श्रील गुरुदेव विजया-दशमी तिथि पर महाप्रभु की लीलाओं को स्मरण करते है और श्रीचैतन्य चरितामृत में वर्णित इस तिथि के महत्व के विषय में भी बताते हैं। इसके बाद वे प्रभुपाद के एक शिष्य उद्धारण प्रभु की एक घटना को स्मरण करते हुए शिक्षा देते है कि किस प्रकार से सेवा में रूचि रखनेवाला व्यक्ति उसे सौंपे गए किसी भी कठिन कार्य को पूरा कर सकता है। श्रील गुरुदेव संक्षिप्त में माधवाचार्य की महिमा का गान करते हैं। और वे कार्तिक व्रत का महत्व और कार्तिक व्रत में भजन किस प्रकार से किया जाना चाहिए उस विषय में विस्तार से बताते है। सेवा में पूर्ण रूप से तब तन्मय हो जाना तब संभवपर होता है जब सेव्यवस्तु के प्रति हमारी गाढ़ प्रीति हो और उस स्थिति में प्रवेश करने के चरण अष्ट-याम में बताये गए है।
श्रीश्री गुरु गौरांग राधाबल्लभ जी की इच्छा से बठिंडा में दामोदर व्रत पालन करने के लिए आने का अवसर मिला। श्रीश्री गुरु गौरांग राधाबल्लभ, राधामदनमोहन-गोविन्द-गोपीनाथ, राधामाधव सभी के प्रभु हैं। उनकी इच्छा से ही हम उनकी सेवा कर सकते हैं। अपनी किसी क्षमता से उनकी सेवा नहीं होती। वे जब सेवा ग्रहण करेंगे, तब हम उनकी सेवा कर सकते हैं। उनकी इच्छा हुई कि उनके पादपद्मों के सानिध्य में आ जाएँ, मेरे मंगल के लिए उनकी तथा उनके भक्तों की कृपा प्राप्त कर सकूँ। ऐसा हम जगत में सुनते हैं कि एक पत्ता भी भगवान की इच्छा के बिना हिल नहीं सकता। मुझे पहली बार भटिण्डा, पंजाब में दामोदर-व्रत करने का अवसर मिल रहा है। यह श्रीश्री गुरु गौरांग राधाबल्लभ जी की इच्छा से ही ऐसा हुआ है। वे प्रभु हैं तथा अन्य सभी उनके दास हैं जो विभिन्न रसों में उनकी सेवा कर रहे हैं।
आज शुभ तिथि है। जब हम लोग कल लुधियाना में थे वहाँ विजयदशमी मुख्य रूप से कल पालन की गई थी। परन्तु हरि-भक्ति-विलास में लिखा है कि यदि पूर्व तिथि सूर्योदय के बाद भी चलती रहे तो पालन की जाने वाले तिथि को विद्धा तिथि कहते हैं। वह भक्ति के लिए अच्छी नहीं होती। एकादशी में यदि अरुणोदय काल में भी पूर्व तिथि(दशमी) आ जाए, तब भी छोड़ना पड़ता है। उसी प्रकार दशमी में भी देखना पड़ता है कि सूर्योदय के बाद नवमी है अथवा नहीं। कल नवमी दोपहर दो बजे तक थी, जिस कारण दशमी तिथि विद्धा हो गई थी। इसलिए (बंगला)पंचांग में लिख दिया— ‘गोस्वामी मते पराय’, अर्थात् सनातन गोस्वामी जी के मतानुसार पर-विद्धा तिथि का पालन किया जाएगा। अतः हम लोग आज के दिन दशमी तिथि का पालन कर रहे हैं।
जो भक्त सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, भगवद्भक्त जिस प्रकार से व्यवस्था देते हैं, चैतन्य महाप्रभु के पार्षदों ने जिस प्रकार से व्यवस्था दी, उन्हें उसी व्यवस्था का आनुगत्य करना चाहिए। भक्ति होती है—आनुगत्यमयी। स्वतन्त्र रूप से कुछ करने से भक्ति नहीं होती। कर्म, ज्ञान, योग इत्यादि हो सकते हैं किन्तु भक्ति नहीं होती। भक्ति में आनुगत्य रहना चाहिए। षड्गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, गोपाल भट्ट गोस्वामी इत्यादि ने जो व्यवस्था दी है, वे भगवान के निजजन हैं, इसलिए हमें उसी प्रकार चलना चाहिए।
अतः विजयादशमी आज है, कल नहीं थी। बंगाल की रामायण में लिखा है कि नवमी में रावण का निधन होता है तथा दशमी तिथि में विजय होती है। किन्तु चैतन्य चरितामृत में महाप्रभु ने किस प्रकार से विचार दिया? विजयादशमी लंका में विजय करने का दिन है अर्थात् लंका के लिए यात्रा प्रारम्भ करेंगे। हनुमान जी को संपाति(जटायु के बड़े भाई) से यह समाचार मिला कि सीता देवी अशोक वन में हैं। वहाँ पर रावण ने सीता देवी को छिपा कर रखा है। हनुमान जी को वहाँ जाकर सीता देवी के दर्शन मिले तथा वापस आकर उन्होंने उनके बारे में समाचार दिया। जब संपाती द्वारा यह सूचना मिली कि रावण ने सीतादेवी को अपहरण कर अशोक वन में रखा है, सब शमिक वृक्ष के नीचे खड़े होकर सोचने लगे कि यह समुद्र पार करके लंका कौन जाएगा। कोई कहता है कि मैं 10 योजन (1 योजन= 12-15 कि॰मी॰) तक छलांग मार सकता हूँ, कोई कहता है 20 योजन, तो कोई कहता है 50 योजन। अंगद कहते हैं कि मैं 100 योजन पार कर सकता हूँ किन्तु मैं कार्य में सफल हो पाऊँगा अथवा नहीं यह नहीं जानता। हनुमान एक कोने में बैठे हैं, कुछ नहीं कह रहे। सबकी आँखें हनुमान जी पर टिकी हैं। सब कहते हैं कि यह कार्य करने में हनुमान ही समर्थ हैं। सेवक तो सभी हैं किन्तु तब भी सबकी आँखें हनुमान जी के ऊपर हैं। क्या भगवान पक्षपाती हैं? नहीं। हनुमान जी की सेवा-निष्ठा है; ऐसी निष्ठा है कि वे भगवान की शक्ति से असम्भव भी सम्भव कर सकते हैं। भगवान शक्ति संचार कर देते हैं।
हनुमान जी सब वैष्णवों की बात सुन रहे हैं। वानर होने पर भी श्रीरामचन्द्र के सेवक होने के कारण सब वैष्णव हैं। तब हनुमान जी इसे वैष्णवों की इच्छा समझते हुए लंका जाने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने महेंद्र पर्वत पर अपने शरीर को बढ़ा दिया तथा उनके विशाल शरीर ने पूरे आकाश का घेराव कर लिया। उनके शरीर से पहाड़ पिचक गया और वहाँ से पानी निकलने लगा। सब जानवरों ने समझा कि प्रलय आ गया। सब वहाँ से भागने लगे। हनुमानजी कहते हैं, “मैं लंका में सीता जी का अन्वेषण करने के लिए जा रहा हूँ। यदि सीता देवी का कुछ समाचार मिले तो ठीक है, अन्यथा पूरी लंका को उठाकर ले आऊँगा। जयराम!”
ऐसा नहीं है कि भगवान ने इन्हें अन्यों से अधिक शक्ति प्रदान कर दी। जब वैष्णव किसी सेवा के लिए हमें कहते हैं, हम पहले ही घबरा जाते हैं। वैष्णव लोग भी जानते हैं। हमारे गुरुजी भी जानते हैं। गुरुजी सर्वज्ञ हैं।
रासबिहारी एवेन्यू स्थित मठ में विग्रह प्रतिष्ठा होने के समय दस हज़ार व्यक्तियों को खिलाने की व्यवस्था करनी थी। एक भक्त रामनारायण भोजनाकरवाला ने सारे खर्च दे रहे थे। वे ट्रक के ट्रक भेज रहे थे। उस समय गुरु महाराज जी ने किसी ब्रह्मचारी को प्रसाद की व्यवस्था करने के लिए नहीं कहा। ब्रह्मचारी को बुलाया ही नहीं क्योंकि उन्हें कहने से वे इतने लोगों के प्रसाद की व्यवस्था करने के बारे में सुनते ही चकराकर गिर जाएँगे। इसलिए जो प्रभुपाद के समय के पुराने व्यक्ति थे, यद्यपि वृद्ध हो गए थे, उन उद्धारण प्रभु को बुलाया। किसी युवान ब्रह्मचारी को नहीं बुलाया। गुरु महाराज ने उनसे पूछा कि क्या वे यह दायित्व उठा सकते हैं। उन्होंने इस दायित्व को स्वीकार किया। गुरुजी ने उन्हें मसाले खरीदने के लिए कुछ रुपए दिए, बाद में और रुपए भी देंगे। उद्धारण प्रभु अच्छी रसोई बनाना जानते थे। उन्होंने सब मसाले ले लिए। गोविन्द प्रभु नामक एक व्यापारी उनमें बहुत श्रद्धा करते थे। गोविंद प्रभु ने नीचे दुकान खोल दी।विग्रह प्रतिष्ठा भी नीचे ही हुई। वहाँ पर जितना लकड़ी इत्यादि सामान था, वह सब हटाकर बड़े-बड़े चूल्हे बनाए। एक-एक टकने में डेढ़-दो मन खिचड़ी बनती है। खिचड़ी इत्यादि बनाने के लिए इस तरह के कई चूल्हे बना दिए। ब्रह्मचारी चाहे M.A. हो अथवा Ph.D. हो,सबको मसाला पिसना इत्यादि किसी न किसी सेवा में लगा देते। इस प्रकार उन्होंने दस हज़ार व्यक्तियों की रसोई बनाकर उन्हें खिलाया। यह सेवा एक बूढ़े व्यक्ति ने की। उन्हें कहाँ से शक्ति मिली? जब सेवा करने की प्रवृत्ति हो तो शक्ति अपने आप आ जाती है। जब पहले ही सेवा करने की इच्छा न हो तो क्या सेवा होगी?
श्रील प्रभुपाद का जन्मस्थान उद्धार करने के लिए कितने व्यक्ति, इस्कॉन इत्यादि गए परन्तु सब भाग गए। गुरुजी के सब गुरुभाइयों ने उनसे उस स्थान का संग्रह करने का अनुरोध किया। गुरुजी जो कार्य पकड़ेंगे, उसे पूर्ण अवश्य ही करेंगे। गुरुजी ने सोचा कि सब वैष्णवों की इच्छा है। उनके पीछे सब बड़े-बड़े व्यक्ति खड़े हो गए, जगन्नाथ जी, महाप्रभु जी सब खड़े हो गए। असम्भव भी सम्भव हो गया। वह तो हम लोग चिन्ता भी नहीं कर सकते थे। बाहरी दृष्टि से इतना गन्दा स्थान था, नाला था। हम लोग वहाँ पर दूर से प्रणाम करते थे। वहाँ पर पिछले चालीस वर्षों से किराएदार रहे थे। सब सम्भव हो गया।
तो रामचन्द्र जी के विजय उत्सव के सन्दर्भ में महाप्रभु ने यह विचार दिखाया कि ऐसा नहीं है कि नवमी में रावण निधन होने के कारण विजयादशमी मनाते हैं। इस तिथि में हनुमान जी गर्जन करते-करते लंका से लौटकर आए। सबको लगा कि अवश्य कुछ समाचार मिला है। तब सेतु बनाकर पार होकर जाने का निर्णय लिया। इसे कहते हैं—विजय। एक बार पुरुषोत्तम धाम में विजयादशमी के दिन महाप्रभु में हनुमान जी का भाव आ गया। वे स्वयं हनुमान बन गए तथा अपने सभी भक्तों को वानर सेना के रूप में सजाया। सब भक्त लड़ाई करने के लिए आ गए। महाप्रभु ने स्वयं एक पेड़ की बड़ी शाखा को लिया और छलांग मारकर लंकागड़(लंका नगरी की चारदीवारी) को गिरा दिया। महाप्रभु ने यह भाव लिया—
काँहारे रावणा’ प्रभु कहे क्रोधावेशे।
‘जगन्माता हरे पापी, मारिमु सवंशे॥
(चै॰च॰ मध्य 15.34)
महाप्रभु ने हनुमान जी जैसा भाव लिया। “रावण ने जगन्माता, सबकी माता, सीतादेवी का हरण किया है, इसलिए मैं उसे वंश सहित मार डालूँगा।” यह भक्ति होती है—क्रोध-भक्त द्वेषीजने।
गोसाञिर आवेश देखि’ लोके चमत्कार।
सर्वलोक ‘जय’ ‘जय’ करे बार बार॥
(चै॰च॰ मध्य 15.35)
श्रीमन् महाप्रभु की इस लीला को देखकर सब लोग ‘जय’ ‘जय’ उच्चारण करते हैं। हम लोगों के विचार से इसे विजयादशमी कहते हैं।
एक अन्य स्थान पर भी ऐसा दिखाया कि महाप्रभु किससे वशीभूत होते हैं। शचीमाता तो नवद्वीप मायापुर में थीं। उन्होंने विजयादशमी तिथि में अपने पुत्र गौर-गोपाल के लिए बहुत सारे व्यंजनों की रसोई की। वे हर समय महाप्रभु के विरह में रोने लगीं कि किसे भोग लगाऊँगी? गौर गोपाल नहीं है। (उस समय महाप्रभु पुरुषोत्तम धाम में थे) तब महाप्रभु वहाँ जाकर खाने लगे। महाप्रभु ने अपने सेवक को यह संदेश देकर भेजा, “मैंने संन्यास लेकर गलती की। मेरा प्रयोजन प्रेम है, संन्यास नहीं। शचीमाता ने जो भी प्रेम से दिया, महाप्रभु उसे खाने के लिए वहाँ पर चले गए। ‘सर्वोत्तम ब्रज प्रेम’ का स्वयं आस्वादन करने के लिए ही राधारानी का भाव लेकर महाप्रभु का आविर्भाव हुआ था। वे उसी प्रेम के वशीभूत हैं। उन्होंने बद्ध जीवों का उद्धार करने के लिए अपने पार्षदगणों को लेकर कुछ अन्य लीलाएँ भी कीं।
आज मध्वाचार्य जी की आविर्भाव तिथि है,हमारी गुरु-परंपरा में हम उन्हें प्रतिदिन स्मरण करते हैं। मध्वाचार्य साधारण व्यक्ति नहीं हैं। मध्वाचार्य हनुमान हैं। जो त्रेता युग में हनुमान हैं, द्वापरयुग में भीम हैं और वे ही कलियुग में मध्वाचार्य हैं। मध्वाचार्य जी की विचारधारा के अन्तर्गत कहते हैं — “रामकृष्ण वेदव्यासात्मक लक्ष्मी हयग्रीवाय नमः।” हनुमान के आराध्य हैं राम, भीम के आराध्य हैं कृष्ण और मध्वाचार्य के आराध्य हैं वेदव्यास मुनि। वे वेदव्यास मुनि के साक्षात् शिष्य हैं। मध्वाचार्य साक्षात् हनुमान थे, महाबलिष्ठ थे, भीम के अवतार।
उनके पिता जी का नाम मध्यगेह श्रीनारायण भट्ट और माताजी का नाम वेदवती देवी था। पजकक्षेत्र में उडीपी के पास 8 मील दूरी पर, वहाँ विमानगिरि है, पापनाशिनी नदी है, वहाँ पर उनका आविर्भाव हुआ। अरब समुद्र के तट से तीन मील पूर्व की ओर उडुपी है। उससे 8 मील पूर्व की तरफ पजकक्षेत्र है, विमान गिरी है वहाँ पर उनका आविर्भाव है।
एक बार अरब तट में जाकर उन्होंने देखा कि एक जहाज अटक गया। उस समय जहाज मशीन से नहीं चलता था, कपड़ा के पाल की सहायता से चलता था। तब उस नाँव के यात्रियों ने देखा कि एक महा साधु बैठा है, दूर से वे लोग मध्वाचार्य जी को प्रार्थना करते हैं कि हम लोग बहुत मुसीबत में हैं, आप कृपा करें। मध्वाचार्य ने दूर से ही मन्त्र जप करके कुछ ऐसी मुद्रा की कि वह फंसा हुआ कपड़ा खुल गया तथा जहाज चलने लगा। उन लोगों को बहुत आनन्द हुआ। तब उन लोगों ने मध्वाचार्य जी को बुलाया कि आपकी क्या सेवा कर सकते हैं? तब उन्होंने तिलक का मिटटी लेना स्वीकार किया। भीम है न, इसलिए सारा तिलक का पहाड़ उठा लिया। उठाकर जब उडीपी के पास लाकर रखा। जब वह तिलक का पहाड़ टूटकर गिरा, उसमें से दधिमंथन-दण्डयुक्त नर्तक गोपाल विग्रह निकला। पर्याय क्रम से उनकी सेवा होती है।
मध्वाचार्य जी ने अच्युतप्रेक्ष से संन्यास लिया। संन्यास के बाद उनका नाम पूर्णप्रज्ञतीर्थ हुआ। राज्याभिषेक के बाद आनन्दतीर्थ नाम हुआ। उसके बाद जब उनके अन्दर आचार्यत्व आ गया, तब मध्वाचार्य नाम से विख्यात हुए। बारह वर्ष की आयु में उन्होंने संन्यास लिया।
एक दिन वे अपने पिताजी से कहते हैं कि मैं शंकराचार्य जी के केवलाद्वैतवाद का खण्डन करूँगा। उस समय सब लोगों की शंकराचार्य के ऊपर श्रद्धा थी। उनके पिता ने कहा कि तुम्हारा यह घमण्ड ठीक नहीं है। शंकराचार्य तो सबके श्रद्धा-पात्र हैं। उन्होंने भगवान् विष्णु के आदेश से मायावाद प्रचार किया।
मायावादम् असच्छास्त्रं प्रच्छन्नं बुद्ध उच्यते।
मयैव कथितं देवी कलौ ब्राह्मण रूपिणा।।
(पद्मपुराण 6.236.7-11)
उन्होंने भगवान की आज्ञा से, सृष्टिवर्धन करने के लिए मायावाद प्रचार किया।
तो उनके पिताजी ने कहा कि तुम ऐसा घमण्ड मत करो। मेरी सूखी लाठी जैसे पेड़ होकर फल नहीं दे सकती, तुम भी उसी प्रकार कभी उनका मायावाद खण्डन नहीं कर सकते। मध्वाचार्य कहते हैं कि आपकी लाठी यदि पेड़ होकर फल दे तो क्या आप विश्वास करेंगे?
पिताजी ने कहा—हाँ। मध्वाचार्य ने लाठी को लिया और कहा–हे लाठी, मैं यदि मायावाद विचार को खण्डन कर सकूँ, आप इसी समय वृक्ष रूप से प्रकट हो जाओ तथा फल दो। वह लाठी वृक्ष बन गई एवं फल दिया। तब उन्होंने समझ लिया कि यह तो साधारण व्यक्ति नहीं है।
सम्प्रदाय विहीना ये मन्त्रास्ते विफल मताः
अथौ कलौ भविष्यन्ति चत्वरासम्प्रदयायेन
श्री, ब्रह्म, रूद्र सनक वैष्णवा क्षितिपावना।
(पद्मपुराण)
इसलिए इस कलियुग में अन्य कोई उपाय नहीं है, (सम्प्रदाय विहीन गुरु से मन्त्र ग्रहण करके) शतकल्प काल साधन करने से भी कोई फल प्राप्त नहीं होगा। हमारे परम गुरुजी ने इसमें बहुत आदर्श की बात दिखाई। जब भी कुछ हरिकथा बोलने गए, पहले गुरु-परम्परा को प्रणाम किया। जब कृपा उधर से नहीं आएगी, तो कथा होगी नहीं। उनके भजन रहस्य के प्राग्बन्ध में लिखा है कि यद्यपि महाप्रभु सिद्ध भूमिका में हैं, किन्तु सम्प्रदाय बिना मन्त्र निष्फल है। इसलिए यह शिक्षा देने के लिए उन्होंने मध्वाचार्य सम्प्रदाय को ग्रहण किया। ‘जीव ब्रह्मैव न परम्’—इस विचार का खण्डन किया। जब तक यह विचार रहे कि जीव ही भगवान है, वहाँ पर भक्ति हो ही नहीं सकती है। मध्वाचार्य जी ने मायावाद मत में 100 दोष दिखा दिए। इसलिए महाप्रभु ने इस(मध्व) सम्प्रदाय को स्वीकार किया। सभी वैष्णव सम्प्रदाय इस बात को मानते हैं कि आराध्य नित्य, आराधक नित्य तथा आराधना नित्य हैं।
ऋग्वेद मन्त्र का उच्चारण करके, उनको समझाया। श्री सम्प्रदाय का होता है रामानुज, ब्रह्म सम्प्रदाय का मध्वाचार्य, रुद्र सम्प्रदाय का विष्णुस्वामी, वल्लभाचार्य और सनक सम्प्रदाय निंबार्क आचार्य जी का होता है। मन्त्र सम्प्रदाय से आते हैं। सम्प्रदाय के बिना मन्त्र निष्फल हो जाएगा।
आज मध्वाचार्य जी की आविर्भाव तिथि है, वे मूल गुरु हैं। वे क्या नहीं कर सकते? महाशक्तिशाली हैं। मायावाद विचार, जो भक्ति के विरुद्ध है, वे उससे हम लोगों का उद्धार करें, शुद्ध भक्ति प्रदान करें। इसलिए आज की तिथि में हम मध्वाचार्य जी के पादपद्मों में अनन्त कोटि साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके उनकी कृपा प्रार्थना करेंगे।
यहाँ पर बहुत सारे स्थान के लोग हैं। यदि में अंग्रेज़ी भाषा में ही अधिक कहूँगा तो वे समझ नहीं पाएँगे। वहाँ(विदेश में) अंग्रेज़ी भाषा में कथा की जा सकती है; यहाँ नहीं कह सकता। इसलिए आप विदेशी भक्तों के लिए अंग्रेज़ी में कार्तिक मास की पुस्तक छपाई गई है। उसकी एक copy मदन गोपाल प्रभु के पास है, आप लोग उनसे यह ग्रंथ लेकर समझ सकते हैं। इसमें श्रील प्रभुपाद ने जो विचार लिखा है उसका थोड़ा चिन्ता करना चाहिए। उस विचार का पूरा पाठ तो हम नहीं करेंगे, संक्षेप से करेंगे। उसमें भक्तिविनोद ठाकुर, जो कि भगवान के निजजन हैं, ने कृपा परवश होकर भजन का रहस्य लिखा। रहस्य किसे कहते हैं? वहाँ पर वर्णन किया—
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्त भजनशीलेर इन्द्रियसमूहेर
प्रतीतिगत भाव प्रापंचिक मात्र नहे;
ताहा भावना पथेर अतीत अद्वयज्ञानेर साक्षात्
सान्निध्यवशे कालातीत हइया अतीन्द्रिय सेवापर।
अर्थात् स्थूल अथवा सूक्ष्म, समस्त प्रकार की उपाधियों से विनिर्मुक्त भजनशील व्यक्तियों की इन्द्रियों में स्फुरित होने वाले भाव प्रापंचिक(मायिक) नहीं होते; वे भावनापथ से अतीत अद्वयज्ञान के साक्षात् सान्निध्य हेतु कालातीत अतीन्द्रिय-सेवा के भाव हैं।
जब तक हमारा यह स्थूल-सूक्ष्म अभिमान रहेगा तब तक भजन राज्य में हमारा प्रवेश नहीं होगा।
वैष्णवों में तीन प्रकार की श्रेणियाँ होती हैं—कनिष्ठ, मध्यम, उत्तम। कनिष्ठ वैष्णव वह लोग मूर्ति की पूजा करते हैं।
अर्च्चायामेव हरये पूजां य: श्रद्धयेहते।
न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्त: प्राकृत: स्मृत:॥
(श्रीमद्भागवत 11.2.47)
कनिष्ठ वैष्णव भक्तों की पूजा नहीं करते, अन्य देवी-देवताओं की भी पूजा नहीं करते। वे भगवान् को ही मानते हैं किन्तु उन्हें भगवान के तत्त्व के बारे में सम्यक् रूप से ज्ञान नहीं होता। यद्यपि भागवत में वर्णित नवधा भक्ति में अर्चन भी एक अंग है किन्तु क्योंकि कनिष्ठाधिकारी व्यक्ति की भक्तों की सेवा में रुचि नहीं होती, यदि उसकी देव-देवी की सेवा में रुचि होगी तब वह भक्त ही नहीं है। उसने एक ही भगवान को माना, परमेश्वर की ही सेवा करता है किन्तु वे भक्तों की पूजा नहीं करता है। अतः उसका दर्शन पूर्ण नहीं हुआ, अधूरा रह गया। इसलिए उन्हें धीरे-धीरे क्रमपूर्वक आगे बढ़ाने के लिए पूजा का अभ्यास करवाते हैं। अर्चन विधिमार्ग-गत भजन का एक अंग है, total (सम्पूर्ण) भजन नहीं है।
पूर्ण भजन राग मार्ग में ही होता है, जिसमें भगवान में अनुराग होता है। अर्चन में स्थूल व सूक्ष्म शरीर का सम्बन्ध है परन्तु भजन राज्य में स्थूल-सूक्ष्म शरीर से अतीत आत्मा का सम्बन्ध है। वह साक्षात् भगवान के साथ प्रीति सम्बन्ध युक्त है। उसी प्रीति सम्बन्ध युक्त अवस्था में भजन होता है। भजन में कृष्ण को अपना प्रिय सम्बन्धी देखते हैं कि वे हमारे प्रियतम हैं। तब साधक सब प्रकार की सेवा करता है। ‘यह सेवा करेंगे, यह नहीं करेंगे’ यह भक्ति नहीं है। प्रियतम के लिए हर प्रकार की सेवा करने के लिए तैयार हैं। राधारानी श्रीकृष्ण की सारी सेवाएँ स्वयं ही करना चाहती हैं; यदि कोई श्रीकृष्ण की सेवा कर दे तो वे उसके प्रति कृतज्ञ हो जाती हैं। क्योंकि उनका कृष्ण से सम्बन्ध है। उसी सम्बन्ध को लेकर कृष्ण की पूरी सेवा वे अकेले ही कर सकती हैं। यह सम्बन्ध बद्ध जीव में शीघ्रता से नहीं होता है। इसलिए कर्मी, ज्ञानी, योगी व्यक्तियों की भजन रहस्य में रुचि उत्पन्न नहीं होती। वे सांसारिक लाभ चाहते हैं। यदि हमारी जागतिक वस्तुएँ, मुक्ति अथवा सिद्धि प्राप्त करने की इच्छा है, तो भजन रहस्य में हमारी रुचि नहीं होगी।
परम श्रद्धावन्त जनगणेर ज्ञातव्य विषय
गुरु उपदिष्ट विशेषत्वइ ‘रहस्य’ नामे अभिहित
अर्थात् भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं परम श्रद्धावन्त जन(जो इस बात में प्रतिष्ठित हैं कि भगवान की सेवा से सभी की सेवा हो जाती है) का जानने योग्य, सद्गुरु द्वारा उपदेश दिया गया विशेषत्व ही रहस्य है। जिनकी भौतिक लाभ अथवा मृत्यु के बाद स्वर्ग इत्यादि का लाभ, मुक्ति, सिद्धि इत्यादि प्राप्त करने की अभिलाषा रहती है, उनकी अष्टकालीय लीला में रुचि नहीं होती।
भक्तिरसामृतसिन्धु में 64 प्रकार की भक्ति का उल्लेख किया गया है। उनमें पांच प्रकार की भक्ति मुख्य हैं तथा उनमें भी नाम संकीर्तन सर्वश्रेष्ठ है। प्राग्बन्ध में आगे लिखा है—
सेवोन्मुख शुद्धभक्त भोगी वा त्यागी
बद्ध-अभक्तेर संग अभीष्टलाभेर अन्तराय बलिया जानेन।
भोगी अथवा त्यागी बद्ध-अभक्त का संग अभीष्ट-प्राप्ति में अन्तराय(बाधा) है। हम भोग भी नहीं कर सकते तथा त्याग भी नहीं कर सकते। भोक्ता तो भगवान हैं तथा सारी सम्पदा भगवान की है, अतः हम क्या त्याग करेंगे? क्या हमारा कुछ है जिसे हम त्याग करें? इसलिए जिनकी भोग प्रवृत्ति अथवा त्याग प्रवृत्ति है, जो कि भक्ति के विरुद्ध हैं, उनकी भजनरहस्य में रुचि नहीं होती। इसलिए उनकी अष्टकाल चिद्-प्रकाशित भजनराज्य में प्रविष्ट होने की योग्यता नहीं है। अष्टकाल सेवा तब होती है जब भगवान के साथ प्रेम सम्बन्ध होता है। भक्तिविनोद ठाकुर अपनी गीति में भी राधाकृष्ण के पास प्रार्थना करते हैं—
सिद्ध-देह दिया, वृन्दावन माझे,
सेवामृत कर दान।
पियाइया प्रेम, मत्त करि मोरे,
शुन निज गुणगान॥
भजन राज्य में प्राकृत शरीर, सूक्ष्म शरीर से पूर्ण भजन हो ही नहीं सकता है। गाढ़ प्रेम से पूर्ण भजन होता है। इसलिए उसमें प्रवेश करने के लिए ही अष्ट याम का क्रम दिखाया गया है। दिन और रात्रि को आठ याम में विभक्त किया गया है—दिन में तीन, रात में तीन, प्रातःकाल में एक व सांय के समय में एक। इस प्रकार आठ याम होते हैं।
सकल समये सर्वतोभावे ऐकान्तिक
निष्ठा सह कृष्णभजन वैष्णवेरइ सम्भव।
वैष्णव हर समय उसी सम्बन्ध में प्रतिष्ठित हैं। अन्य कोई चिन्ता उनके अन्दर आएगी ही नहीं। वे समझते हैं—“कृष्ण हमारा प्रियतम सखा है, हमारा प्रियतम पुत्र है, हमारा प्रियतम पति है, हमारा प्रभु है।” वे इसी भाव में तन्मय रहते हैं। तन्मय रहने से कभी सेवा में विघ्न नहीं होता।
लब्धस्वरूप भजनपर वैष्णवगण निरन्तर
कृष्णसेवन-पर श्रीगौरसुन्दरेर शिक्षाष्टकेर श्लोकगुलि अष्टयामोचित।
महाप्रभु द्वारा रचित शिक्षाष्टक के आठ श्लोक अष्टयाम के अनुकूल भावमय हैं। इसलिए ऐसा कहा गया है कि हमें उन्हें स्मरण करना चाहिए। रूप गोस्वामी के उपदेशामृत को भी याद करना चाहिए। हम लोग प्रतिवर्ष शिक्षाष्टक व उपदेशामृत का गान करते हैं क्योंकि प्रभुपाद ने स्वयं ऐसा करने के लिए कहा है। केवल एक मास ही स्मरण करने से क्या होगा? बाद में भूल जाते हैं। इसलिए हमें इसका चिन्तन करना चाहिए।
चौंसठ प्रकार की भक्ति में भी पाँच प्रकार की भक्ति को मुख्य बताया गया—
साधु-संग, नाम-कीर्तन, भागवत-श्रवण।
मथुरा-वास, श्रीमूर्तीर श्रद्धाय सेवन॥
इनमें भी नाम संकीर्तन सबसे श्रेष्ठ है। यह जो महाप्रभु ने कहा, उसमें हमारा विश्वास होना चाहिए। ध्रुव जी का विशेष गुण क्या है?
जो माताजी से सुना, जो गुरुजी से सुना, सम्पूर्ण रूप से ग्रहण कर लिया। यदि हम लोग भी ग्रहण करेंगे तो अवश्य सिद्धि होगी।
महाप्रभु ने झूठ नहीं कहा।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
हम लोग तो भजन करने के लिए आए हैं। भक्तिविनोद ठाकुर ने इसका अर्थ लिखा—
हे राधे, हे कृष्ण, हे राधे, हे कृष्ण,
हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे राधे, हे राधे।
हे राधे, हे राधारमण, हे राधे, हे राधारमण,
हे राधारमण, हे राधारमण, हे राधे, हे राधे॥
प्रभु कहे कहिलाम एइ महामन्त्र।
इहा जप गिया सबे करिया निर्बन्ध॥
यह महाप्रभु की आज्ञा है। महाप्रभु तो हम सब के मूल हैं। वे राधारानी का भाव लेकर यह आज्ञा कर रहे हैं। संख्या रखकर जप करना चाहिए।
इहा हैते सर्वसिद्धि हइबे सभार
सर्वक्षण बल इथे विधि नाहि आर॥
महामन्त्र से सब प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होंगी। सब समय महामन्त्र करना चाहिए, इसमें किसी प्रकार का विधि-निषेध का विचार नहीं है। यदि हम सोचें कि हम इधर-उधर ध्यान देते हुए हरिनाम कर लेंगे, ऐसा नहीं है। महाप्रभु की क्या आज्ञा है? हमें उनकी आज्ञा को पूर्ण रूप से स्वीकार करना होगा, जिस प्रकार ध्रुव महाराज ने अपनी माताजी तथा गुरुजी की शिक्षाओं को पूर्ण रूप से ग्रहण किया। वे चरम लक्ष्य प्राप्त करने में सफल हुए। हमें महाप्रभु की आज्ञा को स्वीकार करना होगा, स्वयं भगवान ने यह आदेश दिया है और आप फिर भी विचार कर रहे हैं?
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
संबोधनात्मक, उच्चारण करके बुलाने के लिए। उसका अर्थ भी बतला दिया।
प्रभु कहे कहिलाम एइ महामन्त्र।
इहा जप गिया सबे करिया निर्बन्ध॥
इहा हैते सर्वसिद्धि हइबे सभार
सर्वक्षण बल इथे विधि नाहि आर॥
सब समय कहो। किसी ने प्रभुपाद को पत्र लिखकर पूछा, “मेरा थोड़ा उच्च स्वर से कीर्तन करते हुए निर्बन्ध करके हरिनाम करने की इच्छा है।” ऐसा सुनकर प्रभुपाद ने कहा, “यह सुनकर मैं परम आनन्दित हो गया।”
नाम तथा नामी अभेद हैं। भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला इत्यादि अपने कल्पित भाव से चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। तुम निरपराध होकर हरिनाम करते रहो। सभी तुम्हारे हृदय में प्रकाशित होगा। किसी प्रकार का कृत्रिम प्रयास मत करो, हरिनाम करो। यह श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर का आदेश है। तुम निष्ठा के साथ, दस नामापराध छोड़ते हुए हरिनाम करो।
कि भोजने…
खाने के समय भी हरिनाम करना चाहिए। “उस समय तो यह देखना पड़ेगा कि खाना कैसा बना है”—ऐसा नहीं है। उस समय भी भगवान का नाम करो।
महाप्रसादे गोविन्दे, नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे।
स्वल्पपुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते॥
जिस प्रकार अभी भी होता है। कि शयने…. सोने के समय भी वही चिन्ता करो। माला की क्या आवश्यकता है, भीतर में भी हरिनाम हो सकता है। कौन जानता है? भीतर में हम ज़ोर से हरिनाम कर सकते हैं। बाहर में दिखाने की क्या आवश्यकता है? इसलिए हर समय भगवान की चिन्ता करो और भगवान को बुलाओ। यह मेरी आज्ञा है। इस तुम्हें सब कुछ प्राप्त हो जाएगा। इस प्रकार चिन्तन करके हमें कार्तिक व्रत करना चाहिए।
वाञ्छा…