यह हरिकथा १५ जुलाई २००६ को कोलकाता में गोपाल भट्ट गोस्वामी जी के तिरोभाव तिथि पर श्रील गुरुदेव द्वारा कही गई थी। श्रील गुरुदेव ने वैष्णवों को उनकी आविर्भाव और तिरोभाव, दोनों दिनों पर स्मरण करने पर अत्यधिक महत्व दिया है। वे कहते हैं, “वैष्णव सर्व शक्तिमान हैं और उनको स्मरण करना भक्ति का अंग है जिससे हमें सर्वोत्तम मंगल की प्राप्ति होती है।”
आज षड्गोस्वामी में अन्यतम श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी की तिरोभाव तिथि है। ऐसा विधान दिया गया है कि वैष्णवों की आविर्भाव व तिरोभाव तिथि में उनको स्मरण करना, उनकी कृपा-प्रार्थना करना, उनका महात्म्य कीर्तन करना। वैष्णवों का स्मरण सर्वशक्तियुक्त साधन है। उनको स्मरण करने से हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए हमारे गुरु वर्ग, वैष्णवाचार्यवर्ग, वैष्णवों को प्रतिदिन स्मरण करने के लिए कहते थे, विशेष रूप से उनकी आविर्भाव व तिरोभाव तिथि में।
गुरु, वैष्णव भगवान तिनेर स्मरण।
तिनेर स्मरणे हय विघ्न विनाशन,
अचिराते हय निज अभीष्ट पूरण॥
उन्हें स्मरण करने से भजन के समस्त विघ्न चले जाते हैं। सर्व अभीष्ट लाभ होता है। यह बात पहले भी कह चुका हूँ किन्तु बद्धजीव के लिए स्मरण करना बहुत कठिन होता है। सहज प्रतीत होता है, परन्तु कठिन होता है।
हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद से प्रश्न किया, “तुम्हारा मन भगवान में कैसे लगा? तुम्हारे गुरु शंड तथा अमर्क ने तुम्हें यह शिक्षा नहीं दी। कोई वैष्णव तुम्हारे पास नहीं आया। तब यह कैसे हुआ?”
प्रह्लाद महाराज ने कहा,
मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो वा
मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं
पुन: पुनश्चर्वितचर्वणानाम्॥
(श्रीमद्भागवत 7.5.30)
गुरुजी गृहव्रत शब्द की चार प्रकार से व्याख्या करते थे—
1) जो अपने मकान इत्यादि विषयों में आसक्त हैं, इस प्रकार के एक नहीं, लाख नहीं, करोड़ नहीं, पूरी पृथ्वी के 600 करोड़ गृहव्रत व्यक्ति मिलकर भी एक व्यक्ति की मति कृष्ण में नहीं लगा सकते। कहा जाता है कि वैष्णवों को स्मरण करने से सब हो जाता है किन्तु जड़ीय मन से स्मरण नहीं होता है। जो मन भगवान की अपरा प्रकृति का बना है, वह दुनिया की नाशवान वस्तु की चिन्ता कर सकता है। किन्तु अप्राकृत भगवान एवं उनके पार्षद हमारे मन-बुद्धि से अतीत हैं।
2) घर में महात्मा भी रहते हैं तथा विषयी भी रहते हैं। ऐसा कहते हैं—‘न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते’। जब विवाह करते हैं एवं स्त्री को लेकर आते हैं तब उसे गृहस्थ कहा जाता है। गृहस्थ होता है शास्त्र के अनुसार चलने वाला और अन्य एक होता है गृहमेधी, जो गृह को ही केन्द्र करके रहते हैं। सारी पृथ्वी के 600 करोड़ स्त्रैण पुरुष(स्त्री में अत्यन्त आसक्त) किसी एक व्यक्ति को भी भक्ति प्रदान नहीं कर सकते। उनकी स्त्री में अत्यासक्ति है। शास्त्रों में कहा गया है—‘पुत्रार्थे क्रियते भार्या’ (अर्थात् केवाल पुत्र उत्पत्ति के लिए पत्नी को ग्रहण करना चाहिए)। यह वर्णाश्रम धर्म के ही अन्तर्गत है। उसके लिए गृहमेधी शब्द का व्यवहार नहीं किया गया। अवैध स्त्री संग भारत की संस्कृति में नहीं है, यह विदेश से आया है। इसकी कोई नित्य सत्ता नहीं है। वर्णाश्रम धर्म यद्यपि स्वरूप धर्म नहीं है किन्तु यह क्रम मार्ग से सनातन धर्म में ले जाएगा इसलिए इसे भी सनातन धर्म कहा जाता है। हमारे ऋषि-मुनि मूर्ख नहीं हैं। जो व्यक्ति देहसर्वस्ववादी हैं, केवल देह के सुख, आराम व लाभ को देखते हैं, वे गृहव्रत हैं।
जब हम गोवर्धन परिक्रमा के लिए जाते हैं तो पहले ही वहाँ के मठ में कह देते हैं—“हमारा कमरा ठीक रखना, सब व्यवस्था ठीक रखना।” सब ठीक रखा तो अच्छा है, नहीं रखा तो वे दोबारा कभी नहीं आएँगे। परन्तु गोपाल भट्ट गोस्वामी एवं अन्य षड्गोस्वामी पेड़ के नीचे रहते थे। जिनके विषय में आलोचना हो रही है, वे दुनिया का कोई सुख नहीं चाहते थे। ऐसा होना अत्यन्त दुर्लभ है। देह और देह सम्बन्धी व्यक्तियों में जो आसक्ति है, उसे गृहव्रत कहते हैं। ऐसे विषयाक्त देहसर्वस्ववादी मनुष्य सम्पूर्ण पृथ्वी में किसी एक व्यक्ति को भी कृष्ण भक्ति नहीं दे सकते हैं। हम अपनी अथवा अन्यों की चेष्टा से भगवान व उनके भक्तों की महिमा गान नहीं कर सकते। उनका महात्म्य कीर्तन भी नहीं होगा। प्रकृति से अतीत भक्त तथा भगवान का महात्म्य कीर्तन कहना हमारी प्राकृत बुद्धि से असम्भव है। ऐसा होने से तो वे प्राकृत हो जाएँगे।
‘प्रणतादि गम्यं मूढेर अवेद्यम्’
शरणागति किसे कहते हैं?
आनुकूल्य…..शरणागति:।
भक्तों में शरणागत होने से शरणागति प्रमाणित होगी। केवल मुख से कहने से नहीं होगा। इसलिए वैष्णवों को स्मरण करना चाहिए, उनकी कृपा-प्रार्थना करनी चाहिए तथा उनका महात्म्य कीर्तन करना चाहिए। बद्ध जीव कैसे करें? किन्तु यह छोड़कर अन्य कोई उपाय भी नहीं है। नारद गोस्वामी की कृपा से प्रह्लाद महाराज को भगवान में प्रीति हुई। जिनकी जगत की किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं है, ब्रह्म वस्तु में प्रीति है, उनके पादपद्मों की धूल में स्नान करने से अर्थात् उनकी कृपा से ही भक्ति उदित होती है। शंड, अमर्क की चेष्टा से ऐसा नहीं हुआ, न ही प्रह्लाद महाराज की अपनी चेष्टा से ऐसा सम्भव हुआ।
शुद्ध भक्ति, शुद्ध भक्त सुदुर्लभ है। परन्तु हम लोगों को प्रयास करना चाहिए। मंगल का कोई अन्य उपाय नहीं है। वे लोग बहुत कृपालु हैं, भगवान की कृपामय मूर्ति हैं।
गुरु कृष्ण रूप हन शास्त्रेर प्रमाणे।
गुरु रूपे कृष्ण कृपा करेन भक्त गणे॥
(चै॰च॰आ॰ 1.45)
गुरु अथवा साधु रूप से कृष्ण कृपा करते हैं। वे कृष्ण की कृपामय मूर्ति हैं। चैतन्य महाप्रभु शिक्षाष्टक के चतुर्थ श्लोक में कहते हैं, “तुम लोग मुझे नहीं चाहते हो। यदि तुम हृदय से मुझे माँगोगे तो मैं सभी के लिए समान हूँ ,उसी समय मिल जाऊँगा। तुम हृदय से मुझे नहीं माँगते हो। कहो, हृदय से कहो—‘न धनं’—“मैं धन नहीं चाहता हूँ।” हम मुख से तो कहते हैं किन्तु भीतर से सोचते हैं, “धन के बिना जीवन यापन कैसे होगा? मेरी कन्या का विवाह है, ऐसा है, वैसा है इत्यादि। बिना धन के कैसे होगा?” हम मुख से कहते हैं किन्तु भगवान भावग्राहीहैं, भाषाग्राही नहीं हैं।
अनन्त ब्रह्माण्ड के स्वामी भगवान हैं—जब ऐसा विश्वास हो तो उनका आश्रय करने से कोई अभाव रह सकता है? क्या आपने सनातन गोस्वामी जी के बारे में सुना है? श्रील सनातन गोस्वामी प्रधानमन्त्री थे, किन्तु बाद में ब्रज में माधुकरी करके खाते थे। उनके पास स्पर्शमणि थी, जिससे वे लाखों-लाखों रुपए बना सकते थे। परन्तु उन्हें यह तक स्मरण नहीं था कि वह स्पर्शमणि कहाँ है। शिवजी का स्वप्नादेश पाकर एक ब्राह्मण, श्रीजीवन चक्रवर्ती वर्धमान से सनातन गोस्वामी के पास आया। उसने सनातन गोस्वामी जी से कहा—“आपके पास कोई धन है?” सनातन गोस्वामी ने कहा, “मेरे पास पहले बहुत धन था किन्तु अब तो मैं भिखारी हूँ।” ब्राह्मण ने कहा कि मुझे शिवजी ने आपके पास भेजा है कि आपके पास कोई अमूल्य धन है। जब ब्राह्मण सनातन गोस्वामी को प्रणाम करके वापस जाने लगा तब उन्होंने सोचा, “शिवजी तो कभी झूठ नहीं बोलते। मेरे पास अवश्य कुछ होगा।”
तब उन्हें अचानक याद आया व उस लौटते हुए ब्राह्मण से कहा, “यहाँ कचरे में देखो। इसके भीतर एक स्पर्शमणि है, उसे ले लो। उसे लोहे से स्पर्श करने पर लोहा सोना बन जाएगा।” जब उस ब्राह्मण ने मणि से लोहा लगा कर देखा तो वह सोना हो गया। उस स्पर्शमणि को लेकर ब्राह्मण ने सोचा कि अब उसके समान धनी और कोई नहीं है। बड़े आनन्द से वह जाने लगा। जब वह आनन्द से वापस जा रहा था तब उसने सनातन गोस्वामी से कहा, “आपके पास यह बहुमूल्य स्पर्शमणि थी, जिसके बारे में आपको यह तक स्मरण नहीं कि उसे आपने उसे कहाँ रखा है। अवश्य आपके पास कोई इससे भी अधिक बहुमूल्य धन है। मैं उसे प्राप्त करने की इच्छा करता हूँ।” शिवजी उस ब्राह्मण को शुद्ध भक्त का संग देना चाहते थे, जिससे वह वास्तव धन प्राप्त करे, इसलिए उसे सनातन गोस्वामी के पास भेजा था। सनातन गोस्वामी ने कहा—“यदि तुम सच में वह धन चाहते हो तो तुम्हें इस मणि को यमुनाजी में फेंकना होगा। तब मैं तुम्हें यह धन दे सकता हूँ।” ऐसा करने के बाद सनातन गोस्वामी उसे हरिनाम करने का उपदेश दिया।
इसलिए हम भीतर से भगवान को नहीं चाहते हैं। आगे महाप्रभु कहते हैं, ‘न जनं’—मुझे पुत्र, स्त्री इत्यादि नहीं चाहिए। किन्तु हम भीतर में यह सब चाहते हैं। हमारे भीतर देखकर भगवान फल देते हैं, मुख से क्या बोलते हैं उसकी ओर ध्यान नहीं देते। भगवा कपड़े भी नहीं देखेंगे, सफेद कपड़े भी नहीं देखेंगे। हृदय को देखकर फल देंगे। रावण ने सर्वोत्तम त्रिदण्ड वेश लेकर सीतादेवी का हरण किया। उसने संन्यासी वेश का दुरुपयोग किया। वेषभूषा सब कुछ नहीं है। भगवान को कोई धोखा नहीं दे सकता।
आज श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी की तिरोभाव तिथि है। श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी दक्षिण भारत में श्रीरंगम के निकट, कावेरी नदी के किनारे, वेलगुण्डी ग्राम में श्री वेंकट भट्ट के पुत्र के रूप में आविर्भूत हुए। श्रीकृष्ण लीला के समय जो अनंग मंजरी हैं (कुछ लोगों के मतानुसार जो गुण मंजरी हैं) वे ही गौर लीला की पुष्टि के लिये श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी के रूप में अवतरित हुई हैं। कहाँ महाप्रभु नवदीप, बंगाल में प्रकट हुए व कहाँ गोपाल भट्ट गोस्वामी वहाँ से इतनी दूर दक्षिण भारत में आविर्भूत हुए। विभिन्न लीलाएँ करने के लिए भगवान के अपने पार्षदों को अलग-अलग स्थानों पर आविर्भूत करवाया।
महाप्रभु ने चौबीस वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण किया। जब वे श्रीरंगम में श्रीवेंकट भट्ट के घर में रुके तब उनकी आयु 26 वर्ष थी। उस समय गोपाल भट्ट गोस्वामी 8 वर्ष के थे। जब महाप्रभु ने संन्यास लिया तब श्रीगोपाल भट्ट की आयु 6 वर्ष थी। उन्होंने तभी स्वप्न में देख लिया कि उनके आराध्य नन्दनन्दन श्रीकृष्ण, जो कि राधारानी का भाव लेकर गौरांग रूप से प्रकट हुए हैं, उन्होंने संन्यास ले लिया। गोपाल भट्ट तो मधुर रस की सेविका हैं। यह वेश देखकर वह इतना रोए, रो-रोकर चुप ही नहीं होते। उनके घर का कोई व्यक्ति नहीं जानता कि वे किसलिए रो रहे हैं। तब महाप्रभु को उनके पास जाना पड़ा (स्वप्न में गए, स्थूल रूप से नहीं)। महाप्रभु ने उन्हें गोद में ले लिया तथा महाप्रभु के नेत्रों से अश्रुओं की धारा बहने लगी जिससे महाप्रभु ने उनका शरीर सींच डाला। तब उन्हें समझाया{सांत्वना प्रदान की}। जब गोपाल भट्ट गोस्वामी की कृपा हो, तब महाप्रभु एवं राधाकृष्ण की कृपा अपने आप ही हो जाएगी। इससे सहज उपाय और कुछ नहीं है। उनके सिफ़ारिश(आवेदन) करने से ही सब मिल जाएगा। बुद्धिमान व्यक्ति प्रतिदिन उन्हें स्मरण करते हैं। श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी जी के शिष्य श्रीनिवासाचार्य जी ने षड्गोस्वामी अष्टक लिखा है, उसमें कहा है—
संख्यापूर्वक-नामगाननतिभिः कालावसानीकृतौ
निद्राहार-विहारकादि-विजितौ चात्यन्त-दीनौ च यौ।
राधाकृष्ण-गुणस्मृतेर्मधुरिमानन्देन सम्मोहितौ
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥
श्रीवेंकट भट्ट ने एक लीला की। हमने श्रीवन के बारे में सुना है जहाँ पर लक्ष्मी जी अभी भी तपस्या कर रहीं हैं। पहले उस वन का नाम बिल्ववन था। बिल्ववन से श्रीवन कैसे हो गया? अब बेल(बिल्व) के पेड़ वहाँ दिखाई नहीं देते।
रामानुजीय वैष्णव के आराध्य हैं—श्रीलक्ष्मीनारायण। वे बहुत निष्ठा के साथ उनका भजन करते थे। अधिकतर व्यक्ति उस समय प्रायः श्रीलक्ष्मी-नारायण की पूजा करते थे। प्रबोधानन्द सरस्वती भी उनकी ही पूजा करते थे। वेंकट भट्ट हृदय से सेवा करते थे किन्तु उनके भीतर में अभिमान था कि राम और कृष्ण का तो जन्म हुआ है, नारायण का जन्म नहीं हुआ। नारायण अज(जन्म रहित) हैं व अवतारी है। वे सोचते हैं कि हम लोग अवतारी की सेवा कर रहे हैं, जो कि सब अवतारों के कारण हैं। महाप्रभु कृष्ण की पूजा करते हैं जो कि नारायण का अवतार हैं, उनसे निम्न कोटि के हैं। उनके भीतर में इस प्रकार का अभिमान था। यह अभिमान महाप्रभु ने देख लिया तथा समझ गए।
एक दिन महाप्रभु ने परिहास करते हुए उनसे कहा, “देखो भाई वेंकट भट्ट! तुम्हारे इष्ट देव नारायण के समान ऐश्वर्य किसी अन्य का नहीं है। वे समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी हैं। उनकी शक्ति लक्ष्मी देवी समस्त ऐश्वर्यों की देवी हैं, नारायण की ही आराधिका शक्ति हैं। तुम्हारा कितना सौभाग्य है। किन्तु मेरे आराध्य कृष्ण गरीब हैं, ग्वाले के पुत्र हैं। उनके पास आभूषण भी नहीं हैं, मयूरपुच्छ(मोर पंख) धारण करते हैं व ग्वालबालों के संग गाय चराते हैं। मेरी आराध्या गोपियां गरीब ग्वालिनी हैं; दूध बेचकर उनका निर्वाह चलता है।किन्तु मैंने सुना है कि लक्ष्मीदेवी ने कृष्ण की रासलीला में प्रवेश पाने के लिए बिल्व वन में जाकर तप क्यों किया था?”
तब वेंकट भट्ट ने कहा, “उसमें क्या दोष है? राधा के कृष्ण और लक्ष्मीपति नारायण एक ही हैं।”
सिद्धान्ततस्त्वभेदेऽपि श्रीश- कृष्णस्वरूपयोः ।
रसेनोत्कृष्यते कृष्णरूपमेषा रसस्थितिः ॥
(श्रीभक्तिरसामृतसिन्धु 1.2.59)
“सिद्धान्त के अनुसार राधापति कृष्ण तथा लक्ष्मीपति नारायण एक ही हैं। भगवान दो-तीन अथवा हज़ार नहीं होते। कृष्ण संग करने के लिए जो लक्ष्मी देवी ने तप किया, उसमें उनके सतीत्व की क्या हानि हुई?” तब गौरांग महाप्रभु कहते हैं, “मैं दोष की बात नहीं कर रहा। कृष्ण माधुर्य लीलामय विग्रह हैं एवं नारायण ऐश्वर्यमय विग्रह हैं। दोनों तत्व में एक ही हैं। कृष्ण के पास राधारानी आराधिका हैं तथा नारायण के पास लक्ष्मीदेवी हैं। दोनों में कोई भेद नहीं है। परन्तु तब भी श्रीकृष्ण संग की लालसा से उन्होंने वृन्दावन में तपस्या की थी।”
“मेरा एक और प्रश्न है—तपस्या करने के बाद भी उनको रासलीला में प्रवेश क्यों नहीं मिला? आपके अनुसार नारायण तो अवतारी हैं व उनकी शक्ति लक्ष्मीदेवी तो सब कुछ करने का सामर्थ्य रखने वाली होंगी। किन्तु तब भी उन्हें तप करने के बाद भी रासलीला में प्रवेश नहीं मिला।”
ऐसा सुनने के बाद वेंकट भट्ट का सिर गोल हो गया(वे स्तब्ध रह गए) तथा कोई उत्तर नहीं दे पाए। वे चिन्तित हो गए तथा उन्हें बहुत दुःख हुआ। तब महाप्रभु ने उन्हें आश्वासन देने के लिए कहा, “तुमने पहले जो बात कही, मैं भी वही बात कह रहा हूँ। सिद्धान्त में लक्ष्मीपति नारायण व राधापति कृष्ण एक ही हैं किन्तु श्रीकृष्ण में रसोत्कर्षता अधिक है। नारायण में ढाई रस हैं—शांत, दास्य तथा आधा सख्य(गौरव सख्य)। कृष्ण में पांच मुख्यरस तथा सप्त गौणरस, बारह रस हैं। इसलिए कृष्ण अखिल-रसामृत-मूर्ति हैं। रासलीला मधुर रस में होती है। उनका रासलीला में प्रवेश नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने ऐश्वर्य भाव लेकर तप किया। इसीलिये बार-बार उन्हें भगवान नारायण का ही संग मिला।”
जब हम विधिमार्ग द्वारा ऐश्वर्य भाव लेकर भजन करेंगे तब राधाकृष्ण नहीं, लक्ष्मीनारायण मिलेंगे। जब ब्रजभाव होगा तब राधाकृष्ण मिलेंगे। इतना सहज नहीं है, कठिन है। परन्तु दूसरी ओर सहज भी है यदि शुद्धभक्त, भगवद्पार्षदों का संग मिल जाए।
चैतन्य चरितामृत में श्रीलकृष्णदास कविराज गोस्वामी कहते हैं
ऐश्वर्य-ज्ञानेते सब जगत मिश्रित,
ऐश्वर्य-शिथिल-प्रेमे नाहि मोर प्रीत।
(चै॰च॰आ॰ 4.17)
ऐश्वर्य भाव से समस्त जगत विभावित है। सब ऐश्वर्य की ओर दौड़ते हैं। कृष्ण कहते हैं मुझे ऐश्वर्य भाव से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। ऐश्वर्यगत भाव का विषय मैं नहीं हूँ।
आमारे ईश्वर माने, आपनाके हीन।
तार प्रेमे वश आमि, न हइ अधीन॥
(चै॰च॰आ॰ 4.18)
जो मुझे ईश्वर मानता है व स्वयं को छोटा मानता है उसके प्रेम से मैं वशीभूत नहीं होता हूँ। सामान्यतः शिक्षा दी जाती है कि ईश्वर पर विश्वास करो, ईश्वर सर्वशक्तिमान हैं। किन्तु यहाँ पर भगवान कहते हैं कि जो मुझे ईश्वर मानता है तथा स्वयं को छोटा मानता है, उसके प्रेम में मैं वशीभूत नहीं होता हूँ।
मोर पुत्र मोर सखा मोर प्राणपति।
एइ भावे येइ मोरे करे शुद्धा-भक्ति॥
आपनाके बड़ माने, आमारे सम-हीन।
सेइ भावे हइ आमि ताँहार अधीन॥
(चै॰च॰आ॰ 4.21-22)
“कृष्ण मेरा पुत्र है, मेरा सखा है, मेरा प्राणपति है”—जब ऐसा भाव हो तब मैं आता हूँ। ‘आपनाके बड़ माने’—पुत्र माँ से बड़ा नहीं हो सकता। माता का यह भाव होता है कि मेरा पुत्र स्नान नहीं कर सकता, स्वयं खा नहीं सकता, रसोई नहीं कर सकता। इसलिए सब यशोदादेवी करती हैं। सब गोपियां सेवा करती हैं।
माता मोरे पुत्र-भावे करेन बन्धन।
अतिहीन-ज्ञाने करे लालन पालन॥
(चै॰च॰आ॰ 4.24)
अति हीन है, बच्चा है—इस भाव से माता मेरा लालन-पालन करती है।
सखा शुद्ध-सख्ये करे स्कन्धे आरोहण।
तुमि कोन बड़ लोक, तुमि आमि सम॥
(चै॰च॰आ॰ 4.25)
भगवान के सखा उनके कन्धों पर चढ़ जाते हैं तथा कहते हैं कि तुम कहाँ से बड़े हो गए, तुम हमारे समान हो।
प्रिया यदि मान करि’ करये भर्त्सन।
वेद-स्तुति हइते हरे सेइ मोर मन॥
(चै॰च॰आ॰ 4.24)
यह हम लोग नहीं समझ पाते। वेद-स्तुति द्वारा कुछ भी नहीं होगा। हम राधाभाव की चिन्ता भी नहीं कर सकते। कृष्ण समस्त अवतारों के कारण हैं। ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’—कृष्ण स्वयं भगवान हैं। जिनकी भगवत्ता से अन्यों की भगवत्ता है उन्हें ही स्वयं भगवान कहा जाता है। उनसे समस्त अवतार हैं, वे समस्त अवतारों के अवतारी हैं।
जब रास लीला से कृष्ण अचानक चले गएँ तो सब गोपियाँ विरह से इतना रोने लगी कि जैसे रो-रोकर वे प्राण प्राण त्याग कर देंगी। हमें कृष्ण के साथ ऐसा सम्बन्ध हुआ नहींउन्हें देखा नहीं इसलिए हम सोच भी नहीं सकते की वह प्रेम क्या है! यह प्राकृत इंद्रियों से देखते हैं किन्तु जिन्होंने उन्हें देखा है केवल वे ही जानते हैं कि विरह में कैसी स्थिति होती है। तब कृष्ण गोपियों के सामने नारायण रूप से प्रकट हुए। नारायण को देखकर वे नमो नारायण: कहकर चली गयीं, उन्होंने सोचा नारायण की हमें कोई आवश्यकता नहीं है।
गोपियाँ कृष्ण को छोड़कर नारायण के पास नहीं आई। किन्तु पैठ धाम में जब राधा रानी गयीं तो उनके प्रेम से वशीभूत होकर नारायण द्विभुज हो गए, उनके दो हाथ भीतर में चला गए। राधारानी का इतना प्रेम है कि कृष्ण अपने आपको को छुपा नहीं पाए। राधा-कृष्ण की सेवा ही सर्वोत्तम आनन्द मिलता है। ऐसा सुनने के बाद वेंकट भट्ट का हृदय परिवर्तन हो गया, सभी राधा कृष्ण के भक्त हो गया। गोपाल भट्ट गोस्वामी ने प्रबोधानन्द सरस्वती मंत्र लिया, जिन्होंने ‘राधारस सुधा निधि’ लिखा है।
प्रबोधानान्द सरस्वती प्रकाशानन्द सरस्वती से अलग है, एक नहीं है। प्रकाशानंद सरस्वती मायावादी संन्यासी थे, जिन्होंने अपने दस हज़ार शिष्य लेकर काशी धाम में महाप्रभु के साथ विचार किया था। उन्होंने महाप्रभु से कहा कि आप तो संन्यासी होकर सब समय भाव में नृत्य करते है क्यों?आप वेदान्त सूत्र का पाठ क्यों नहीं करते ?
इसके बाद महाप्रभु ने उनके विचार भी खंडन किया। महाप्रभु पेहले तो अपने दैन्य भाव दिखा कर नीचे में ही बैठ जाते थे जहाँ पर सभी अपने पैर धोते थे, किन्तु उनका तेज़ देखकर प्रकाशानंद को संकोच हुआ और उन्होंने महाप्रभु को ऊपर आसन दिया बाद में जब विचार हुआ तो सोहम, अहम् ब्रह्मास्मि इत्यादि सब विचारों का महाप्रभु ने खंडन कर दिया। तब प्रकाशानंद ने अपने दस हजार शिष्यों के साथ अपने आप को महाप्रभु के शरणागत किया। यह प्रकाशानन्द सरस्वती है जो प्रबोधानन्द सरस्वती से अलग है। गोपाल भट्ट गोस्वामी ने प्रबोधानन्द सरस्वती से दीक्षा मंत्र लिया। व्रजमंडल परिक्रमा में हम उनके स्थान पर जाते हैं। गोपाल भट्ट गोस्वामी के घर के सभी राधा कृष्ण के भक्त हो गए। महाप्रभु की उनके घर पर ऐसी कृपा हुई कि उन्होंने महाप्रभु को बोल दिया कि वे गोपाल भट्ट गोस्वामी को वृंदावन में ले जाएँ। और स्वयं माता-पिता अंतर्ध्यान हो गए। अप्राकृत शरीर जब प्राप्त करते हैं तो प्राकृत शरीर रखने की इच्छा नहीं रहती है। अप्राकृत शरीर से अप्राकृत धाम में अप्राकृत रसास्वादन करते हैं। माता-पिता अंतर्ध्यान होने के बाद गोपाल भट्ट गोस्वामी वृंदावन आ गए और रूप, सनातन गोस्वामी ने महाप्रभु को लिखा कि गोपाल भट्ट गोस्वामी वृंदावन आ गए हैं। महाप्रभु उन्हें वापस लिखा कि वे उन्हें अपने छोटे भाई की तरह प्यार से रखें। उन्होंने गोपाल भट्ट को राधारमण की सेवा प्रदान की। राधारमण कैसे प्रकार हुए वह भी एक प्रसंग है। रूप सनातन उन्हें बहुत प्यार दिया।
उनका दु:ख को हटाने के लिए महाप्रभु अपना डोर-कोपीन, और काष्ठ गोपाल भट्ट गोस्वामी के लिए भेज दिया राधा रमण मंदिर में आज भी वह सेवित होता है। यह देखने से गोपाल भट्ट स्वामी का महाप्रभु के लिए विरह-दुःख थोड़ा दूर होता है। ऐसे तो उनके लिए माया का कोई व्यवधान नहीं है।
गोपाल भट्ट गोस्वामी एक बार तीर्थ भ्रमण करते हुए नेपाल में गण्डकी नदी के किनारे गए, जहाँ पर शालिग्राम शिला मिलती है और वहाँ से कोई कहता है एक शालिग्राम तो कोई कहते हैं 12 शालिग्राम लेकर फिर वापस वृन्दावन पहुँचे। उनके आराध्य तो व्रजेन्द्र नन्दन हैं, वे शालिग्राम को व्रजेन्द्र नन्दन समझते हैं किन्तु उनके मन में यह भाव था कि यदि ये विग्रह होते तो हम इन्हें आभूषण देते वस्त्र पहनाते किन्तु यह तो शालिग्राम है, यह सोचते हुए उन्होंने वे रोने लगे रोते-रोते जब सुबह देखा तो एक शालिग्राम से राधारमण जी प्रकट हो गए। हम लोगों को यह विश्वास नहीं होता है।
एक बार जब हमारा गुरुजी प्रभुपाद जी के स्थान बांग्लादेश में हरि कथा कर रहे थे तो एक मौलवी ने गुरुजी से पूछा, “क्या आप यहाँ पर (पुतली पूजा) मूर्त पूजा प्रचार करने के लिए आए हैं?”
तब गुरु जी ने उन मौलवी साहब को कहा कि मैं आपके प्रश्न का उत्तर दूंगा पर उससे पहले मैं आपसे एक प्रश्न करना चाहता हूँ। क्या आप के खुदा इतने समर्थ है कि वे इस मैमन सिंह जिले के हाथी को 90 नंबर की छोटी सुई से अन्दर कर सके बिना उस हाथी को कोई हानि पहुंचाए?
मौलवी साहब उत्तर नहीं दे पा रहे थे तो सब उनको पूछने लगे कि उत्तर क्यों नहीं देते हैं? गुरूजी ने कहा,”देखिए जिसको आप अल्लाह मानते हैं जो सर्वशक्तिमान हैं ऐसा आप मानते हैं, हमारे जो भगवान है वे भी सर्वशक्तिमान हैं। जब उन्हें सर्वशक्तिमान मान लिया तो वे कुछ भी कर सकते हैं। सर्वशक्तिमान यह कर सकता है और यह नहीं कर सकता है यह कहने को आप का कोई हक नहीं रहता है।
Everything is possible for Sarvashaktiman. In any form, He can appear in any place. He can do everything.
राधारमण शालिग्राम से प्रकट हुआ यह बात काल्पनिक नहीं हैं, वे जो शुद्ध भक्तों जिनका प्रेम नेत्र है, शरणागत हैं, ऐसे भक्तों की इच्छा पूर्ति करने के लिए प्रकाशित होते हैं।
वहाँ षड गोस्वामी अष्टक में बोला,
संख्यापूर्वक-नामगाननतिभिः कालावसानीकृतौ
निद्राहार-विहारकादि-विजितौ चात्यन्त-दीनौ च यौ।
राधाकृष्ण-गुणस्मृतेर्मधुरिमानन्देन सम्मोहितौ
वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥
कालावसानीकृतौ..उनका सम्पूर्ण समय ही वे इस तरह से बिताते थे।
निद्राहार-विहारकादि-विजितौ…नींद को जय किया, आहार को जय किया, विहार भी छोड़ दिया, ऐसा कोई कर सकता है? और बहुत कंगाल दीन हीन की तरह जीवन यापन किया। जबकि वे सबसे बड़ा धनी है। हमारे पास कौन सा धन है? बिलियन रुपया हमें चाहिए, जो अनर्थ है।
राधाकृष्ण-गुणस्मृतेर्मधुरिमानन्देन सम्मोहितौ…राधारानी का गुण कीर्तन गुणगान करते हुए आनन्द में निमग्न रहते हैं यहाँ संसार में आनन्द नहीं है। उसके अंत में बोला ,
हे राधे व्रजदेविके च ललिते हे नन्दसूनो कुतः
श्रीगोवर्धन-कल्पपादप-तले कालिन्दिवन्ये कुतः।
घोषन्ताविति सर्वतो व्रजपुरे खेदेर्महाविह्वलौ
वन्दे रूप- सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव गोपालकौ ॥ 8 ॥
हे व्रजदेवी राधे, तुम कहाँ हो? हे ललिते तुम कहाँ हो? हे नन्द नन्दन श्री कृष्ण तुम कहाँ हो? गोवर्धन के पाद पद्म के नीचे जो कल्पतरु है वहाँ पर तुम लोग हो क्या? यमुना के किनारे में जो वन है वहाँ पर हो? कहाँ हो?
इस तरह चीत्कार करते हुए उन्मत के भांति घूम रहे हैं? पुकार रहे हैं, कहाँ हो? हे राधे, ललिते, हे नन्दसुत तुम लोग कहाँ हो? इतरह महाविहवल होकर पुकार रहे हैं, घूम रहे हैं, और हम किसके लिए रोते हैं? मेरा धन चला गया, मेरा सारा पैसा चला गया, मेरा अपना मर गया। त्रिताप में जल रहे हैं, जन्म मृत्यु के सागर में डूब गए हैं और विहल होकर घूम रहे हैं, यह दुनिया में, जन्म-मृत्यु के चक्र में घूम रहे है, हमारा उल्टा है। और यहाँ पर गोस्वामी परमानन्द में भगवान का नाम लेकर घूम रहे हैं, दीन-हीन, कंगाल के भांति घूम रहे हैं। वास्तविक धनी कौन है?
आज गोपाल भट्ट गोस्वामी की तिरोभाव तिथि है। वे भगवान के अत्यंत प्रिय पार्षद हैं। एक बात कहना चाहता हूँ गोपीनाथ पुजारी कैसे गोपाल भट्ट गोस्वामी के पास आए?
एक दिन गोपाल भट्ट गोस्वामी सहारनपुर गए। वहाँ पर एक ब्राह्मण ने गोपाल भट्ट स्वामी की बहुत सेवा की। ब्राह्मण की सेवा से वे संतुष्ट हुए। ब्राहमण को कोई संतान नहीं थी। तब गोपाल भट्ट गोस्वामी देखा कि ब्राह्मण के हृदय में संतान की इच्छा है। गोपाल गोस्वामी ने कहा इनको संतान होगी, उन्हीं का नाम गोपीनाथ पुजारी हुआ। इसी प्रकार गंगाधर भट्टाचार्य की कोई संतान नहीं थी, जब महाप्रभु काटवा में संन्यास लेनेवाले थे, तब नाइ उनके बाल काट नहीं पा रहे हैं। नाई रो रहा है और बाकी सभी लोग भी वहाँ पर महाप्रभु को देख कर रो रहे हैं।
बाल काटने के लिए नाइ ने सुबह से शाम समय लगा दिया और गंगाधर भट्टाचार्य जब वहाँ पहुंचे तो, “हा चैतन्य, हा चैतन्य” कर पुकारने लगे। वे इतने रोये कि वहाँ सभी को लगा कि यह चैतन्य महाप्रभु का महान सेवक होगा सभी ने उनका नाम चैतन्य दास रख दिया, उनकी स्त्री का नाम लक्ष्मी प्रिया था। अचानक उनके हृदय में पुत्र के लिए कामना आ गई, उन्होंने सोचा मैं तो पुत्र नहीं चाहता हूँ, पुत्र-कामना क्यों आ गई? उन्होंने अपनी स्त्री यह बात बताई, वह कहती है, महाप्रभु के पास चलो। महाप्रभु के पास पुरी में पहुंचे, महाप्रभु कहते हैं, ये यहाँ जगन्नाथ के पास प्रार्थना करने आए हैं। सभी भक्त पूछते हैं क्या प्रार्थना? महाप्रभु कहते हैं, “चैतन्य दास पुत्र चाहते है।” इसलिए आए हैं, मैं बोलता हूँ इनके पुत्र का नाम श्री निवास होगा।”
वही श्रीनिवास ने ही गोस्वामियों का अष्टक लिखा।
कृष्णोत्कीर्तन- गान-नर्तन-परौ प्रेमामृताम्भो-निधी
धीराधीर-जन-प्रियौ प्रिय-करौ निर्मत्सरौ पूजितौ।
श्री-चैतन्य-कृपा-भरौ भुवि भुवो भारावहंतारकौ
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।
आज गोपाल भट्ट गोस्वामी की तिरोभाव तिथि में हम उनके श्री चरणों में अनन्त कोटि साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हुए उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करते हैं। जानकर, नहीं जान कर जो कोई कितना अपराध किया, वे अपराध मार्जन करें, उनके पाद पद्मों की सेवा प्रदान करें, उनके आराध्य देव श्री श्री राधारमण की सेवा प्रदान करें यही आज की तिथि में प्रार्थना है। हमने उन्हें साक्षात देखा नहीं पर उन्हीं की परंपरा में हमारे गुरु जी को देखा इसलिए श्री गुरुदेव के पादपद्म में अनन्तकोटी साष्टांग दंडवत प्रणाम करके कृपा प्रार्थना करते हैं कितने अपराध किए, उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया वे अपराध मार्जन करें। अपने पादपद्म की सेवा, उनके आराध्य देव राधा श्याम सुंदर की सेवा प्रदान करें।
वाञ्छा..