इस हरिकथा में, गुरुमहाराज भगवान रामचंद्र, लक्ष्मण, भरत और सीतादेवी द्वारा स्थापित सर्वोच्च आदर्शों के बारे में बता रहे हैं। कथा मे वे भगवान रामचंद्र की लीलाओं से प्राप्त शिक्षाओं पर जोर देते हैं। गुरुजी ने अपने गुरुदेव, श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी के बारे में भी बाते की है। उन्होंने उनके व्यक्तित्व, आचरण और शिक्षाओं के बारे में बताया है।
श्रीतुलसीदास जी कहते हैं मंगल भवन अमंगलहारी द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी, भगवान मंगलमय है। स्वस्ति वाचन मंत्र में भी लिखा है—मंगलं भगवान विष्णु, मंगलं गरुड़ध्वजः। मंगल के आविर्भाव से अमंगल अपने आप नाश हो जाता है। जब प्रकाश आता है तो अंधेरा नहीं रहता है। अंधेरे से होने वाला कष्ट प्रकाश के आने से अपने आप चला जाता है। डंडा दिखाकर अंधेरे को हटाया नहीं जा सकता। बिना प्रकाश से कोई भी अंधेरे को हटा नहीं जा सकता है। जब तक अंधेरा रहेगा, अंधेरे से होने वाला कष्ट भी रहेगा। अंधेरे को हटाने का क्या उपाय है? प्रकाश को लाना पड़ेगा। प्रकाश के आने से अंधेरा हट जाएगा और उससे होने वाला कष्ट भी दूर हो जाएगा।
मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र कौन हैं? वे पूर्ण सच्चिदानन्द विग्रह हैं, मंगलमय हैं। पूर्ण वस्तु ही मंगलमय होती है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
—वृहदारण्यक उपनिषद्
भगवान परम शान्ति स्वरूप हैं, परम मंगलमय हैं। शांति का अर्थ केवल युद्ध या हिंसा का ना रहना नहीं है, पाश्चात्य देश के लोग शांति के विषय में यह सोचते हैं, किन्तु शांति एक positive aspect (सकारात्मक पहलू ) है, भगवान् स्वयं परम शांति स्वरूप है, परम मंगलमय है। उनका आविर्भाव होने से अमंगल नहीं रह सकता है तथा उससे होने वाला कष्ट भी नहीं। जब हमने उनका आविर्भाव अनुष्ठान किया, उसके पश्चात् भी यदि हमारा अमंगल नहीं गया, असत् प्रवृत्ति नहीं गई तथा अमंगल से होनेवाले कष्ट दूर नहीं हुए तब समझना होगा कि वास्तव में मंगलमय भगवान का आविर्भाव हुआ ही नहीं। जब मंगलमय भगवान का आविर्भाव होगा, तब उसके परिणाम से ही हमें इसका अनुभव हो जाएगा।
फलेन फलकारणम् अनुमीयते।
By the fruit of action you can understand the root cause of your actions, whether you have actually submitted to the Supreme Lord Ramchandra or not. Whether you have got His Grace or not. If Supreme Lord Ram Chandra has appeared, all good has appeared. There can be no difficulty. Then why are we getting so many sufferings in this world; birth, death and threefold afflictions? Because there is a lack in our surrender. Some sort of defect is there.
(कार्य/कर्म फल द्वारा हम फल के कारण का अनुमान लगा सकते हैं कि हम वास्तव में श्रीरामचन्द्र के शरणागत हुए हैं अथवा नहीं, हमें उनकी कृपा प्राप्त हुई है या नहीं। जब श्रीरामचन्द्र आविर्भूत होंगे तब समस्त मंगलों का प्रादुर्भाव होगा, किसी प्रकार का कष्ट नहीं रहेगा। यदि हम जन्म, मृत्यु, त्रिताप आदि कष्ट भोग कर रहे हैं तब समझना कि हमारी शरणागति में कोई दोष है।)
भगवान के आविर्भाव से अमंगल चला जाता है। भगवान के आने से पूर्ण सत् वस्तु का आविर्भाव होता है। इसलिए अनित्यता से होने वाला दुःख नहीं रह सकता। भगवान तो पूर्ण है, पूर्ण नित्य है और भगवान से हमारा नित्य सम्बन्ध है। भगवान पूर्ण चित् हैं, पूर्ण ज्ञान हैं एवं पूर्ण आनन्द हैं। ज्ञान के रहने से अज्ञान नहीं रह सकता, उससे होने वाला कष्ट नहीं रह सकता। भगवान पूर्ण सच्चिदानन्द हैं। आनन्द के आने से आनन्द का अभाव कैसे रह सकता है ?
जो कलियुग में गौरांग महाप्रभु का आविर्भाव हुआ उसके बारे में करभाजन ऋषिने जो लिखा है वह श्रीरामचन्द्र जी के लिए भी एक प्रकार से प्रयुज्य है। हमारे गुरुजी ऐसा कहते थे। (महाप्रभु के आविर्भाव के बारे में बताते हुए करभाजन ऋषि कहते हैं)—
ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं
तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम्।
भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं
वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम्॥
(श्रीमद्भागवतम 11.5.33)
ध्येयं सदा परिभवघ्नम्—जिनके ध्यान से समस्त प्रकार के दुःख, चिन्ताओं का नाश हो जाता है।
अभीष्टदोहं—जो हमारा अभीष्ट है, प्रयोजन है, पूर्ण वस्तु भगवान, वह भी हमें मिल सकते है।
केवल ध्यान/स्मरण करने से ही सब कुछ मिल जाएगा। मन ही बन्धन का कारण है तथा मन ही मुक्ति का कारण है। शरीर कहाँ है, इसका कोई मूल्य नहीं है। शरीर अभी धाम में है, अयोध्या धाम में है अथवा वृंदावन धाम में है और मन दुनिया की चिन्ता कर रहा है तब वास्तव में मैं कहाँ हूँ? मेरा शरीर कहाँ पर है उसका अधिक मूल्य नहीं है। यहाँ रहते हुए भी धामवास हो सकता है, यदि मेरा मन भगवान में रहे, भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, परिकर व धाम में रहे। समस्त बंधन का कारण मन ही है। मन से ही बंधन है तथा मन से ही मुक्ति है।
चेत: खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम् ।
गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये॥
(श्रीमद्भागवतम 3.25.15)
यह कपिल भगवान की उक्ति है। चेत: खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम्—मन अथवा चित्त ही बंधन का कारण है और चित्त ही मुक्ति का कारण है। गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये—जब त्रिगुण अर्थात् सत्त्वगुण, रजोगुण व तमोगुण में मन फँस जाता है, तो बंधन होता है। त्रिगुण क्या है? रजोगुण से सब उत्पन्न होता है; जो उत्पन्न हुआ, सत्त्वगुण से उसका कुछ समय के लिए संरक्षण होता है तथा तमोगुण से उसका नाश होता है। त्रिगुण में जन्म होता है, थोड़े दिन रहते हैं और फिर मर जाते हैं। इसलिए यह जगत त्रिगुणमय है। इसी प्रकार यह शरीर भी त्रिगुणमय ही है। शरीर का भी जन्म होता है, कुछ समय के लिए रहेगा और फिर मर जाएगा। शरीर सम्बन्धी जीतने भी व्यक्ति हैं, वे भी त्रिगुण के अन्तर्गत आते हैं| क्योंकि हम आत्मा को नहीं अपितु शरीर को देख रहे हैं; चोले को देख रहे हैं। उस चोले का जन्म है, कुछ समय रहेगा और उसके बाद मर जाएगा।
अपने शरीर में जो आसक्ति है, अपने शरीर को सुख देने के लिए जहाँ चिन्ता है, वह ही गाढ़ बन्धन (आसक्ति) का कारण है।
प्रसङ्गमजरं पाशमात्मन: कवयो विदु: ।
स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारमपावृतम्॥
(श्रीमद्भागवतम 3.25.20)
इसे स्पष्ट करके कपिल भगवान ने बता दिया। प्रसङ्गमजरं पाशमात्मन: कवयो विदु:—स्त्री, पुत्र, मित्रादि का प्रसंग ही गाढ़ बन्धन का कारण होता है। जब मन त्रिगुण में फंस जाता है अर्थात् इस नाशवान शरीर तथा इससे सम्बन्धित वस्तुओं की चिन्ता करते रहता है, उससे असत् संग होता है। यही असत्संग ही चरम बन्धन का कारण है। मैं शरीर सम्बन्धित व्यक्तियों की आत्मा को नहीं देख पा रहा हूँ, उनके बाहर के चोले को देख रहा हूँ। उस चोले का जन्म हुआ, थोड़े दिन रहेगा और मर जाएगा। जब उनको प्रसन्न करने के लिए चेष्टाएँ करेंगे तब गाढ़ बन्धन होगा।
तब हम लोग क्या करें? हमारे पास तो कोई उपाय नहीं है। हम तो प्राकृत इन्द्रियों से शरीर को ही देखते व अनुभव करते हैं। तब कपिल भगवान बताते हैं कि जब भगवान का प्रसंग करें तो मुक्ति का द्वार खुल जाता है। किन्तु भगवान को तो मैं देख नहीं पाता हूँ। यद्यपि हम भगवान की मूर्ति को, राधा-कृष्ण, महाप्रभु को देखते हैं, परन्तु मूर्ति तो बात नहीं करती। जब बात नहीं करती तो उनसे प्रीति कैसे होगी? कोई-कोई भक्तों से भगवान ने बात की होगी, वह हम नहीं जानते। करोड़ों जीवों में कोई एक विशेष व्यक्ति हो सकता है किन्तु साधारण व्यक्ति से भगवान बात नहीं करते, मूर्ति बात नहीं करती। जब बात नहीं करती तब उनसे प्रसंग कैसे होगा? बात करने से तो प्यार होता है। बात नहीं करते हैं, खड़े हैं तो प्यार कैसे होगा? अभी समस्या यही है कि संसार अनित्य है, शरीर सम्बन्धित व्यक्ति नाशवान है, यह बात हम समझते है किन्तु मैं शरीर से कार्य करता हूँ और दूसरे शरीर से आदान-प्रदान करता हूँ, बात करता हूँ तो उनसे आसक्ति हो जाती है। दूसरी ओर भगवान का प्रसंग करने से, उनमें आसक्त होने से संसार से मुक्ति हो जाती है। किन्तु मूर्ति तो बात नहीं करती, उनका प्रसंग नहीं होता। तब मुक्ति कैसे होगी? तब कपिल देव कहते हैं—
‘स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारमपावृतम्।’ वही प्रसंग जब साधु से करें तो मुक्ति का द्वार खुल जाता है। भगवान को तो मैं देख नहीं पाता हूँ किन्तु साधु सदैव संसार में भ्रमण करते रहता है। भगवान कभी-कभी स्वयं भी आते हैं नहीं तो सब समय साधु को जगत में भेज देते हैं। इस संसार रूपी कारागार में साधु भी भ्रमण करते है। उसी साधु का यदि प्रसंग करें तो मुक्ति का द्वार खुल जाता है। साधु हमारी तरह शरीर धारण करके आते हैं। इसलिए हम उनसे बात कर सकते हैं, आदान-प्रदान हो सकता है। परन्तु साधु सच्चा होना चाहिए। यदि ना हो तो उल्टा फल होगा। सच्चा साधु मिलना बहुत मुश्किल है। जब गुण माँगेंगे तो संख्या नहीं मिलेगी।
चरित्रवान व्यक्ति कलकत्ता में कितने हैं? बहुत कम। चरित्रहीन व्यक्ति बहुत हैं, लाखों की संख्या में मिलेंगे किन्तु संख्या से लाभ नहीं होगा। लाखों-करोड़ों व्यक्ति चरित्रहीन हैं, उनका संग करने से कुछ लाभ नहीं होगा। यदि एक व्यक्ति चरित्रवान हो तो वह हज़ारों-लाखों व्यक्तियों का मंगल कर सकता है। संख्या का मूल्य अधिक है अथवा गुण का? गुण का मूल्य अधिक है। यदि गुणी व्यक्ति माँगेंगे तो संख्या में कम मिलेंगे। दोनों (गुण एवं संख्या) एक साथ नहीं मिलेंगे। जब गुण माँगेंगे तो संख्या को छोड़ना पड़ेगा और जब संख्या माँगेंगे तो गुण को छोड़ना पड़ेगा। इसीलिए महादेव पार्वती को कहते हैं—
बहवः गुरवो सन्ति शिष्यवित्तापहारकाः।
दुर्लभः सद्गुरु देवी शिष्य सन्तापहारकाः॥
महादेव सबके गुरु हैं। पार्वती के माध्यम से हम सभी को (बता) शिक्षा दे रहे हैं कि जगत में सद्गुरु मिलना बहुत मुश्किल है। बहवः गुरवो….—शिष्य के पैसे हरण करने वाले बहुत सारे तथाकथित गुरु मिल जाएँगे किन्तु वास्तव गुरु नहीं मिलेगा। A real guru is very difficult to get, a bonafide guru is rarely to be found in this world (सच्चा साधु इस संसार में बहुत दुर्लभ है।)
बहवः गुरवो सन्ति शिष्यवित्तापहारकाः।
दुर्लभः सद्गुरु देवी शिष्य सन्तापहारकाः॥
शिष्य का सन्ताप संताप हरे, ऐसा गुरु मिलना बहुत मुश्किल है। मुझे तो गुरु के आसन पर बैठा दिया किन्तु मेरे भीतर तो असत् तृष्णा है, कितने प्रकार के गलत विचार हैं। वास्तविक गुरु तो हमारे गुरुजी (परम गुरुजी) हैं। जिन्होंने उनके दर्शन किया है, वे जानते हैं। उनका रूप भी साधारण व्यक्ति की तरह नहीं था। उनका व्यवहार और आचरण ऐसा था कि कोई कितने भी प्रयास करने पर भी उनमें कोई दोष नहीं निकाल सकता था। साधारण व्यक्ति का ऐसा चरित्र नहीं होता। हमारे अन्दर में बहुत पाप, अपराध हैं, वे सब कुछ जानते हैं किन्तु जानते हुए भी उनका स्नेह ऐसा था कि जिसने सभी को अपनी ओर आकर्षित करके आबद्ध कर लिया। उनके जैसा वात्सल्य किसी साधारण व्यक्ति में नहीं होता। सद्गुरु का सबके ऊपर स्नेह होता है। जैसे—सूरज की रौशनी सभी के ऊपर आती है। सूरज कोई गन्दा है अथवा अच्छा है, यह विचार नहीं करता, प्रत्येक के ऊपर समान है। कोई उस रौशनी का फायदा लेता है, कोई नहीं लेता। इसमें सूरज का क्या दोष? भगवान की कृपा और भगवान की कृपामय मूर्ति गुरुदेव की कृपा प्रत्येक जीव के ऊपर समान रूप से होती है। राम जी की कृपा हर एक स्थान पर है। मूल गुरु तो भगवान ही हैं। भगवान से ही परम्परा है।
सम्प्रदाय विहीना ये मंत्रास्ते विफला मत:
अत: कलौ भविष्यंति चात्वर: संप्रदायीन:।
श्री-ब्रह्म-रुद्र-सनक वैष्णव: क्षिति पावना:॥
सभी संप्रदाय भगवान से ही आते हैं। भगवान ही मूल गुरु हैं। चार संप्रदाय है, उनमें से चैतन्य महाप्रभु ने मध्व संप्रदाय को ग्रहण किया। इसलिए हमारे संप्रदाय को ब्रह्म-मध्व-गौड़ीय संप्रदाय कहते हैं। हमारे परम गुरुजी (श्रील प्रभुपाद) जब भी कोई भाषण देते थे तो गुरु परंपरा को प्रणति ज्ञापन करते थे कि वही ज्ञान उनके अन्दर आ जाए। यहाँ पर कहते हैं—
ध्येयं सदा परिभवघ्नम् ..
राम और उनकी कृपामय मूर्ति गुरु एक ही है। जब राम कृपा करने के लिए आते हैं तो गुरु रूप से ही कृपा करते हैं। गुरु भी साथ में हैं। राम भगवान और लक्ष्मणगुरु रूप से आते हैं। इसी प्रकार भगवान रूप से कृष्ण है और गुरु रूप से बलदेव हैं।
नायं आत्मा बलेन लभ्यो—बलदेव की कृपा बिना भगवान नहीं मिलते। वही बलदेव रामलीला में लक्ष्मण हैं। लक्ष्मण ने क्या आदर्श दिखाया? राम को वनवास करने के लिए आदेश हुआ। पितृ वचनों को पालन करने के लिए वे वन में गए। राज्य और लक्ष्मी (सीता देवी) को भी छोड़कर जाने के लिए तैयार हो गए क्योंकि उनकी प्रत्येक लीला नीतिशिक्षा के लिए है। यदि दुर्नीति रहे तो भगवान के पास नहीं जाया जा सकता। जब कोई पाप, दुर्नीति अथवा वेद निषिद्ध कार्य करे तब भगवान के पास कैसे जा सकता है? वही पाप, दुर्नीति से बचाने के लिए भगवान रामचन्द्र का आविर्भाव होता है। इसलिए यहाँ पर भगवान रामचन्द्र ने आदर्श दिखाया, उन्होंने पिताजी के वाक्यों की रक्षा करने के लिए राज्य संपद को छोड़ दिया। पिताजी ने माता कैकेयी को दिए वचन के कारण अपने प्राणों से भी प्रिय पुत्र राम को वन में जाने का आदेश दिया और विरह से तड़पते-तड़पते शरीर छोड़ दिया। उसी वचन की रक्षा करने के लिए राम जी वन में गए। किन्तु लक्ष्मण के जाने की बात तो नहीं थी, सीता के भी जाने की कोई बात नहीं थी। लक्ष्मण कहते हैं कि मैं छोटा भाई हूँ, रामजी बड़े भाई हैं। मेरा धर्म है उनकी सेवा करना। लक्ष्मण ने गुरु रूप से हमें दिखाया कि सेवा कैसे करनी होती है।
आप लोग रामायण पढ़ते हैं तो जानते होंगे। रामचन्द्र के बारे में, लक्ष्मण के बारे में श्रीमद्भागवत में भी वर्णित है। लक्ष्मण चौदह साल बिना खाये रहे। हम एक दिन बिना खाये रह सकते हैं? वे चौदह साल बिना खायेरहे और जितेन्द्रिय थे। इंद्र को जय करने वाले, रावण के भाई इन्द्रजित को कौन मार सकता था? जो चौदह साल बिना खाकर रहेगा (राम ने लक्ष्मण को भोजन हाथ में तो दिया किन्तु उन्होंने यह नहीं कहा कि ‘खाओ’ इसलिए लक्ष्मण ने उसे खाया नहीं)। लक्ष्मण ने सब समय राम की सेवा की। जो भागवत के श्लोक की हमने कल आलोचना की, यो हरीन्द्रानुजाभ्याम् (श्रीमद भागवतम 9.10.4), यहाँ पर अनुज है राम के छोटे भाई लक्ष्मण और हरिंद्र होता है वानर में श्रेष्ठ अर्थात् हनुमान और सुग्रीव, उन्होंने सब समय राम की सेवा की। राम ने अपने पद्म (कमल) के समान कोमल पादपद्मों से एक वन से दूसरे वन में विचरण किया, कितना कष्ट स्वीकार किया केवल धर्म के लिए। लक्ष्मण ने उनकी सेवा की। हम उनके स्थान पर होते तो सोचते कि हमें क्या आवश्यकता है वन में जाने की? हम घर में आराम से मज़े में रहते। किन्तु भगवत भक्त ऐसा नहीं सोचते। हनुमान, सुग्रीव, लक्ष्मण अथवा सीतादेवी, किसी ने भी ऐसा नहीं किया। सीतादेवी ने कहा मेरे पति जहाँ रहेंगे मैं भी वहाँ रहूंगी। भोजन, रहने इत्यादि की कोई व्यवस्था नहीं थी। सब ने वन में इतने कष्ट में रहकर एक आदर्श दिखाया। राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न, सब तत्त्व में एक ही हैं। केवल लीला में भेद है। भरत को जब रामचन्द्र जी के वन में गमन करने का समाचार प्राप्त हुआ तो उन्होंने उसी समय अपनी माता कैकेयी का परित्याग कर दिया।
पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात्—जो भगवान की भजन-शिक्षा देकर संसार से मुक्त नहीं करते, वह जननी जननी नहीं है। इसलिए उन्होंने अपनी माता का परित्याग कर दिया। आजकल के लोग राज्य प्राप्त करने के लिए कितनी प्रकार की दुर्नीतियाँ करते हैं। किन्तु भरत का आदर्श देखिए। जब राम वन में चले गए तो राजसिंहासन को स्वीकार नहीं किया। कोई राजवस्त्र धारण नहीं किए अपितु वृक्ष की वल्कल के वस्त्र धारण किए। जो कुछ भी खाते थे उसे गाय के मूत्र से सिद्ध करके खाते थे। क्या हम लोग चिन्ता कर सकते हैं? भरत रामचन्द्र की पादुकाओं को सिंहासन पर बैठाकर स्वयं उससे नीचे बैठे। उन्होंने राजा बनकर सुख से भोग नहीं किया। इसी भारतवर्ष में, जहाँ पर भरत हैं, रामचन्द्र हैं, लक्ष्मण हैं; वहाँ पर हम क्या कर रहे हैं? कितने निचे गिर गए हम? छोटे-मोटे स्वार्थ की पूर्ति के लिए कितने घृणित कार्य कर रहे हैं, एक-दूसरे को मार रहे हैं।
रावण का निधन करके जब रामचन्द्र जी सीता, लक्ष्मण व हनुमान को लेकर अयोध्या धाम में लौटकर आए तब सभी आनन्दित हुए। उस समय भरत ने क्या किया? वे नंदीग्राम से राम की पादुकाएँ मस्तक पर धारण करके राम के पास आए और कहने लगे—मैं राजा नहीं हूँ, आपकी पादुका राजा है। भगवान रामचन्द्र ने देखा कि भरत ने राजा का वेश धारण नहीं किया हुआ अपितु वल्कल परिधान किये हुए हैं। यह देखकर रामचन्द्र को बहुत दुःख हुआ। इस प्रकार उन्होंने आचरण किया। वर्तमान समय में क्या कोई यह चिन्ता कर सकता है?
रामचन्द्र की सेवा के लिए सीतादेवी राजमहल त्यागकर उनके साथ वन में चली गईं। यद्यपि रामचन्द्र सीतादेवी के शुद्धप्रेम के वशीभूत हैं तथापि प्रजारंजन के लिए स्वयं कष्ट उठाकर पहले उनकी अग्नि परीक्षा की तथा बाद में परित्याग कर वन में भी भेज दिया। रामचंद्र को सीता पर कोई सन्देह नहीं है किन्तु प्रजा को सुख देने के लिए अपनी अत्यंत प्रिय पत्नी को भी वन में भेज दिया, स्वयं पर इतना कष्ट लिया। जब अश्वमेध यज्ञ के समय रामचन्द्र जी को दूसरे विवाह के लिए परामर्श दिया गया तब उन्होंने इसे अस्वीकार किया तथा सीता देवी की स्वर्ण मूर्ति बनवाकर उसके साथ बैठकर यज्ञ किया। यदि सन्देह होता तो स्वर्ण मूर्ति क्यों बनवाते? इस प्रकार सेवा की, सती सावित्री स्त्री है, हम चिंतन भी नहीं कर सकते।
उस यज्ञ में सब को बुलाया गया। वाल्मीकि के साथ लव, कुश भी आये। लव-कुश से रामायण सुनकर राम जी को विश्वास हुआ कि यह हमारे पुत्र हैं। ऐसी बात कोई अन्य नहीं कह सकता। उसके बाद सीता देवी को वहाँ बुलाया गया। रामजी ने प्रजा को संतुष्ट करने के लिए उन्हें पुनः परीक्षा देने के लिए कहा। जब तीसरी बार परीक्षा करने के लिए कहा तब सीता देवी ने कहा कि पहले दो बार परीक्षा की, फिर भी सन्देह है? तब सीता देवी ने सबको सुनाते हुए कहा कि मैंने अपने मन में राम जी को छोड़कर अन्य किसी भी चिन्ता नहीं की। हे पृथ्वी देवी! यदि मेरी इंद्रियों ने सब समय राम जी की सेवा की है तथा इसके अतिरिक्त किसी की सेवा नहीं, तब तुम दो भाग हो जाओ। तब पृथ्वी दो भाग हो गई। स्वयं पृथ्वी देवी एक सिंहासन पर बैठकर आईं तथा सीता देवी को लेकर रसातल में चली गईं। सभी प्रजाजन ‘धन्य! धन्य!’ करने लगे। तब रामजी ने क्या किया? राम जी राजदण्ड का सहारा लेकर सीता के विरह में रोने लगे। उन्होंने नीति की प्रतिक लीला की, अपने ऊपर कष्ट उठाया प्रजा को सुख देने के लिए। इसे चिन्ता करना भी मुश्किल है।
ध्येयं सदा परिभवघ्नम्—इसी प्रकार उनका ध्यान करने से हमारे भीतर में जितनी भी इतर वाञ्छा है, इतर प्रवृत्ति है, पाप प्रवृत्ति है, संसार में बंधन के जितने भी कारण हैं, लोभ-लालसा इत्यादि, सबका नाश हो जाता है। जब इतर वस्तु की इच्छा चली जाती है तभी अभीष्ट वस्तु लाभ होती है। हम लोगों को कृष्ण की प्राप्ति की यदि इच्छा होगी तो हमको वे कृष्ण भी दे सकते हैं। राम-कृष्ण एक ही हैं। दण्डकवन में ऋषियों ने रामचन्द्र को देखकर उन्हें पति रूप से प्राप्त करने की इच्छा की। तब रामचन्द्र ने कहा कि यह लीला मर्यादा पुरुषोत्तम लीला है। मैंने एक ही पत्नी स्वीकार करने का व्रत लिया है। मैं जब व्रज में गोपी के गृह में जन्म ग्रहण करूँगा, आप भी गोपीगृह में जन्म लेना। तब गोपियों के आनुगत्य में मेरी प्राप्ति होगी। दण्डकारण्य के ऋषियों ने जब इस प्रकार से आकांक्षा की तो रामचन्द्र जी ने उनपर कृपा की और कृष्णलीला में उन्होंने गोपीदेह धारण कर कृष्ण को प्राप्त किया। हम लोगों को भी कृष्ण पति रूप में मिल सकते हैं। हमारे हृदय में आकांक्षा होनी चाहिए।
तीर्थास्पदं—जितने तीर्थ हैं, उनके मूल में भगवान ही हैं। भगवान जहाँ पर स्थित नहीं हैं, वहाँ पर तीर्थ भी नहीं हैं। वैसे तो गंगा, यमुना इनको भी तीर्थ कहते हैं। वहाँ पापी व्यक्ति जाकर स्नान कर उसे अपवित्र कर देते हैं किन्तु साधु जब वहाँ पर स्नान करते हैं तो वे (तीर्थ) भी पवित्र हो जाते हैं।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्त:स्थेन गदाभृता— साधु इस प्रकार तीर्थस्वरूप होते हैं जो तीर्थ को भी तीर्थ बना देते हैं। साधुत्व कहाँ है? ‘मय्यनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये दृढाम्’—जो मुझ में अनन्य भाव से दृढा भक्ति करते हैं वही साधु हैं। साधु के अन्दर भगवान प्रकट रूप से हैं। इसलिए वह स्थान पवित्र हो जाता है। समस्त तीर्थों के मूल में भगवान हैं।
शिवविरिञ्चिनुतं—शिव, विरिञ्चि (ब्रह्मा) इत्यादि सभी देवता उन्हीं की पूजा करते हैं। भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं—भृत्य की आर्ति का हरण करते हैं। वे प्रणत पालक हैं। उदाहरण स्वरूप जब विभीषण ने रावण को समझाया कि राम परब्रह्म हैं। उनकी शक्ति (सीतादेवी) को कष्ट देना ठीक नहीं है। सीता को छोड़ दीजिए। तब रावण को क्रोध आया, तुम मुझसे छोटे होकर मुझे उपदेश दे रहे हो। तब रावण ने विभीषण को गाली दी और लात से प्रहार किया। तब विभीषण ने चिन्ता की कि रावण बड़ा भाई है। वह गाली दे सकते है, लात मार सकते है किन्तु जो भगवान की शक्ति को कष्ट दे रहा है, भगवान की अवहेलना कर रहा हैं, उस असत्संग में मैं नहीं रहूँगा। तब विभीषण लंका छोड़कर राम के पास आ गए। उस समय यह चर्चा हो रही थी कि सेतुबन्धन किस प्रकार किया जाए। अंगद उन्हें देखकर उन्हें रावण समझने लगा। तब हनुमान कहते हैं कि यह रावण नहीं विभीषण है। भक्त हैं। उन्होंने मेरे लिए बहुत सहायता का कार्य किया था। जब मैं अशोक वाटिका में गया था तब रावण की शक्ति को देखने के लिए मैंने अशोक वाटिका को पूरा नष्ट कर दिया था और जितने राक्षस थे उन सभी को मार दिया था। तब रावण ने इन्द्रजित को भेजा। मुझे रावण को देखना था इसलिए मैंने बंधन स्वीकार कर लिया और मैं छोटा हो गया तथा वह मुझे बाँधकर रावण की सभा में ले गया।
जब (राजसभा में) गया तो देखा रावण के दस सिर हैं। तब रावण ने कहा कि यह तो दूत है, छोटा सा वानर है इसको मारना नहीं। तब रावण पूछता है तुम कौन हो, तुम कहाँ से आये हो? सच बात बोलना, झूठ मत बोलना, झूठ बोलने से दंड मिलेगा। क्यों आये हो यहाँ पर ? तब हनुमान ने कहा कि हमारे आराध्य राम की शक्ति सीता को आपने अपहरण किया है। आपने बहुत गंदा काम किया है। उन्हें अभी छोड़ दीजिए नहीं तो आप के 10 सिर को हम अभी फोड़ देंगे। तब रावण ने क्रोधित होकर हनुमान को मारने का आदेश दिया। तब विभीषण ने उनसे प्रार्थना की कि एक दूत को मारना उचित नहीं है। तब रावण ने कहा ठीक है इसकी पूंछ में आग लगा दो। जब पूंछ में आग लगाने के लिए कपड़ा लाया तो हनुमान ने पूंछ को इतना बढ़ाया कि 10,000 राक्षसों ने उनकी पूंछ को पकड़कर उस पर कपड़ा बाँधा। उसके बाद पूंछ में आग लगा दी। जब उनकी पूंछ में आग लगा दी तो उन्होंने सम्पूर्ण लंका को जला दिया।
उसके बाद उन्होंने सीता देवी को ले लाने की इच्छा की किन्तु सीता देवी ने परपुरुष के साथ जाने से मना कर दिया। तब हनुमान ने आकर रामचन्द्र को संवाद दिया। वे जानते हैं कि यह विभीषण है, भक्त है। विभीषण पहले कुबेर के पास गए थे और उनसे कहा था कि मैं रावण के पास रहना नहीं चाहता हूँ। मुझे भगवान रामचन्द्र जी के पास रहने की इच्छा है। तब कुबेर ने कहा था ठीक है राम जी तो परमेश्वर है। उनके साथ में रहना ही अच्छा है। जाओ, उनके साथ रहो । फिर उनके हृदय में संदेह हुआ तो वे शिव के पास गए। तब शिव कहते है कि इसमें संदेह क्या है? तब विभीषण कहते हैं कि संदेह यही है कि रावण नहीं जानते हैं कि राम स्वयं भगवान हैं। राम जी अवश्य ही उनका निधन करेंगे। निधन के बाद जब राम लंका का राजा बनने के लिए आदेश करेंगे तब मेरे ऊपर दोष आएगा कि मैंने राज्य के लिए अपने भाई की हत्या करवा दी। तब शिव कहते हैं— तुम्हारे अन्दर राज्य प्राप्त करने की कोई इच्छा है? लेश मात्र भी नहीं है। तब क्या चिन्ता है? राम के शरणागत हो जाओ, तुम्हारे हृदय में तो इच्छा नहीं है किन्तु राम जो बोलेंगे तुम बस वही करो। लंका पर राज करने के लिए कहेंगे तो राज करो। शरणागत की दूसरी कोई क्रिया है क्या (भगवान् कि इच्छा पूर्ति के अतिरिक्त)? जो राम कहेंगे वह करो। यह संसार के लोग तुम्हारी निंदा करेंगे तो करने दो। तब संतुष्ट होकर राम के पास गए । जब राम के पास आए तब राम कहते हैं कि विभीषण भी क्या, यदि स्वयं रावण भी आकर मुझे कहे राम मैं आपका हूँ। कृष्ण तोमार हन यदि बोले एक बार,मायाबंधन हईते कृष्ण तारे करेन पार. यदि स्वयं रावण भी आकर मुझे कहे राम मैं आपका हूँ.
मा भयि मा भयि तब भी मैं उनको अभय प्रदान कर दूँगा। राम ने स्वयं अपने मुख से कहा कि मैं शरणागत को अभय दान करता हूँ ,यह मेरा व्रत है। भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं—वे प्रणत पालक हैं। इसलिए संसार समुद्र से पार हो जायेंगे, राम के पादपद्मों का आश्रय करके।
त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीं
धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यम्।
मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावद्
वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥
(श्रीमद्भागवतम 11.5.34)