बिना भक्तिविनोद ठाकुर के गौड़ीय मठ शून्य है, हमने यह बात श्री गुरुदेव से कई बार सुनी है। वे गौरांग महाप्रभु के सबसे प्रिय पार्षद है। अपने एक भजन में उन्होंने स्वयं का परिचय कृष्ण-लीला में कमलमणि मंजरी के रूप में दिया है। वे गौड़ीय दर्शन और गौड़ीय मठों के मूल हैं। आपने श्रील गुरुदेव से कदाचित ही कोई हरिकथा सुनी होगी जिसमें उन्होंने श्रील ठाकुर का महिमा गान नहीं किया है।
जब श्रीचैतन्य महाप्रभु ने अन्तर्धान किया, उनके पार्षद श्रीनित्यानंद प्रभु, श्रीअद्वैताचार्य, श्रीहरिदास ठाकुर, श्रीवास पंडित, षड्गोस्वामी इत्यादि ने अन्तर्धान किया एवं श्रीनिवासाचार्य, श्रीश्यामानंद प्रभु व श्रीनरोत्तम ठाकुर ने अन्तर्धान किया, तब इस जगत में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं रहा जो श्रीचैतन्य महाप्रभु की शिक्षा को समझ सके। क्या उस समय कोई पण्डित व्यक्ति नहीं था? श्रीमद्भागवत ग्रन्थ नहीं था? गोस्वामियों के ग्रन्थ नहीं थे? श्रीचैतन्य चरितामृत, श्रीचैतन्य चरितामृत व श्रीचैतन्य भागवत ग्रन्थ नहीं थे? सब कुछ था किन्तु कोई भी श्रीमद्भागवत की शिक्षा को समझ ही नहीं पाया। बहुत से अपसम्प्रदायों का प्रादुर्भाव हुआ। Many pseudosects cropped up after disappearance of Chaitanya Mahaprabhu and His personal associates. Nobody could understand what were the teachings of Chaitanya Mahaprabhu and significance of teachings of Chaitanya Mahaprabhu.
कई लोग स्वयं को विद्वान कहकर अभिमान करते हैं किन्तु यहाँ पर अभिमान नहीं चलता है। जहाँ अभिमान है वहाँ भगवान बहुत दूर हैं। तोताराम दास बाबाजी ने तेरह अपसम्प्रदायों के नाम उल्लेख किए। अब तो तीन गुणा से भी अधिक अपसम्प्रदाएँ हो गईं हैं। इन सबका कहना है कि जो हम कहते हैं, वे ही श्रीचैतन्य महाप्रभु की शिक्षाएं हैं।
आउल, बाउल, कर्त्ताभजा, नेड़ा, दरवेश, सांई।
सहजिया, सखीभेकी, स्मार्त्त, जात गोसाञि॥
अतिबाड़ी, चूड़ाधारी, गौरांगनागरी।
तोता कहे, एइ तेरर संग नाहि करी॥
इन अपसम्प्रदायों का संग नहीं करना चाहिए। इनका चरित्र ठीक नहीं है। बाबाजी होकर स्त्रियों को लेकर घूमते हैं व कहते हैं कि यह राधाकृष्ण का प्रेम है, यह चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा है। इन अपसम्प्रदायों को देखकर बंग देश के शिक्षित व्यक्ति सोचने लगे कि क्या यही चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा है? जिस नवद्वीप धाम में चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए, वहाँ के लोग भी चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा को ग्रहण नहीं कर सके। सबने समझा कि जो अपसम्प्रदाएँ कहती हैं यही महाप्रभु की शिक्षा है।
तब महाप्रभु ने सोचा—“मैं जगत के मंगल के लिए इस विशेष कलियुग में उन्नत उज्ज्वल रस प्रदान करने के लिए आया, जो मैंने किसी युग में पहले नहीं दिया। अभी कलियुग का प्रारम्भ ही है तथा सब मेरे द्वारा दी गई शिक्षाओं को भूल चुके हैं।” तब उन्होंने अपने पार्षदों को (संसार में जाकर उनकी शिक्षाओं को पुनः स्थापित करने का) आदेश दिया।
यद्यपि श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने गृहस्थ आश्रम स्वीकार किया किन्तु वह साधारण मनुष्य नहीं हैं। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर साधारण मनुष्य नहीं हैं। साधारण मनुष्य उनकी तरह लिख भी नहीं सकते, कह भी नहीं सकते। महाप्रभु की आज्ञा से श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने सन् 1838 ई॰ में भाद्र मास की शुक्ला त्रयोदशी तिथि में आविर्भाव लीला की व 1914 ई॰ में तिरोधान लीला की। 76 वर्ष जगत में प्रकट रहे। वह नदिया जिले के वीरनगर धाम के उलाग्राम में प्रकट हुए। इन्होंने आनंद चंद्र दत्त महोदय को पिता रूप से ग्रहण किया। इनके वंश के बारे में ‘श्रीगौरपार्षद चरितावली’ नामक ग्रन्थ में विस्तार से वर्णन किया गया है। नदिया जिले के उलाग्राम के प्रसिद्ध ज़मीनदार श्रीईश्वर चन्द्र मुस्तोकी की कन्या श्री जगन्मोहिनी के साथ श्री आनंद चन्द्र जी का विवाह हुआ। इन दोनों को माता-पिता के रूप में अंगीकार करते हुए श्रील भक्तिविनोद ठाकुर आविर्भूत हुए।
अनेक अपसम्प्रदाएँ हैं परन्तु हमारे गुरुजी ने हमें सावधान कर दिया कि किसी भी अपसम्प्रदाय के किसी भी व्यक्ति विशेष के प्रति कोई विद्वेष भावना न रखें। एक समय कलकत्ता मठ में किसी अपसम्प्रदाय का कोई व्यक्ति आया। तब गुरुजी ने कहा कि उनका आदर करना, उन्हें प्रसाद देना ऐसा। वे जब विचार पूछें तो उन्हें शुद्ध भक्तों का विचार बताना। वैष्णव का व्यक्तिगत रूप से किसी के ऊपर द्वेष नहीं होता। जब अपसम्प्रदाय नाम से हम उनसे घृणा करेंगे, सारे अवगुण हमारे भीतर आ जाएँगे। उनकी शिक्षा ग्रहण करने से हम शुद्धभक्ति मार्ग से च्युत हो जाएँगे। स्वयं को बचाओ एवं अन्यों को बचाओ। व्यक्तिगत रूप से किसी के प्रति हिंसा मत करो, किसी को दुःख मत दो।
भक्तिविनोद ठाकुर बहुत स्निग्ध स्वभाव के थे। सभी से बहुत प्यार से बात करते थे। वे सिद्धान्त का खण्डन भी करते थे किन्तु ऐसे मधुर भाव से कि किसी को दुःख न हो। जैसे हमारे गुरुजी करते थे। गुरुजी भी वहां से ही आए हैं। महाप्रभु ने अपने निजी जन को भेज दिया। वे महाप्रभु से अभिन्न हैं। उन्हीं भक्तिविनोद ठाकुर को अवलंबन करके हमारे परम गुरु जी प्रकट हुए। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर का सबसे बड़ा दान क्या है? श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर। पद्म पुराण में लिखा है—‘हयुत्कले पुरुषोत्तमात्’ अर्थात् पुरुषोत्तम धाम से कृष्ण भक्ति सारे जगत में प्रचारित होगी। जब श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर पुरुषोत्तम धाम में प्रकट हुए, पूरी दुनिया में भक्ति का प्रचार हो गया।
जब श्रील भक्तिविनोद ठाकुर श्रीचैतन्य भागवत व श्रीचैतन्य चरितामृत का संग्रहण करके चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा का प्रचार करने के लिए गौड़देश से पुरी धाम की यात्रा कर रहे थे, मार्ग में वे अपने पितामह श्री राजबल्लभ दत्त के दर्शन करने के लिए याजपुर के पास छुट्टीग्राम में रुके। उनके पितामह वाकसिद्ध पुरुष थे। तब उन्होंने भक्तिविनोद ठाकुर को देखकर कहा कि तुम बहुत बड़े वैष्णव बनोगे। ऐसा कहने के बाद ही उन्होंने उनका ब्रह्मरन्ध्र फट गया तथा उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया। उनकी साधारण रूप से मृत्यु नहीं हुई। जो वचन कहते थे उस प्रकार फल मिलता था।
उसके बाद वे पुरी पहुँचे। उस समय वहाँ पर एक विषकिषण नाम का योगी था। उसने सभी योग सिद्धियाँ प्राप्त की हुई थीं। उसने अपने योग बल के प्रभाव से असाध्य रोगों को ठीक करके तथा बहुत सी आश्चर्यजनक विभूतियाँ दिखाकर लोगों का मन जीत लिया था। विषकिषण ने ऐसी घोषणा करवाई कि अमुक् समय में मैं चतुर्भुज रूप से प्रकट होकर अधर्म का नाश करके धर्म का स्थापन करूँगा। सभी उनकी योग विभूति को जानते थे तथा उनसे डरते भी थे। उसके बाद उसने कहा कि पूर्णिमा तिथि की रात को वह रासलीला करेगा। वहाँ के जितने भी विशेष व्यक्ति थे, उनकी महिलाओं को वह अपनी ओर खींचने लगा। वहाँ के स्थानीय व्यक्ति सरकारी अधिकारियों के पास सहायता के लिए गए। उस समय अंग्रेज़ों का शासन था तथा भक्तिविनोद ठाकुर डेप्युटी मैजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त थे। तब ब्रिटिश सरकार के एक प्रधान अधिकारी ने भक्तिविनोद ठाकुर के पास जाकर कहा कि सरकार का ऐसा विचार है कि आप जगन्नाथ मंदिर के अध्यक्ष बन जाइए। साथ ही विषकिषण के बारे में बताते हुए कहा कि आप इस विषय पर विचार करें।
‘वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि’ — भक्तिविनोद ठाकुर फूल से भी अधिक कोमल हैं एवं वज्र से भी अधिक कठिन भी हैं। जहाँ पर भी धर्म के विरुद्ध कोई अनुचित कार्य देखते हैं, उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं। उन्होंने विषकिषण के घर का पता लिया तथा उसके पास पहुँचे। पहुँचकर उससे पूछा कि आपने यह बात कैसे कही कि आप चतुर्भुज रूप से प्रकट होंगे व रासलीला करेंगे? यहाँ पर जगन्नाथ देव हैं।
विषकिषण कहता है कि जगन्नाथ देव लकड़ी के हैं; मैं तो जीवंत भगवान हूँ। तब भक्तिविनोद ठाकुर समझ गए कि यह ढोंगी है तथा जगन्नाथ देव का तत्त्व नहीं जानता। उन्होंने उसे इन अनुचित कार्यों को बंद करने के लिए कहा। वह नाना प्रकार से श्री भक्तिविनोद जी को संतुष्ट करने का प्रयास करने लगा। श्रीला बहकी विनोद ठाकुर ने कहा की आप ये सब कार्य बंद कर दीजिए नहीं तो मैं दंड विधान करूँगा। जब वह किसी भी प्रकार से न माना तो उन्होंने उसे गिरफ्तार कर लिया। जेल भेजने पर उसने अपने योगबल से भक्तिविनोद ठाकुर व उनके परिवार को शारीरिक रूप से बीमार भी कर दिया। किन्तु बीमार होने पर भी उन्होंने उसे छोड़ा नहीं तथा उसने जेल में ही शरीर छोड़ दिया। याजपुर में एक व्यक्ति अपने आप को ब्रह्मा का एवं खुर्दा नामक स्थान पर एक व्यक्ति अपने आप को बलदेव का अवतार कहता था। उन्हें भी श्री भक्तिविनोद जी ने विषकिशण की तरह दण्ड प्रदान किया। इन लोगों ने बाहर से थोड़ा प्रभाव दिखाया किन्तु अधिक समय के लिए वे अपना प्रभाव नहीं दिखा सके।
जब भक्तिविनोद ठाकुर पुरुषोत्तम धाम में अवस्थान कर रहे थे, तब उन्हें तथा श्री भगवती देवी को अवलम्बन करके श्रील प्रभुपाद प्रकट हुए। उनके आविर्भाव के छह महीने बाद रथयात्रा का समय आ गया। जब रथ श्रीजगन्नाथ मंदिर से श्रीगुण्डिचा मंदिर की ओर जा रहा था, तब श्री भक्तिविनोद जी के घर क सामने रथ रुक गया तथा किसी भी प्रकार से आगे नहीं बढ़ा। रथ रुकने पर श्री भक्तिविनोद ठाकुर ने तीन दिन तक निरन्तर श्रीहरिकीर्तन की व्यवस्था की। तीन दिन बाद श्री भगवती देवी शिशु को गोद में लेकर रथ के ऊपर जगन्नाथ जी के पादपद्मों में लेकर गईं। शिशु ने दोनों हाथ फैलाकर जगन्नाथ जी का स्पर्श किया, कि तभी जगन्नाथ जी के गले की एक प्रसादी माला उनके ऊपर गिर पड़ी। उसके बाद रथ चल पड़ा। जब श्रील प्रभुपाद प्रकट हुए उनके शरीर में स्वाभाविक रूप से यज्ञोपवीत का चिह्न था। आविर्भाव के बाद प्रभुपाद दस महीने तक श्रीजगन्नाथपुरी में रहे। उसके बाद पालकी द्वारा नदिया जिले के राणाघाट,वीरनगर नामक स्थान में आ गए।
भक्तिविनोद ठाकुर ने बहुत से कीर्तन लिखे। अपने एक कीर्तन ‘श्रीराधाकृष्ण पदकमले मन’ में वे स्वयं अपना परिचय देते हुए कहते हैं—
युगलसेवाय, श्रीरासमण्डले, नियुक्त कर आमाय।
ललिता सखीर, आयोग्या किंकरी, विनोद धरिछे पाय॥
कल्याण कल्पतरु, गीतमाला, गीतावली, शरणागति इत्यादि भक्तिविनोद जी की जितनी भी गीतियाँ हैं, सब हृदय को स्पर्श करती हैं और शुद्ध भक्ति का विचार प्रदान करती हैं, जिसे चिंता करने से आश्चर्य हो जाता है। कोई साधारण व्यक्ति ऐसा नहीं लिख सकता है। इन्होंने जागतिक दृष्टि में गृहस्थ लीला की। किसलिए? इन्होंने सोचा, “मैं गृहस्थ होकर जन्म लूँगा। गृहस्थ लोग क्या करते हैं, सब देखूंगा तथा देखकर उसी प्रकार व्यवस्था दूँगा। मेरा पुत्र संन्यासी होगा तथा मैं स्वयं गृहस्थ आश्रम स्वीकार करूँगा।” जब भक्तिविनोद ठाकुर दो वर्ष के बालक थे उनके मुख में कवित्व की स्फूर्ति हो गई। सभी गौड़ीय मठ, इस्कॉन में जो भी कीर्तन होते हैं; सुबह के कीर्तन, मंगलारती, मध्याह्न भोगारती, सायंकालीन आरती; सब भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा लिखित हैं। यदि भक्तिविनोद ठाकुर को छोड़ देंगे, श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ, श्रीचैतन्य मठ सब ZERO(शून्य) बन जाएँगे। जब भक्तिविनोद ठाकुर को MINUS(बाद) कर देंगे जितने मठ हैं, सब शून्य हो जाएगा। कोई साधारण गृहस्थ व्यक्ति ऐसा लिख सकता है?
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने स्वलिखित जीवन चरित में अपने बचपन की कई घटनाओं को लिखा है। एक बार उन्होंने मूर्ति बनाने वाले के साथ अनेक बातें पूछीं। भक्तिविनोद ठाकुर ने उससे पूछा, “इस प्रतिमा में देवता कब आएँगे? मैं तो देवता देख नहीं पा रहा।” उसने उत्तर दिया—“जब मैं चक्षुदान कर दूंगा तब देवता दिख पाएँगे।” जब चक्षुदान करने का समय आया तब भक्तिविनोद ठाकुर बड़ी उत्सुकता के साथ उसे देखने गए, किन्तु किसी भी देवता का अधिष्ठान उनके अनुभव में नहीं आया। तब उस वृद्ध सूत्रधार ने कहा कि अभी ब्राह्मण आएँगे और घड़ा बिठाएंगे, तब भगवान का आविर्भाव होगा। भक्तिविनोद जी तब भी गए परन्तु उन्हें तब भी कुछ नहीं दिखा। तब भक्ति विनोद ठाकुर ने उस वृद्ध से पूछा—“क्या आपको कुछ अनुभव हो रहा है? क्या आपने देवता को देखा?” तब उसने कहा, “मुझे ऐसा लगता है कि ब्राह्मण धोखा देकर इस तरीके से पैसे कमा रहे हैं। प्रतिमा पूजा में मेरा कोई विश्वास नहीं है। मैं तो परमात्मा की आराधना करता हूँ।” वृद्ध की इस बात पर उनकी श्रद्धा हुई।
भक्तिविनोद ठाकुर सब के साथ संग करते थे। एक ब्रह्मचारी का बहुत नाम था। वह तान्त्रिक मंत्रों से उपासना करता था। उसने मुर्दों की खोपड़ियाँ छोटे-छोटे खानों में रखी हुई थीं। किसी किसी का कहना था कि किसी विशेष तिथि में उन खोपड़ियों में दूध और गंगाजल देने से वे हँसती हैं। तब भक्तिविनोद ठाकुर ने स्वयं दूध लेकर गए तथा खोपड़ी में दूध दिया। किन्तु उन्हें कोई हंसी नहीं देखी। इस प्रकार समाज में जो भी चलता है उन सब का उन्होंने स्वयं जाकर निरिक्षण करके देखा।
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने मात्र छः वर्ष की आयु में रामायण, महाभारत इत्यादि ग्रन्थ याद कर लिए। क्या किसी साधारण छः वर्ष के शिशु के साथ ऐसा हो सकता है? भगवान के भक्तों के वश में सब कुछ है। जिस प्रकार भगवान अनन्त हैं, उनके गुण भी अनन्त हैं, उसी प्रकार भगवान के भक्त जो उनकी उपासना करते हैं, उनके गुण भी अनन्त हैं। कोई उनका गुण कीर्तन का पार नहीं पा सकता। भक्तिविनोद ठाकुर में के हृदय में शास्त्रों के तत्त्व स्वयं प्रकाशित हैं। उन्होंने एक जीवन में अनेकों ग्रन्थ लिखे। मैजिस्ट्रेट का काम भी किया तथा गोद्रुमद्वीप में रहे। वहाँ पर रहकर भजन किया। शाम को ठाकुरजी को भोग लगाकर एवं प्रसाद पाकर विश्राम करते थे। रात्रि दस बजे उठकर सारी रात हरिनाम करते व नाम करते-करते भगवान का जो भाव होता, उसे लिखते।
भक्तिविनोद ठाकुर जब दस वर्ष के हुए तब तत्त्वज्ञान के विषय में जिज्ञासा किया। ग्यारह वर्ष की आयु में उनका पितृवियोग हो गया।
उस समय की सामाजिक प्रथा के अनुसार बारह वर्ष की आयु में किसी पांच वर्ष की कन्या के साथ उनका विवाह कर दिया गया। पुतुल खेल जैसे ही सब था, भक्ति विनोद ठाकुर ने उसमें बाधा नहीं दी। वे देखना चाहते थे कि समाज में किस प्रकार का प्रचलन है ताकि वे संसार में प्रवृत मनुष्य की बद्धवस्था की असुधिओं को साक्षात् अनुभव कर उसके प्रतिकार के लिए व्यवस्था प्रदान कर पाए। उस समय बचपन में ही विवाह कर देते थे। कभी-कभी ऐसा होता है बचपन में विवाह कर दिया बाद में भूल जाते हैं, वह पति भी भूल गया और पत्नी भी भूल गई बाद में समाचार आता है उसका पति मर गया और वह विधवा हो गई। उसने पति को देखा ही नहीं और विधवा हो गई।
इस प्रकार से समाज में जो कुछ होता है सब के बारे में वे जिज्ञासा करते रहते थे। चाहे मुसलमान को अल्लाह के बारे में, जिसको देखते हैं उनको ही प्रश्न करते हैं। तब समाज में उन्होंने सब निरिक्षण किया जिससे उनको कोई प्रश्न किया गया तो उसका उत्तर देने में उनको सुविधा हुई। जब संसार आश्रम में नहीं रहते तो इस प्रकार की असुविधाओं को समझ पाते? उन्होंने बंगला, संस्कृत, इंग्लिश में इत्यादि भाषाओं सौ से भी अधिक ग्रन्थ लिखे और वही ग्रंथ लिख कर उन्होंने भक्ति सिद्धांत सरस्वति ठाकुर प्रभुपाद के माध्यम से समग्र संसार में प्रचार कर दिया। उन्होंने स्वयं भी प्रचार किया, स्वयं भी समग्र भारत भ्रमण किया, उन्होंने प्रचार नहीं किया यह बात नहीं है। स्वयं भी प्रचार किया किन्तु विशेष रूप से भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद से करवाया।
नवद्वीप शहर के अंतर्गत कोलद्वीप में जिसे अपराध भंजन पाट भी कहते हैं, उस स्थान से संध्या के समय छत के ऊपर से दूर एक दृश्य देखकर वे आश्चर्य-चक्ति हो गए, दूर एक स्थान आलोक-माला से रज्जित (प्रकाशमय)है।वहाँ जाकर ज्ञात हुआ वह स्थान बल्लाल-दिघी है। वहाँ के व्यक्ति को पूछा यह कौनसा स्थान है? उसने बताया, यह चैतन्य महाप्रभु का आविर्भाव स्थान है। वे मजिस्ट्रेट थे, उन्होंने ब्रिटिश मैप देखकर प्रमाणित किया कि यही मायापुर है। उसी समय जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज ने वहाँ आकर ‘जय शचिनंदन गौर हरि’ बोलकर नृत्य किया तो निश्चित रूप से प्रमाणित हो गया कि वही चैतन्य महाप्रभु का जन्मस्थान है। वहाँ एक विशाल मंदिर का निर्माण किया गया। चैतन्य महाप्रभु का आविर्भावस्थान मायापुर में ही था किन्तु गंगा में डूब गया था जब गंगाजी पीछे चली गई तो आविर्भाव स्थान पुनः प्रकाशित हुआ। अभी जहाँ ईशोद्यान है, वे सब स्थान भी जल में चले गए थे, वहाँ साक्षात् राधाकुंड भी है। ईशा का अर्थ है राधा, ईशोद्यान अर्थात् राधारानी का उद्यान, वही स्थान पर गुरुजी ने अपना मठ स्थापन किया। राधा कुंड भी प्रकट हो गया, श्याम कुंड भी प्रकट हो गया। भक्ति विनोद ठाकुर ने राधा कुंड में भजन करने की इच्छा प्रकाश की और उन्होंने स्वयं ही लिखा दिया,
मायापुर दक्षिणान्शे, जाह्नवीर तटे, सरस्वती सहज संगम अतिव निकटे।
ईशोद्यान उपवन नाम सुविस्तार, सर्वदा भजन स्थान हउक आमार।।
वही राधा कुंड सर्वदा के लिए मेरा भजन स्थान रहे। उन्होंने नवदीप धाम प्रचारिणी सभा की स्थापना की, ‘नवदीप धाम परिक्रमा ग्रंथ’ लिखा और उनकी आज्ञा से भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद ने परिक्रमा का प्रचलन किया।किस ग्रंथ को पढ़कर परिक्रमा करवाई? वही भक्ति विनोद ठाकुर के लिखे हुए ग्रंथ के मार्गदर्शन से प्ररिक्रमा हुई। जब भक्ति विनोद ठाकुर जी को बाद कर देंगे तो चैतन्य मठ, गौडीय मठ सब जीरो हो जाएगा। 1914 साल में वे अंतर्धान हुए उससे पहले 1908 में उन्होंने परमहंस वेश धारण किया और गुप्त भाव से गूढ़ लीला का रसास्वादन किया। कोलकाता में भक्ति भवन बनाया और वहाँ पर रहे। वही भक्ति विनोद ठाकुर ने अनेक ग्रंथ और कीर्तन लिखे, उनके कीर्तन मेरे हृदय को स्पर्श करते हैं, ऐसे लगता है साक्षात् जैसे मेरे लिए ही लिखा हो।
एमन दुर्मति संसार भीतरे पड़िया आछिनु आमि।
तव निज जन कौन महाजने पाठाइया दिले तुमि।।
मैं दुष्ट मति संसार के भीतर में आपको भूलकर बैठा था, आपने कौन महाजन को भेज दिया, महाजन है हमारे गुरुजी, किसने भेजा? गौरांग की शक्ति है भक्ति विनोद। ठाकुर भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं गौरांग महाप्रभु ने भेजा।
It is the highest objective of Gaurang Mahaprabhu, he sent his own person. This is quite true for me.
हमारे गुरुदेव हमारे स्थान पर पहुंच गए और वहाँ मेरे चाचाजी के वकील के स्थान पर ही रुके, वे गौड़ीय मठ के शिष्य थे इसलिए हमारे लिए सुविधा हो गई। मैं तो पहले कभी गया नहीं, गुरूजी ने इतना स्नेहा दिया और वहाँ पर गुरुजी ने भाषण दिया, एड. क्षीरोद सेन प्रेसिडेंट है और और विशेष आदमी है।
मैं वहाँ जाकर सुनता था, मेरा मित्र भी सुनता था किन्तु हमें समझ में नहीं आता था किस लिए? गौड़ीय मठ की भाषा है ना अंतरंगा शक्ति, बहिरंगा शक्ति, तटस्था शक्ति इत्यादि। हमने तो कभी कॉलेज में ऐसा सुना नहीं क्या बोलते हैं हमें कुछ समझ में नहीं आता था तब किन्तु उनकी बात सुनकर यह समझ मैं आया कि वे कृष्ण भक्त हैं। और कृष्ण भक्ति के विषय में बात कर रहे हैं। बंगला में कहने पर भी भक्ति तत्व समझना मुश्किल है, भाषा के कारण नहीं किन्तु तत्व ही इस प्रकार है। इसके बाद उन्होंने कहा कि मैं अमुक गांव में जा रहा हूँ तुम लोग वहाँ पर सुनना। यहाँ से हम लोग नाँव में जाएंगे ब्रह्मपुत्र नदी पार करेंगे। मैं तो चुपचाप रहा, सोचा हम नहीं जाएंगे क्योंकि पिताजी आज्ञा नहीं देंगे । बिना आज्ञा के जायेगे कैसे? डर के मारे चुपचाप रहा सब विदाई करने के लिए गए, मैं जा नहीं पाया क्योंकि वे पूछेंगे तब क्या उत्तर दूंगा? मेरा हृदय तड़प रहा था। सब जा रहे है किन्तु मैं नहीं जा सकता हूँ अभी गुरुजी पूछेंगे क्या हुआ? इसलिए मेरा जाना नहीं हुआ।
दिल में दुख हुआ फिर जहाँ पर गुरुजी गए, वहाँ वहां पत्र भेजने लगा। पत्र का उत्तर राधा मोहन प्रभु जी के घर के पते पर आता था। गुरूजी ने वहाँ से पत्र लिखकर मुझे कहा हम कोलकाता में रहेंगे। अपने पूर्व आश्रम के समय में मैं कोलकाता इत्यादि स्थानों नहीं जाता था। कोई-कोई विशेष स्थानों पर जाने के लिए आग्रह किया जाता था तो ही मैं वहाँ जाता था। जब गुरुजी 8 हाजरा रोड स्थान पर थे वहाँ जाकर मैंने उनसे कहा था मुझे संसार अच्छा नहीं लगता है क्योंकि यह अनित्य है, कोई यहाँ सब समय के लिए नहीं रहेगा। जब वे ग्वालपाड़ा थे तब मुझे बोला था जैवधर्म पढ़ो। भक्ति विनोद ठाकुर ने लिखा है।
वही जब धर्म ग्रंथ जब लाइब्रेरी से लिया तो लाइब्रेरियन कहते हैं आज तक यह ग्रंथ किसी ने नहीं मांगा तुमने ही मांगा है।जैवधर्म पढ़कर मेरे जितने भी संदेह थे सब चले गए। गुरूजी की प्रश्न करता तो उसका उत्तर भी आता। यह सब घर के किसी भी व्यक्ति को ज्ञात’नहीं था। 8 हाजरा रोड जाकर मैंने कहा मुझे यह अनित्य संसार अच्छा नहीं लगता है। कोई नहीं रहेगा। सब कहाँ से आए है? कहाँ जाएंगे? मेरा दिल उदास हो जाता है। कोई कोई समय अच्छा नहीं लगता है। मित्र फिर ले जाते हैं पकड़कर तो भूल जाते हैं। फिर दोबारा एकांत में होने से दिल खराब हो जाता है। संसार को छोड़कर आने की इच्छा है किन्तु भोग की प्रवृत्ति भी है।
और संसार अनित्य हैं संसार में रहने की भी इच्छा नहीं है किन्तु भोग की प्रवृत्ति भी नहीं गई है ऐसी स्थिति में संसार छोड़ना ठीक है? जैसे गौरांग महाप्रभु ने भक्ति विनोद ठाकुर को भेजा वैसे ही हमारे गुरु जी को भी भेजा है। गुरुजी उनकी परंपरा में आए। गुरुजी तब कहते हैं प्रत्येक जीव के अंदर में कमियां है, प्रत्येक के अंदर में कम या अधिक मात्र में संसार भोग करने की प्रवृत्ति रहती है। इसमें घबराने की बात नहीं है, तुम्हारे अंदर भोग की प्रवृत्ति है ठीक है मान लिया किन्तु भगवान श्री कृष्ण का सहारा लो। कृष्ण सर्वशक्तिमान है वे तुम्हारे अंदर में जो दुबलापन भाग है सब हटा देंगे। भयभीत होने की नहीं है।
संसार छोड़कर आएंगे ?हाँ, कह दिया फिर चिंता हुई] पिताजी अधिक स्नेह करते हैं, कभी-कभी पिताजी के सामने पढ़ना बंद कर दिया, वैराग्य की कथा सुनकर लिखाई पढ़ाई बंद हो जाती थी तो गुस्सा करते थे किन्तु फिर साथ में बैठकर खिलाते थे, बहुत स्नेह करते थे। आखिरी में मैंने कहा पिताजी ऐसे स्नेह करते हैं, उन्हें छोड़ कर जाने से पाप तो लगेगा? तब गुरुजी कहते हैं कि गीता सभी पढ़ते हैं किन्तु विश्वास नहीं करते।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
गीता 18.66
सभी धर्म छोड़कर मेरे पास आ जाओ मैं तुम्हें समस्त पाप से मुक्त कर दूंगा। जब अर्जुन ने लीला की कि मैं अपने जनों को मारकर यह भोग नहीं चाहता हूँ, राज्य नहीं चाहता हूँ। तब भगवान कहते हैं,तुम मारनेवाले कौन हो?
मैंने सब को पहले ही मार दिया है, मेरा विश्वरूप देखोगे तो समझोगे। तुम केवल निमित्त मात्र हो। संसार के समस्त अधर्म नहीं वर्णाश्रम धर्म भी छोड़कर मेरे पास आ जाओगे तो भी मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर देता हूँ। तुम मेरे हो, मुझसे हो, मेरे लिए रहना ही तुम्हारा धर्म है। तब मैंने कहा आ जाऊँ? गुरुजी कहते हैं आ जाओ। बिस्तर लेकर आ जाओ। नहीं बिस्तर नहीं ला सकता भागकर आना पड़ेगा।
आज भक्ति विनोद ठाकुर जी की तिथि में विस्तार से ग्रन्थ में देख लेना अभी अधिक वर्णन करना कठिन है।
भक्ति विनोद ठाकुर गौरांग महाप्रभु के निज जन है। ऐसा कहते हैं भगवान से भी हम लोगों को भक्तों की आवश्यकता अधिक है। भक्तों से ही भक्ति मिलती है। कीर्तन में लिखा,
भक्ति विनोद ठाकुर गौरांग महाप्रभु का निधि जन है। ऐसा कहते हैं भक्तों का भगवान से भी ज्यादा हम लोगों का जरूरत है। भक्तों से ही भक्ति मिलता है। कीर्तन में लिखा—
एमन दुर्मति, संसार भितरे, पड़िया आछिनु आमि।
तव निज-जन, कोन महाजने, पाठाइया दिले तुमि॥1॥
दया करि मोरे, पतित देखिया, कहिल आमारे गिया।
ओहे दीनजन, शुन भाल कथा, उल्लसित हबे हिया॥2॥
तोमारे तारिते, श्रीकृष्णचैतन्य, नवद्वीपे अवतार।
तोमा हेन कत, दीन हीन जने, करिलेन भवपार॥3॥
वेदेर प्रतिज्ञा, राखिवार तरे, रुक्मवर्ण विप्रसुत।
महाप्रभु नामे, नदीया माताय, संगे भाई अवधूत॥4॥
नन्दसुत यिनि, चैतन्य गोसाईं, निज-नाम करि दान।
तारिल जगत्, तुमिओ याइया, लह निज–परित्राण॥5॥
से कथा शुनिया, आसियाछि, नाथ ! तोमार चरणतले।
भक्तिविनोद, काँदिया काँदिया, आपन काहिनी बले॥
इस भजन में जो स्थिति वर्णित है, वह मेरे साथ मिलती है। मैंने चैतन्य महाप्रभु का नाम भी नहीं सुना था। गौड़ीय मठ के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। न जाने कहां से आकर गुरुजी मुझे अपने साथ ले गए। भगवान जब कृपा करते हैं तो भक्तों के माध्यम से ही करते हैं। महाप्रभु ने स्वयं अवतीर्ण होकर सबको प्रेम दिया। महाप्रभु के अभिन्न स्वरूप भक्तिविनोद ठाकुर जी ने ‘गीतमाला’ नामक ग्रन्थ में अपना परिचय रूपमंजरी के अनुगत कमल मंजरी के रूप में दिया है। श्रील प्रभुपाद जी नयनमणि मंजरी हैं। इसलिए हमारे गुरुजी ने अपने द्वारा प्रकाशित विग्रहों के नाम श्रीराधानयनानाथ(कलकत्ता मठ) तथा श्रीराधानयनमोहन(तेज़पुर मठ) रखे। गुरुजी के गुरु भाई(जो पहले कलकत्ता मठ के मठरक्षक भी थे) के निर्देशानुसार पुरी मठ के विग्रहों का नाम श्रीराधानयनमणि रखा गया। अर्थात् श्रील नयनमणि मंजरी के आराध्य देव।
आज की तिथि में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी के पादपद्मों में अनन्त कोटि साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए उनकी कृपा प्रार्थना करते हैं। हमने जानकर अथवा न जानकर कितने अपराध किए हैं। वे उन अपराधों का मार्जन करें तथा उनके आराध्यदेव श्रीगौरांग महाप्रभु व श्रीराधाकृष्ण की सेवा प्रदान करें, यही प्रार्थना है।
जब मैं गुरु महाराज जी के साथ रहता था, गुरुजी मुझसे केवल लेखनकार्य करवाते थे। यहाँ तक कि गुरुजी मुझे सब्ज़ी काटना आदि कोई भी अन्य सेवा नहीं करने देते थे। वे कहते थे, “तुम्हारा हाथ कट गया तो मेरी लेखन की सेवा कौन करेगा? इसलिए तुम मेरे साथ आओ।” एक समय आसाम, सरभोग में गुरुजी और मैं किसी भक्त के घर में, उनकी झोपड़ी में ठहरे हुए थे। गुरुजी कह रहे थे और मैं लिख रहा था। अचानक गुरु महाराज जी ने कहा, “कल्याण कल्पतरु पाठ करके मुझे सुनाओ।” मैंने सोचा क्या बात है? कल्याण कलपतरु तो भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा लिखा हुआ है। अचानक से गुरुजी ने क्यों कहा, मुझे समझ में नहीं आया। वहाँ केवल गुरुजी थे तथा मैं था। मैंने ग्रन्थ लेकर पाठ करना शुरू कर दिया। मैंने उसका आधा हिस्सा ही पढ़ा, उसके बाद पाठ नहीं कर पाया। मेरा गला अवरुद्ध हो गया। मैंने सोचा यह मुझे क्या हो गया? तब गुरु जी ने कहा, “पाठ हो गया, अब और नहीं। इसे वापस रख दो।” मेरे मन में शायद ऐसा विचार था कि श्री भक्तिविनोद ठाकुर साधारण गृहस्थ हैं। यह दिखाने के लिए कि वे कैसे महान वैष्णव हैं, गुरुजी ने मुझसे वह ग्रन्थ पाठ करवाया। वह ग्रन्थ अप्राकृत है, चिन्मय ग्रन्थ है। हमने उन्हें तो साक्षात् रूप से नहीं देखा, उनके ही अभिन्न स्वरूप हमारे गुरुजी के पादपद्मों में अनन्त कोटि साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके कृपा प्रार्थना करते हैं कि जानकर अथवा न जानकर हमने कितने अपराध किए हैं, वे उनका मार्जन करें, अपने पादपद्मों की सेवा, अपने आराध्यदेव की सेवा, श्रीगौरांग महाप्रभु की सेवा, श्रीराधानयनानाथ जी की सेवा, श्री राधाश्यामसुन्दर जी की सेवा प्रदान करें। यही आज की तिथि में प्रार्थना है।