वाल्मीकि मुनि ने रामायण में गंगा देवी का वर्णन किया है। गंगा देवी हिमालय की कन्या हैं। सुमेरु की कन्या से हिमालय का विवाह हुआ। यह हम लोगों की समझ में नहीं आता, हम इसे myth(कल्पना) कहते हैं। सांसारिक लोग इसे झूठ समझते हैं कि पहाड़ विवाह करता है। मनोरमा अथवा मैना के गर्भ से गंगा देवी ने जन्म लिया। आप लोग व्रजमण्डल में जाते हैं, व्रजमण्डल परिक्रमा करते हैं। मानसी गंगा नाम सुना होगा। व्रजवासी—यशोदा माता, नन्द महाराज आदि कृष्ण के भक्त कृष्ण को कभी भगवान नहीं समझते, अपना पाल्य समझते हैं। कृष्ण से बहुत प्रीति करते हैं। सदा कृष्ण की चिन्ता करते रहते हैं। एक बार कृष्ण की मंगलकामना के उद्देश्य से उन्होंने गंगा स्नान के लिए विचार किया। सारे तीर्थ मूल रूप से व्रज तथा नवदीप में विद्यमान हैं। क्या हमें इसपर विश्वास होता है? जहाँ पर गौरांग महाप्रभु हों, क्या वहाँ कुछ अन्य शेष रह जाता है? भक्तिविनोद ठाकुर के ग्रन्थ पढ़कर इन सब विषयों के बारे में पता चलता है। सभी तीर्थ व्रज में ही हैं। तब श्रीकृष्ण ने सोचा कि सभी तीर्थ मूल रूप से व्रज में हैं तब भी इन लोगों का मुझपर इतना प्रेम है कि गंगा स्नान के लिए यहाँ से जाने के लिए भी तैयार हैं।
ऐसा सोचकर जब श्रीकृष्ण ने मन-मन में गंगा देवी का स्मरण किया तो वहाँ पर मानसी गंगा प्रकट हो गईं। मकरवाही(मगरमच्छ जिनका वाहन है) गंगादेवी को देखकर सभी व्रजवासी हैरान हो गए कि गंगा यहाँ पर कैसे आ गईं। तब सभी आपस में वार्तालाप करने लगे। तब कृष्ण ने कहा कि सभी तीर्थ यही व्रज में हैं, आप यहीं पर स्नान करें अन्य किसी भी स्थान पर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। हम वृन्दावन में आकर सोचते हैं कि गंगा यहाँ पर कैसे आ सकती है। किन्तु वृन्दावन में गंगा, यमुना, सरस्वती इत्यादि सभी नदियाँ मूल रूप से विद्यमान हैं।
जब गंगा देवी प्रकट हुईं तब देवताओं में प्रधान ब्रह्मा जी के नेतृत्व में सभी देवता हिमालय के पास गए तथा उनसे भिक्षा माँगी कि हमें अपनी कन्या दे दीजिए। हिमालय ने सोचा कि यदि मैंने गंगा को नहीं दिया तो सभी देवता रुष्ट हो जाएँगे जिससे गंगा का भी अकल्याण होगा। इसलिए उन्होंने गंगा को ब्रह्माजी के कमण्डलु में दे दिया।
सगर राजा सूर्यवंशी थे। उनका कोई पुत्र नहीं था। इसलिए उन्होंने महादेव की आराधना की थी। महादेव की आराधना करने से महादेव ने उन्हें वर दिया जिसके फलस्वरूप उनकी पत्नी वैदर्भी से उन्हें साठ हज़ार पुत्र प्राप्त हुए तथा दूसरी पत्नी शैव्या से एक संतान हुई जिसका नाम था—असमंजस। नाम के अनुसार से उसके चारित्र्य में भी कोई सामंजस्य नहीं था सब घृणित कार्य करता था। महाराज सगर ने अपने पुत्र को त्याग दिया क्योंकि उसका चरित्र ठीक नहीं था। असमंजस के पुत्र का नाम था—अंशुमान। वह बहुत चरित्रवान था।
सगर राजा ने अश्वमेध यज्ञ किया। जब उनके साठ हज़ार पुत्र अश्व को ढूंढने निकले तो उन्होंने सबसे पहले पृथ्वी को खोदकर उसे सागर के रूप में परिणत किया। बहुत खोजने के पश्चात् उन्होंने उस अश्व को कपिल मुनि के आश्रम के बाहर देखा। यह देखकर साठ हज़ार पुत्रों ने उनपर कटाक्ष किया। साधारण लोगों का यह मानना है कि कपिल देव की क्रोधाग्नि से वे भस्म हुए थे। किन्तु भगवान् कपिल ने कुछ नहीं किया था, अपितु कपिल देव की निंदा करने से वह लोग ध्वंस हो गए। महादेव ने महाराज सगर को वरदान देते समय कहा था कि उनके साठ हज़ार पुत्रों का एक साथ ही जन्म होगा तथा एक साथ ही वे मृत्यु को प्राप्त होंगे।
बाद में जब अंशुमान भगवान् कपिल के पास आए तो उनसे अपने पूर्वजों के उद्धार का उपाय पूछा। अंशुमान का पुत्र था—दिलीप। दिलीप के विषय में बहुत महिमा बोली जाती है। किन्तु बांग्ला अभिधान में मुझे उनके विषय में कुछ मिला नहीं बाद में चरित्रावली एक जगह पर लिखा हुआ मिला। दिलीप का पुत्र था—भगीरथ। भगीरथ की चेष्टा से ही गंगा देवी का धरती पर अवतरण हुआ। भगीरथ ने सुना था कि ब्रह्मा जी के कमण्डलु में गंगा जी हैं। इसलिए उन्होंने हज़ारों साल ब्रह्मा जी की तपस्या जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी उनके समक्ष आए। ब्रह्मा जी को भगीरथ ने कहा कि मुझे गंगा जी चाहिए नहीं तो हमारे वंश का उद्धार नहीं होगा। ब्रह्मा जी मान गए किन्तु प्रश्न यह था कि वे गंगाजी को कहाँ रखेंगे? गंगा के धरातल में जाने पर पृथ्वी उसका वेग धारण नहीं कर सकेगी। तब उन्होंने एक साल तक महादेव जी की आराधना की। महादेव आशुतोष हैं अर्थात् शीघ्र प्रसन्न होने वाले हैं। महादेव जी वहाँ आ गए तथा भगीरथ ने उन्हें सब कुछ निवेदन किया। तब महादेव जी ने कहा कि गंगा को हमारी जटा में रख सकते हैं। महादेव जी को गंगा जी बहुत प्यारी हैं। उन्होंने गंगा जी को अपने सिर में धारण करके रख लिया। तब भगीरथ ने महादेव जी की पुनः उपासना की कि गंगा जी को छोड़ना पड़ेगा। तब महादेव जी ने गंगा जी को बिन्दु सरोवर में फेंक दिया(निक्षेप कर दिया)। वहाँ से एक स्रोत भगीरथ द्वारा दिखाए मार्ग की ओर बहने लगा। इसी धारा का नाम भागीरथी हुआ। राजा भगीरथ शंख बजाते हुए रथ पर आगे-आगे चल रहे थे तथा गंगा देवी उनके पीछे-पीछे चल रही थीं।
नवद्वीप परिक्रमा के महात्म्य में हम सुनते हैं कि जब गंगा जी ने जह्नु मुनि के पूजा के उपकरण अपने पानी में बहा दिए थे, तब जह्नु मुनि ने गंगा जी को पी लिया था। जब भगीरथ जी ने पीछे मुड़कर देखा कि गंगा जी नहीं हैं तो उन्हें ढूँढते हुए जह्नु मुनि को देखा। उनसे पूछने पर उन्होंने बताया कि गंगा को तो मैं पी गया। तब भगीरथ जी ने जह्नु मुनि की बहुत प्रार्थना की तथा जह्नु मुनि ने गंगा जी को अपनी जांघ काटकर निकाला। इसलिए गंगादेवी का एक नाम जाह्नवी भी है। उस स्थान का नाम जह्नु द्वीप है क्योंकि जह्नु मुनि ने गंगा जी को पी लिया था।
इसी प्रकार सीमन्तद्वीप परिक्रमा के महात्म्य में हम लोग सुनते हैं कि जब गंगा जी वहाँ से निकल रहीं थीं तो वहीं पर रुक गई थीं एवं अपने आराध्यदेव श्री गौरांग महाप्रभु की आविर्भाव तिथि का पालन करने तक वहीं रुकी रहीं। अन्ततः गंगादेवी ने महाराज सगर के साठ हज़ार पुत्रों का उद्धार किया।
आज गंगा माता गोस्वामिनी की आविर्भाव तिथि भी है। जागतिक दृष्टि से वे एक महिला थीं परन्तु कोई साधारण महिला नहीं थीं। गंगामाता जी वर्त्तमान बंगलादेश के राजशाही जिले के अन्तर्गत पुंटिया नामक स्थान के राजा, नरेशनारायण की कन्या थीं। उनके पिताजी ने उनका नाम शची देवी रखा। वे अपने माता-पिता की एकमात्र संतान थीं, राजकन्या थीं। जब माता-पिता ने उनके विवाह की व्यवस्था की तब कन्या ने कहा कि मैं किसी मरणशील व्यक्ति के साथ विवाह नहीं करूंगी। शची देवी का ऐसा संकल्प जानकर माता-पिता चिन्तित हो उठे। माता के इस जगत से चले जाने पर शचीदेवी ने संसार त्याग कर दिया व तीर्थ भ्रमण किया। नाना तीर्थों का भ्रमण कर पहले पुरुषोत्तम धाम गईं, जहाँ महाप्रभु ने संन्यास के बाद समय व्यतीत किया था। वहाँ पर उन्होंने सुना कि महाप्रभु के बड़े-बड़े पार्षद वृन्दावन में हैं। इसलिए सद्गुरु प्राप्त करने के लिए वह क्षेत्र धाम से वृन्दावन चली गईं। वृन्दावन जाकर हरिदास पण्डित गोस्वामी से मन्त्र दीक्षा ग्रहण की। चैतन्य चरितामृत में हम लोग सुनते हैं कि जो 64 गुण भगवान में हैं उनमें से 50 गुण बिन्दु मात्रा में सभी जीवों में हैं किन्तु वह 50 गुण विशेष रूप से हरिदास गोस्वामी में विद्यमान हैं। हरिदास गोस्वामी, गदाधर पण्डित गोस्वामी की शिष्य परम्परा में हैं।
श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी ने लिखा है कि हरिदास गोस्वामी ने अनन्त आचार्य से मन्त्र लिया। अनन्त आचार्य साधारण व्यक्ति नहीं हैं। कृष्ण लीला में वह राधा रानी की अष्ट सखियों में अन्यतम सुदेवी सखी हैं। गंगा माता ने हरिदास गोस्वामी से मन्त्र लेने की इच्छा प्रकट की। हरिदास गोस्वामी को जब पता चला कि वे राजकन्या हैं तब उन्होंने उन्हें मन्त्र देने से संकोच किया कि यह इतना तप नहीं कर पाएगी। परन्तु जब उन्होंने शचीदेवी का कठोर वैराग्य और भजन करने की प्रबल लालसा देखी तब उनका हृदय विगलित हो गया तथा चैत्र शुक्ला एकादशी को उन्होंने श्रीशचीदेवी को श्रीगोविन्द जी के मन्दिर में अष्टादश अक्षर मन्त्र प्रदान किया। मन्त्र प्राप्त करने के बाद वे बहुत ही तीव्र तपस्या करने लगीं। वे माधुकरी मांगकर उससे जीवन निर्वाह करती हुईं, तीव्र वैराग्य के साथ भजन करने लगीं। श्रीशची देवी ने एक साल वृन्दावन में और उसके पश्चात् अपने गुरुदेव के निर्देशानुसार अपनी ज्येष्ठ गुरुबहन भजन परायणा स्निग्धा परमावैष्णवी श्रीलक्ष्मीप्रिया देवी, जो कि प्रतिदिन तीन लाख हरिनाम करती थीं, के साथ राधाकुण्ड में रहकर भजन किया। वे दोनों प्रतिदिन गिरिराज परिक्रमा करतीं व शास्त्रालोचना भी करती थीं।
भगवान की कथा श्रवण-कीर्तन करना भक्ति का मुख्य अंग है।
शृण्वत: श्रद्धया नित्यं गृणतश्च स्वचेष्टितम्।
कालेन नातिदीर्घेण भगवान् विशते हृदि॥
(श्रीमद्भागवत 2.8.4)
उन दोनों ने इन भक्ति अंगों में विशेष रूप से ध्यान दिया। उनकी हरिकथा सुनकर सब आश्चर्यचकित हो गए।
कुछ साल बीत जाने पर जब वह भजन में परिपक्व हो गईं तो उनके गुरुजी ने उन्हें क्षेत्र मण्डल में सार्वभौम भट्टाचार्य का स्थान उद्धार करने के लिए भेजा। गुरु जी की आज्ञा पालन करने के लिए वे साथ-साथ में तैयार हो गईं। जैसे ही वह क्षेत्र धाम पहुँचीं, उन्होंने क्षेत्र संन्यास ले लिया जिससे कि उनके सम्बन्धी उन्हें वहाँ से कहीं और न ले जा सकें। उसके बाद उन्होंने प्रचार शुरू कर दिया। जब प्रचार शुरू कर दिया तो बहुत से लोग उनकी ओर आकर्षित हो गए।
वहाँ के राजा मुकुन्द देव भी उनका भागवत पाठ श्रवण करने आए और आकर आकृष्ट हो गए। श्रीजगन्नाथ जी का स्वप्नादेश पाकर राजा ने उन्हें (श्वेतगंगा के पास वाली) ज़मीन देने की इच्छा प्रकट की। वह स्थान सार्वभौम भट्टाचार्य की पर्णकुटी(पत्तों से निर्मित कुटिया) थी। श्रीशची देवी विषयविरक्त थीं परन्तु गुरुजी की आज्ञा पालन करने के लिए उन्होंने राजा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वे तीव्र वैराग्य के साथ भजन करने लगीं।
एक बार एक अद्भुत घटना घटी। कृष्ण त्रयोदशी तिथि को महावारुणी स्नान के समय पुरी से सब लोग गंगास्नान करने के लिए चल पड़े। लोगों ने उन्हें भी स्नान के लिए चलने के लिए कहा किन्तु श्रीशची देवी ने सोचा कि मैंने तो क्षेत्र संन्यास लिया है इसलिए मैं कहीं नहीं जाऊंगी। उनके प्रेम व भजन करने की रुचि से वशीभूत होकर श्रीजगन्नाथ देव उनसे बहुत प्रसन्न हुए एवं उन्हें श्वेतगंगा में स्नान करने का आदेश दिया। कोई देख न ले, इसलिए शचीदेवी ने मध्यरात्रि के समय श्वेतगंगा में डुबकी लगाई। शचीदेवी ने जैसे ही डुबकी लगाई उसी समय गंगादेवी प्रकट हो गईं और उन्हें अपने स्रोत में बहाकर जगन्नाथ मन्दिर के अन्दर ले गईं। शची देवी ने वहाँ गंगा और गंगा में स्नान करने वाले हज़ारों-लाखों भक्तों को साक्षात् रूप से देखा, जो लोग वहाँ से स्नान करने के लिए गए थे उनको भी देखा। मन्दिर के भीतर से इतना कोलाहल सुनकर मन्दिर के रक्षक जाग गए और जगन्नाथ मन्दिर के सेवकों को सूचना दी। जब मन्दिर के द्वार खोले तो मन्दिर में लोग तथा कोलाहल कुछ भी नहीं था। वहाँ एकमात्र शचीदेवी खड़ी थीं। तब सब स्तब्ध हो गए और कुछ समझ न पाए। बाद में सेवकों ने सोचा कि कदाचित शचीदेवी श्रीजगन्नाथ जी के धन व रत्नादि चोरी करने के लिए मन्दिर में छिपी हुई थी। उनकी निन्दा करने के कारण सेवकों को कई प्रकार के रोग हो गए। सबके बीमार होने के कारण राजा मुकुन्द देव चिन्तित हो गए कि जगन्नाथ जी की सेवा कौन करेगा। तब राजा मुकुन्द देव को जगन्नाथ जी ने स्वप्न में कहा—तुम्हारे गणों का शचीदेवी के चरणों में अपराध हुआ है। शचीदेवी को मैं स्वयं ही मंदिर के भीतर लेकर आया हूँ। तुम्हें उनसे क्षमा प्रार्थना करनी होगी एवं मन्त्र दीक्षा लेनी होगी। तब जाकर तुम्हारे अपराध दूर होंगे।
तब राजा मुकुन्द देव जगन्नाथ जी के सेवकों को साथ लेकर शचीदेवी के पास पहुँचे व उनसे क्षमा माँगी। राजा मुकुन्द देव एवं श्रीजगन्नाथ जी के सेवकों द्वारा मन्त्र-दीक्षा के लिए प्रार्थना करने पर भी श्रीजगन्नाथ जी की आज्ञा पालन करने के लिए शचीदेवी ने केवल श्रीमुकुन्द देव जी को ही दीक्षा प्रदान की। राजा ने गुरु दक्षिणा के रूप में उन्हें बहुत ज़मीन देने की इच्छा व्यक्त की किन्तु उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। उसी समय से शचीदेवी ‘गंगामाता गोस्वामिनी’ नाम से प्रसिद्ध हो गईं तथा वासुदेव सार्वभौम भट्टाचार्य जी का स्थान ‘गंगामाता मठ’ के नाम से विख्यात हो गया।
श्रीगंगमाता मठ में पाँच युगल विग्रह विराजित हैं। उनमें से एक विग्रह पहले जयपुर में एक ब्राह्मण के घर में विराजित थे। किसी अपराध को करने के कारण उनका वंश ध्वंस हो गया था। श्रीजगन्नाथ जी ने उसे स्वप्न में कहा कि यदि तुम विग्रह की सेवा श्री गंगामाता जी को दे दो तो तुम्हारे सारे अपराध दूर हो जाएँगे। तब ब्राह्मण विग्रहों को लेकर श्रीक्षेत्र में गंगामाता जी के पास पहुँचे व सारा वृत्तान्त सुनाया। पहले तो गंगामाता जी ने उसे ग्रहण करना अस्वीकार कर दिया क्योंकि उनके लिए श्रीविग्रहों की राजसेवा चलानी सम्भव नहीं थी। परन्तु बाद में ब्राह्मण द्वारा तुलसी के बगीचे में ही विग्रह छोड़कर चले जाने पर श्रीरसिक राय जी ने स्वयं ही अपनी सेवा के लिए गंगामाता जी को स्वप्न में आदेश दिया। तब गंगामाता आनंदित हो गईं तथा श्रीविग्रहों का प्रकट उत्सव मनाया। श्रीगंगामाता मठ में इन पाँच युगल विग्रहों के अतिरिक्त सार्वभौम भट्टाचार्य जी द्वारा सेवित श्रीदामोदर शालिग्राम, नृत्य में रत श्रीगौरांग महाप्रभु तथा लड्डू गोपाल भी हैं। आज गंगामाता गोस्वामिनी जी की आविर्भाव तिथि है तथा बलदेव विद्याभूषण जी की तिरोभाव तिथि है। बलदेव विद्याभूषण का चरित्र हमें पढ़ना चाहिए।
वैष्णवों का चरित्र नहीं पढ़ने से हमारी ही हानि होती है। उनका आविर्भाव 18वीं शताब्दी में उड़ीसा में बालेश्वर जिले के रेमुणा के पास के ही किसी गाँव में हुआ था। बहुत ही कम आयु में उन्होंने मध्व सम्प्रदाय से संन्यास ग्रहण कर लिया व पुरुषोत्तम क्षेत्र में गए। वहाँ जाकर उन्होंने पण्डित मण्डली के साथ शास्त्र युद्ध किया एवं उन्हें परास्त कर दिया।
बाद में इन्होंने श्रीरसिकानन्द देव गोस्वामी जी की शिष्य परम्परा में श्रीराधादामोदर जी से श्रीजीव गोस्वामी जी द्वारा रचित षट्संदर्भों का अध्ययन किया। अति पुंखानुपुंख रूप से आलोचना करने पर इन्होंने यह निर्णय लिया कि गौड़ीय वैष्णव विचारधारा ही सर्वोत्तम है। तब उन्होंने श्रीराधादामोदर जी से मन्त्र ग्रहण किया तथा गौड़ीय वैष्णव बन गए। श्रीबलदेव विद्याभूषण प्रभु जी ने श्रीविश्वनाथ चक्रवर्तीपाद जी से श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया था।
एक समय जयपुर के राजा ने वृन्दावन में श्रीविश्वनाथ चक्रवर्तीपाद जी के पास संवाद भेजा कि वहाँ के रामानुज सम्प्रदाय के कुछ आचार्यों का कहना है—चारों वैष्णव सम्प्रदायों का अपना वेदान्त भाष्य है किन्तु गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय का कोई अपना वेदान्त भाष्य नहीं है। इसलिए हम इसकी साम्प्रदायिक मर्यादा को नहीं मानते। आप हम से मन्त्र ग्रहण कीजिए।
उस समय श्रील विश्वनाथ चक्रवर्तीपाद बहुत वृद्ध थे। इसलिए उन्होंने श्रीबलदेव विद्याभूषण प्रभु को भेजा।
श्रीबलदेव विद्याभूषण प्रभु ने वहाँ पहुँचकर कहा—
अर्थोऽयं ब्रह्मसूत्राणां भारतार्थविनिर्णयः।
गायत्रीभाष्यरूपोऽसौ वेदार्थपरिबृंहितः॥
गरुड़ पुराण में श्रीवेदव्यास मुनि ने लिखा है कि श्रीमद्भागवत वेदान्त का ही अर्थ है। तब अलग से किसी भाष्य की क्या आवश्यकता है? किन्तु वे लोग मानने के लिए तैयार नहीं थे। तब श्रीबलदेव विद्याभूषण प्रभु ने उनसे सात दिन का समय माँगा। सात दिन में कोई भाष्य लिख सकता है? तब उन्होंने श्रीगोविन्द जी को प्रणाम करके वेदान्त भाष्य लिखना आरम्भ किया। श्रीबलदेव विद्याभूषण प्रभु जी के गले में श्रीगोविन्द जी की आशीर्वादी माला अर्पित की गई। उन्होंने सात दिनों में वेदान्त के 500 सूत्रों की व्याख्या लिखी। गलता गद्दी में उसपर विचार हुआ। जब उन रामानुजी आचार्यों ने वह भाष्य सुना तो सुनकर सब विस्मित हो गए। इस प्रकार श्रीबलदेव विद्याभूषण प्रभु ने गौड़ीय सम्प्रदाय का मर्यादा रक्षण किया। यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं कर सकता।