इस हरिकथा में, श्रील गुरुदेव वंशीदास बाबाजी महाराज और रघुनंदन ठाकुर के तिरोभाव दिन पर उनकी महिमा का वर्णन करते हैं। वे वैष्णवों को सदैव और विशेष रूप से उनके आविर्भाव ओर तिरोभाव पर उन्हें स्मरण करने के लाभों पर जोर देते हैं और इस विषय में उनके गुरुदेव से और शास्त्रों से सुनी गई बातों को भी प्रमाण के रूप में बताकर समझाते हैं।

आज विशेष तिथि है। परमहंस श्रील वंशीदास बाबाजी महाराज जी की तिरोभाव तिथि है। श्रील वंशीदास बाबाजी महाराज जी ने श्रावण मास की शुक्ला चतुर्थी तिथि में तिरोधान लीला प्रकाशित की। यद्यपि हर समय ही वैष्णवों की कृपा प्रार्थना करनी चाहिए, तब भी उनकी आविर्भाव तथा तिरोभाव तिथि में उनकी कृपा प्रार्थना अवश्य ही करनी चाहिए। षड्गोस्वामियों ने अपना जीवन देकर यह आदर्श दिखाया; वे हज़ारों वैष्णवों के उद्देश्य में प्रतिदिन दण्डवत् प्रणाम ज्ञापन करते थे। उनकी कृपा के बिना हम उनकी कृपा प्रार्थना भी नहीं कर सकते। वे तो अप्राकृत तत्त्व हैं, जड़ीय मन से उनका स्मरण भी नहीं किया जा सकता है। उनकी कृपा के बिना हम उनका महात्म्य कीर्तन भी नहीं कर सकते। केवल पूर्ण शरणागति द्वारा ही यह सम्भव होता है।

प्रणतादि गम्यं मूढेर अवेद्यम्।

अशरणागत के लिए अप्राकृत वैकुण्ठ जगत, भगवान का लीला धाम सदा के लिए बन्द रहेगा।

आज वंशीदास बाबा जी महाराज की तिरोभाव तिथि है। उनका आविर्भाव बंगलादेश(पूर्व बंग) के मैमनसिंह जिले में जमालपुर नामक स्थान के निकट मजीदपुर ग्राम में हुआ। वहाँ से वे नवद्वीप धाम में भजन करने के लिए चले गए तथा तीव्र वैराग्य के साथ भजन किया। इसमें एक वैशिष्ट्य यही है हम लोग चिंता करता है कि नहीं।

गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज परमहंस वैष्णव थे। उन्होंने संकल्प लिया था कि वे कोई शिष्य नहीं करेंगे। शिष्य स्वीकार करने से बन्धन होता है। परन्तु हमारे परम गुरुजी, नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद 108 श्री श्रीमद् भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ने गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज जी से मन्त्र लिया।

हमने अपने गुरजी के मुखारविन्द से सुना कि श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज जी ने तेरह बार श्रील प्रभुपाद जी को मना कर दिया कि वे शिष्य नहीं करेंगे। जब भी उनके पास जाते तो कहते कि शिष्य करने से शिष्य के बारे में सोचना पड़ता है। वे विविक्तानन्दी थे, निर्जन में रहकर भजन करते थे। अवधूत थे। इधर प्रभुपाद भी छोड़ते नहीं; उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि यदि मन्त्र लेंगे तो उनसे ही लेंगे। अन्त में गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज जी ने कहा—मैं महाप्रभु को पूछूंगा। महाप्रभु जब आज्ञा देंगे तब दूंगा। कुछ दिन बाद प्रभुपाद ने उनके पास पुनः जाकर पूछा, “आपने महाप्रभु से पूछा?”

बाबाजी महाराज जी ने उत्तर दिया, “मैं पूछना भूल गया।”

यदि हम होते तो कहते—“ठीक है, किसी अन्य से मन्त्र ले लेंगे, हमें इनकी आवश्यकता नहीं है।”

अभिमान सबसे बड़ी बाधा है। भजन में घमण्ड नहीं चलता।

प्रभुपाद दुःखी होकर वापस आ गए। कुछ दिन बाद पुनःगए। अपना संकल्प छोड़ते ही नहीं, भक्तिविनोद ठाकुर का निर्देश है।

तब उन्होंने पुनः निवेदन किया, “आपने महाप्रभु से नहीं पूछा?”

बाबाजी महाराज ने कहा, “महाप्रभु ने कहा कि तुम्हारे समान घमण्डी व्यक्ति को मन्त्र नहीं देना।”

यह सुनकर प्रभुपाद जी का मुख काला हो गया(वे हताश हो गए) तथा सोचने लगे कि अब तो यह होगा ही नहीं। श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज जी के चरणों की धूल को यदि कोई व्यक्ति स्पर्श करता तो वे कह देते—“तेरा सर्वनाश होगा, तेरा वंश नाश हो जाएगा।” इसलिए कोई व्यक्ति उनके चरणों को स्पर्श नहीं करता था। उनके दर्शन करने बहुत बड़े-बड़े व्यक्ति आते थे किन्तु दूर से ही दर्शन करते थे। वे टूटी हुई नौका के नीचे बैठकर दिन-रात हरिनाम करते थे है। कभी गंगा जलपान कर लिया, कभी मिट्टी खा ली, कभी माधुकरी भिक्षा कर ली। ऐसा आचरण करके कोई व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता है। उन्होंने क्या किया? अपने चरणों की धूल अपना हाथ से उठाकर प्रभुपाद जी के शरीर में लगा दी और कहने लगे, “तुम ही योग्य हो, महाप्रभु का धर्म प्रचार करने के लिए। महाप्रभु की इच्छा है, मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। मैं तुम्हें मन्त्र देता हूँ, तुम पूरी पृथ्वी में प्रचार करो।” जिस प्रकार गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज जी ने बाहरी विचार से तीव्र वैराग्य के साथ भजन किया, इसी प्रकार वंशीदास बाबाजी महाराज जी ने आदर्श दिखाया। श्रील भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज जी ने लिखा कि श्रील वंशीदास बाबाजी ने श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज जी से बाबाजी वेश लिया। श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी के एक शिष्य हुए—हमारे परम गुरुजी(श्रील प्रभुपाद); एक शिष्य ने पूरे विश्व को हिला दिया। एवं विविक्तानन्दी होकर भजन कैसे कर सकते हैं, इसके लिए वंशीदास बाबाजी का आदर्श दिखाया। इस प्रकार अपने दोनों शिष्यों द्वारा दो मार्ग दिखा दिए(गोष्ठानन्दी तथा विविक्तानन्दी)।

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने भी बाद में बाबाजी वेश लिया। उनका अवलम्बन करके हमारे परम गुरुजी आए। सब ग्रन्थ इत्यादि उन्होंने ही लिखे। हमारे गुरुजी कहते थे, “तुम लोगों को कुछ नया लिखने की आवश्यकता नहीं है। भक्तिविनोद ठाकुर जी ने जो लिखा है उसका अनुवाद करके पूरी दुनिया में प्रचार करो।” किन्तु वह भी सम्भव नहीं हुआ। मैंने अंग्रेज़ी भाषा में लिखने की चेष्टा की थी, किन्तु देखा कि अनुवाद का स्तर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी के विचार के समक्ष कुछ भी नहीं है। उनका लेख अप्राकृत भूमिका का है, ऐसे शब्द प्रयोग करते हैं और शब्द का भाव ऐसा है। मैंने डेढ़ पृष्ठ तक अनुवाद करने के बाद लिखना बन्द कर दिया, आगे लिख नहीं पाया। हमारे एक गुरुभाई ने भी प्रयास किया किन्तु वे भी इक्कीस पृष्ठ से आगे अनुवाद नहीं कर पाए। जब भक्तिविनोद ठाकुर में पूर्ण शरणागति होगी, तब भक्तिविनोद ठाकुर जिह्वा पर बैठकर स्वयं लिखवाएँगे। तब ठीक होगा। इतना सहज नहीं है।

वंशीदास बाबाजी महाराज कुटिया में नहीं रहते थे, पेड़ के नीचे रहते थे। वे ज्ञानी-योगी की तरह नहीं हैं, एक शुद्ध भक्त हैं जो भगवान के स्वरूप की आराधना करते थे। उनके पास निताई-गौरांग व राधाकृष्ण थे। मंदिर न होने से सेवा नहीं होगी, {ऐसा नहीं है।} वे बहुत लम्बे थे, हाथ से ही वृक्ष से फूल तोड़ लेते थे तथा और सेवा के अनेक उपकरण लाकर सेवा कर लेते थे। वे एक झोले में निताई-गौरांग तथा एक झोले में राधाकृष्ण विग्रह रखते थे। भगवान इसी से प्रसन्न हो जाते हैं। लोकनाथ गोस्वामी जी के बारे में हम सुनते ही हैं। खदीरवन में, किशोरी कुण्ड में एक बार लोकनाथ गोस्वामी की अचानक राधाकृष्ण की साक्षात् सेवा करने के लिए उत्कंठा हुई। राधाकृष्ण स्वयं आकर वहाँ प्रकट हो गए। वे कहते हैं कि राधाविनोद को आपके पास रखकर जाते हैं। लोकनाथ गोस्वामी ने देखा कि सामने पेड़ के नीचे राधविनोद विग्रह हैं। उनके पास मकान नहीं है, पेड़ के नीचे रहते हैं। हम सोचते हैं—“ब्रजधाम में क्या है? दिल्ली अच्छा है, कोलकाता अच्छा है, लंदन अच्छा है।” ब्रजधाम चिन्मय भूमि है। ब्रजधाम में जहाँ बैठते हैं, वहाँ ही मन को आनन्द होता है। वहाँ पेड़ भी कृष्ण की सेवा कर रहे हैं।

हमारे गुरुदेव ने वृन्दावन में वहाँ के पेड़ का प्रयोग दातुन करने के लिए अथवा पेड़ काटने के लिए मना किया है। वे कहते थे, “ब्रजवासी ऐसा कर सकते हैं, तुम लोग मत करो। यह सब वृक्ष वैष्णव हैं।”

लोकनाथ गोस्वामी पेड़ के नीचे बैठे तथा सामने राधाविनोद जी को देखकर सोचा कि अरे! इन्हें कौन यहाँ लेकर आया? राधाविनोद हंसते-हंसते कहते हैं—“हमें कौन देगा? तुम्हारे भीतर उतावला भाव देखकर हम स्वयं ही आ गए। हमें बहुत भूख लगी है, हमें कुछ खिलाओ। जल्दी खिलाओ।” तब लोकनाथ गोस्वामी रोने लगे। कैसा अद्भुत प्रेम है! लोकनाथ गोस्वामी ने वहीं पर पत्तों से उनके विश्राम इत्यादि की सब व्यवस्था कर दी व स्वयं जाकर भिक्षा करके रसोई की। आजकल विग्रह तो बहुत हैं किन्तु विग्रह सेवा करने के लिए सेवक नहीं मिलते। जब संबंध-ज्ञान आ जाता है तथा संबंध-ज्ञान के साथ जब गहरा प्रेम होता है, तब सेवा किए बिना नहीं रहा जा सकता है।

जगत में भी एक माता का अपने पुत्र के ऊपर बहुत प्रेम होता है। हमने यह प्रेम अपनी माताजी में प्रत्यक्ष रूप से लक्षित किया। उनकी तबीयत बहुत खराब है, उन्हें बिस्तर से नीचे उतरने के लिए मना किया हुआ है किन्तु जब वे देखतीं कि हम बच्चों का ध्यान रखने के लिए कोई नहीं है, तो स्वयं हमारे मैले वस्त्र उतारकर हमें नए वस्त्र पहनाती थीं। हम तो छोटे बच्चे थे, मैले वस्त्र पहनकर ही घूमते रहते थे, पता ही नहीं होता था कि वस्त्र साफ हैं अथवा मैले। माताजी अवस्थ अवस्था में ही वह कपड़े धोने के लिए ले जाती थीं। उस समय बिस्तर से उतरना तक निषेध था किन्तु तब भी इतना कष्ट उठाती थीं। इस प्रकार प्रीति है कि सब कुछ कर सकती हैं।

वंशीदास बाबाजी महाराज जी का वैराग्य ज्ञानी-योगी की तरह नहीं थे। वैराग्य तो ज्ञानी-सौभरि ऋषि का भी है, योगी-विश्वामित्र जी का भी है। गौतम बुद्ध अथवा मनुष्य बुद्ध, अर्थात् सिद्धार्थ भी वैरागी हैं। सिद्धार्थ में वैराग्य कैसे हुआ? सिद्धार्थ कपिलावस्तु के राजा शुद्धोधन के पुत्र थे। अपने पिता के बाद वे ही राजा बनेंगे।

एक दिन सिद्धार्थ अपने सारथी को कहते हैं कि मुझे चारों दिशाओं में संसार के दर्शन करवाओ। पहले दिन उन्होंने देखा कि एक बहुत ही बूढ़ा व्यक्ति है, जो कि चल नहीं सकता, किसी प्रकार से लाठी से चलता है। उसका पुत्र उसके साथ है किन्तु वह हर समय बहुत कष्ट से चलता है। उसे देखने के लिए कोई नहीं है। तब सिद्धार्थ को चिंता हुई कि मैं भी एक दिन बूढ़ा हो जाऊँगा, क्या तब मुझे भी इसी प्रकार दुःख भोगना होगा? अभी भी मेरा वैराग्य क्यों नहीं हो रहा है? जब तक किसी से कुछ मिल सकता है, तब तक उससे प्यार रहता है। जब कुछ नहीं मिलता, तब प्यार चला जाता है। संसार की प्रीति ऐसी ही है—स्वार्थ प्रीति। इसीलिए इस वृद्ध व्यक्ति को देखने कोई नहीं आता, यहाँ तक कि जिन बच्चों को इसने बड़ा किया, वे भी नहीं।

अगले दिन वह किसी दूसरी दिशा में जाते हैं तो देखते हैं कि एक व्यक्ति बिस्तर में पड़ा है; मल-मूत्रादि सब बिस्तर में ही करता है। वह पानी माँग रहा है किन्तु उसके आसपास इतनी दुर्गन्ध है कि कोई भी उसके पास कोई पानी लेकर नहीं जा रहा। सिद्धार्थ ने सोचा, “शरीर की ऐसी हालत तो होगी ही—‘शरीरं व्याधि मन्दिरम्’। यह देखकर भी मनुष्य का वैराग्य नहीं होता। ऐसी दशा तो मेरी भी होगी।”

तीसरे दिन वह पूर्व दिशा में गए। वहाँ देखा कि स्त्रियाँ इत्यादि सब लोग मिलकर रो रहे हैं। जब रोने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि उनका पुत्र मर गया है इसलिए रो रहे हैं। सिद्धार्थ ने सोचा, “संसार अनित्य है; आज है कल नहीं है। यह सब रो रहे हैं, एक दिन इस प्रकार मुझे भी रोना पड़ेगा।”

चौथे दिन उत्तर दिशा में पहुंचा तो देखा एक ब्रह्मचारी कमण्डलु लेकर जा रहा है। उस कमण्डलु में कुछ नहीं है। खाना मिलेगा तो खाएगा, निश्चिन्त रूप से घूम रहा है। तब सिद्धार्थ ने सोचा कि सुख का रास्ता यही है। इसमें कोई झंझट नहीं है। यदि कुछ मिला तो खा लिया, अन्यथा नहीं खाया। तब उन्होंने संसार छोड़ने का निश्चय किया। सारथी कहता है, “सर्वनाश गो गया! आपकी स्त्री है, राज्य है, संपद है। यह सब किसे इतनी सहजता से किसे मिलता है?” किन्तु सिद्धार्थ ने सोच लिया कि सब कुछ छोड़ देंगे। मुकुट आदि जितने जेवर हैं, सब खोलकर दे दिए, साधारण वस्त्र पहन लिए तथा कहा कि यह आभूषण पिताजी को जाकर दे दो। जब सारथी उन आभूषणों को लेकर लौट आया तो उन्हें देख कर पिताजी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे और कहने लगे, “मेरा सर्वनाश हो गया! मेरा सर्वनाश हो गया! इन सब आभूषणों को लेकर मुझे क्या सुख होगा?” उन आभूषणों को एक कुंड में फेंक दिया, उसे आवरण कुण्ड कहते हैं। जब उनकी परमा सुंदरी स्त्री ने यह समाचार सुना तो उसने अपना सिर मुंडन करवा लिया तथा रो-रोकर विलाप करने लगी।

किन्तु सिद्धार्थ के वैराग्य, श्रील रघुनाथदास गोस्वामी के वैराग्य, सौभरि ऋषि के वैराग्य तथा विश्वामित्र के वैराग्य में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। इसकी व्याख्या श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने की।

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 2.59)

इसकी व्याख्या पढ़कर देखिए। निराहार द्वारा विषय वर्जन नहीं होता है। निराहार का एक अर्थ होता है—नहीं खाना। एकादशी में नहीं खाकर रहते हैं। अभी तो बहुत अधिक पेट भरकर प्रसाद देते हैं, पहले के समय में मठ में थोड़ा-थोड़ा अनुकल्प मिलता था। एकादशी व्रत किया है, समझ में आता था। किन्तु पंजाब में आने के बाद इतने प्रकार के फल, दूध इत्यादि प्रसाद में दिए जाते हैं। अभ्यास ख़राब हो गया। उस समय दन्तव्य अनुकल्प मिलता था। पहले दन्तव्य का अर्थ हमें पता नहीं था, हमारे शिक्षा गुरु से इसका पता चला। वे कह देते थे कि यहाँ पर तपस्या करने के लिए आए हैं, अनुकल्प करना चाहिए(बहुत अधिक नहीं खाना चाहिए)। अधिक खाने से कोई लाभ नहीं है। पानी जैसे पतले आलू तथा थोड़ा सा फल; वह भी पूरा नहीं कटा हुआ, छोटा टुकड़ा मिलता था। इतना सा खाने से सारा दिन पेट जलता था। इस प्रकार वैराग्य था। यह भी वैराग्य है परन्तु निराहार रहने से ही वैराग्य नहीं होता। एकादशी से अगले दिन भंडारी को पूछिए, मठ में एकादशी में तो पेट भरके खाते ही हैं, सुबह के लिए भी पहले से ही व्यवस्था करके रखते हैं कि क्या खाएँगे, चावल, परांठा इत्यादि सब। खाने की प्रवृत्ति बन्द नहीं होती।

निराहार रहने से अर्थात् पाँच इन्द्रियों से पाँच विषयों का संग्रह स्थूल रूप से बन्द करने पर बन्द नहीं होता है। सौभरि ऋषि ने बन्द किया था। 10000 साल पानी के अन्दर डूबकर तप किया, वहाँ पर मछली की मैथुन क्रिया देखकर उनका काम भाव जागृत हो गया कि मैं भी भोग कर सकता हूँ। उन्होंने मान्धाता की 50 कन्याओं के साथ विवाह किया। 5000 पुत्र उत्पन्न किए, कितना संसार बढाया। विश्वामित्र नया विश्व सृष्टि कर सकते हैं, ऐसा सामर्थ्य है किन्तु मेनका दर्शन से पतन हो गया। इसलिए इस प्रकार का निराहार महामूर्ख के लिए है। बलपूर्वक ज्ञानी-योगी की तरह आहार बन्द कर देने से किसी भी समय पतन हो जाएगा। किन्तु जब श्रेष्ठ रस का आस्वादन होगा, अप्राकृत शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध का आस्वादन होगा, तब पतन की कोई आशंका नहीं है।

हमारे परम गुरु जी बाहर के विचार से देखने में भी किसी साधारण व्यक्ति के समान नहीं हैं। वैसे तो उन्होंने शतकोटि नामयज्ञ किया, कोई विवाह नहीं किया किन्तु जागतिक विचार से भी साधारण व्यक्ति नहीं थे। वंशीदास बाबाजी महाराज को देखने से ही वे उन्हें दूर से प्रणाम करते थे। वंशीदास बाबाजी राधाकृष्ण को झोले से निकालकर उनकी पूजा करते थे व पुनः झोले में रख देते थे। बीच-बीच में कुछ-कुछ कहते रहते थे। वे कहाँ रहते थे? पेड़ के नीचे। वहाँ पर रहकर प्रतिदिन राधाकृष्ण और निताई गौरांग की सेवा करते थे। उन्हें मिलने के लिए बहुत लोग आते थे, उनकी सेवा के लिए बहुत से द्रव्य दे जाते थे। चावल, आटा, फल, सब्जी इत्यादि सब भर जाता था किन्तु बाबाजी उनमें ध्यान ही नहीं देते थे। कभी ध्यान आ जाता तो सब बांट देते थे। देने से क्या होगा? पुनः आ जाता था। योगक्षेमं वहाम्यहम्—भक्त का योग क्षेम भगवान स्वयं वहन करते हैं। राधाकृष्ण की सेवा के लिए राधाकृष्ण ही भेज देते हैं। अनन्य भाव से जब भजन करते हैं।

श्रील भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज जी सप्ताहिक ‘गौड़ीय’ पत्रिका निकालते थे। किसी जन्माष्टमी अथवा गौरपूर्णिमा तिथि में प्रकाशित पत्रिका के अंक में वंशीदास बाबाजी की सन् 1941 की भ्रमण लीला, प्रचार लीला इत्यादि अलौकिक वृत्तान्त वर्णित हैं।

जब वे भगवान की सेवा में निमग्न होते, अनेकों व्यक्ति उनके दर्शन करने के लिए अथवा कुछ प्रश्न करने के लिए आते। अधिक बात नहीं करते थे, जानते हैं कि इन लोगों के भीतर में कुछ अन्य स्वार्थ है इसलिए उनकी ओर अधिक ध्यान नहीं देते थे।

एक व्यक्ति उन्हें छोड़ता ही नहीं, वह बार-बार पूछता, “बाबाजी महाराज, भगवान को प्राप्त करने की बहुत इच्छा होती है। प्राप्ति का क्या उपाय है?” बाबाजी ने उत्तर नहीं दिया। वह भी छोड़ता नहीं, हर रोज़ आ जाता है और वही प्रश्न करता है। एक दिन बाबाजी महाराज अचानक कहते हैं, “क्या मांगते हो?”

उस व्यक्ति ने कहा, “भगवान कैसे मिलेंगे?”

उन्होंने एक शब्द बोला—“रोना।” जब तक रोना नहीं आएगा, तब तक नहीं मिलेंगे। रोना अर्थात् संसार के लिए भगवान के पास आकर रोना नहीं, अपितु भगवान के लिए रोना।

हमने एक महिला भक्त को मेदिनीपुर मठ में देखा। जब गया तो देखा कि वह महिला श्री राधागोविंद एवं श्रीमन्महाप्रभु के सामने बहुत रो रही है। हम सबने सोचा कि यह तो बहुत बड़ी भक्त है। हम लोग तो इतने दिन यहाँ पर रहे किन्तु कभी रोए नहीं। सब उन्हें समझाते हैं कि आपके ऊपर तो भगवान की कृपा है। जब रोना नहीं रुकता तो एक व्यक्ति उन्हें तसल्ली देने के लिए उनके पास गया और पूछा—आपको क्या चिंता है? क्या मुश्किल है? तब उस महिला ने उत्तर दिया—“मुश्किल तो कोई नहीं है, आपके जो पुजारी हैं, जो यहाँ पूजा करते हैं, जब चलते हैं तो इनकी दाढ़ी हिलती है। मेरे घर में एक बकरी थी। बकरी के प्रति मेरा बहुत प्रेम था। उस बकरी की दाढ़ी भी इसी प्रकार थी। वह बकरी मर गई है। उस बकरी के बारे में याद आई इसलिए रोती हूँ।” यह भगवान के लिए रोना नहीं हुआ, संसार के लिए रोना हुआ।

अधिकतर लोग जो बाबाजी से मिलने आते हैं किसी मतलब के लिए आते हैं। रोने का तात्पर्य केवल भगवान के लिए जब रोना होगा,जब भीतर से सरल भाव से होगा। जैसे रघुनन्दन ठाकुर का था।

रघुनन्दन ठाकुर मुकुंद दास के पुत्र हैं, वे बालक हैं किन्तु बहुत निष्ठा है। पिताजी किसी कार्य से बाहर चले गए जाने से पहले उनको कहा, “देखो, हमारे घर के जो ठाकुर जी हैं, गोपीनाथ जी, उन्हें ठीक से भोग अर्पित करना। उनको प्रीति के साथ खिलाना। स्त्री को बोल दिया इनको भोग तैयार करके दे देना। रघुनन्दन भोग लेकर गोपीनाथ के उनको तो कुछ मालूम नहीं, भोग निवेदन कैसे करते हैं। वे कहने लगे, “मुझे तो कुछ ज्ञात नहीं, पिताजी ने तुमको खिलाने के लिए, तुम खाओ! खाओ! खाओ!” इस प्रकार बोलकर वे बहुत रोने लगे।भगवान को कोई धोखा नहीं दे सकता है। उन्होंने तो खा लिया।

जब पिताजी आए तो माताजी ने रघुनन्दन को कहा प्रसाद ले आओ। रघुनन्दन कहते हैं, माताजी! गोपीनाथ ने सारा ही खा लिया। सारा खा लिया? प्रसाद तो देता है। नहीं। मुझे पिताजी ने बोला था सारा खिलाने के लिए, मैंने खिला दिया। पिताजी आए तो रघुनन्दन की माताजी उनको बोलती है, क्या बात है पता नहीं, स्वयं ही खा लिया या किसी को खिला दिया? पिताजी कहते हैं, नहीं इतना तो स्वयं खा नहीं सकता है, झूठ बोलने वाला तो है नहीं वह। पिताजी ने पूछा क्या हुआ, प्रसाद कहाँ है? रघुनन्दन कहा वह तो सारा खा लिया। खा लिया? अच्छा ठीक है। मुकुंद दत्त ने दोपहर के बाद रघुनंदन को कहा, मैं तुम्हें लड्डू में देता हूँ अब तुम गोपीनाथ को खिलाओ।

पिताजी बाहर में एकदम छिपके रहे। रघुनंदन अंदर जाकर रोने लगे और खाओ! खाओ! बोलने लगे। गोपीनाथ ने लड्डू मुख में लिया, उस समय मुकुंद दत्त ने मंदिर में प्रवेश किया, उनके प्रवेश करने से गोपीनाथ ने आधा लड्डू छोड़ दिया, नहीं खाया। ऐसे भक्त मिलना बहुत मुश्किल है।

कोटि मुक्त मध्ये दुर्लभ एक कृष्ण भक्त।

जब तक शुद्ध भक्ति नहीं होगी तब तक समाधान नहीं होगा। श्रेष्ठ रस मिलने से निकृष्ट के ऊपर आसक्ति नहीं रहती। जब तक श्रेष्ठ रस नहीं मिलता तब तक जो कुछ करें, there may be spiritual fall at any moment, स्थूल रूप से हठ करके इन्द्रियों को अपने वश में करके रख दें किन्तु इतना तप तो हम सौभरि जे जैसे नहीं कर सकते हैं। जब उनके जैसे तपस्वी का ऐसा पतन हो गया तो मेरे जैसे व्यक्ति का क्या होगा? इसलिए जब भक्ति को अवलम्बन करें भगवद्भक्त पूज्य है, सब समय भगवान की चिंता में निमग्न हैं, भगवद्भाव में विभावित है, कभी हंसता है, कभी रोता है, कभी भगवान से बात करता है, और भक्त छोटा सी बात भी बोले तो वह बात से हृदय में असर होता है। यह इंद्रिय तर्पण, भोग प्रवृत्ति कब जाएगी?

गोविंद का नाम लेते रहो। शेर की आवाज से हाथी भी भाग जाता है। सम्पूर्ण संसार की जितनी आकांक्षा है सब चली जाएगी। निरपराध से भगवान का नाम करो।

शुनिया गोविन्द रव, आपनि पलाबे सब।

भगवान की कृपा कैसे मिले?

ये करि मोर आश, तार करि सर्वनाश।

भगवान बोलता है, जो मुझको चाहते हैं मैं उनका सर्वनाश कर देता हूँ। उनका जितना विषय है सब नाश कर देता हूँ। बाबा! कोई जरूरत नहीं है गौड़ीय मठ जाने का।

ये करि मोर आश, तार करि सर्वनाश।

तब भी जो मुझे नहीं छोड़ता है मैं उनका दास बन जाता हूँ। जैसे वृत्रासुर का प्रसंग हमारे गुरु जी हमें सुनाते थे। भगवान की कृपा किसको कहते हैं? विषय संपत्ति मिलने से कृपा हो गई? दुनिया के सब लोग विषय संपत्ति के लिए मारपीट कर रहे हैं, आग में जल रहे हैं, वही होता है अनर्थ।

पुंसां किलैकान्तधियां स्वकानां
या: सम्पदो दिवि भूमौ रसायाम्।
न राति यद्‌द्वेष उद्वेग आधि-
र्मद: कलिर्व्यसनं सम्प्रयास:॥
(श्रीमद भागवद 6.11.22)

देवराज इंद्र ने वृत्रासुर को मरने के लिए महागदा निक्षेप की थी किन्तु वह विफल हो गई, उल्टा इंद्रा के शरीर पर अघात हो गया, उनका ऐरावत भी घायल हो गया बाद में इंद्र ने मंत्र से उसे थीक किया किन्तु तब तक वृत्रासुर ने इंद्र पर आक्रमण नहीं किया, उस समय असुर भी बच्चे, स्त्री, नि:शस्त्र पर या कोई मुसीबत में है तो उस पर प्रहार नहीं करते थे, घृणा करते थे। बाद में इंद्र युद्ध के लिए सज्ज हो गए तो वृत्रासुर उनको कहते हैं, आपके पास मुझे मारने के लिए दधीचि मुनि की हड्डी से बना वज्र है, कितनी तपस्या का प्रभाव है, यह कभी व्यर्थ नहीं हो सकता है आप निश्चिंत हो जाइए। मैं भी निश्चिंत हो जाऊंगा मृत्यु के बाद मेरे आराध्य के पास चला जाऊंगा। किन्तु इंद्र को भय हो गया। मेरी गदा को उल्टा मार दिया। अभी वज्र को उल्टा मारेगा तब तो मैं तो खत्म ही हो जाऊंगा।

इसलिए कहते हैं,

यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ।।

जैसे मन में चिंता करते हैं

कामुका: पश्यन्ति कामिनीमयं जगत
लुब्धा पश्यन्ति धनमयं जगत
धीरा पश्यन्ति नारायणं जगत

इन्द्र अपने मन की भावना के अनुसार समझते हैं यह वृत्रासुर स्वर्ग राज्य लेने के लिए मुझको ऐसा बोलते हैं। जबकि वृत्रासुर कहते हैं, चिंता मत कीजिए भगवान् मुझे स्वर्ग नहीं देंगे, आपको ही देंगे। आप मेरा वध कर दीजिए मेरा शरीर खत्म हो जाएगा।

जिसने भगवान में अनन्य भाव से मन दिया है और भगवान जिन को अपना प्यारा जानते हैं उनको भगवान त्रिलोक की संपत नहीं देते हैं।

पुंसां…ददाति।

देवलोक में, रसातल में, पृथ्वी में जो संपद है इसको भगवान जिसको ह्रदय से प्यार करते हैं उनको नहीं देते। किसलिए? त्रिलोक की संपत से क्या होता है? द्वेष, आपस में हिंसा होगी, उद्वेग होगा, मनस्ताव होगा, झगड़ा होगा, दुख होगा और घमंड भी होगा और संपत्ति की रक्षा करने के लिए बहुत कष्ट, चेष्टा करनी होगा। mental tension होगा। Sales tax officer, income tax officer, चोर डाकू सब से बचाना पड़ेगा, इस प्रकार दु:खदायक वस्तु भगवान जिनको प्यार करते हैं उनको नहीं देते। इसलिए मुझे नहीं देंगे, आपको ही देंगे। आप मुझे मार दीजिये, आपका शत्रु खत्म हो जाएगा, आप निश्चिन्त हो जाइए। इन्द्र को और भय हो गया। यह तो मुझसे भी उच्च कोटि का भक्त है वह अपना सब कुछ छोड़ देता है। मरने से भी डरता नहीं है। भगवान के लिए जिसका भीतर में इच्छा हो, भक्तों की इच्छा भगवान पूर्ति करते हैं। कोई इच्छा ही नहीं है, पूर्ति क्या करेंगे?

त्रैवर्गिकायासविघातमस्मत्-
पतिर्विधत्ते पुरुषस्य शक्र।
ततोऽनुमेयो भगवत्प्रसादो
यो दुर्लभोऽकिञ्चनगोचरोऽन्यै:॥

हम लोगों की धर्म, अर्थ, काम के लिए आकांक्षा होती है। किन्तु भक्तों की नहीं होती है। भक्त केवल भगवान की सेवा चाहते हैं। परमानन्द सुख। यदि तर्क के लिए भी लिए माना जाए कि कोई भक्त जिसने किसी शुद्ध भक्त का आश्रय लिया है वह यदि गलती से त्रिवर्ग की अर्थात, स्वर्ग आदि सुख, धर्म जिससे धन मिलता है, कामना पूर्ति होता है इत्यादि के लिए चेष्टा भी करते हैं तो भगवान क्या करते हैं? उनकी चेष्टा में बाधा प्रदान कर देते हैं। वे त्रिभुवन की प्राप्ति के लिए चेष्टा में उनको बाधा उत्पन्न कर देते हैं।

भगवान से धर्म, अर्थ, काम की मांग की और यदि उन्होंने उसमें बाधा दी तो हम लोग समझते हैं कि भगवान की कृपा नहीं है। इसलिए जो निष्काम व्यक्ति जिनकी कोई कामना नहीं है केवल वह भक्त भगवान की कृपा को समझ सकता है। जहाँ पर कामना है, कामना अनुरूप फल मिलने से समझते हैं यह तो भगवान की कृपा है। श्याम सुंदर की कृपा हो गई, आ जाइए सब दिल्ली मठ में आ जाइए।

फायदा होगा, जब नहीं फल मिलेगा तो यहाँ मत आइए। काली मां के मंदिर में कृपा मिलेगी। जब गलती से भी त्रिवर्ग के लिए आकांक्षा हो भगवान उसको नष्ट कर देता है, वही भगवान की कृपा है। एक बच्चा मेज पर एक लाल रंग की गोली पकड़ कर खड़ा है, जहर है, सब कहते हैं, मत खा, मत खा, उसका हाथ पकड़ लेंगे किन्तु यदि बाहर की व्यक्ति हो तो एक दो तीन बार मना करेगा, नहीं मानता तो कहेगा खाने दो मरने दो। माता-पिता नहीं बोल सकते। भगवान नहीं बोल सकता है कि विषय खाने दो और विषय ज़हर से मरने दो। भगवान की कृपा वही समझ सकता है जिनकी कोई कामना नहीं है। इसलिए स्वर्ग आपको ही देगा, मुझको नहीं देगा। इंद्र और भय हो गया। वृत्रासुर सोचने हैं,उनके पास प्रार्थना करना एकदम व्यर्थ है यह हर समय समझते हैं कि मैं स्वर्ग लेने के लिए यह सब कह रहा हूँ।

कामुकाः पश्यन्ति कामिनीमयं जगत्

– कामिनी के पीछे पीछे सब लोग घूम रहे हैं। महात्मा लोग भी घूम रहे हैं। सभी घूम रहे हैं। इंद्र भी ऐसे ही देखता है मेरा अंदर का भाव को समझा नहीं। पार्वती के अभिशाप से हुआ। वृत्रासुर संकर्षण से पार्थना करने लगे. संकर्षण का चिंतन हुआ।संकर्षण समक्ष आ गए, उनसे प्रार्थना की, आप पर कृपा करें। संकर्षण कहते हैं, तुम जो मांगोगे मैं दूंगा, मैं आ गया हूँ। तो वृत्रासुर कहते हैं,

न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठ्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
समञ्जस त्वा विरहय्य काङ्‌क्षे ॥

ध्रुव की पदवी चाहिए? न नाकपृष्ठं, ब्रह्मा का पद? न च पारमेष्ठ्यं, न सार्वभौमं पृथ्वी का अधिपत्य देने के लिए तैयार है, वह भी नहीं चाहिए और नाहीं रसाधिपत्यम्, एक खंड का भी अधिपत्य नहीं चाहिए। भगवान् देने के लिए तैयार है। अष्ट प्रकार की योग सिद्धि भी नहीं चाहिए, अपुनर्भवं वा अर्थात् जन्म मृत्यु से मुक्ति चाहिए? तो कहते हैं वह भी नहीं, आपकी सेवा-विरहित होकर मैं कुछ भी नहीं चाहता हूँ। वास्तव में जब वही परमानन्द वस्तु भगवान का संग मिल जाए, संग की गंध भी मिल जाए तो जड़-मूल से संसार नाश हो जाएगा(संसार में लेश-मात्र भी आसक्ति रहेगी नहीं) ।

अभी वंशी दास बाबा जी महाराज, केवल उनके कैसे व्यक्ति हीउनको समझ सकते हैं। इसलिए श्री सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ने अपने शिष्यों को उनके पास जाने के लिए मना किया। तुम लोग उनका आचरण नहीं समझोगे। विधि देखते रहोगे। वे अवधूत हैं। गौर किशोर दास बाबाजी महाराज परमहंस है। वे भगवान की सेवा में निमग्न रहते हैं। बाहर में एकदम केश और बहुत लंबा है, एक हाथ से पेड़ से फूल तोड़ कर ले आते हैं। लोग अपने अप देकर जाते हैं लेकिन वे ग्रहण नहीं करते। वह भी शिष्य नहीं करते। जैसे गौर किशोर दास बाबा जी महाराज, लोग अपने आप ही दे जाते हैं जिनका कुछ भी नहीं है।

वंशीदास बाबाजी रूप से वट का पेड़ देखकर ही कहते यही वंशीवट है और उठेंगे नहीं वहाँ से वही रह जायेंगे। एक दिन ऐसा हुआ, १९४१ साल में वे तीर्थ भ्रमण के लिए निकले थे, वे अपने भाव में विभावित ह अपने जन्म स्थान झामतपुर में एक गांव है उसमें नहीं गए, वहाँ पर पांडव वर्जित स्थान है। अनुकूल परिवेश जितना है, उसी स्थान पर गए। कभी बैलगाड़ी में, कभी पैदल, कभी ट्रेन में भी गए। साथ में लोग, उनके सब गण भी चलते हैं, ठाकुर जी का भोग लगता है शिष्य नहीं है कोई उनका। ऐसे ही व्यक्ति साथ चल रहे हैं।

गुरु महाराज जी ने सुना कि वे लोग मेदिनीपुर आ रहे हैं, तब निमंत्रण के लिए लोगो को भेज दिया कि उनके सब गण के साथ हमारे श्यामानंद गौड़ीय मठ में सब प्रसाद पायेंगे। जब बाबा जी महाराज जी को पता चला कि भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर का शिष्य है तो कहते हैं, हाँ आ जाएँगे। बाबाजी महाराज निकट में पहुँचे तो वहाँ आकर वट को देखा और बाबा जी महाराज कहते हैं यही वंशीवट है। उतारो उतारो। उतार दिया। अब और आगेजायेंगे नहीं। यहाँ पर रसोई करो, ठाकुर जी को भोग दो। सब कर दिया । वहाँ पर मठ में सब रसोई कर लिया, बाबा जी महाराज मठ आते ही नहीं, सब प्रतीक्षा करते हैं। बहुत समय चला गया तो गुरु महाराज जी स्वयं वहाँ उनके पास गए। गुरु महाराज ने जाकर पूछा, आप आएँगे नहीं?” बाबा जी महाराज ने कहा,”यह वंशीवट आ गया। अभी तो वंशीवट में सब प्रणाम करो, यह वंशीवट है।”

वंशीवट में ठाकुर जी को जो भोग लगा, वह गुरु महाराज जी को दिया, जब गुरु महाराज जी ने खाया तो कहते हैं हमने ऐसा फिर अपनी जिंदगी में कभी नहीं आस्वादन किया। कहाँ से हुआ? भगवान को जब प्यार से देते हैं तो वह द्रव्य अलौकिक हीहो जाता है। हम लोग तो कार्तिक मास में लीला श्रवण करते हैं, वहाँ बताया राधा रानी कृष्ण प्रसाद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं खाती। केवल हरि नाम करने से नहीं होगा, हरिनाम तो दवाई है साथ में भगवत प्रसाद, भगवान को जो निवेदन किया वह खाना।

दूतं पानं….

ठाकुर जी को जो भोग निवेदन नहीं होता वह मैं खाऊं कैसे? प्रसाद सेवा।डॉक्टर दवाई के साथ में परहेज भी बता देते हैं। बिना परहेज़ के दवाई से कुछ लाभ नहीं होगा। इस प्रकार वहाँ से निष्ठा के साथ किया।उनको कोई चिंता नहीं है, खुला घर है। हम लोगों को तो अनेक चिंता है। उनका पूजा का सारा बर्तन चोरी हो गया फिर जितना साग सब्जी फल है गाय खाने लगा।

पुरी गोस्वामी महाराज जी कहते हैं उस समय जन्माष्टमी के पर्व में बहुत आनन्द में नृत्य कर रहे हैं, उधर गाय सब खा रही है..और कह रहे हैं एक चोर लेते हैं, एक चोर देते हैं, एक चोर लेते हैं, एक चोर देते हैं। हम कह सकते हैं? एक चोर ले गया वह भी भगवान ही है। हम कहते हैं भगवान की इच्छा बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता किन्तु विश्वास करते हैं? चोर ने चोरी किया वह भी भगवान की इच्छा से ही किया, ठीक है भगवान की चीज भगवान ने ही चोरी कर ली, भगवान ने ही दिया और भगवान का देने से गाय ने आकर खा लिया। फिर आ गया, कम नहीं होता है। इसलिए कहते हैं हमारे गुरुदेव ने साक्षात उनका अर्पित प्रसाद आस्वादन किया, आस्वादन से उनको आनन्द हुआ, साधारण कोई व्यक्ति नहीं है। कोई साधारण व्यक्ति उनके पास जाकर उनका आचरण नहीं समझ कर अपराध कर सकता है, इस भय से प्रभुपाद ने बोला तुम लोग वहाँ पर मत जाओ। तुम लोग विधि भक्ति समझ लिया। वास्तव में विधि भक्ति में झूलन भी दर्शन नहीं होता है। विधि मार्ग में हम लोग करते हैं। किन्तु यह लीला गोपियों के लिए है, राधाकुंड में प्रतिदिन झूलन लीला होती है जिसमें केवल गोपियों का ही अधिकार है।

अभी उनको देखकर हमारे प्रभुपाद को उनसे आकर्षण हुआ, उनको प्रणाम किया। वे इस प्रकार भगवत् भाव में विभावित है, एक बार एक व्यक्ति ने पूछा आप मायापुर नहीं गए? मायापुर अच्छा स्थान है। महाप्रभु का आविर्भाव स्थान है। तब कहते हैं, “हाँ! गया था । एक बार.एक गोदड़ी और एक अपनी का कमण्डलु लेकर गया था। वहाँ नीम का पेड़, आविर्भाव स्थान पर प्रणाम किया तो उसके बाद सचिनन्दन गौर हरि आ गया। आकर मेरा कमण्डलु लेकर चला गया। मेरा तो और कोई संपत्ति है ही नहीं एक कमंडलु है, वह भी लेकर चला गया। थोड़ा घूम कर आ कर देकर चला गया। फिर उसको लेकर मैं आ गया।” भगवान भी रहस्य करते हैं।

बाहर में उनका प्राकृत शरीर है, केश है और भीतर में जो अप्राकृत शरीर है वह भिन्न है। …. उनका अलग है, प्रभुपाद का अलग है, गुरुजी का अलग है, ऐसा हमारे जैसा उनका प्राकृत शरीर नहीं, चिन्मय स्वरूप है इसलिए यही वंशी दास बाबा जी महाराज, जब उनकी कृपा हो। किन्तु अपराध करने के लिए उनके पास नहीं जाना।

कभी कभी कोई कोई व्यक्ति राधा-कृष्ण की पूजा करते हैं, पूजा में उन्हें तंबाकू सेवन कराते हैं। कोई निताई गौरांग को करवाते है तो वह ठीक नहीं है। गौरांग के अनुगत्य में राधा-कृष्ण का भजन करना है, गौरांग ही राधा-कृष्ण हैं, ऐसा नहीं करना मुख में नहीं बोलकर ऐसा करके दिखाया। सदाचार में रहकर भजन करना।

उनको तो हम लोग समझेंगे नहीं कि क्या कर रहा है इसलिए कोई आवश्यकता नहीं है उनके पास जाने की। दूर से प्रणाम करो।

आज उनकी तिरोभाव तिथि है, वे महाप्रभु के अत्यंत प्रिय हैं, महाप्रभु जिनके साथ सब समय रहते हैं, उनके पादपद्म में अनंत कोटि साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हैं, उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करते हैं। उनसे अभिन्न सच्चिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर, गौर किशोर दास बाबा जी महाराज उनके दो शिष्य एक विविक्तनंदी है और एक प्रचारक। एक ही है इसलिए सब के पादपदमों में, गौर किशोर दास बाबाजी महाराज जी और भक्ति विनोद ठाकुर सब के पादपदमों में दंडवत प्रणाम करके उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ, हमारे गुरुजी के चरण में जानकर, नहीं जानकर कितने अपराध हुए, जैसे कृपा करके वे हमारे अपराध मार्जन करें उनके पादपद्म की सेवा प्रदान करें, उनके आराध्य देव गौरांग महाप्रभु की सेवा, राधा कृष्ण की सेवा प्रदान करें यही प्रार्थना करता हूँ।

२९ जुलाई २००६