सन् 1947 में श्रील गुरुदेव जी ने ग्वालपाड़ा एवं कामरूप ज़िले के भक्तों के आमन्त्रण पर जिन-जिन स्थानों पर शुभ पदार्पण किया उनमें बिजनी, भाटिपाड़ा, हाउली व बरपेटा इत्यादि स्थान उल्लेखनीय हैं। हाउली में जो धर्म सभा हुई थी उसमे हिन्दू व मुसलमान परिवार के एक हज़ार से अधिक नर-नारी उपस्थित थे। प्रवचन के बीच में श्रोताओं की ओर से प्रश्न उठ सकते हैं, इस आशंका से श्रील गुरु महाराज जी ने अपने प्रवचन के प्रारम्भ में ही कह दिया कि यदि किसी का कोई प्रश्न हो तो वह प्रवचन के बीच में न पूछे। प्रश्नों के उत्तर के लिये सभा के बाद 15-20 मिनट का समय दिया जायेगा। इतना कहने पर भी प्रवचन के बीच में एक मौलवी साहब ने प्रश्न किया- ‘क्या आत्मा-परमात्मा को किसी ने देखा है? आप आत्मा-परमात्मा की बात कहकर दुनियाँ के लोगों को धोखा नहीं दे रहे हैं- इसका क्या प्रमाण है?’
मौलवी साहब का प्रश्न सभा के नियम के प्रतिकूल था, इसलिये उनके प्रश्न से श्रोता नाराज़ हो गये और उन्होंने श्रील गुरु महाराज जी को प्रश्न का उत्तर देने के लिये मना कर दिया। परन्तु उक्त प्रश्न का उत्तर न देने से शायद अज्ञ व्यक्ति यह समझें कि इसका उत्तर है ही नही, इसलिए श्रील गुरुदेव जी ने सभा में ही मौलवी साहब के प्रश्न का उत्तर दिया।
मौलवी साहब के हाथ में एक पुस्तक थी। श्रील गुरुदेव जी ने मौलवी साहब को पूछा- “ आपके हाथ में जो पुस्तक है, उसका नाम क्या है?”
मौलवी साहब पुस्तक को किताब कहते हैं व किताब का नाम बताते है।
श्री गुरु महाराज जी ने कहा, “बंगला, आसामी, हिन्दी तथा अंग्रेज़ी इत्यादि भाषाओँ का ज्ञान होने पर भी व आँखे ठीक होने पर भी मैं उस किताब का ‘वो’ नाम नहीं देख पर रहा हूँ- क्यों? मौलवी साहब मुझे धोखा नहीं दे रहे हैं, इसका क्या प्रमाण है?”
श्रील गुरु महाराज जी के प्रश्न को सुनकर मौलवी साहब के आसपास जो लोग बैठे थे उन्होंने भी किताब को अच्छी तरह से देखा और श्रील गुरु महाराज से कहा कि मौलवी साहब किताब का जो नाम बता रहे हैं वह ठीक है।
इसके उत्तर में श्रील गुरु महाराज जी ने कहा कि आप सब लोग मिल कर मुझे धोखा दे रहे हैं।
मौलवी साहब कुछ आश्चर्यचकित हुये और उन्होंने जानना चाहा कि श्रील गुरुदेव क्या देख रहे हैं व उनके इस प्रकार बोलने का अभिप्राय क्या है?
श्रील गुरु महाराज जी ने कहा कि मैं देखता हूँ कि एक कौवा स्याही पर बैठा होगा। बाद में वही आपकी किताब के ऊपर बैठ गया होगा, ये उसी में पैरों में निशान हैं।
श्रील गुरुदेव के इस प्रकार के मन्तव्य को सुनकर मौलवी साहब ने कहा कि आप निश्चय ही उर्दू नहीं जानते।
श्रील गुरु महाराज जी ने स्वीकार किया कि हाँ, मैं उर्दू नहीं जनता हूँ।
मौलवी साहब ने कहा, “तब आप उर्दू लेख को कैसे समझ सकोगे? आपको उर्दू सीखनी होगी। तब आप भी देख पाओगे कि इस किताब का वही है जो मैं बता रहा हूँ।”
श्रील गुरुदेव जी ने मौलवी साहब की बार पर ही उनको समझाते हुए कहा. “बहुत सी भाषाएँ जानते हुए भी, बहुत सा गयम होने पर भी, उर्दू भाषा को समझने के उर्दू ज्ञान आवश्यक है। जिस प्रकार आँखों की दृष्टि-शक्ति ठीक रहने पर भी, दृष्टि-शक्ति के पीछे उर्दू का ज्ञान न रहने पर उर्दू भाषा के रूप को व अर्थ को समझा नहीं जा सकता, देखा नहीं जा सकता, उसी प्रकार दुनियाँदारी का बहुत सा ज्ञान व योग्यता रहने पर भी, आत्मा व परमात्मा को समझने की विशेष योग्यता जब तक अर्जित नहीं हो जाती, तब तक आत्मा वा परमात्मा की अनुभूति नहीं होती।
दर्शन भी दो प्रकार का होता है- वेद दृक् व मांस दृक् अर्थात् ज्ञानमय दर्शन व मांसमय दर्शन। मांसमय नेत्रों से अर्थात् जड़ नेत्रों से जड़ वस्तु छोड़ कर अन्य वस्तु नहीं देखी जा सकती। जड़ातीत, इन्द्रियातीत वस्तु जब स्वयं प्रकाशित होती है तो उसके कृपा-अलोक से ही उसका दर्शन किया जा सकता है। सद्गुरु के श्रीचरणों में शरणागत व्यक्ति के ह्रदय में ही तत्त्व का अविर्भाव होता है।
( काम नेत्रों के द्वारा दर्शन नहीं होते हैं, प्रेम नेत्रों के द्वारा ही भगवान् के श्रीविग्रह के दर्शन होते )