श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु त्रिकाल सत्य, पुराण पुख्य हैं। श्रीभागवत पुराण में, भविष्य पुराण में, महाभारत में, मुण्डकादि उपनिषदों में इस सम्बन्ध में बहुत प्रमाण होने से यह बात सिद्ध होती है।

दुनियावी समय के अनुसार ये सनातन पुरुष आज से 491 वर्ष पूर्व, बंगाल में, भगवान के श्रीचरणों से निकली पवित्र गंगा जी द्वारा सेवित व सर्वधामसार स्वरूप, श्रीनवद्वीप क्षेत्र में, परम वात्सल्य मूर्तिमय श्रीजगन्नाथ मिश्र एवं स्नेहमयी जगज्जननी श्रीशचीदेवी को आश्रय करके आविर्भूत हुए। विद्या-अध्ययन की लीला करते हुए वे बचपन में ही दिग्विजयी निमाई पण्डित नाम से विख्यात हुए। श्री-भू-लीला शक्ति सेवित श्रीगौरनारायण रूप में 24 वर्ष तक इन्होंने गृहस्थ लीला का अभिनय करके, पतित से भी पतित जीवों में कृष्ण-भक्ति संचारित की। 24 वर्ष के पश्चात् इन्होंने संन्यास ग्रहण लीला प्रकाश करते हुए, श्रीकृष्ण चैतन्य नाम धारण करके बाकी 24 वर्ष श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र में अवस्थान किया। उनमें से पहले छः वर्ष दक्षिण एवं उत्तर भारत एवं वृन्दावन आदि में कृष्ण-भक्ति-धर्म का प्रचार व प्रसार करते हुए तथा शेष 18 वर्ष केवल पुरुषोत्तम धाम में ही बिताए। आखिरी के इन 18 वर्षों में प्रारम्भ के छः वर्ष इन्होंने भक्तों के साथ रहकर, नृत्य-गीतादि द्वारा प्रेम-भक्ति प्रवर्तन तथा बाकी 12 वर्ष, श्रीकृष्ण विरहाक्रान्ता- महाभाव ‘स्वरूपिणी- श्रीराधाजी के भाव में विभावित होकर रहे। इन दिनों में श्रीमन्महाप्रभु कभी कूर्म (कछुए) की सी आकृति धारण करते, तो कभी शरीर का हर अंग दुगनी लम्बाई वाला करते तथा कभी गद्गद भाव आदि प्रकाश करके त्रिभुवन को प्रेममय कर देते थे। ये सभी लीलाएँ उनकी नित्य लीलाएँ हैं। आवरण की दृष्टि से जगत् के जीवों को श्रीकृष्ण-भक्ति की शिक्षा देने के लिए स्वयं श्रीकृष्ण ही श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में प्रकट हुए।