आज शिव चतुर्दशी तिथि है। आज की तिथि अर्थात् फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि शिवजी को बहुत प्रिय है। इसकी कथा जो शास्त्रों में वर्णित है, मैं संक्षेप में उसका वर्णन करूँगा। एक व्याध(शिकारी) जंगल में रहता था। एक दिन उस शिकारी को कोई जानवर मारने का अवसर नहीं मिला। रात को वह एक पवित्र सरोवर के किनारे में बिना कुछ खाए रहा। सारी रात्रि उसे नींद नहीं आई। दैव से क्या हुआ कि वहाँ समीप में एक शिवलिंग था,उससे ज्ञात नहीं था। उसके हाथ से बेल वृक्ष का पत्ता शिवलिंग के ऊपर गिर गया। फिर उसने निकटवर्ती सरोवर से जल भी शिवलिंग अकस्मात गिरा दिया। इससे शिवजी उन पर बहुत प्रसन्न हो गए और मृत्यु के बाद वह शिवलोक में चला गया। तीर्थ का जल विशेष रूप से गंगाजल और बेल वृक्ष के अर्पित तीन पत्ते शिवजी को बहुत प्रिय होते हैं। किन्तु हमारा विचार थोड़ा भिन्न है। हम लोग शिव जी को प्रार्थना करते हैं कि वे हमें उनके आराध्य देव के पादपद्मों में अहैतुकी भक्ति प्रदान करें। हम उनकी आराधना शिवलोक की प्राप्ति के लिए नहीं करते। हमारे परम गुरुजी (श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद) ने मूल श्री चैतन्य मठ में शिवलिंग की स्थापना की थी। चार वैष्णव सम्प्रदायों के अन्तर्गत विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के मूल गुरु हैं—रूद्र(शिव)। हमारा सम्प्रदाय ब्रह्माजी से आया है तथा मध्वाचार्य जी इसके प्रमुख आचार्य हैं। लक्ष्मी देवी से रामानुज सम्प्रदाय एवं चतुःसन(ब्रहमाजी के चार मानस पुत्र) से निंबार्क सम्प्रदाय आई है। पद्मपुराण में लिखा है—
सम्प्रदाय-विहिना ये मंत्र ते निष्फला मतः
अतः कलौ भविष्यन्ति चत्वरः सम्प्रदायिनः
श्री-ब्रह्म-रुद्र-सनकः वैष्णवः क्षीति-पावन:।
सम्प्रदाय विहीन मंत्र निष्फल होता है। चार सम्प्रदाय हैं। सम्प्रदाय का अर्थ संकीर्णता नहीं है। सम्प्रदाय का ऐसा अर्थ निकलना शब्दों का व्यभिचार है। सम्यक रूप से प्रदत्त हुआ है ज्ञान जिस धारा या गुरु परंपरा में उसे संप्रदाय कहते हैं प्राप्त होगा। भगवान् से ज्ञान गुरु परम्परा के माध्यम से हम तक पहुँचता है।इस प्रकार कि धारा है- रूद्र। रूद्र कौन है? शिव । शिवजी महान वैष्णव है, वैष्णव में श्रेष्ठ है। यह कहाँ पर लिखा है?
समग्र शास्त्रों के निचोड़ श्रीमद्भागवत के द्वादश स्कंध में यह लिखा है,
निम्नगानांयथा गंगा देवनाम अच्युतो यथा
वैष्णवानां यथा शंभु: पुराणानामिदं तथा।
सभी पुराणों में भागवत सर्वोत्तम है, जितनी भी नदियाँ हैं उनमें गंगा श्रेष्ठ है, देवताओं में श्रेष्ठ है अच्युत भगवान श्री हरि और वैष्णवों में श्रेष्ठ है शम्भु। शिवजी भगवान के अत्यंत प्रिय भक्त है। हम ब्रज मंडल परिक्रमा,नवदीप परिक्रमा करने जाते हैं, सर्व प्रथम क्षेत्रपाल शिवजी के दर्शन कर उनसे कृपा प्रार्थना करते हैं, बिना शिवजी की कृपा से धाम दर्शन नहीं होता। भगवान ने स्वयं कहा है कि शिवजी की कृपा बगैर मेरे धाम में किसी को प्रवेश नहीं मिल सकता। इस प्रकार मायापुर धाम में प्रवेश करते समय सरस्वती जी के किनारे क्षेत्रपाल शिवजी है, जब नवद्वीप शहर में जाते हैं वहाँ पर भी शक्ति के साथ शिवजी के दर्शन कर उनको प्रणाम करते हैं। शक्ति दो प्रकार से होती है, जगत के लोग कामना पूर्ति के लिए जिनकी उपासना करते हैं, वह है महामाया और जो हमें भगवान् के पास ले जाती हैं वे हैं योगमाया। जो भगवान के विमुख है उनको महामाया पकड़ कर संसार में फंसाकर रखती हैऔर जो भगवान के उन्मुख है उनको योगमाया भगवान के पास ले जाती है।
गुवाहटी में कामाख्या देवी का मंदिर है, संसार के सब लोग कामना लेकर उनके जाते हैं। शिवजी ने जब सति के शरीर को लेकर भ्रमण किया तब जहाँ जहाँ उनके अंग गिरे वहाँ शक्तिपीठ स्थापित हुए, ऐसे कुल ५१ शक्तिपीठ हैं।एक बार एक सरल ब्राह्मण कामख्या देवी के दर्शन के लिए गए तो देवी ने उनको योगमाया रूप से दर्शन देकर गोपाल मंत्र दिया, उसे कहा कि तुम कृष्ण का नाम करो किन्तु जब अन्य संसारी के लोग वहाँ संसार की कामना लेकर जाते हैं तो वे उन्हें महामाया के पास भेज देती हैं। इसलिए श्रीभक्ति विनोद ठाकुर ने अपनी गीति में उनसे प्रार्थना करते हुए लिखा है,
आमार समान हीन नाहि ए संसारे।
अस्थिर हएछि पड़ी भव पारावारे।।
मेरे समान हीन कोई नही है। में भव कूपी संसार में गिर गया। मुझे बहुत कष्ट हो रहा है।
कुल देवी योगमाया मोरे कृपा करि।
आवरण संवरिबे कबे विश्वोदरी।।
विश्वोदरी का अर्थ है महामाया । महामाया जीवों को बहुत जन्मों से भ्रमण करा रही है और उससे जीवों को ताप मिल रहा है। हे योगमाया आप मुझ पर कृपा करके मेरा संसार से उद्धार कीजिए। जिसने भक्ति विनोद ठाकुर के लेख पढ़ें हैं वे जानते हैं।
छुनेछी आगमे–वेदे महिमा तोमार।
श्री-कृष्ण विमुखे बांधी’ कराओ संसार।।
श्री-कृष्ण-संमुख्य या’र भाग्यक्रमे हय।
ता’रे मुक्ति दिया कर अशोक-अभय।।
मैंने आगम-वेद में आप की महिमा श्रवण की है। आप जो कृष्ण विमुख जीव हैं उनको संसार रूपी कारागार में बद्ध कर देती हैं। हम लोग एक कारागार में है। भारत में बहुत कारागार है। कारागार में बहुत कैदी है और उस कारागार से बाहर जो रहते हैं वह मुक्त हैं। कैदी को कारागार से छूटने के लिए 50000 या एक करोड़ देना होगा तब जाकर वह मुक्त होगा। उसी प्रकार हम सब बद्ध हैं, संसार रूपी कारागार में फंसे हुए हैं। कृष्ण के विमुख होकर जो संसार की वस्तु की कामना करते हैं महामाया उनको संसार कारागार में डाल देती है।
यदि कोई कृष्ण के उन्मुख हो जाए तो योगमाया उनको बुद्धि देकर भगवान के पास ले जाती है। इसलिए वही देवी के पास प्रार्थना करते है।
ए दासे जननी! करि’ अकैतव दया।
वृंदावन देह स्थान तुमी योगमाया।।
भगवान जो वृंदावन धाम में लीला कर रहे हैं, उस धाम में योगमाया की कृपा से प्रवेश होगा।
वृन्दावन के क्षेत्रपाल शिव गोपीश्वर महादेव हैं। उनका नाम गोपीश्वर शिव कैसे हुआ? उनके निकट वंशीवट है, जहाँ रासलीला होती है। वहाँ पर गोपीनाथ जब मुरली ध्वनि करते हैं तब उस ध्वनि के द्वारा सभी गोपियाँ को खींचकर अपनी ओर ले आते हैं तथा उनके साथ रासलीला करते हैं। उसी रासलीला में प्रवेश करने के लिए शिवजी की बहुत इच्छा हुई। शिवजी महाराज ने श्रीकृष्ण से कहा कि मेरी रासलीला में प्रवेश करने की इच्छा है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि यहाँ केवल गोपियों का अधिकार है, अन्य किसी का अधिकार नहीं है। आप इस शरीर से वहाँ नहीं जा सकते। तब शिवजी ने गोपी शरीर धारण किया।
वहाँ सब गोपियों के साथ कृष्ण रासलीला कर रहे थे। अचानक एक अत्यन्त सुन्दर गोपी वहाँ पर आई। उसे देखकर सब आश्चर्यचकित हो गए कि इस गोपी को तो कभी देखा नहीं। यह कहाँ से आ गई? परन्तु श्रीकृष्ण उनका स्वागत करते हुए कहने लगे—“आइए! आइए! पधारिए!” जब गोपियाँ इस नई गोपी को पहचान न पाईं तब कृष्ण ने उन्हें बताया—“तुम नहीं जानतीं, यह शिवजी हैं। गोपी रूप लेकर आए हैं।” बिना गोपियों के आनुगत्य के, केवल गोपी का रूप धारण कर लेने से रासलीला में प्रवेश नहीं मिलता। तब भी कृष्ण उनकी भक्ति के वशीभूत हैं। इसलिए कृष्ण कहते हैं, “आज से तुम्हारा नाम गोपीश्वर है। तुम्हारी कृपा के बिना कोई भी वृन्दावन में प्रवेश नहीं कर सकता। इसलिए गोपीश्वर शिव वंशीवट के निकट में ही स्थित हैं। वहाँ प्रणाम कर उनकी कृपा प्रर्थन अक्रनी होगी। वंशीवट में गोपी की मूर्ति है, जिनके गले में साँप है। वहाँ पर जाकर हम प्रणाम करते हैं।
मथुरा पुरी में क्षेत्रपाल शिव चारों दिशाओं में रक्षा करते हैं—पूर्व दिशा में पीपलेश्वर महादेव, जो कि अश्वत्थ अर्थात् पीपल के वृक्ष के रूप में हैं; पश्चिम दिशा में भूतेश्वर महादेव, उत्तर दिशा में गोपेश्वर महादेव और दक्षिण दिशा में रंगेश्वर महादेव। इन सबकी की कृपा के बिना धाम में प्रवेश नहीं मिलता। सम्पूर्ण व्रजमण्डल चारों दिशाओं में शिवजी के मंदिरों से घिरा हुआ है। परिक्रमा के समय भी हम विभिन्न स्थानों पर शिवजी को प्रणाम कर एवं उनकी कृपा लेकर ही आगे जाते हैं।
हमारे परम गुरुजी(श्रील प्रभुपाद) ने श्रीचैतन्य मठ में चारों सम्प्रदाय के आचार्य—मध्वाचार्य, रामानुजाचार्य, विष्णुस्वामी तथा निम्बादित्य(निंबार्काचार्य); की नित्य सेवा प्रकाशित की।
हमारे परम गुरुजी के आविर्भाव स्थान पुरी में भी चारों दिशाओं में चार वैष्णव आचार्य हैं, जिनमे रूद्र (विष्णु स्वामी सम्प्रदाय) भी है। इसी प्रकार नवद्वीप में शिवजी क्षेत्रपाल रूप से विराजमान हैं। रुद्रद्वीप में जाकर हम वहाँ का महात्म्य सुनते हैं। वहाँ पर एकादश रुद्रों ने प्रकट होकर राधा-कृष्ण मिलित तनु, श्री गौरांग महाप्रभु का नाम ‘गौर!’, ‘गौर!’ पुकारते हुए नृत्य किया था।
इसी प्रकार गोद्रुमद्वीप में हम हरिहर क्षेत्र जाकर उन्हें प्रणाम करते हैं और उनकी कृपा प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार धाम में जहाँ पर भी जायेंगे शिवजी है, उनकी कृपा के बिना धाम में प्रवेश नहीं मिलता। वे भगवान के अत्यंत प्रियतम हैं।
साक्षाद्धरित्वेन समस्तशास्त्रै-रुक्तस्तथा भाव्यत एव सद्भिः।
किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य, वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥
गुरु, भगवान से अभिन्न हैं तथा एक विचार से वे भगवान के प्रियतम हैं। शिवजी भगवान के अत्यंत प्रियतम है। इसी प्रकार भुवनेश्वर में भी शिव हैं। हरिहर क्षेत्र में जाकर हमें उनकी कृपा लेनी पड़ती है। इस स्थान का महात्म्य वाराणसी से भी अधिक है। इसलिए इसे महावाराणसी कहते हैं। वहाँ पर शिवजी गौरनाम का कीर्तन करते हैं। शिवजी पंचमुख से राम नाम कीर्तन करते हैं।
जब हम सीमंतद्वीप जाते हैं, वहाँ पर बिल्वपक्ष नामक स्थान है। यहाँ पर पंचमुखी शिवजी की विराजमान हैं। यह स्थान व्रजमण्डल के बिल्ववन से अभिन्न है। व्रज धाम में जो द्वादश वन हैं, वे सभी नवद्वीप धाम में विद्यमान हैं।
बिल्वपक्ष में कुछ ब्राह्मणों ने बेल के पत्तों से शिव जी की पन्द्रह दिन अर्थात् एक पक्ष तक आराधना की थी। चतुःसन सम्प्रदाय के अंतर्गत निम्बादित्य भी उन ब्राह्मणों में से एक थे जिन्होंने एक पक्ष में उनकी पूजा की थी। शिवजी ने दर्शन देकर उन्हें बताया था कि इसी स्थान पर आपको अपने गुरु चतुःसन की प्राप्ति होगी।
शिवजी जो वैष्णव और भगवान्की के प्रिय भक हैं कृपा से ही हमें भगवान की भक्ति प्राप्त होगी। हम किसी अन्य लोक में जाने अथवा अन्य किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए उनकी उपासना नहीं करते। हमारा भाव कुछ इस प्रकार का होना चाहिए।
वृन्दावनावनिपते! जय सोम! सोममौले!
सनक-सनन्दन-सनातन-नारदेड्य
गोपीश्वर! व्रजविलासि-युगांघ्रि-पद्मे
प्रीतिं प्रयच्छ नितरां निरुपाधिकां मे।
(श्रीवृन्दावन धाम के रक्षक चन्द्रमौलि श्रीमहादेव जी की जय हो। आप सनक, सनन्दन, सनत कुमार व सनातन नामक चतुःसन के तथा श्रीनारद गोस्वामी जी के भी पूज्य हो। हे गोपीश्वर महादेव जी! आप कृपा करके हमें श्रीराधाकृष्ण के पादपद्मों में नित्य निरुपाधिक प्रेम प्रदान करें।)
शिवजी तो आशुतोष हैं, शीघ्र प्रसन्न होने वाले हैं। आज की तिथि में प्रार्थना करने से शीघ्र ही हमें अपनी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति हो जाएगी। इसलिए हमें यह अवसर नहीं गंवाना चाहिए। शिवजी को हम वैष्णव रूप से दर्शन करते हैं। वैष्णवों की तिथि पूजा में कुछ न खाने का विधान नहीं अपितु सब समय उनके समीप वास करने का विधान होता है। यदि न खाकर भी पेट की ही चिन्ता करते रहें तो उसका क्या लाभ है? उपवास का अर्थ क्या है? उपवास का वास्तविक अर्थ हरिभक्तिविलास में बतलाया गया है। सब समय भगवान की चिंता करना, भगवान के निकट निवास करना ही उपवास का वास्तविक अर्थ है। भगवान की आराधना करने से ही शिवजी को आनन्द होगा।
सब समय, सुबह से रात तक जो भी क्रिया करते हैं, जागतिक लाभ प्राप्त करने के लिए करते हैं। परन्तु शिवजी के पास हमें यही प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारा श्रीराधाकृष्ण में प्रेम हो जाए। ऐसा सर्वोत्तम प्रेम जिसकी प्राप्ति करने से अन्य किसी वस्तु की कोई आवश्यकता नहीं रहती।
अब मैं श्रीमद्भागवतम् के चतुर्थ स्कन्ध से एक प्रसंग का वर्णन करूँगा। वहाँ पर लिखा है स्वयंभू मनु की तीन कन्याएँ थीं—आकूति, देवहुति और प्रसूति। स्वयंभू मनु ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे। सप्तर्षि—मारीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु एवं वशिष्ठ भी ब्रह्माजी के पुत्रों में अन्यतम हैं। स्वयंभू मनु ने अपनी कन्या प्रसूति का विवाह ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष प्रजापति से किया। दक्ष को अपनी पत्नी प्रसूति से सोलह कन्याएं प्राप्त हुईं, जिनमें से उन्होंने तेरह कन्याओं का धर्म के साथ विवाह किया, एक का अग्निदेव से, एक कन्या का पितृगण से और सबसे छोटी कन्या, सती का ब्रह्माजी की आज्ञानुसार शिवजी से विवाह किया। दक्ष शिवजी के विरोध में थे।
एक बार दक्ष प्रजापति ने मरीचि, वशिष्ठ आदि को लेकर एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में सभी को निमंत्रित किया। सभी देवता उसमें उपस्थित हुए। ब्रह्माजी और शिवजी भी वहाँ आए। सब वहाँ आकर बैठ गए। दक्ष प्रजापति का शरीर इतना उज्ज्वल है कि जैसे ही वह वहाँ पर उपस्थित हुए, उनके तेज से पूरा स्थान उज्ज्वलित हो गया। सब देवताओं ने खड़े होकर उनका स्वागत किया किन्तु ब्रह्माजी और शिवजी नहीं उठे। शिवजी को खड़ा न होता देख दक्ष प्रजापति क्रोधित हो गए और सोचने लगे, “ब्रह्माजी तो मेरे पिता हैं, वे नहीं उठे तो कोई बात नहीं। परन्तु मैं शिव का ससुर हूँ, पिता तुल्य हूँ। मेरे आने पर वह मेरे सम्मान में खड़ा क्यों नहीं हुआ?”
तब क्रोध में दक्ष जो भी मुख में आया कहने लगे—“पिताजी की इच्छा होने के कारण न चाहते हुए भी मुझे इसे अपनी कन्या को देना पड़ा। यह अपने शरीर पर राख़ लगाकर भूत-प्रेतों के स्थान पर निवास करता है( में शिवजी के बारे में दक्ष ने जो भी कहा उसका वास्तव अर्थ भागवतम में वर्णन किया गया है)।” ऐसा कहने के बाद दक्ष ने शिवजी को अभिशाप दिया कि उन्हें यज्ञों का कोई भाग नहीं मिलेगा। क्रोध के कारण दक्ष ने अपने पिता के वहाँ उपस्थित होते हुए भी ऐसा बोल दिया। पहले के समय में पिता के सामने किसी को शासन करना अथवा आशीर्वाद देना मना है। पिता गुरु तुल्य होते हैं। इसी प्रकार पति के सामने स्त्री तथा बड़े भाई के सामने छोटा भाई किसी को शासन नहीं करेंगे। पहले के समय में इन विचारों का पालन किया जाता था किन्तु अब यह विचार लुप्तप्राय हो गए हैं।
इस घटना से दक्ष प्रजापति के अभिमान को ठेस पहुँची। अभिमान से व्यक्ति गिर जाता है। बहुत उच्च कोटि का होने से भी उसका पतन हो जाता है और वह घृणित कार्य में प्रवृत्त हो जाता है। दक्ष का अभिशाप सुनकर शिवजी ने तो कोई प्रतिक्रिया नहीं की किन्तु उनके सेवक नन्दी से यह सहन न हुआ और कहा, “दक्ष ने मेरे आराध्य देव को इस प्रकार अपशब्द कहे! मैं अभिशाप देता हूँ कि इसका सिर बकरे का होगा। याचक बनकर भ्रमण करेगा।” भृगु मुनि महाराज दक्ष के पक्ष में थे। इसलिए नन्दी के वचनों को सुनकर उन्होंने अभिशाप दिया—“जो शिव व्रत का पालन करेगा, वह पाखण्डी हो जाएगा।”
तब शिवजी ने देखा कि अहंकार में मत्त होने के कारण इन सबकी बुद्धि खराब हो गई है। “कहीं यह लोग वैष्णव निन्दा न कर बैठें”—इस विचार से शिवजी वहां से चले गए। दक्ष भी वहाँ से चले गए।
इस घटना के उपरान्त विश्वसृष्टाओं ने जो हज़ारों वर्षों तक यज्ञ किया और यज्ञ समाप्त होने पर गंगा, यमुना आदि पवित्र नदियों में स्नान किया। परन्तु इतने वर्ष बीत जाने पर भी दक्ष प्रजापति को यह स्मरण रहा कि शिव ने मेरा अपमान किया था। कुछ काल के बाद महाराज दक्ष ने अपने राज्य में एक यज्ञ किया। उस यज्ञ में उन्होंने सभी को निमन्त्रण दिया किन्तु शिवजी और उनके परिकरों को आमन्त्रित नहीं किया। क्योंकि सती अब शिवजी की पत्नी थीं, इसलिए दक्ष ने अपनी पुत्री को भी निमन्त्रण नहीं दिया।
तब सती ने देखा कि देवता, मुनि-ऋषि आदि सभी अपने-अपने विमानों में बैठकर कहीं जा रहे हैं। सती ने उनसे पूछा कि वे कहाँ जा रहे हैं। तब देवताओं ने कहा, “क्या आप जानती नहीं कि आपके पिताजी के यहाँ बहुत बड़ा यज्ञ हो रहा है? सम्पूर्ण विश्व के व्यक्ति वहाँ जा रहे हैं, आप भी आइए।” यह सुनकर उनका मन चंचल हो गया और वह सोचने लगीं, “सब लोग वहाँ जा रहे हैं। पिता-माता के पास जाने के लिए निमन्त्रण की क्या आवश्यकता है?”
तब सती ने शिवजी से यज्ञ में जाने के लिए प्रार्थना की, “पिताजी ने बहुत बड़े यज्ञ की व्यवस्था की है जिसमें सभी देवता व हमारे सगे-सम्बन्धी जा रहे हैं। मेरी उस यज्ञ में जाने की बहुत इच्छा है। कृपया आप मुझे वहाँ जाने की अनुमति दे दीजिए।” शिवजी चुप रहे। कुछ देर बाद पुनः सती उन्हें कहने लगीं, “सभी उस यज्ञ में जा रहे हैं। बहुत दिनों से माता-पिता के दर्शन न होने के कारण मेरा हृदय उनके दर्शनों के लिए अत्यन्त व्याकुल हो रहा है।”
महाराज दक्ष के पास जो गुण हैं; यथा सुंदर रूप, विद्या, जागतिक वैभव इत्यादि, यह सब गुण साधु में होने से इनकी वास्तविक शोभा होती है। महाराज दक्ष के अभिमान के कारण इन गुणों का कोई मूल्य नहीं था। असाधु का अभिमान बहुत खराब होता है।
शिवजी तब सती को समझाते हुए कहते हैं—“जब कोई दुष्ट व्यक्ति कुछ अप्रिय शब्द कहता है, उसके कटु वचन तीर लगने से अधिक कष्टप्रद होते हैं। इसलिए मैं तुम्हें वहाँ जाने से मना करता हूँ।” सती के पुनः आग्रह करने पर शिवजी ने कहा, “देखो, अब तुम्हारा मेरे साथ सम्बन्ध है। जो प्रेम, जो व्यवहार तुमने अपने पिता में पहले देखा है, वह अब नहीं है। तुम्हें वहाँ जाने से दुःख होगा और जो कष्ट मिलेगा वह सहन करने योग्य नहीं होगा। तुम मेरे साथ सम्बन्धयुक्त हो। तुम्हारे पिता मुझे प्रेम नहीं करते इसलिए तुम्हें भी प्रेम नहीं करेंगे। इसलिए किसी भी परिस्थिति में वहाँ नहीं जाना।”
सती की यज्ञ में जाने की उत्कण्ठा इतनी प्रबल थी कि पति के मना करने पर भी उनकी इच्छा के विरुद्ध वह अपने पिता से मिलने चली गईं। साथ ही साथ शिवजी के कुछ गण भी सती के पीछे-पीछे यज्ञस्थली पर गए।
वहाँ पहुँचकर वह अपने पिता के पास गईं और उन्हें प्रणाम किया। पिता दक्ष ने कुछ नहीं कहा। सती का मुख काला हो गया(वह हताश हो गईं)। कुछ समय के पश्चात् वह फिर उनके सामने गईं। तब दक्ष ने कहा—“तुम्हें यहाँ आने के लिए किसने कहा? तुम यहाँ से चली जाओ, तुमने यहाँ आकार गलती की।”
जब चारों ओर शिवजी की निन्दा सुनी तो सती से सहन नहीं हुआ। उन्होंने सोचा कि वैष्णव निन्दा सुनने से मरना अच्छा है। वैष्णव निंदुक की जिह्वा को तो काट देना चाहिए। मैं अपना शरीर त्याग दूँगी। इस प्रकार इस शरीर को त्यागकर मुझे दक्षनंदिनी(दक्ष की पुत्री) नाम से मुक्ति मिलेगी।
तब वह उत्तर दिशा की ओर मुख करके भूमि पर बैठ गई और ध्यानस्थ होकर अपना शरीर त्याग दिया। वह शिवजी की शक्ति हैं, कोई साधारण स्त्री नहीं हैं। इस प्रकार उत्तर दिशा में बैठकर एकदम पीला कपड़ा में आंख बंद करके ध्यान करने लगा। साधारण शक्ति नहीं है। तब देवताओं ने दक्ष को कहा कि आप अपनी पुत्री को ऐसा करने से रोक लीजिए। पूर्व में जो हुआ उसे भूल जाइए। इसपर दक्ष ने कहा कि उसे यहाँ आने के लिए किसने कहा था। यदि वह मरती है तो उसे मरने दो। देखते ही देखते सती ने अपना शरीर त्याग दिया। शिवजी के गणों ने यह दृश्य देखकर वहाँ पर आक्रमण कर दिया। तब यज्ञ से उत्पन्न रिभु ने शिवगणों को मारकर भगा दिया। नारद जी ने यह संवाद शिवजी को जाकर सुनाया, उन्होंने शिवजी को बताया के उनके गणों को भी मारकर भगा दिया गया है।
यहाँ पर एक शिक्षणीय विषय है। श्रील प्रभुपाद भी प्रायः अपने उपदेशों में कहा करते थे—
सत्त्वम् विशुद्धम् वसुदेव-शब्दितम्,
यद् ईयते तत्र पुमान् अपावृतः।
सत्त्वे च तसमिन् भगवान् वासुदेवो,
ह्यधोक्षजो मे नमसा विधीयते॥
(श्रीमद्भागवतम् 4.3.23)
वसुदेव अर्थात् विशुद्ध अंतःकरण में भगवान का अविर्भाव होता है। भगवान अप्राकृत है और वे अप्राकृत अंतःकरण में ही आविर्भूत होते हैं। जब मन में किसी भी प्रकार का कोई जागतिक अभिमान रहे तो , उस अपवित्र मन में भगवान आएँगे ही नहीं। कोई संभावना ही नहीं है। इसलिए सत्यम विशुद्धम…..
जब तक शरीर में “ मैं” बुद्धि है, जागतिक अभिमान जाएगा नहीं। सांसारिक इच्छाएँ आती ही रहेगी, झगड़ा-क्लेश होता ही रहेगा। सम्पूर्ण विश्व में इतने क्लेश, मार काट क्यों हो रही है? ये शरीर में ‘मैं’ बुद्धि के कारण ही होता है। किन्तु गोलोक वृंदावन में ऐसा नहीं है। वहाँ पर सब का केवल मात्र एक ही स्वार्थ है कृष्ण। सभी कृष्ण के वशीभूत हैं। जब सब का स्वार्थ अलग-अलग हो तब संघर्ष होगा ही होगा। विशुद्ध अंतः करण से ही भगवान की प्राप्ति होगी और जिनका विशुद्ध अंतः करण है, ऐसे साधुओं के संग से ही अंतःकरण विशुद्ध होगा। एक जागृत आत्मा ही दूसरी सुषुप्त आत्मा को जागृत कर सकती है। जीव अपनी चेष्टा से अपनी आत्मा को जागृत नहीं कर सकता। यदि सब so रहे हो तब कौन किसको जगाएगा? किन्तु यदि एक व्यक्ति जागृत है, वह हजारों लोगों को जागृत कर सकता है, इसी प्रकार एक शुद्ध भक्त हजारों, लाखों, करोड़ों जीवों का उद्धार कर सकता है।
वसुदेव अर्थात विशुद्ध अंतःकरण में भगवान का अविर्भाव होता है। भगवान अप्राकृत है और वे अप्राकृत अंतःकरण में ही आविर्भूत होते हैं। जब मन में किसी भी प्रकार का कोई जागतिक अभिमान रहे तो , उस अपवित्र मन में भगवान आएँगे ही नहीं। कोई संभावना ही नहीं है। इसलिए सत्यम विशुद्धम…..
जब तक शरीर में “ मैं” बुद्धि है, जागतिक अभिमान जाएगा नहीं। सांसारिक इच्छाएँ आते ही रहेगी, झगड़ा-क्लेश होता ही रहेगा। सम्पूर्ण विश्व में इतने क्लेश, मार काट क्यों हो रही है? ये शरीर में ‘मैं’ बुद्धि के कारण ही होता है। किन्तु गोलोक वृंदावन में ऐसा नहीं है। वहाँ पर सब का केवल मात्र एक ही स्वार्थ है कृष्ण। सभी कृष्ण के वशीभूत हैं। जब सब का स्वार्थ अलग-अलग हो तब संघर्ष होगा ही होगा। विशुद्ध अंतः करण से ही भगवान की प्राप्ति होगी और जिनका विशुद्ध अंतः करण है, ऐसे साधुओं के संग से ही अंतःकरण विशुद्ध होगा। एक जागृत आत्मा ही दूसरी सुषुप्त आत्मा को जागृत कर सकती है। जीव अपनी चेष्टा से अपनी आत्मा को जागृत नहीं कर सकता। यदि सब so रहे हो तब कौन किसको जगाएगा? किन्तु यदि एक व्यक्ति जागृत है, वह हजारों लोगों को जागृत कर सकता है, इसी प्रकार एक शुद्ध भक्त हजारों, लाखों, करोड़ों जीवों का उद्धार कर सकता है।
नारद गोस्वामी ने सम्पूर्ण वृत्तान्त शिवजी को जाकर सुनाया। यह सुनकर शिवजी अत्यन्त क्रोधित हो गए। शिवजी की शक्ति साधारण नहीं है। तब शिवजी का पादपदमों में ध्यान करके योग का माध्यम से उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया। जब शिवजी को यह नारद जी के द्वारा पता चला कि सती ने दक्ष के यज्ञ में अपने शरीर को छोड़ दिया है और उनके साथ ही नंदी को रिभु द्वारा बंदी बना लिया गया है वह अत्यंत क्रोधित हो गए। उन्होंने अपने शरीर से विराट मूर्ति वीरभद्र को निकला, हजारों हाथ और हजारों अस्त्र के साथ विराट रूप जो स्वयं शिवजी की ही द्वित्तीय मूर्ति है और दक्ष के अग्नि यज्ञ को नष्ट करने के लिए अवतरण हुआ। जब वीरभद्र वहाँ पहुँचे तो उन्हें देखकर सब आश्चर्य-चक्ति हो गया। मौसम बहुत खराब हो गया। चारों तरफ धूल और अंधेरा छा गया। यह क्या हो गया ? सब भयभीत हो गयें। सब सोचने लगे, क्या हो गया? क्या हो गया? जब हम लोग पाप करते हैं चारों तरफ अंधेरा हो जाता है। चारों तरफ से धूल छा जाता है। ऐसा देखकर दक्ष को भी भय हो गया। जैसे जैसे आँधी-तूफ़ान गर्जन करता हुआ पास आ रहा है, वैसे-वैसे अंधेरा बढ़ रहा है। तेज तूफान यज्ञ की समग्र सामग्री को उड़ा ले गया। सब कुछ नाश कर दिया। भृगु ने दक्ष के समर्थन में दाढ़ी हिलाया था, वीरभद्र ने उसकी दाढ़ी को उखाड़ दिया औरजिसने आँखों से समर्थन किया था उनकी आंख को नष्ट कर दिया।जो हंस रहे थे उनके दांतों को उखाड़ दिया।सब वहाँ से भयभीत होकर भाग गएँ। वीरभद्र ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ दक्ष को जब पकड़ा तो दक्ष कुछ नहीं कर पाया। वहाँ पर एक पशु-मारण यन्त्र था, उससे वीरभद्र ने दक्ष के सिर को काट दिया। उनको मार डाला और दक्ष के अनुयायी उसे मरा हुआ देख कर रोने लगे। ब्रह्माजी जानकर उनके सामने नहीं आए, ब्रह्माजी के सामने ही दक्ष ने शिवजी का अपमान किया था इसलिए ब्रहमाजी को हृदय में दुःख हुआ था। बाद में सब कैलाश गए और ब्रह्माजी और देवताओं ने शिवजी से प्रार्थना की, शिवजी शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं, उनकी प्रार्थना से वे शांत हो गए। बाद में दक्ष को बकरे का सिर लगाकर जीवित किया। दक्ष और बाकी सब देवतोओं ने मिलकर शिवजी का स्तव किया। तो इस प्रकार शिवजी दक्ष को बताया कि अभिमान का क्या परिणाम होता है। दक्ष इतना सुन्दर था उसको अपनी सुन्दरता का भी अभीमान था किन्तु अब कहाँ सुन्दरता रही? बकरे का सिर लगाना पड़ा।
जब हम दक्षिण भरता गए थे वहाँ पर हम शिवजी के मंदिर में दर्शन करने गए थे। रामानुजाचार्य संप्रदाय वाले शिव मंदिर में नहीं जाते।वे लोग हम शिव मंदिर में जाते हुए देख आश्चर्य करने लगे कि हम वैष्णव होकर भी शिव मंदिर में जाते हैं। वे लोग मानते हैं कि यदि जंगल में ऐसी परिस्थिती उपस्थित हो कि एक ओर शेर या चित्ता खड़ा है और दूसरी ओर शिव-मंदिर है तब भी शेर के हाथों मर जाना उचित है किन्तु प्राण बचाने के के लिए भी कभी शिव मंदिर में नहीं जाना। किन्तु हम लोग तो रावण के शिवजी के पास नहीं जाते हम तो भक्त शिवजी के दर्शन के लिए जाते हैं।