सनातन धर्म सदैव सनातन वस्तु को आश्रय करके ही रहता है। धर्म का साधारण अर्थ- ‘स्वभाव’ जाना जाता है। जिस वस्तु का जो स्वभाव होता है, वही उसका धर्म होता है। जैसे जल का धर्म तरलता है व अग्नि का धर्म जलाना होता है, इत्यादि। किसी निमित्त को प्राप्त करके जल जैसे कभी कठोर हो जाता है और कभी भाप बन जाता है परन्तु वह भाप अथवा कठोरता जल का नैमित्तिक धर्म है, स्वाभाविक धर्म नहीं। इसी प्रकार जीव के भी स्वाभाविक और नैमित्तिक धर्म हैं। जीव का स्वरूप वस्तुतः सनातन और अविनाशी है। उसका स्वरूप-धर्म भी सनातन एवं अविनाशी है। किसी निमित्त को प्राप्त करके उसका असनातन और विनाशशील रूप दिखाई देता है। निमित्त के चले जाने पर उसका वास्तविक स्वरूप फिर प्रकाशित होता है। इसी विचार के अनुसार, जीव का देह और मन विनाशी और चंचल कहलाता है। जब जीव के देहधर्म और मनोधर्म दोनों ही चंचल और विनाशी हैं तब जीव का स्वरूप और स्वधर्म मूलतः, किसको केन्द्र कर के सिद्ध होता है?
विचार करने पर देखा जाता है कि सनातन पुरुष भगवान को केन्द्र करके ही जीव का स्वरूप और स्वधर्म मालूम होता है। भगवान प्रकृति से अतीत हैं; इसलिए सदा विन्मय हैं। जड़ माया उन्हें कभी भी ढक नहीं सकती। भगवान का श्रीविग्रह, स्थान, परिवार सब ही मायातीत हैं, सब ही चिन्मय हैं। इसीलिए चिन्मय विग्रह के पुजारी ही वस्तुतः सनातन धर्मी हैं तथा इसके विपरीत आचरण करने वाले अर्थात् भगवान के नित्य श्रीविग्रह पर विश्वास न करने वाले लोग असनातनी, मायावादी और यवन कहलाते हैं।
“विग्रह ‘ये ना माने से यवन सम* ॥
अर्थात् जो श्रीविग्रह को नहीं मानता, वह यवन के समान है। श्रीविग्रह-पूजा, पुतुल पूजा नहीं है। पुतुल पूजा कहने से, जीव की मनोकल्पित वस्तु की पूजा को समझा जाता है। श्रीभगवत्-विग्रह शुद्ध- भक्त के हृदय में सदा आविर्भूत रहता है, वह परम प्रेममय होता है। भक्त उसका प्रेम-नेत्र द्वारा अपने हृदय के भीतर और बाहर दर्शन करता है। जिस रूप का भक्तों के चित्त में विशेष आवेश होता है, बार बार उस रूप के दर्शनेच्छुक व सेवनेच्छुक होकर भगवद-भक्त उस रूप को लेख्या, लेप्या, सैकती दारुमयी मनोमयी (“रेखा चित्र वाली, पेन्टिंग वाली, रेत से बनी, लकड़ी से बनी, मानसिक चिन्तन से बनी तथा मणियों से बनी भगवान की श्री मूर्ति ।) तथा मणिमयी’ इत्यादि आठ प्रकार के रूपों में लोगों की आँखों के सामने प्रकट करके प्रीति के साथ नित्य उनकी सेवा-पूजा करते हैं एवं उत्तरोत्तर प्रेम की प्रगाढ़ता भी प्राप्त करते हैं। क्योंकि, यह विशेष तत्व, भक्त के शुद्ध हृदय में प्रकाशमान है- ये जड़-मन के अधीन तत्व नहीं है, इसलिए यह सदा चिन्मय है। शुद्ध प्रेममय भक्त के द्वारा प्रकटित भगवान के श्रीविग्रह और भगवान के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है, यह दोनों ही प्रकृति के अतीत, वैकुण्ठ वस्तु हैं।
‘प्रतिमा नहे तुमि-साक्षात् व्रजेन्द्रनन्दन।
विप्र लागि कर तुमि अकार्य-कारण ॥
बाहरी दृष्टि से मौन मुद्रा धारण करते हुए रहने पर भी, वे (श्रीविग्रह) शुद्ध प्रेमी भक्तों के साथ बातचीत करते हैं; उनके हाथ से खाते हैं द उनके साथ खेलने आदि की कई प्रकार की लीला करते हैं। भारतवर्ष में इसके दृष्टान्तों का अभाव नहीं है। जैसे कि साक्षी गोपाल की कथा, क्षीरवोरा श्रीगोपीनाथ की कथा, श्रीगोपालदेव जी की कथा, गोविन्ददेव जी, श्रीगोपीनाथ जी, श्रीजगन्नाथ जी की कथा, श्रीमदन मोहन जी तथा श्रीराधा रमण जी आदि लीलामय श्रीविग्रह गण की लीला कथायें भारत के आकाश मण्डल में मुखरित हैं। उपसंहार में यही सिद्धान्त स्थिर होता है कि श्रीभगवत-विग्रह की पूजा और सेवा को केन्द्र करके ही सनातन धर्म की मूल प्रतिष्ठा है।