक लोक हैं व अनेक ब्रह्माण्ड हैं। प्रत्येक ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा भी अलग हैं। गजेन्द्र का यह प्रसंग हम जिस लोक में है उसमें नहीं हुआ है। हम नहीं जानते कि यहाँ किस लोक की बात हो रही है। हो सकता है कि यह किसी अन्य ब्रह्माण्ड में कोई दूसरा लोक हो। इस ब्रह्माण्ड से दुगुने आकार के ब्रह्माण्ड भी हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न ब्रह्माण्डों में आठ मुख वाले, सोलह मुख वाले, बत्तीस मुख वाले ब्रह्मा भी हैं। यहाँ पर वर्णित पर्वत कितना बड़ा है! यह स्थान अत्यन्त सुन्दर है। हम विभिन्न स्थानों की यात्रा करते हैं और अपनी भौतिक दृष्टि से उस स्थान की सुंदरता का अनुभव करते हैं। किन्तु उस स्थान की पारलौकिक सुंदरता को अनुभव करना आवश्यक है जहाँ भगवान अपनी लीलाएँ करते हैं। वास्तव में भगवान अपने ही भक्त, पाण्ड देशीय इन्द्रद्रुम राजा को हाथी के रूप में इस लीला के लिए भेजा था। उनके ही माध्यम से वे शिक्षा प्रदान कर रहे हैं।
जिस स्थान पर यह घटना घटी, वह त्रिकूट पर्वत है जो अस्सी हजार मील लंबा है। क्या इस जगत में कोई ऐसा स्थान है जहाँ इतना बड़ा पर्वत हो? कितना ऊँचा है? उस पर्वत में कई चोटियाँ हैं। इनमें से तीन चोटियाँ सबसे प्रमुख हैं, एक ठोस लोहे की, दूसरी चाँदी की और तीसरी सोने की। दूध सागर से घिरे हुए पर्वत की दसों दिशाओं में कई रत्न, अन्य धातुएँ और विभिन्न प्रकार के पेड़, लताएँ और जड़ी-बूटियाँ आदि हैं। पर्वत में झरने और नदियाँ भी हैं। पर्वत में कई अन्य चोटियाँ भी हैं, केवल ये तीन नहीं। भागवतम् हमें इस त्रिकूट पर्वत का चिंतन करने के लिए कहा गया है जहाँ भगवान श्रीहरि प्रकट होकर लीला करेंगे। यह स्थान भगवान का निवास स्थान है। क्षीरसागर से लहरें आकर पहाड़ के नीचे के आठों कोनों को धो रही थीं। यह बहुत बड़ा क्षेत्र है। वहाँ बहुत से मरकत मणि (पन्ने) थे। मरकत मणि हरे रंग का बहुत कीमती पत्थर होता है। सूर्य की किरणें पहाड़ की तीनों चोटियों पर पड़ती हैं, ओर हरे मरकत मणि से टकराके आने से उस स्थान को श्यामल वर्ण का कर देती है। पेड़-पौधों के साथ-साथ पहाड़ में बड़ी-बड़ी गुफाएँ भी हैं, जो इतनी बड़ी हैं कि मनुष्य के अनुमान के अनुसार उनमें एक पूरा महाद्वीप समा सकता है। इन गुफाओं में किन्नर, सिद्ध, चारण, गंधर्व, विद्याधर आदि अनेक प्रकार के करोड़-करोड़ देवता अवस्थान करते हैं। ये देवता सुंदर नृत्य और गान में निपुण हैं। गुफाओं में महोरग—बड़े-बड़े सर्प भी हैं। उस स्थान पर स्वर्ग की अप्सराएँ भी हैं। यह स्थान बहुत बड़ा है। गुफा में देवता नृत्य और गान करते हैं। उनके नृत्य और गान की ध्वनि वहाँ प्रतिध्वनित होती है। पहाड़ की दूसरी गुफाओं में कई शेर रहते हैं। देवता की गुफा से निकलने वाली प्रतिध्वनि की गूंज से शेर सोचते हैं कि कोई अन्य शेर अपनी ताकत दिखाने के लिए दहाड़ रहा है। शेर एक-दूसरे को सहन नहीं कर सकते। जब एक शेर दहाड़ता है और दूसरा शेर उसे सुनता है, तो दूसरा शेर अपनी प्रभुता दिखाने के लिए दोगुनी ताकत से दहाड़ता है। शेर की आवाज़ इतनी तेज़ और डरावनी होती है कि इससे एक महिला का गर्भपात हो सकता है। शेर की तेज़ दहाड़ से आदमी भी बेहोश होकर गिर सकता है।
आप केवल मन ही मन इस पर्वत और इसके सभी विवरणों के विषय में सोच सकते हैं। यह कैसा पर्वत है जहाँ हरि प्रकट हुए हैं?
नानारण्यपशुव्रातसङ्कुलद्रोण्यलङ्कृत:।
चित्रद्रुमसुरोद्यानकलकण्ठविहङ्गम:॥
(श्रीमद् भागवत्म् 8.2.7)
“त्रिकूट पर्वत के नीचे की घाटियाँ अनेक प्रकार के जंगली जानवरों से सुन्दर रूप से सजी हुई हैं, तथा देवताओं द्वारा उद्यानों में रखे गए वृक्षों में अनेक प्रकार के पक्षी मधुर स्वर में चहचहाते हैं।”
पर्वत के अंतिम छोर पर बहुत से जानवर हैं। हम जानवरों को देखने के लिए प्राणि उद्यानों में जाते हैं। हमें यहाँ आना चाहिए और ये जानवर हमें पकड़कर अपने पेट में ठूँस देंगे। तो इस जगह पर सभी प्रकार के खूंखार जानवर हैं, और यह पेड़ों और स्वर्गीय उद्यानों से सुशोभित है। साथ ही यहाँ कई प्रकार के पक्षी हैं जो मधुर स्वर में गा रहे हैं। आप कल्पना करें कि त्रिकूट किस प्रकार का पर्वत है! यह कोई साधारण पर्वत नहीं है।
सरित्सरोभिरच्छोदै: पुलिनैर्मणिवालुकै:।
देवस्त्रीमज्जनामोदसौरभाम्ब्वनिलैर्युत: ॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.3.8)
त्रिकूट पर्वत पर बहुत से सरोवर और नदियाँ हैं, जिनके तट रेत के कणों जैसे छोटे-छोटे रत्नों से ढके हुए हैं। पानी क्रिस्टल की भांति साफ है। समुद्र तट पर रेत के कण विभिन्न कीमती रत्नों से भरे हुए हैं। यूरोप के इटली, फ्लोरिडा आदि देश में समुद्र तट हैं। हमें फ्लोरिडा के समुद्र तट पर ले जाया गया था। कोई सोच सकता है कि रत्न प्राप्त करने के लिए त्रिकुट पर्वत जैसे स्थान पर जाना पड़ेगा। तब धनी बन सकते हैं। किन्तु यदि वह ऐसा करता है तो उसे ये जानवर खा लेंगे, इसलिए रत्न प्राप्त करने के लिए उसे उन्हें मारना होगा।
वहाँ नदियाँ और सरोवर भी हैं, जिनमें बहुत शुद्ध और पवित्र जल है। (गुरुदेव अन्य देश के भक्तों को कहते हैं) इन जलाशयों के लिए ‘lake’ (तालाब) या ‘large pond’ (बड़ा तालाब) शब्द व्यवहार करना ठीक नहीं है। हम ऐसे जलाशयों को ‘सरोवर’ कहते हैं। ‘सरोवर’ एक पवित्र शब्द है। झील और तालाब जैसे शब्द उचित नहीं हैं। कुछ शब्दों को व्यवहार करना आपको शिखना होगा। उन सरोवरों में देवताओं की पत्नियाँ पानी में डुबकी लगाकर स्नान करती हैं। देव-स्त्रीओं की एक विशेषता है। वे मनुष्य से श्रेष्ठ हैं। उनके शरीर में सुगंध है। इसलिए उनके सरोवर में स्नान करने के कारण, पानी और आसपास का क्षेत्र सुगंधित हो जाता है। क्या आपको इस जगत में ऐसा कोई स्थान मिलेगा जहाँ कोई व्यक्ति स्नान करे और वह स्थान सुगंधित हो जाए? यहाँ ठीक इसके विपरीत होता है।
बहुत सारे ब्रह्माण्ड हैं। जब सृष्टिकर्ता ब्रह्मा भगवान कृष्ण से मिलने गए, तो भगवान ने दूत से पूछा कि कौन से ब्रह्मा आये हैं। दूत ने भगवान को बताया कि ब्रह्मा, जो सनक नामक ऋषि के पिता हैं, वे आए हैं। कृष्ण ने उन्हें आने और उनसे मिलने की अनुमति दी तो चतुर्मुख ब्रह्मा कृष्ण से मिलने आये। ब्रह्मा मन ही मन सोच रहे थे, “मैं ही ब्रह्मा हूँ। भगवान ने क्यों पूछा कि कौन से ब्रह्मा आये हैं?”
जब ब्रह्मा उनके पास गये और उन्हें प्रणाम किया, तो भगवान ने उनसे उनका कुशलक्षेम पूछा, जिसका ब्रह्मा ने पुष्टिपूर्वक उत्तर दिया। तब ब्रह्मा ने देखा कि आठ सिर वाले एक और ब्रह्मा भी भगवान कृष्ण को प्रणाम करने आये हैं। फिर सोलह सिर वाले, बत्तीस सिर वाले, सौ सिर वाले, हजार सिर वाले और भी कई ब्रह्मा वहाँ आये हैं। हमारे चार सिर वाले ब्रह्मा उनके सामने स्वयं को एक जुगनू के समान अनुभव कर रहे थे। भगवान अनंत हैं और इसलिए सब कुछ अनंत है।
अतः देवताओं की स्त्रियों के शरीर में इतनी अच्छी सुगंध समाहित होने के कारण, सम्पूर्ण जलाशय तथा सम्पूर्ण वातावरण सुगन्धित हो जाता है। आगे इस प्रकार वर्णन है:
तस्य द्रोण्यां भगवतो वरुणस्य महात्मन:।
उद्यानमृतुमन्नाम आक्रीडं सुरयोषिताम्॥
सर्वतोऽलङ्कृतं दिव्यैर्नित्यपुष्पफलद्रुमै:।
मन्दारै: पारिजातैश्च पाटलाशोकचम्पकै:॥
चूतै: पियालै: पनसैराम्रैराम्रातकैरपि।
क्रमुकैर्नारिकेलैश्च खर्जूरैर्बीजपूरकै:॥
मधुकै: शालतालैश्च तमालैरसनार्जुनै:।
अरिष्टोडुम्बरप्लक्षैर्वटै: किंशुकचन्दनै:॥
पिचुमर्दै: कोविदारै: सरलै: सुरदारुभि:।
द्राक्षेक्षुरम्भाजम्बुभिर्बदर्यक्षाभयामलै:॥
(श्रीमद् भागवत्म् 8.2.9-13)
त्रिकूट पर्वत की एक घाटी में ऋतुमत नामक एक उद्यान है। यह उद्यान वरुण देवता का है और देव-स्त्रीओं के लिए क्रीड़ा का स्थान है। वहाँ सभी ऋतुओं में फूल और फल आते हैं। उनमें मंदार, पारिजात, पाताल, अशोक, चम्पक, कूट, पियाल, पनस, आम, आम्रताक, क्रमुक, नारियल के पेड़, खजूर के पेड़ और अनार के पेड़ हैं। वहाँ मधुक, ताड़ के पेड़, तमाल, आसन, अर्जुन, अरिष्ट, उदम्बर, प्लक्ष, बरगद के पेड़, किंशुक और चंदन के पेड़ भी हैं।
यहाँ बहुत से फूलों के पेड़ों के विषय में बताया गया है। हम इनमें से कुछ ही पेड़ों से परिचित हैं। विदेशी भक्त अधिकांश इन पेड़ों के परिचय से अवगत नहीं होंगे। यहाँ (भारत में) में आपको बहुत सारे पेड़ मिल जाएँगे, किन्तु पश्चिमी देशों में नहीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि सर्दियों के मौसम में अधिक बर्फबारी होती है जिस कारण से वहाँ अधिकांश पेड़ नहीं हो पाते। इस क्षेत्र में और अन्य गर्म देशों में आपको ये पेड़ मिल जाएँगे।
त्रिकूट पर्वत की गुफाएँ देव-कन्याओं के क्रीड़ा-स्थल हैं। मौसमी फल-फूल वाले वृक्ष, जो पूरे वर्ष फलों और फूलों से लदे रहते हैं, भी वहाँ हैं। आपको पढ़ना होगा, मैं सब कुछ नहीं समझा पाऊँगा, क्योंकि उपयुक्त शब्द नहीं हैं, साथ ही वहाँ कई तरह के वृक्ष हैं। कुछ वृक्ष तो मैं जानता हूँ, लेकिन कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें मैंने कभी नहीं देखा। विभिन्न वृक्षों की जड़ी-बूटियों से आयुर्वेदिक औषधियाँ बनाने वाले लोग स्वयं स्वीकार करते हैं कि उन्हें भी सभी जड़ी-बूटियों के नाम या उनकी सामग्री के बारे में पता नहीं है। वे कहते हैं कि आयुर्वेद का विज्ञान वर्तमान में लुप्त हो गया है। आयुर्वेद विज्ञान का वर्णन अथर्ववेद में है। यह श्रीधन्वंतरि से आया है, जो दर्शाता है कि यह ज्ञान भगवान से आता है। आयुर्वेदिक चिकित्सकों का उपदेशात्मक चैनल टूट गया है। वे औषधियाँ तो बनाते हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि उनमें क्या-क्या सामग्री है या कौन-सी जड़ी-बूटियाँ इस्तेमाल करनी हैं। इस कारण उन्हें मान्यता भी नहीं मिलती।
अशोक, चम्पक, कूट, पियाल, पनासा, आम्र, अमृतक, क्रमुक, नारिकेल, खरजुराह, दरिम्ब, मधुक, शल, ताल, तमला, आसन, अर्जुन, अरिष्ट, उदुम्बर, प्लक्ष, अश्वत्थ, वट, किंशुक, चंदन, पिकुमारद, कोविदर, सरल, देबदारु, द्राक्षा, इक्षु, रम्भा, जम्बू, बदरी, अक्ष, अभय, अम्लकी, कोपित्त, जम्बिरा, वल्लटक आदि। वृक्षों की पूरी सूची यहाँ नहीं दी गई है, उनमें से केवल कुछ का ही उल्लेख किया गया है। केवल कुछ वृक्षों के नाम सुनकर ही हम अचेत हो जाते हैं। जिन वृक्षों का उल्लेख किया गया है, उनमें से कई को हम जानते ही नहीं हैं।
पश्चिमी देशों में समुद्र के देवता को नेपच्यून कहा जाता है, यहाँ भारत में हम उन्हें वरुण देव कहते हैं। त्रिकूट पर्वत पर उनका एक बगीचा है जिसे ऋतुमत कहते हैं। वरुण देव उन देवताओं (लोकपालों) में से एक हैं जो सृष्टि को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार हैं। ऊपर वर्णित पेड़ वही हैं जो उनके बगीचे में मौजूद हैं।
बिल्वै: कपित्थैर्जम्बीरैर्वृतो भल्लातकादिभि:।
तस्मिन्सर: सुविपुलं लसत्काञ्चनपङ्कजम्॥
कुमुदोत्पलकह्लारशतपत्रश्रियोर्जितम्।
मत्तषट्पदनिर्घुष्टं शकुन्तैश्च कलस्वनै:॥
हंसकारण्डवाकीर्णं चक्राह्वै: सारसैरपि।
जलकुक्कुटकोयष्टिदात्यूहकुलकूजितम्॥
(श्रीमद् भागवतम् 8.12-16)
दत्यौहा पक्षी केवल असम क्षेत्र में पाया जाता है, जो पुकारते समय ‘बहु कथा कहो’ जैसी ध्वनि निकालता है।
कूजितम् मत्स्यकच्छपसञ्चारचलत्पद्मरज:पय:।
कदम्बवेतसनलनीपवञ्जुलकैर्वृतम्॥
कुन्दै: कुरुबकाशोकै: शिरीषै: कूटजेङ्गुदै:।
कुब्जकै: स्वर्णयूथीभिर्नागपुन्नागजातिभि:॥
मल्लिकाशतपत्रैश्च माधवीजालकादिभि:।
शोभितं तीरजैश्चान्यैर्नित्यर्तुभिरलं द्रुमै:॥
(श्रीमद् भागवत्म् 8.17-19)
इस त्रिकूट पर्वत पर तुम्हें स्वर्ण-दल कमल मिलेंगे। कुमुद पुष्प भी हैं। कमल के समान ही एक और पुष्प है जिसे ‘शतपत्र’ कहते हैं। इस प्रकार प्रकृति की सुन्दरता चमक रही थी। मधु का स्वाद लेकर मदमस्त भौंरे वहाँ विचरण कर रहे हैं। तुम कल्पना करो कि वह कितना बड़ा उद्यान है। चक्रवाह, सारसा, जलकुक्कुट, कोयस्ति, दत्युहा आदि पक्षी वहाँ उपस्थित होकर मधुर स्वर में गा रहे हैं। साथ ही, मछलियाँ और कछुए भी उन सरोवरों में तैर रहे हैं। सरोवर कदंब पुष्प, वेतस पुष्प, नाल, नीप, वशजुलक, कुण्ड, कुरुबाक, अशोक, शिरीष, कुटज, इंगुद, कुब्जक, स्वर्ण-युति, नाग, पुन्नाग, जाति, मल्लिका, शतपत्र, जलाका और माधवी-लता से घिरा हुआ है। इस उद्यान में बहुत बड़ा सरोवर है जिसमें बहुत स्वच्छ और शुद्ध पानी है।
तत्रैकदा तद्गिरिकाननाश्रय: करेणुभिर्वारणयूथपश्चरन्।
सकण्टकं कीचकवेणुवेत्रवद् विशालगुल्मं प्ररुजन्वनस्पतीन्॥
(श्रीमद् भागवत्म् 8.2.20)
“एक बार हाथियों का सरदार, जो बहुत शक्तिशाली है और इस पर्वत का निवासी है, अपनी पत्नियों (हथिनियों), बच्चों (हाथियों के बच्चे) और अन्य साथियों के साथ उस सरोवर की ओर जा रहा था। आगे बढ़ते समय उन्होंने अपने रास्ते में किसी भी चीज़ की परवाह नहीं की और सीधे चलते रहे। अगर उनके रास्ते में कुछ भी आता है, तो वे उसे रौंद कर आगे बढ़ जाते हैं।”
तो हाथी बुलडोजर की तरह आगे बढ़ रहा था और अपने रास्ते में आने वाली हर चीज़ को ध्वस्त कर रहा था। अगर कोई चीज़ उसका रास्ता रोक रही है, तो वह दिशा नहीं बदलता, वह बस सीधा चलता रहा। उसके चलने से सभी पेड़ गिर गए और सभी अन्य जानवर उसे देखते ही भाग गए क्योंकि अगर वे उसके रास्ते में आए तो वह उन्हें मार देगा। यहाँ तक कि शेर भी उसकी गंध पाकर भाग गए। अन्य जंगली हाथी भी डर कर भाग गए। उन्होंने सोचा, ‘एक बहुत ही खास हाथी आ रहा है और अगर हम उसके रास्ते में रहे तो वह बर्दाश्त नहीं करेगा या माफ नहीं करेगा, वह हमें नष्ट कर देगा।’ जैसे ही हाथी बछड़ों और अन्य हाथियों के साथ सीधे सरोवर की ओर बढ़ा, बांस के पेड़, बेंत के पेड़ आदि गिर गए।
यद्गन्धमात्राद्धरयो गजेन्द्रा व्याघ्रादयो व्यालमृगा: सखड्गा:।
महोरगाश्चापि भयाद्द्रवन्ति सगौरकृष्णा: सरभाश्चमर्य:॥
(श्रीमद् भागवत्म् 8.2.21)
उस हाथी की गंध पाकर ही सभी हाथी, बाघ और अन्य क्रूर जानवर, जैसे शेर, गैंडे, बड़े सांप और काले और सफेद सरभ, डरकर भाग गए। चमारी गाय भी भाग गई।”
हाथी स्वेच्छा से उन जानवरों को मार देगा जो उससे अधिक शक्तिशाली थे, लेकिन छोटे जानवरों को नहीं जो शक्तिहीन थे। इसलिए छोटे जानवर
वृका वराहा महिषर्क्षशल्या गोपुच्छशालावृकमर्कटाश्च।
अन्यत्र क्षुद्रा हरिणा: शशादय श्चरन्त्यभीता यदनुग्रहेण॥
(श्रीमद् भागवत्म् 8.2.22)
“इस हाथी की कृपा से लोमड़ी, भेड़िये, भैंसे, भालू, सूअर, गोपच्छ, साही, बंदर, खरगोश, हिरण और कई अन्य छोटे जानवर जंगल में कहीं और घूमते रहते थे। वे उससे डरते नहीं थे।”
छोटे जानवर जो हमेशा शेर, बाघ आदि द्वारा मारे जाने से डरते थे, वे हाथी से नहीं डरते थे और निर्भय और खुशी से घूमते थे, फिर हाथी के प्रति सम्मान के कारण, वे उसके रास्ते से हट गए और जब वह पास आया तो उसके सामने खड़े नहीं हुए।