भक्त से संबंधित व्यक्ति भी कृष्ण को प्रिय है

दु:खी श्रीवास पंडित से संबंधित है। एक भक्त से संबंधित व्यक्ति भी कृष्ण को प्रिय है। कृष्ण या चैतन्य महाप्रभु अन्य गुणों को नहीं देखतें। एक दरजी था जो जन्म से मुस्लिम था और जो श्रीवास पंडित के कपड़ों को सिलता था। चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि वह मुस्लिम हो सकता है परन्तु श्रीवास पंडित और उनके परिवार के सदस्यों की सेवा करने की उसकी योग्यता और इच्छा है। चैतन्य महाप्रभु संतुष्ट हुए। उसके पास और कोई गुण नहीं था। जब चैतन्य महाप्रभु नाम संकीर्तन और नृत्य कर रहे थे, उन्होंने उस मुस्लिम दरजी में दिव्य प्रेम का संचार किया और वह भी नृत्य करने लगा। भगवान के परम पावन नामों के जप से उन्हें मुनि, ऋषियों को भी प्राप्त नहीं होनेवाले दिव्य भाव प्राप्त हुए।

पञ्चतत्त्वात्मकं कृष्णं भक्तरूपस्वरूपकम्।
भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्तशक्तिकम् ॥
(गौ.ग.दी.10)

पंचतत्वादत्मक श्रीकृष्ण को अर्थात् श्री कृष्ण के (1) भक्तरूप, (2) भक्त स्वरूप, (3) भक्तावतार, (4) भक्त और (5) भक्त शक्ति को मैं प्रणाम करता हूँ ।

शक्तिमान वस्तु पाँच विभिन्न प्रकार के लीला परिचय से इन पाँच तत्वों में प्रकाशित है। वस्तु में द्वैतभाव होने के कारण एक होते हुए भी इस पाँच प्रकार की वैचित्री है। श्रीगौरंगा, श्रीनित्यानन्द, श्रीअद्वैत, श्रीगदाधर, और श्रीवासादि, इन पंचतत्वो में वस्तुतः कोई भेद नहीं है, परन्तु रसास्वादन के उद्देश्य से वह विचित्र लीलामय एक तत्व ही ‘भक्तरूप’ , ‘भक्त – स्वरूप’, ‘भक्तावतार’, ‘भक्तशक्ति’ तथा शुद्ध भक्त इन पाँच विभिन्न रूपों में बंटा हुआ है। इन पाँच तत्वों में स्वयं भगवान् नन्दनन्दन श्रीकृष्ण भक्त- भाव अङ्गीकार करके श्रीगौराग रूप में ‘भक्त रूप’, स्वयं – प्रकाश श्रीबलदेव जी ‘भक्त – भाव’ ग्रहण करके श्रीनित्यानन्द रूप में ‘भक्तस्वरूप’ महाविष्णु के अवतार भक्तभाव को अंगीकार करके श्रीअद्वैत आचार्य रूप में ‘भक्तावतार’ के रूप में प्रकट हुये । यह सारे ही विष्णु तत्त्व है। ‘ भक्तशक्ति’ और ‘ शुद्ध भक्त’ वस्तु तत्त्व के अन्तर्गत तदाश्रित अभिन्न शक्ति तत्त्व हैं । भक्त – शक्ति में श्री गदाधर, श्री स्वरूप दामोदर व श्री रायरामानन्द आदि के नाम आते हैं जबकि शुद्ध भक्त- शान्त व दास्य आदि रसों के श्रीवास आदि भक्त हैं । अतएव श्रीवास पण्डित पंचतत्त्व के अन्तर्गत है।

श्रीवास पण्डित जो पहले श्रीहट्ट जिला में रहते थे, ने बाद में नवद्वीप में आकर गौरपार्षद रूप से गौर – लीला की पुष्टि की। इनके पिता श्री जलधर पण्डित वैदिक ब्राह्मण थे। श्रीजलधर पण्डित के पाँच पुत्रों में श्रीवास अथवा श्रीनिवास द्वितीय पुत्र थे। इनके बड़े भाई का नाम श्री नलिन पण्डित था तथा छोटे भाइयों के नाम श्री राम पण्डित, श्रीपति पण्डित और श्रीकान्त पण्डित अथवा श्रीनिधि पण्डित था। इनके बड़े भाई श्री नलिन पण्डित की पुत्री श्रीमती नारायणी देवी थी। इन्हीं श्रीमती नारायणी देवी के सुपुत्र श्री वृदावनदास ठाकुर ही ‘चैतन्य भागवत् ‘के रचयिता थे। श्रीमती नारायणी देवी के पति का नाम श्री वैकुणठदास पण्डित था। जब वृदावन दास ठाकुर माता के गर्भ में थे, उसी समय उनके पिता ने परलोक गमन किया। पति की मृत्यु के पश्चात् श्रीमती नारायणी देवी कुमारहट्ट (हालिशहर) स्थित पतिगृह को त्याग कर नवद्वीप स्थित श्रीवास पण्डित के घर में आकर रहने लगी। श्री नारद मुनि ही गौर लीला में श्रीवास पण्डित रूप से अवतरित हुए। श्री नारद के सखा पर्वत मुनि श्रीवास के छोटे भाई श्री राम पण्डित के रूप में अवतरित हुए, तथा श्रीवास – पत्नी श्रीमती मालिनी देवी श्रीकृष्ण को स्तन पान कराने वाली व्रज की एक धात्री थीं।

श्रीवासपणिडतो धीमान् यः पुरा नारदो मुनिः।
पर्वताख्यो मुनिवरो य आसीन्नारदप्रियः ।
श्री राम पणिडतः श्रीमांस्तत् कनिष्ठसहोदरः ॥
नाम्नाम्बिका व्रजे धात्री स्तन्यदात्री स्थित पुरा ।
सैवेऽयं मालिनी नाम्नी श्रीवासगृहिणीमता ॥
(गौ.ग.दी. 90, 42)

श्रीमहाप्रभु जी का चार सथानों में नित्य आविर्भाव है ––

शचीर मन्दिरे, आर नित्यानन्द – नर्त्तने ।
श्रीवास – कीर्त्तने, आर राघव – भवने ॥
एइ चारि ठाञि, प्रभुर सदा ‘आविर्भाव’ ।
प्रेमाकृषट हय – प्रभुर सहज – सवभाव ॥
(चै.च.अ. 2/34-35)

अर्थात शची – माता के भवन में, श्री नित्यानन्द प्रभु के नृत्य में, श्रीवास पण्डित के कीर्तन में तथा श्री राघवजी के भवन में –– इन चारों स्थानों पर श्रीमहाप्रभु नित्य विराजमान रहते हैं।

श्री निमाई विद्या विलास – लीला के समय श्री मुकुन्द और श्री गदाधर आदि भक्तों को लेकर तर्क – वितर्क किया करते थे तथा उनके विचारों का खण्डन करके उन्हें पुनः स्थापन किया करते थे। भक्तगण आश्चर्यचकित होकर विचार करते कि निमाई यदि कृष्ण – भक्त होता तो इसकी विद्या सफल हो जाती। निमाई जब श्रीवासादि भक्तों को देखकर प्रणाम करने के लिए लीला करते तो वे लोग निमाई को कृष्ण – भक्ति लाभ होने का आशीर्वाद देते।

एक दिन श्रीवास पण्डित ने श्री महाप्रभु को रास्ते में देखते ही कहा ––

लोग कृष्णा – भक्ति प्राप्त करने के लिए पढ़ाई करते हैं। यदि पढ़ लिखकर कृष्ण में भक्ति ही न हुई तो ऐसी विद्या से क्या लाभ? अतएव समय नष्ट न करके तुम शीघ्र ही कृष्ण – भजन करना आरम्भ कर दो। श्रीमन्महाप्रभु अपने भक्तों के मुख से यह बात सुनकर प्रसन्नता पूर्वक बोले – “तुम भक्त हो, तुम्हारी कृपा से मुझे अवश्य ही कृष्ण – भक्ति प्राप्त होगी”। यह एक अद्भुत चमत्कारमयी लीला है कि श्रीमन् महाप्रभु जी की लीला शक्ति – योगमाया के प्रभाव से भक्त लोग महाप्रभु जी के प्रति स्वाभाविक रूप से आकृष्ट होने पर भी उनके परमेश्वर रूप को नहीं समझ पा रहे हैं ।

गया से लौटने के पश्चात् श्रीमन्महाप्रभु द्वारा प्रेम – उन्मत्त होकर नाना प्रकार से विकार प्रदर्शन करने पर शची माता मन – मन में यह सोचकर कि उनके पुत्र निमाई को वायुरोग हो गया है –– अत्यन्त दुःखित हुईं। श्रीवास पण्डित जब श्रीमन्महाप्रभु के पास गए तो श्रीमन्महाप्रभु ने उन्हें कहा कि मुझे सब लोग वायु – रोग से ग्रसित बता रहे हैं किन्तु आप बताइए कि मुझे क्या हो गया है। उत्तर में श्रीवास पण्डित हंसते हुए कहने लगे – यह आपने अच्छी कही ––

तोमार ये मत वाइ, ताहा आमि चाइ ।
महाभक्ति योग देखि’ तोमार शरीरे ।
श्रीकृष्णेर अनुग्रह हइल तोमारे ॥
(चै.भा.म. 2/113-114)

“अर्थात आप को जैसा वायु – रोग हुआ है वैसा वायु रोग तो मैं भी चाहता हूँ। तुम्हारे शरीर में महाभक्ति योग के लक्षण दिखाई पड़ते हैं और आप पर श्रीकृष्ण का अनुग्रह हुआ है।“

श्रीमन्महाप्रभु श्रीवास पण्डित को आलिंगन करते हुए बोले कि आप भी यदि मुझे वायु रोग से ग्रसित बताते तो मैं निश्चय ही गंगा जी में कूद पड़ता।

श्रीमन्महाप्रभु के घर में तथा श्रीवास पण्डित के गृह में उच्च संकीर्त्तन सुनकर पाखण्डी लोगों की निद्रा भंग हो जाती, जिस कारण वे लोग नाना – युक्तियों द्वारा इन लोगों को डराने लगे कि हरि नाम संकीर्त्तन की उच्च ध्वनि को सुनकर यवन राजा आकर उनको उपयुक्त दण्ड देंगे। सरल स्वभाव श्रीवास पण्डित उन पाखण्डी की बातों का विश्वास करके बहुत भयभीत हुए एवं डरकर श्री नरसिंह देव की पूजा करने लगे। भक्त की पीड़ा हरने वाले श्रीमन् महाप्रभु श्रीवास पण्डित को सशंकित देखकर उन्हें अभय प्रदान करने के लिए उनके घर में गये । दरवाजा बन्द देखकर महाप्रभु जी ने पाँव से आघात किया तथा दरवाजा खोलकर पण्डित से पूछने लगे कि तुम किस की पूजा करके ध्यान कर रहे हो। जिसकी तुम पूजा कर रहे हो, देखो! वह तो मैं ही हूँ । मैं साधुजनों का उद्धार करके दुष्टों का विनाश करूँगा, तुम्हें कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए। “ऐसा कहकर श्रीमन्महाप्रभु वीरासन पर बैठ गये तथा उन्होंने श्रीवास पण्डित को शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी अपने ईश्वर का दर्शन कराया।

श्रीमन्महाप्रभु के अति सुन्दर रूप का दर्शन करते हुए प्रेम में विभोर होकर श्रीवास उनकी स्तुति करने लगे। श्रीवास पण्डित की स्तुति से सन्तुष्ट होकर श्रीमन् महाप्रभु ने श्रीवास की स्री, पुत्र तथा पण्डित समस्त सम्बन्धियों को अपने ईश्वर रूप का दर्शन कराया। श्रीवास की भतीजी नारायणी को भी अपना अवशिष्ट प्रसाद देकर कृपा पूर्वक उससे कृष्ण नाम का उच्चारण करवाया । भक्त जैसे भगवान् को प्रिय है भगवान् भी उसी प्रकार भक्तों को अति प्रिय हैं।

श्रीधाम मायापुर में जब भी गौर नित्यानन्द की मिलन लीला का समय हुआ तो नन्दनाचार्य भवन में श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु को आया जानकर श्रीमन् महाप्रभु श्री ‘नित्यानन्द तत्त्व’ को प्रकाशित करने के लिए सब भक्तों को लेकर वहाँ पहुँचे एवं श्रीवास को श्रीमद्भागवत का कोई श्लोक उच्चारण करने के लिए कहा। श्रीवास पण्डित ने प्रभु का संकेत समझकर श्रीमद् भागवत् से कृष्णा ध्यान सम्बन्धी एक श्लोक उच्चारण किया ––

बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं ।
बिभ्रदवास: कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् ।
रन्ध्रान् वेणोरधर सुधया पूरयन्गोपवृन्दै –
र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीत कीर्तिः
(भा. 10/21/5)

श्लोक का श्रवण करने मात्र से ही श्री नित्यानन्द मूर्च्छित हो गये और उनके अंगों में अष्टसात्त्विक विकार प्रकट होने लगे। तत्पश्चात श्रीविश्वम्बरजी ने नित्यानन्द जी को अपनी गोद में उठा लिया।

एक दिन श्रीमन्महाप्रभुजी नज नित्यानन्द जी को व्यास पूजा करने के लिए इशारा किया। श्रीमन् नित्यानन्द जी की व्यवस्था के अनुसार श्रीवास के गृह में ही व्यास पूजा का आयोजन हुआ। व्यास पूजा के आदिवास कीर्त्तन में महाप्रभु जी ने बलदेवावेश में नित्यानन्द जी के बलदेव स्वरूप का प्रदर्शन किया और श्रीअद्वैत आचार्य जी को ‘नाड़ा नाड़ा’ कह कर पुकारने के छल से अपने अवतार का मर्म प्रकाशित किया।अगले दिन व्यास पूजा करते समय जैसे ही नित्यानन्द प्रभु जी ने अर्घ्य व माला महाप्रभु जी के मस्तक पर अर्पण की तो उसी समय महाप्रभु जी ने नित्यानन्द जी को अपना षड़भुज रूप दिखाया। हुआ ऐसा कि व्यास पूजा के आचार्य श्रीवास पण्डित जी ने जब नित्यानन्द जी के हाथों में माला देखकर मन्त्रोच्चारण के साथ व्यासदेव जी को प्रदान करने के लिये कहा तो नित्यानन्द प्रभु जी ने वह माला महाप्रभु जी के गले में डाल दी। श्रीव्यास जी की पूजा समापन करने के पश्चात् महाप्रभु जी ने भक्तों को संकीर्त्तन करने का आदेश दिया। संकीर्त्तन के पश्चात् श्रीमन् महाप्रभु जी ने श्रीवास जी से व्यास जी का नैवेद्य मांग लिया और सबको अपने हाथ से प्रसाद दिया। भक्तों ने परमानन्द से उस प्रसाद का भोजन किया। श्रीवास के दास – दसियों को भी महाप्रभु जी ने प्रसाद दिया।

श्रीवास जी की नित्यानन्द जी में निष्ठा देखकर श्रीमन्महाप्रभुजी ने श्रीवास को वर प्रदान किया कि तुम्हारे घर में लक्ष्मी का कभी भी अभाव नहीं होगा और तुम्हारे घर के कुत्ते – बिल्ली तक की भी श्री भगवान् में अचला भक्ति होगी।

श्रीमन्महाप्रभु जी की इच्छा के अनुसार प्रति रात्रि श्रीवास के घर में संकीर्त्तन प्रारम्भ हुआ। इसमें श्रीमन् महाप्रभुजी केवल अपने पार्षदों को लेकर ही संकीर्त्तन विलास करते थे। एक बार हरिवासर तिथि को जब श्रीवास आंगन में कीर्त्तन आरम्भ हुआ तो उस दिन महाप्रभुजी के शरीर में प्रेम के विविध विकार प्रकाशित होने लगे ––

हरिवासरे हरि – कीर्त्तन विधान ।
नृत्य आरम्भिला प्रभु जगतेर प्राण ॥
पुणयवनत श्रीवास – अंगने शुभारम्भ।
उठिल कीर्त्तन धवनि ‘गोपाल ‘गोविनद’ ॥
हरि ओ राम – राम॥ ध्रु ॥
(चालीस पद कीर्त्तन चै.भा.म 8/138-139)

श्रीमन्महाप्रभु जी की आज्ञा के अनुसार द्वार बन्द करके संकीर्तन होता था। ऐसा होने से अर्थात् अन्दर प्रवेश न कर पाने के कारण पाखण्डी लोग कड़वी – कड़वी बातें कहकर महाप्रभुजी की निन्दा करते परन्तु महाप्रभु जी के भक्त उन सब बातों पर ध्यान ना देते और कीर्तन विलास में मस्त रहते थे। रासक्रीड़ा की लम्बी रात्रि भी गोपियों को जैसे तिलार्द्ध की तरह अनुभव हुई थी उसी प्रकार श्रीमन्महाप्रभु के कीर्त्तन विलास में मत होकर भक्तों की रात्रि भी न जाने कैसे गुज़र जाती। एक दिन कीर्तन के पश्चात् महाप्रभुजी सारे शालिग्रामों को गोद में लेकर विष्णु आसन पर आसीन हो ग ये और अपने तत्त्व को प्रकाश करते हुए भक्तों द्वारा प्रदत्त सब उपहार भक्षण करने लगे।

इसी प्रकार एक दिन श्रीवास भवन में श्रीमन्महाप्रभु जी ने ‘महाप्रकाश लीला’ प्रकट की । इस दिन भक्तभाव और आवेश भाव का संवरण करे बिना किसी माया – आवरण के साथ प्रहर तक अपने अप्राकृत स्वरूप में विष्णु आसन पर विराजमान रहे। उनके इंगित करने पर भक्तों ने श्री गौरनारायण का राजराजेश्वर विधि से अभिषेक किया तथा पूजा की। श्रीगोरसुन्दर जी ने भी अपने चरण प्रसार कर सबकी अभीष्ट पूजा स्वीकार है और सब भक्तों को उनके अभीषट वर भी प्रदान किये । इस सात – प्रहरिया लीला में श्रीगोरसुन्दर जी ने विष्णु के समस्त अवतारों के रूपों को प्रकाशित किया था।

एक दिन श्रीवास जी की सास प्रभु के चरण को देखने की आशा से एक कोने में छिप कर बैठ गयी परन्तु सर्वभूतान्तर्यामी महाप्रभु जी जान गये और उस दिन नृत्य में आनन्द ना आने की बात पुनः पुनः बतलाने लगे। इससे भक्तों के साथ श्रीवास भी अत्यन्त भयभीत व चिन्तित होकर खोजने लगे कि घर में कोई बाहर का व्यक्ति तो नहीं है। अपनी सास को घर में छिपी हुई देखकर श्रीवास अत्यन्त दुःखी हुये और उन्होंने उसे केशों से पकड़ लिया तथा घसीट कर घर से बाहर कर दिया। ( कारण, महाप्रभु जी की कृपा प्राप्त व्यक्ति को छोड़कर और किसी को भी लीला के दर्शन का अधिकार न था। )

श्री चन्द्रशेखर भवन में जब महाप्रभु जी ने ब्रज लीला का अभिनय किया था तब श्रीवास जी ने नारद जी की भूमिका निभाई थी।श्रीअद्वैत आचार्य ने महाविदूषक, हरिदास जी ने कोतवाल, स्वयं महाप्रभु जी ने पहले रुक्मणी का और बाद में आद्या शक्ति के रूप का और नित्यनन्द जी ने योगमाय का अभिनय किया था। ये ठीक है कि बाद में श्रीमन् महाप्रभु ने लक्ष्मी भाव से सिंहासन पर चढ़कर व स्नेहाविष्ट होकर जगत् जननी रूप से सभी भक्तों को स्तनपान करवाया था।

श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीवासांगन में पूरे एक वर्ष तक सारी- सारी रात संकीर्तन किया था। श्रीवास भवन में जब द्वार बन्द कर संकीर्त्तन होता था तो उस समय अनेक बहिर्मुख ब्राह्मण लोग वैष्णवों का उपहास करने की चेष्टा करते थे। श्रीवास के घर में प्रवेश न कर पाने के कारण दुमूर्ख वाचाल पाखण्डियों में प्रधान गोपाल – चापाल नाम के एक ब्रह्मण (भट्टाचार्य) ने श्रीवास को अपमानित करने के लिए जवाफूल (लाल फूल), लाल चन्दन, मदिरा के पात्र आदि देवी पूजा की सामग्री केले के पत्ते के ऊपर रखकर श्रीवास के घर के बन्द द्वार के सामने रख दी। प्रातः काल जब द्वार खोला गया और सामने यह सब देखा तो श्रीवास पण्डित हँसते हुये बोले –– देखो – देखो, मैं प्रतिदिन रात के समय भवानी पूजा करता हूँ । अब तो तुम सब समझ गये कि मैं शाक्त हूँ । किन्तु सज्जन लोग ये सब देखकर अत्यन्त दुःखी हुये और सफाई करने वाले को बुला कर उन्होंने उन सब मद्यादी गन्दी वस्तुओं को दूर गिरवाया और गोबर से लिपकर उस स्थान को पवित्र किया। उसी वैष्णव अपराध के कारण गोपाल चापाल को कोढ़ हो गया था। जब महाप्रभुजी गंगाघाट पर आये तो गोपाल चापाल ने उनसे रोग मुक्ति के लिए प्रार्थना की। उसकी प्रार्थना सुनकर महाप्रभुजी क्रोधित होते हुए बोले:-

आरे पापी, भक्तद्वेषि, तोरे ना उद्धारिमु।
कोटिजन्म एइ मते कीड़ाय खवाईमु ॥
श्रीवासे कराइल तुइ भवानी – पुजन ।
कोटि जन्म हबे तोर रौरबे पतन ॥
(चै.च.आ. 17/51-52)

“अर्थात् अरे पापी, भक्त द्वेषि! तेरा उद्धार नहीं करूँगा। करोड़ जन्म तक तुझे इसी प्रकार कीड़ों से खिलवाऊँगा। तूने श्रीवास से भवानी पूजन करवाया, तेरा तो करोड़ों जन्म तक रौरव नर्क में पतन होगा।”

श्रीमन्महाप्रभुजी संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् जब नीलाचल से अपराध भंजनपाट कुलिया (कोलद्वीप – वर्तमान शहर नवद्वीप) में आ ये तो उस समय जब गोपाल – चापाल ने रोग से मुक्ति के लिए प्रार्थना की तो श्री महाप्रभुजी को दया आ गई और उन्होंने उसे श्रीवास पण्डित के पास जाकर क्षमा प्रार्थना करने के लिए कहा। जिस वैष्णव के चरणों में अपराध हो जाता है उसी भक्त के पास जाकर क्षमा याचना करनी होती है, तभी अपराध मार्जन होता है। श्रीवास पण्डित के चरणों में क्षमा याचना करके गोपाल चापाल पूर्व कृत अपराध से मुक्त हो गया।

श्रीमद् भागवत् के महाध्यापक होने पर भी देवानन्द पण्डित भाग्यदोष से भक्ति हीन थे। एक समय श्रीवास पण्डित देवानन्द पण्डित की भागवत् व्याख्या श्रवण करने के लिए गये। भक्तराज श्रीवास भागवत् श्रवण करके प्रेम से उन्मत्त हो गए व क्रन्दन करने लगे। उनके क्रन्दन करने पर देवानन्द के पाखण्डी छात्रों ने इनको सभा से बाहर निकाल दिया। देवानन्द पण्डित ने अपने छात्रों को ऐसा करने से मना भी नहीं किया जिससे उनका वैष्णव अपराध हो गया था। बाद में सौभाग्य वशतः कुलिया में श्री वकरेश्वर पण्डित का संग प्राप्त होने से देवानन्द पण्डित श्रीमन्महाप्रभुजी के तत्त्व से अवगत हुये व अपने अपराध के लिए अनुतप्त हुये। इसके बाद उन्होंने श्रीमन्महाप्रभु जी की कृपा प्राप्त की। व्रजलीला में यह नन्दमहाराज के सभा पण्डित – ‘भागुरी मुनि’ थे।

एक दिन एक दुग्धाहारी ब्रह्मचारी ने छिप कर प्रभु का कीर्तन विलास दर्शन करने के लिए श्रीवास जी से अनुरोध किया। ब्रह्मचारी और सात्त्विक आहार जानकर श्रीवास जी उसे अपने घर ले आये । श्रीवास की युक्ति के अनुसार ब्रह्मण घर में छिपकर बैठ गया किन्तु अन्तर्यामी महाप्रभु जान गये और बोले कि आज की कीर्त्तन में आनन्द नहीं आ रहा है, ऐसा लगता है कि किसी बहिर्मुख व्यक्ति ने घर में प्रवेश किया है। महाप्रभु जी की बात सुनकर भयभीत श्रीवास पण्डित बोले की एक दुग्धाहारी ब्रह्माचारी द्वारा आपके नृत्य के दर्शन करने के लिए विशेष आग्रह प्रकाशित करने पर उसकी तपस्या और आर्ति को देखकर मैंने उसे घर में स्थान दिया है। यह सुन महाप्रभु जी क्रोधित हो गए और बोले कि श्रीकृष्ण में शरणागति के अतिरिक्त दुग्धपान इत्यादि बहिर्मुख तपस्या द्वारा कृष्णभक्ति की प्राप्ति नहीं होती, उसको यहां से बाहर कर दो। ब्राह्मण भय से घर से बाहर हो गया और बाहर से आंशिक दर्शन के सौभाग्य की प्राप्ति के लिये अनुरोध करने लगा। परमकरुण श्रीमन्महाप्रभु जी ने उसको बुला कर अपने पादपद्म उसके मस्तक पर रख दिये और तपस्यादि की दाम्भिकता का प्रदर्शन करने के लिए निषेध किया।

श्रीमन्महाप्रभु द्वारा ‘अमानी मानद’ होकर सबको आलिंगन करते हुये व आर्ति के साथ हरिनाम संकीर्तन करने के लिये अनुरोध करने पर सभी भक्त मृदंग व शंखादि के साथ उच्च संकीर्त्तन करने लगे । विषयी व्यक्ति इसको मनोरंजन के लिए होने वाला नाचना, गाना – बजाना समझ कर अथवा बे – समय महामाया की पूजा समझकर कटुक्ति द्वारा भक्तों की निन्दा करने लगे। दैवक्रम से उसी समय जिले का शासक काज़ी उसी रास्ते में गुजर रहा था। उसने कीर्त्तन के शोर से परेशान व क्रुद्ध होकर श्रीवास आंगन में आकर मृदंग तोड़ दी और किसी – 2 व्यक्ति को मारा भी तथा भक्तों को चेतावनी देते हुये कहा कि यदि पुनः कीर्त्तन किया गया तो और अधिक सज़ा दी जायेगी। दुष्टों को लेकर काज़ी जब चारों तरफ कीर्त्तन के लिये रोक लगाने लगा तो पाखण्डियों को खूब आनन्द हुआ और वे आनन्दित होकर नाना प्रकार से भक्तों का उपहास करने लगे। कीर्त्तन में बाधा उत्पन्न हो गई है, सुनकर श्रीमन्महाप्रभु जी ने क्रोध लीला का प्रकाश किया और सब भक्तों को निर्भयता पूर्वक माशालें तथा कीर्त्तन के उपकरणों के साथ आने के लिए कहा। अलग – अलग मण्डलियों मे कीर्त्तन की व्यवस्था कर श्रीमन्महाप्रभु नृत्य करते – करते गंगा के किनारे वाले रास्ते पर चलने लगे । लाखों स्रियाँ – वृद्ध – बालक सभी अपने – अपने घरों के कामों का परित्याग कर संकीर्त्तन करते – करते श्रीमन्महाप्रभु जी के पीछे – पीछे चल पड़े। संकीर्त्तन की ध्वनि सुनकर पाखण्डियों के ह्रदय काँप उठे। लाखों – लाखों हिन्दू आ रहे हैं, जानकर सिराज्जुदीन चाँद काज़ी भयभीत होकर घर में घुस गया। श्रीमन्महाप्रभुजी उसके घर गये व बड़े प्यार से सभ्य व्यक्ति की तरह उसे बुलाने लगे। उनके प्रतिपूर्ण बुलावे से आकृष्ट होकर चाँद काज़ी बाहर आया और नीलाम्बर चक्रवर्ती के साथ गाँव के सम्बन्ध के कारण महाप्रभु जी को भान्जा सम्बोधन कर परस्पर स्नेहपूर्ण आलोचना के पश्चात् बोला कि मैं मृदंग तोड़कर कीर्त्तन के लिए निषेध करके जिस दिन घर वापस आया तो उसी दिन रात्रि को मैंने देखा कि एक भयंकर आधा नराकार व आधा सिंहाकार नरहरि रूप मेरे वक्षस्थल पर चढ़ बैठा और कहने लगा –– मैं मृदंग के बदले तेरी छाती फाडूँगा । परन्तु जब मैं डर गया तो उसने मुझे छोड़ दिया और कहा कि पुनः कीर्त्तन में बाधा ना देने का संकल्प लेने पर मैं तुझे क्षमा कर दूँगा। काज़ी ने अपने वक्षस्थल पर श्री नरसिंह देव के नाखूनों के स्पष्ट निशान दिखाये । चाँद काज़ी शपथ लेते हुये बोला -अपने वंश में मैंने तलाक दे दिया है कि कोई भी तुम्हारे कीर्त्तन में बाधा नहीं देगा। इस प्रकार चाँद काज़ी महाप्रभु जी के भक्त हो गये । चाँद जी के स्वधाम को प्राप्त हो जाने पर ब्राह्मण पुष्करिणी ग्राम में उनकी समाधि बनी । उस समाधि क्षेत्र में इस प्राचीन गोलोक चम्पा का वृक्ष अभी भी विराजित है। उक्त चाँद काज़ी की समाधि में सभी हिन्दू – मुसलमान समान रूप से श्रद्धा करते हैं।

श्रीवास आंगन में संकीर्त्तन के पश्चात् श्रीमन्महाप्रभु जी अपने गणों के साथ गंगा स्नान करते थे। कभी-कभी भक्त प्रभु को श्रीवास आंगन में ही स्नान करवा देते थे।श्रीवास के घर की एक दासी जिसका नाम ‘ दुःखी’ था, बड़े भाव के साथ सजल नेत्रों से महाप्रभु जी का नृत्य कीर्तन देखती थी और महाप्रभु जी के स्नान के लिए सभी धडे़ गंगाजल से भर कर रखती थी। उक्त प्रकार की सेवा प्रचेष्टा देखकर व परम सन्तुष्ट होकर श्रीमन्महाप्रभु जी ने उसका नाम दुःखी के बदले सुखी रख दिया।

एक दिन श्रीवास के घर में रात्रि कीर्तन के समय उनका इकलौता पुत्र गुज़र गया। पुत्र के वियोग में घर की स्रियाँ रोने लगीं । स्रियों का क्रन्दन सुनकर श्रीवास जी तुरन्त अन्दर गये और क्रन्दन रोकने के लिए महिलाओं को प्रबोधन देने लगे। फिर भी शोकावेग के कारण क्रन्दन होता देख श्रीवास पण्डित द्वारा गंगा में प्राण विसर्जन करने का भय दिखाने पर ही उन्होंने क्रन्दन बन्द किया।

काफी रात तक कीर्त्तन करने के बाद श्रीमन्महाप्रभु जी कहने लगे –– “आज मेरा चित्त कैसे – कैसे करता है। पण्डित के घर में कोई दुःख हुआ है क्या ?”

पण्डित बोले –

प्रभु मोर कोन् दुःख ।
यार घरे सुप्रसन्ने तुम्हारा श्रीमुख॥

अर्थात श्रीवास जी कहते हैं –– हे प्रभु जिसके घर में आपका सुप्रसन्न श्रीमुख हो उसे भला क्या दुःख हो सकता है।

बाद में भक्तों ने कहा–– प्रभो! श्रीवास का एकमात्र पुत्र आधी रात को गुज़र गया है।

श्रीमन्महाप्रभु जी ने कहा–– “इतने समय से मुझे क्यों नहीं बताया?” प्रभु आपके कीर्त्तन में बाधा होगी इसलिए श्रीवास पण्डित जी ने बताने के लिये मना किया था।

इस प्रकार के प्रेमिक भक्तों को मैं कैसे छोड़ कर जाऊँगा –– ऐसा कह कर श्रीमन्महाप्रभु आँसु बहाने लगे। इसके पश्चात् मृत शिशु के पास आकर उन्होंने उससे पूछा “ओहे बालक, तुम ने श्रीवास जैसे भक्त के घर को छोड़ कर अन्यत्र जाने की इच्छा क्यों की?”

इस पर मृत शिशु बोला –– जितने दिन मेरा श्रीवास जी के घर में रहने का समय था उतने दिन यहाँ गुज़ारे, अब आपकी इच्छा के अनुसार मैं अन्यत्र जा रहा हूँ । मैं आपका नित्य अनुगत अस्वतन्त्र जीव हूँ। आपकी इच्छा के विरुद्ध मैं कुछ भी नहीं कर सकता। आप मुझ पर कृपा कीजिये, जिससे मुझे कभी भी व किसी भी अवस्था में आपके पदपद्मों की विस्मृति न हो।

मृत शिशु के मुख से इस प्रकार के ज्ञानगर्भित वाक्य सुनकर श्रीवास के परिवार वर्ग को दिव्य ज्ञान हुआ व उनका शौक दूर हो गया।

श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीवास से कहा –– “अब से मैं और नित्यानन्द तुम्हारे दो पुत्र हैं। हम कभी भी तुम को छोड़कर नहीं जाएंगे।”

श्रीमन्महाप्रभु जी के संन्यास ग्रहण के पश्चात् नीलाचल रहते समय प्रतिवर्ष श्रीवास पण्डित गोडी़य वैष्णवों के साथ चातुर्मास्य के समय पूरी धाम में आते थे।

श्रीवास पण्डित गुण्डिचा मन्दिर मार्जन लीला में व रथयात्रा में श्रीमन्महाप्रभु जी के साथ रहते थे। रथ के आगे सात मण्डलियों के बीच में द्वितीय मण्डलीके मूल गायक थे श्रीवास पण्डित और इस मण्डली के नर्त्तक थे –– श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु।

प्रथम मण्डली के मूलगायक श्रीस्वरूप दामोदर, नर्त्तक श्रीअद्वैत आचार्य; तृतीय सम्प्रदाय (मण्डली) के मुकुन्द मूलगायक, नर्त्तक श्रीहरिदास जी; चतुर्थ मण्डली के मूलगायक थे गोविन्द घोष और नर्त्तक थे वक्रेश्वर पण्डित; पंचम मण्डली के गायक थे कुलीन ग्राम का कीर्त्तनीय समाज और नर्त्तक थे रामानन्द और सत्यराज; षष्ट मण्डली में गायक थे शान्तिपुर का भक्त समाज और नर्त्तक श्रीअच्युतानन्द; सप्तम मण्डली में गायक थे खण्डवासी भक्त; नर्त्तक थे श्रीनरहरि और श्री रघुननन्दन । जब श्रीमन्महाप्रभु की नृत्य करने की इच्छा हुई तो सातों मण्डलियों को एकत्रित कर लिया गया।

एक बार राजा प्रताप रूद्र अपने सेवक हरिचन्दन के कन्धे पर हाथ रखकर श्रीमन्महाप्रभु जी का अलौकिक उदण्ड नृत्य कीर्त्तन देखने लगे। उसी समय श्रीवास पण्डित प्रेमाविष्ट होकर राजा के सामने आ गये और वहीं से श्रीमन्महाप्रभु के नृत्य का दर्शन करने लगे । राजा के आगे श्रीवास को देखकर राजा के दर्शन में असुविधा होता देख हरिचन्दन ने श्रीवास के अंगों को स्पर्श करके उन्हें एक तरफ होने के लिए इशारा किया। हरिचन्दन के द्वारा बार –बार ऐसा करने पर श्रीवास जी के नृत्य दर्शन का भाव भंग होने लगा और उन्होंने हरिचन्दन को एक थप्पड़ मार दिया। हरिचन्दन क्रोध में कुछ बोलना ही चाहता था कि राजा ने उसको रोक दिया और कहा कि बहुत भाग्य से तुम्हें श्रीवास जैसे भक्त के हाथों के स्पर्श की प्राप्ति हुई है।

श्रीमन्महाप्रभु जी के काटोया में संन्यास ग्रहण करने पर श्रीमन्महाप्रभु का विरह न सह पा सकने के कारण श्रीवास पण्डित नवद्वीप का परित्याग कर कुमार हट्ट में रहने लगे थे। श्री ईश्वरापुरी का आविर्भाव स्थान भी कुमार हट्ट में ही था। श्रीमन्महाप्रभु जी ने यहाँ पर आकर श्री ईश्वर पूरीपाद के जन्मस्थान की मिट्टी लेकर अपने बहिर्वास में बाँध ली थी। उसी समय से आगन्तुक यात्री भक्ति भाव से यहाँ की मिट्टी लेते हैं। लगातार वहाँ से मिट्टी लेते रहने से, वह सथान एक खड्डे में परिवर्तित हो गया है और अब वह ही ‘चैतन्य डोबा’ के नाम से प्रसिद्ध है। ‘चैतन्या डूबा’ के पास ही श्रीवास पण्डित जी का श्रीपाट है। श्रीमन्महाप्रभु के सपार्षद श्रीवास पण्डित के गृह में आगमन करने पर श्रीवास तथा उनके परिवार के सभी लोग श्रीमन्महाप्रभु और वैष्णवों की सेवा में निमग्न हो जाते थे।

श्रीवास जी को हमेशा सेवा में लगा देख एक दिन श्रीमन्महाप्रभु जी श्रीवास से बोले कि तुम गृहस्त हो तुम्हारा अर्थ उपार्जन करने की चेष्टा करना उचित है। नहीं तो तुम्हारे कुटुम्ब का भरण- पोषण किस प्रकार होगा? श्रीवास ने कहा कि मेरी अर्थ उपार्जन की इच्छा नहीं है और साथ – साथ ही उन्होंने तीन तालियां भी बजायीं। श्रीमन्महाप्रभु जी द्वारा इसका अर्थ पूछने पर श्रीवास बोले एक उपवास, दो उपवास, तीन उपवास, उसके पश्चात् गले में घड़ा बाँध कर गंगा में प्रवेश कर जाऊँगा। श्रीवास का वाक्य सुनकर श्रीमन्महाप्रभु हुँकार करते हुये बोले –– हो सकता है कि कभी लक्ष्मी को भी भिक्षा करनी पड़े किन्तु तुम्हारे घर में कभी भी अभाव नहीं होगा । जो अनन्य चित्त से भगवान् श्री कृष्ण का भजन करते हैं उनका योगक्षेम श्री कृष्णा स्वयं ही वाहन करते हैं।

श्रीवास पण्डित अपने भाइयों के साथ प्रत्येक वर्ष कुमारहट्ट से नीलाचल जाते थे और शची माता के दर्शन करने के लिए मायापुर भी आते थे।

एक दिन नीलाचल में श्रीअद्वैताचार्य के नेतृत्त्व में श्रीवासादि भक्तों द्वारा परमोल्लास से श्रीमन्महाप्रभु जी के नाम – रूप – गुण लीला का कीर्तन करने पर श्रीमन्महाप्रभु जी ने क्रोध की लीला कर उस स्थान का त्याग कर दिया। परन्तु बाद में वे ही भक्तों के सामने झुक गये और उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार की।

चैत्र कृष्णाष्टमी तिथि में श्रीवास पण्डित का आविर्भाव तथा आषाढ़ कृष्णदशमी तिथि में तिरोभाव तिथि मनाई जाती है।

A Person Related to A Devotee is Also Dear to Krishna

Dukhi is related to Srivas Pandit. A person related to a devotee is also dear to Krishna. Krishna or Chaitanya Mahaprabhu is not seeing other qualities. Similarly, there was a tailor who was Muslim by birth who used to sew garments of Srivas Pandit. Chaitanya Mahaprabhu said he may be a Muslim but he has aptitude and desire to serve Srivas Pandit and his family members. Chaitanya Mahaprabhu was satisfied. He has no other qualities. When Chaitanya Mahaprabhu was chanting and dancing He infused the divine love in that Muslim tailor and he also started dancing. By chanting of holy names he got all ecstatic feelings that muni rishis cannot get.

The Supreme Lord is not subservient to us. By our material mind, intellect and material words we cannot narrate the glories of the Supreme Lord and His Absolute counterpart. It is beyond our comprehension. When They will manifest Their qualities in us then we can understand. How will They manifest? When you take absolute shelter of Them.

Brahma considered Krishna as a gopal (milk-man), son of Nanda and an ordinary person. But when he surrendered he received the mercy of Krishna and understood Him as para-tattva. Same person!

phalen phala karana anumiyate

—By the fruit you can understand the cause behind it.

We are seeing the Vaishnavas and Guru, but their glories are not manifesting in our heart. They are aprakrit—transcendental. Even their touch can destroy all the ignorance. Their touch means the touch of the Supreme Lord. The Supreme Lord provides His association through His devotees.

There is an incident from Srimad Bhagavatam in relationship to atonement. I have narrated it many times. Sukdeva Goswami is speaking to Pariksit Maharaj,

na tathā hy aghavān rājan
pūyeta tapa-ādibhiḥ
yathā kṛṣṇārpita-prāṇas
tat-puruṣa-niṣevayā
(Srimad Bhagavatam 6.1.16)

“A sinner cannot purify himself by austerity, karma, gyana etc. They can only purify themselves by submission.”

There are various ways of atonement—karma kanda, gyan kanda, bhakti. It’s narrated elaborately in the 6th Canto of Bhagavatam in relation to the topic of Ajamil.

If we submit to the Supreme Lord, submit to a pure devotee, they can uproot the cause of our nescience. They can destroy the nescience.

How can we submit ourselves? It is possible only by serving a true Vaishnava! Then we can have the aptitude to take absolute shelter of Sri Krishna and His devotees. Whether we have actually submitted or not we can understand by the fruit. phalen phala karana anumiyate—By the fruit one can understand the cause behind it.

Devotees of the Lord are not speaking any lies. They are speaking the truth. We have got our own defects. We have to rectify those defects. We are not submitting actually because we have got no faith in the pure devotees. We are not seeing any pure devotees. We think, “I’m the only pure devotee.” If so, then you associate with yourself!

This is the most abominable state. It is said by Narottam Das Thakur—ki rūpe pāibo sevā mui durācāra, śrī guru vaiṣṇave rati nā hoilo āmāra . We cannot believe the words, teachings and instructions of our Gurudev. We don’t give any value to it. We are not seeing any Guru or Vaishnava. We think, “I’m Vaishnava. I’m the only Guru.” This is the most abominable state. Gradually you’ll go down-down-down to hell. You will go just the opposite. By speaking so-called Harikatha you will go to hell. There is no belief in actual Harikatha! Who will rescue you? Only Guru & Vaishnava will rescue you!

What took place in Srivas Angana?

Mahaprabhu eternally resides in Srivas Angana—

srivas angane, nityanand nartane, sachir angane,
raghav bhavane nitya adhisthaan!

Mahaprabhu told Srivas Pandit that, except for devotees, no one should be allowed in His Sankirtan pastimes at Srivas Angana. There was a Bhattacharya Brahmin, Gopal Chapal, who was rough-spoken and talkative. He used to criticize others. He requested Srivas Pandit to allow him in Sankirtan. In response Srivas Pandit told him, “Mahaprabhu has not ordered me.” Hearing this, the Brahmin told, “Oh! You have become a great devotee, what kind of devotee you are I understand; I know what you do in the night, you try to showcase yourself as a devotee.”

In the night, he put articles for worship of goddess Bhavani in front of Srivas Pandit’s house, such as wine, meat etc. to defame him. Others will then think he poses as devotee but actually he does Bhavani-puja (worship the goddess) all the night. When Srivas Pandit opened the door of his house and saw all those items lying there, he said, “Look this is what I actually do in the night.” But no one believed that Srivas Pandit could do such things. Mahaprabhu understood who had done this. He became angry at Gopal Chapal. Mahaprabhu cursed him to have leprosy, and after three days Gopal Chapal was attacked by this disease because he disparaged and vilified a sadhu. Srivas Pandit did not take any offense but Sri Chaitanya Mahaprabhu was very much dissatisfied and angry. Gopal Chapal himself begged Mahaprabhu for forgiveness. Mahaprabhu said, “You insulted and disregarded Srivas Pandit. I shall make you be eaten by worms of leprosy for crores and crores of births, not just one birth.” He was enraged. Later when Gopal Chapal approached Mahaprabhu after His sanyas, again at Koladwip, the place where all offenses are destroyed, Mahaprabhu told him the way to be freed from his disease was by begging for forgiveness from Srivas Pandit.

Durvasa Rishi is not an ordinary rishi. He can live without eating for one thousand years and he can take the food for one thousand years in one day. Everyone trembled by hearing his name. He wanted to kill Ambarish Maharaja. But Sudarshan-chakra, the Disc of Lord Vishnu, came and tried to burn Durvasa Rishi. Durvasa Rishi started to run here and there. He went to Brahma, Mahadeva, and at last to Narayana. Narayana also could not save. Narayana said, aham bhakta paradhina—“I am subdued by the devotion of My devotees. I cannot do anything. Sadhus have conquered My heart. My heart is not here. By heart one can offer compassion to others. So how can I offer compassion when My heart is not with Me! My heart is with My pure devotees. So you have to go to Ambarish Maharaja.”

The Lord says, bhakta, bhakta-janeyi aamar priya— “Not only the devotees but persons related to the devotees are also dear to Me.”

There was a maid servant named Dukhi in the house of Srivas Pandit. Dukhi means one who is always in the grip of sorrow. She had no worldly education or qualification. She used to perform service in the house of Srivas Pandit, seeing that Mahaprabhu was satisfied. At night Chaitanya Mahaprabhu was performing dancing and chanting and in the morning He would go to the Ganges to take bath. Srivas Pandit ordered Dukhi, “You should bring water from the Ganges every day because Chaitanya Mahaprabhu is dancing throughout the night. He may say in the morning—“I am very tired, I cannot go to the Ganges.” Then we can bathe Him, to have an opportunity to help with His ablution etc. so you have to bring water in a big earthen pot.” She used to bring water daily in this pot. But Chaitanya Mahaprabhu used to go to the Ganges daily. Then that maid-servant felt, ‘I am an insignificant person. I have no opportunity to serve.’ She was dejected. By her dejection, which is actually bhakti (devotion), Chaitanya Mahaprabhu (one morning) said, “I’m very much tired, I cannot go to the Ganges.” He made the pastime of being tired. Then Srivas Pandit called Dukhi.

“Have you brought the water?”

“Yes.”

“Bring here. We have to bathe Chaitanya Mahaprabhu. Your water will be used.”

Dukhi felt very happy as Mahaprabhu accepted her service. Then Chaitanya Mahaprabhu asked Srivas Pandit, “Whom are you calling ‘Dukhi’?”

Srivas Pandit said, “The maid-servant.”

“No, she is not Dukhi. She is Sukhi (the happiest). She can’t have unhappiness.”

Dukhi is related to Srivas Pandit. A person related to a devotee is also dear to Krishna. Krishna or Chaitanya Mahaprabhu is not seeing her other qualities. Similarly, there was a tailor who was Muslim by birth, he used to sew the garments of Srivas Pandit. Chaitanya Mahaprabhu said he may be a Muslim but he has an aptitude and a desire to serve Srivas Pandit and his family members. Chaitanya Mahaprabhu was satisfied. The tailor has no other qualities (other than serving Srivas Pandit). So when Chaitanya Mahaprabhu was chanting and dancing, He infused Divine Love in that Muslim tailor and he also started dancing. By the chanting of the holy names he got all ecstatic feelings that Munis and Rishis cannot get. He was rescued.

One should be very careful about the offenses. If you serve Guru and Vaishnavas, you can get everything.

vāñchā-kalpatarubhyaś ca kṛpā-sindhubhya eva ca
patitānāṁ pāvanebhyo vaiṣṇavebhyo namo namaḥ