उनके आविर्भाव के लिए स्वयं को तैयार करें

वृन्दावन धाम में वृन्दावनचन्द्र कृष्ण व उनके निजजनों की कृपा बिना कोई नहीं आ सकता है। यदि किसी का कोई अपराध है, वह वृन्दावन धाम में नहीं आ सकता है। किस प्रकार से आया जाएगा? वैष्णव की कृपा सर्वोपरि है। उनकी कृपा से सब सम्भव है। वे अपराधी को भी क्षमा कर देते हैं। हरिदास ठाकुर को जल्लादों ने 22 बाज़ार में कोड़े मारे। भगवान का आविर्भाव तो बहुत समय बाद हुआ किन्तु उन्हें बचाने के लिए भगवान अवतीर्ण होने के लिए तैयार हो गए। परन्तु हरिदास ठाकुर प्रार्थना करने लगे कि इन जल्लादों को कुछ ज्ञान नहीं है; आप कृपा करके इनका अपराध मत लेना। जल्लाद हरिदास जी को जब भी मारते, वे पुनः पुनः भगवान से यही प्रार्थना करते। वैष्णव की कृपा इस प्रकार बलवान है स्वयं प्रकट होकर भी भगवान ने जल्लादों को मारने का साहस नहीं किया।

जहाँ काम तांहा नाहि राम।
रवि रजनी नाहि मिले एक ठाम॥

अपनी इन्द्रियों की प्रीतिवाञ्छा जहाँ रहती है, वहाँ राम नहीं हैं, राम का धाम नहीं है, राम के पार्षद नहीं हैं, नाम-रूप-गुण-लीला कुछ भी नहीं है। किसी का संग प्राप्त नहीं हो सकता। बाह्य रूप से तो वृन्दावन धाम में आ गए किन्तु वृन्दावन धाम का स्पर्श नहीं हुआ।

कल श्रीकृष्ण की आविर्भाव तिथि है। श्रीकृष्ण का आविर्भाव मथुरा धाम में हुआ। वसुदेव कृष्ण को मथुरा धाम से गोकुल ले गए तथा योगमाया के प्रभाव से बलदेव भी गोकुल चले गए। तथा योगमाया को गोकुल से ले आए। गोकुल में आविर्भूत होकर श्रीकृष्ण ने ब्रजधाम में सब जगह लीला की। श्रील रूप गोस्वामी कहते हैं— ‘वैकुण्ठाज्जनितो वरा मधुपुरी’ — वैकुण्ठ से भी मथुरा श्रेष्ठ है क्योंकि वहाँ पर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। स्वयं भगवान ने जन्मलीला की। भगवान होते हुए भी अपने वात्सल्य रस की सेवा प्रदान करने के लिए वसुदेव-देवकी को वासुदेव रूप से तथा नन्द-यशोदा को नन्दनन्दन कृष्ण रूप से अवलम्बन करके प्रकट हुए। दशरथ महाराज और कौशल्या माता ने रामचन्द्र को पैदा नहीं किया। नन्द महाराज-यशोदा देवी ने कृष्ण को पैदा नहीं किया। देवकी-वसुदेव ने भी नहीं किया। कृष्ण पहले चार भुजाएँ लेकर शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी नारायण रूप से प्रकट हुए; गर्भ से उत्पन्न नहीं हुए। तत्पश्चात् देवकी-वसुदेव की प्रार्थना से द्विभुज हो गए। इस प्रकार भगवान मथुरा में आविर्भूत हुए तथा वसुदेव उन्हें वहाँ से गोकुल छोड़ आए। गोकुल में भगवान में सब लीलाएँ कीं। कृष्ण के बाहर कुछ भी नहीं है। मथुरा से भी श्रेष्ठ वृन्दावन, वृन्दावन से श्रेष्ठ गोवर्धन तथा गोवर्धन से भी श्रेष्ठ राधाकुण्ड है। लीला रस विचार से वृन्दावन में कृष्ण अभी भी वह लीला कर रहे हैं।

अद्यापिह सेइ लीला करे गौर(कृष्ण)राय।
कोन कोन भाग्यवान देखिवारे पाय।।

अभी भी कृष्ण यहाँ पर वह लीला कर रहे हैं। प्रत्येक रेणु में कृष्ण का स्पर्श है। किन्तु कोई भाग्यवान ही वह लीला दर्शन कर सकता है। मेरे समान अधम व्यक्ति; जिसके भीतर कामना है, भोग-प्रवृत्ति है, कृष्ण को छोड़कर अन्य कुछ कामना है, वह वंचित है। केवल स्थूल रूप से यहाँ आने से क्या होगा? धाम तो है किन्तु ऐसे व्यक्तियों के लिए माया के आवरण से ढक गया है। इस विषय में भक्तिविनोद ठाकुर ने वर्णन किया है। एक बार किसी ने भक्तिविनोद ठाकुर से पूछा, “नवद्वीप धाम गौरांग महाप्रभु से अभिन्न है। गौरांग महाप्रभु औदार्य-लीलामय विग्रह हैं; उन्होंने पापी-अपराधी सब पर कृपा की। नवद्वीप धाम भी कृपामय है। परन्तु वहाँ पर देखा कि बहुत लोग बहुत गलत कार्य कर रहे हैं। नवदीप धाम में रहकर भी वह ऐसा कैसे कर सकते हैं?”

तब भक्ति विनोद ठाकुर ने कहा, “भगवान की तीन शक्तियाँ हैं—अन्तरंगा शक्ति, बहिरंगा शक्ति एवं तटस्था शक्ति(जीव शक्ति)। अनन्त शक्तियां है किन्तु तीन प्रधान हैं। अन्तरंगा शक्ति से चिन्मय जगत—बैकुण्ठ, गोलोक वृन्दावन, नित्य चिन्मय धाम तथा बहिरंगा शक्ति से जड़ जगत प्रकट होते हैं। जो भगवान को भूल गए तथा जिन्होंने संसार को भोग करने के लिए इच्छा की उनके लिए यह कैदखाना(कारागार) बनाया गया। यहाँ जीव जन्म-मृत्यु इत्यादि त्रिताप से जल रहा है। यह बहिरंगा शक्ति भी भगवान की ही है; भगवान से भिन्न नहीं है। किन्तु जो उन्मुख होते हैं, उन्हें चिन्मय शक्ति अर्थात् भगवान के शुद्ध भक्त भगवान के पास ले जाते हैं तथा जो विमुख होते हैं, उन्हें महामाया आकर आवरण करके संसार में गिरा देती है।

भगवान के नाम रूप-गुण-लीला-परिकर-धाम सब एक ही हैं, अलग नहीं हैं। भगवान में ही हैं। धाम में भी बहिरंगा तथा अन्तरंगा है। जो भगवद्विमुख हैं वे समझते हैं कि उन्होंने धाम का स्पर्श कर लिया। वास्तव में वे धाम में नहीं हैं, धाम के बाहर माया के आवरण में हैं तथा आवरण में रहकर घृणित कर्म करते हैं।

धाम चिन्मय होता है। धाम की सभी वस्तुएँ चिन्मय हैं। हमने बलदेव जी की आविर्भाव तिथि में यह श्रवण किया था कि बलदेव दस देह धारण करते हुए भगवान की सेवा करते हैं—भगवान का सिंहासन, पादुका, वस्त्र, आराम का स्थान, छत्र, वंशी इत्यादि। भगवान के जितना भी सेवा के उपकरण हैं, सब चिन्मय हैं। भगवान का आवास अर्थात् घर भी चिन्मय है। घर भी चल भी सकता है, मकान बात कर सकता है। सामान्य सांसारिक व्यक्तियों को लगता है कि यह सब गौड़ीय मठ के स्वकल्पित विचार हैं; हम इनपर विश्वास नहीं करते। वे सोचते हैं कि हम झूठ बोल रहे हैं। क्या एक मकान बात कर सकता है? हम प्राकृत नेत्रों से संसार का मकान देखते हैं, किन्तु वहाँ पर सब कुछ ही चिन्मय है। मकान भी चिन्मय है; वह बात कर सकता है। वंशी भी चिन्मय है। कृष्ण जिस वंशी को बजाते हैं, वही वंशी महाप्रभु की लीला पुष्टि करने के लिए वंशीवदनानन्द ठाकुर रूप से प्रकट हुई। देखने में मनुष्य का शरीर है किन्तु वंशी से अभिन्न ही हैं; वे बात करते हैं, चलते हैं, सभी क्रियाएँ करते हैं।

वहाँ सभी वस्तुएँ चिन्मय हैं। अपनी सत्ता का विस्तार करके बलदेव कृष्ण की सेवा कर रहे हैं। सब बलदेव तत्त्व ही है। ऐसा कि कृष्ण का विग्रह भी बलदेव तत्त्व है। बलदेव सन्धिनीशक्तिमत् विग्रह हैं, राधारानी ह्लादिनीशक्तिमत् विग्रह हैं। भगवान की स्वरूप शक्ति की तीन प्रकार की वृत्ति है—सन्धिनी, संवित्, ह्लादिनी। प्रधान रूप से उनका संगम है इसलिए संवित्शक्तिमत् विग्रह हैं—कृष्ण। कृष्ण की प्रत्येक वस्तु चिन्मय है। जड़ शरीर से वहाँ प्रवेश नहीं होगा। चिन्मय जगत में चिन्मय शरीर से प्रवेश होता है।

 

आज अधिवास तिथि में क्या कर्तव्य है? शुभकर्म का पूर्वानुष्ठान। भगवत् भक्तिभाव युक्त सेवा से पहले जो प्राथमिक कृत्य है, प्राक्प्रस्तुति है, वह होता है—अधिवास। कल भगवान का आविर्भाव होगा आज हम लोगों को तैयार रहना पड़ेगा। भगवान प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान हैं; ध्रुव जी पर कृपा करेंगे, प्रह्लाद पर करेंगे, अम्बरीष महाराज जी पर करेंगे, मुझपर नहीं करेंगे, ऐसा नहीं है।

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 9.29)

भगवान कहते हैं—मैं प्रत्येक व्यक्ति के प्रति समान हूँ। किसी के प्रति मेरा विद्वेष नहीं है। सब मेरे लिए समान हैं। जो मेरा भक्ति द्वारा भजन करते हैं, वे मुझमें रहते हैं तथा मैं उनमें रहता हूँ।

कल कृष्ण की आविर्भाव तिथि है। हमने गुरुवर्गों से सुना है कि भगवान की आविर्भाव लीला नित्य है। ब्रह्माण्ड में सब जीवों के उद्धार करने के लिए भगवान आते हैं। भगवान अनन्त हैं, उनके ब्रह्माण्ड भी अनन्त हैं—अनन्त जीव, अनन्त वैकुण्ठ, अनन्त गोलोक वृन्दावन। भगवान का कोई शेष प्राप्त नहीं कर सकता। यदि कोई उन्हें सीमा में ले लेगा तो अनन्त नाम पर कलंक लग जाएगा। हम कितने वैकुण्ठों के बारे में जानते हैं? हमने थोड़ा बहुत शास्त्र में उनके विषय में पढ़ा है। भगवान अनन्त गोलोक वृन्दावन में अनन्त स्वरूपों में लीला करते हैं। अभी यहीं पृथ्वी पर कृष्ण जन्मलीला की, जन्म के बाद शैशव लीला की, उसके पश्चात् क्रमशः बाल्य लीला, पौगण्ड लीला, किशोर लीला इत्यादि लीलाएँ कीं। ये जितनी भी लीलाएँ हैं, सब नित्य हैं। एक लीला यहाँ समाप्त होगी, साथ ही साथ किसी अन्य ब्रह्माण्ड में वह लीला शुरू हो जाएगी। यह प्रक्रिया निरन्तर तथा व्यवधान रहित है। यह कभी समाप्त नहीं होती। यह भगवान की अचिन्त्य शक्ति है। अभी इस ब्रह्माण्ड में भगवान ने आविर्भाव लीला की, यहाँ आविर्भाव समाप्त होने के साथ-साथ में किसी अन्य ब्रह्माण्ड में आविर्भाव लीला प्रारम्भ हो जाती है। इसलिए इसे नित्यलीला कहते हैं।

नित्यलीला का एक और अर्थ हमने अपने गुरुवर्गों से सुना है, जो हम लोगों को समझने की आवश्यकता है। भगवान अपने शुद्धभक्तों के हृदय में प्रकट होते हैं। कल भगवान की आविर्भाव तिथि है, किसी न किसी भक्त पर वे वे कृपा करेंगे, किसी न किसी भक्त को अवलम्बन करके प्रकाशित होंगे। इसलिए आज प्राक्प्रस्तुति होती है। भगवान के प्रकट होने पर क्या होगा?

यस्मिन् ज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति।
यस्मिन् प्राप्ते सर्वमिदं प्राप्तं भवति॥

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।

(श्रीमद्भगवद्गीता 6.22)

 

जिनमें स्थित होने से भीषण दुःख आकर भी विचलित नहीं कर सकता, जिन्हें लाभ करने से मन में उससे अधिक प्राप्ति अनुभव नहीं होती, वे भगवान हैं। इसलिए जब भगवान आविर्भूत हो जाएँगे तब कोई समस्या नहीं रहेगी। जब तक आविर्भूत नहीं होंगे तब तक समस्या रहेगी। किसके हृदय में भगवान आएँगे? श्रीमद्भागवत् के चतुर्थ स्कन्ध में ध्रुव चरित्र से पहले लिखा है, यह शिवजी की उक्ति है—

सत्त्वं विशुद्धं वसुदेवशब्दितं
यदीयते तत्र पुमानपावृत:।
सत्त्वे च तस्मिन्भगवान्वासुदेवो
ह्यधोक्षजो मे नमसा विधीयते॥
(श्रीमद्भागवत 4.3.23)

वसुदेव-देवकी को अवलम्बन करके वासुदेव कृष्ण का आविर्भाव होता है। वह वसुदेव कौन हैं? विशुद्ध अन्तःकरण। जिस हृदय में विषयों की गंध भी नहीं है। ऐसा कौन कह रहा है? शिवजी महाराज।

बलदेव की कृपा होने से स्वरूप भ्रम अनर्थ रूपी धेनुकासुर(गर्दभासुर) का वध सम्भव है। अपने स्वरूप की जब विस्मृति होती है तथा यह भ्रम हो जाता है कि मैं शरीर हूँ, तब असत् वस्तु के लिए कामना उत्पन्न होती है। जितने भी पाप किए जाते हैं, गलत काम करते हैं, सभी शरीर में ‘मैं’ बुद्धि होने से ही होते हैं। स्व स्वरूप—मैं कौन हूँ?—हम यह भूल गए। परतत्त्व कौन है? उनसे मेरा क्या सम्बन्ध है? परतत्त्व भगवान का स्वरूप, मेरा स्वरूप, साधन क्या है, साध्य क्या है, मैं सब भूल गया। इसे कहते हैं—गधा। जगत की विद्या प्राप्त होने से ही विद्वान नहीं बना जाता।

जड़ विद्या यत, मायार वैभव,
तोमार भजने बाधा।
मोह-जनमिया, अनित्य-संसारे,
जीवके करये गाधा॥

जड़जगत की जितनी भी विद्या है, जिस विद्या द्वारा के मैं स्वयं को भूल जाता हूँ, भगवान के साथ अपने सम्बन्ध को पहचान नहीं पाता तथा जगत की नाशवान वस्तु में आसक्त हूँ, अज्ञान में फंसा हूँ, उस जड़विद्या का फायदा क्या है?

जड़ विद्या यत, मायार वैभव,
तोमार भजने बाधा।
मोह-जनमिया, अनित्य-संसारे,
जीवके करये गाधा॥

गधा बनकर संसार का बोझ वहन कर रहे हैं। उसी अविद्या रूपी धेनुकासुर का नाश करने के लिए ही बलदेव का आविर्भाव होता है। बलदेव की कृपा के बिना गर्दभासुर कैसे जाएगा? इसके अतिरिक्त प्रलम्बासुर भी हमारे हृदय में वास करता है। वह प्रलम्बासुर क्या है? अवैध स्त्रीसंग, लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा इत्यादि। जहाँ पर कनक, कामिनी, प्रतिष्ठा इत्यादि की आकांक्षा होती है, वहाँ पर भगवान का आविर्भाव नहीं होगा। हृदय दूषित हो गया है। मलिन हृदय में भगवान का आविर्भाव नहीं होगा। अगरतला में किसी प्रसंग में मैंने चैतन्य महाप्रभु का यह श्लोक स्मरण किया था—

निष्किञ्चनस्य भगवद्भजनोन्मुखस्य
पारं परं जिगमिषोर्भवसागरस्य।
सन्दर्शनं विषयिणामथ योषिताञ्च
हा हन्त हन्त विषभक्षणतोऽप्यसाधु॥
(श्रीचैतन्यचन्द्रोदय नाटक 8.24/ चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 11.8)

हमने चैतन्य महाप्रभु का आश्रय लिया है तथा वे स्वयं यह श्लोक कह रहे हैं। जो लोग निष्किंचन होकर सब कुछ छोड़कर, अपने शरीर और शरीर-सम्बन्धी व्यक्तियों को छोड़कर, असत् आकांक्षा छोड़कर, त्यागी होकर संसार समुद्र से पार होने के लिए भजन करने आ गए हैं, वे यदि भोग बुद्धि से विषय को देखें, संसार के विषय लेने के लिए विषयी के पास जाएँ तथा भोग बुद्धि से स्त्री को देखें, वह विष भक्षण करने से भी अधिक अकल्याणकारी है। विष खाने से तो केवल शरीर नष्ट होता है किन्तु यह विषय रूपी विष यदि हमारे भीतर प्रवेश कर जाए तो जन्म-जन्मांतर के लिए समस्या हो जाएगी। वही कामना लेकर हमें पुनः जन्म लेना होगा। तुम संसार छोड़कर आए हो। सब इन्द्रिय-इन्द्रियार्थ द्वारा स्वयं को भगवान की सेवा में लगाया है। समस्त इतर भोग छोड़कर आ गए। तथा बलदेव जी की आविर्भाव तिथि का पालन भी किया। बलदेव प्रलम्बासुर से उद्धार करते हैं। किन्तु बद्धजीव के भीतर एक और प्रलम्बासुर बैठा है—अवैध स्त्रीसंग करने की प्रवृत्ति। इस असत् आकांक्षा के कारण हृदय दूषित हो गया। इसीलिए फल की प्राप्ति नहीं होती। ऐसे मलिन हृदय में भगवान नहीं आएँगे। जिनकी संसार समुद्र पार करने के लिए इच्छा है, उनके लिए कहते हैं कि भोग बुद्धि से विषयी के पास मत जाओ।

तिरोधान से पहले गुरुजी ने जो अन्तिम उपदेश दिए उन्हें याद करना चाहिए। उसमें अर्थ लालसा के बारे में गुरु महाराज जी बताते हैं। कोई व्यक्ति भगवान के लिए भिक्षा करने के लिए गया व उस भिक्षा में से कुछ अपनी जेब में(अर्थात् स्वयं भोग करने के उद्देश्य से) रख लिया तथा कुछ मठ में दे दिया। जो वस्तु उसने अपनी जेब में रख ली वह विषयी का विष होने के कारण उसे गड्ढा में गिरा देगी। भगवान का आश्रय लेकर भजन करने के लिए आए हैं, भगवान तुम्हारी रक्षा नहीं करेंगे? अपने लिए कुछ रखना पड़ेगा?

यदि मैं जगत के किसी साधारण व्यक्ति के पास जाऊँ तथा उसके शरणागत हो जाऊँ; उससे कुछ न माँगू व उसकी सेवा करता रहूँ, यहाँ तक कि खाना भी न माँगू; वह व्यक्ति कितने दिन चुपचाप रहेगा? वह व्यक्ति सोचेगा, “यह मेरी सब प्रकार से सेवा कर रहा है, इसे बिना खिलाए मैं कैसे खा लूँ?” दो-तीन दिन चुप रहेगा पर उसके बाद स्वयं ही खाने के लिए कहेगा। वह भोजन करवाए बिना नहीं रह पाएगा। एक दुष्ट व्यक्ति भी बिना खिलाए नहीं रह सकता, तब सज्जन व्यक्ति ऐसा कैसे करेगा? एवं जो अनन्त ब्रह्माण्डों के स्वामी हैं, उन्हें आश्रय लेने से क्या वह हमारी रक्षा नहीं करेंगे? तब यदि भगवान का नाम लेकर हम अपने लिए धन संचय करें तो यह किस प्रकार की शरणागति है?

सनातन गोस्वामी, हमारा पूर्व गुरु ने अपने सेवक ईशान के द्वारा हमें यह शिक्षा दी। ईशान वह धन अपने गुरु सनातन गोस्वामी जी की सेवा के लिए ही लाया था। वह अपने साथ आठ मोहर लेकर आया। जब सनातन गोस्वामी ने उससे पूछा कि उसके पास कुछ है, तब उसने आठ मोहर में से एक मोहर छिपा ली व कहा, “मेरे पास सात मोहर हैं।”

सनातन गोस्वामी ने वह सात मोहर ईशान से लेकर वहाँ के (पातड़ा पर्वत नामक स्थान) ज़मींदार को दे दी। तब ज़मींदार ने कहा—“मुझे पहले से पता था कि आपके सेवक के पास आठ मोहर हैं। मैंने सोचा था कि आप दोनों को मारकर मैं वह मुद्राएँ ले लूँगा। स्वयं मुद्राएँ देकर आपने मुझे इस पाप से बचा लिया।” ज़मींदार ने प्रसन्नचित्त से मोहरें वापिस कर देनी चाहीं। किन्तु सनातन गोस्वामी ने सोचा कि धूर्त व्यक्ति के वचन की कोई स्थिरता नहीं होती। अतः सनातन गोस्वामी ने मोहरें वापिस नहीं लीं। सनातन गोस्वामी ने ईशान को डाँटते हुए कहा—

संगे केने आनियाछ एइ काल-यम?
इस काल-यम को साथ में क्यों लाए हो?

हमारे पूर्व गुरु सनातन गोस्वामी ने हमें ऐसी शिक्षा दी है। हम पढ़ते हैं किन्तु विचार करके नहीं चलते। सनातन गोस्वामी ने ईशान ठाकुर को कहा, “क्या यह एक मोहर तुम्हारी रक्षा करेगा? यही विचार लेकर तुम मेरे साथ आए हो? तुम त्यागी होकर ऐसा करते हो? इस प्रकार की मनोवृत्ति रखने से तुम्हारा त्यक्ताश्रम नष्ट हो जाएगा। तुम मोहर लेकर अपने घर वापिस चले जाओ। संसार त्याग करने का तुम्हारा अधिकार नहीं है।”

हम लोग बहुत कुछ छिपाकर कर सकते हैं। हम सोचते हैं कि कोई नहीं देख रहा किन्तु भगवान सर्वज्ञ हैं, सर्वशक्तिमान हैं। वे सब कुछ जानते हैं। उनसे छिपाकर हम कोई कार्य नहीं कर सकते। जब भगवान ही रक्षा करने वाले हैं, पालन करने वाले हैं तब हमें भय कैसा है? जब भगवान से भी नहीं माँगेगे तो उनके लिए भी समस्या हो जाएगी। जब भगवान के लिए ही रहेंगे, तब भगवान हमें देने के लिए और अधिक प्रयास करेंगे। वे अपने भक्तों की हर इच्छा को पूरा करते हैं।

योगक्षेमं वहाम्यहम्

किन्तु भक्त भगवान की सेवा छोड़कर कुछ नहीं चाहते। इसलिए आज अपना अन्तःकरण साफ करना पड़ेगा। जितनी भी अन्य-अन्य वस्तुओं के लिए आकांक्षाएँ हैं, उन्हें दूर करना होगा। गुण्डिचा मार्जन लीला द्वारा चैतन्य महाप्रभु ने हमें शिक्षा प्रदान की। जगन्नाथ जी को अपने हृदय में बिठाने की इच्छा है तो अपने हृदय को वृन्दावन बनाना होगा।

आनेर मन मन, मोर मन वृन्दावन।

अर्थात् मन को वृन्दावन करना होगा।

वृन्दावन में एकमात्र कृष्ण का अधिकार है। इसलिए पहले गुण्डिचा मन्दिर मार्जन होता है। जगन्नाथ साक्षात् कृष्ण हैं। वे आकर यहाँ पर हृदय रूपी गुण्डिचा में बैठेंगे। हम बाहर से उसका मार्जन करते हैं परन्तु भीतर में इतर प्रवृत्ति है; वेद निषिद्ध अभिलाष है, कर्मकाण्ड द्वारा जो फल प्राप्त होता है उसके लिए जागतिक आकांक्षा है। मुक्ति, सिद्धि, प्रतिष्ठा इत्यादि संसार की अनेकों आकांक्षाएँ हमारे हृदय में हैं। उन सबको निकाल दो। झाड़ू देकर बाहर कर दो। हृदय से बाहर निकालकर हृदय मन्दिर को साफ कर दो। हृदय मन्दिर में जगन्नाथ हैं, बाहर के मन्दिर में नहीं हैं। इसलिए गुण्डिचा मन्दिर मार्जन करो। साथ में संकीर्तन करो। निरपराध होकर संकीर्तन करो। आज की तिथि में संकीर्तन करो।