28 जून 1962, वृहस्पतिवार को, प्रातः हैदराबाद स्टेशन पर, श्रील गुरुदेव, प्रपूज्यचरण त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति गौरव वैखानस महाराज और अन्यान्य त्यक्ताश्रमी साधुवृन्द के साथ, हैदराबाद मठ के श्री श्रीगुरु-गौराब-राधाविनोद विग्रहों की प्रतिष्ठा-उत्सव में योगदान देने के लिए पधारे। उस समय वहाँ के मदरक्षक, श्री महल विलय ब्रह्मचारी जी के उद्यम से वहाँ के विशेष नागरिकों ने छत्र, चामर, व्यजन एवं अंग्रेजी बैण्ड तथा संकीर्तन आदि का बहुत सुन्दर प्रबंध किया था। बहुत से विशेष 2 मारवाड़ी भक्त स्टेशन से श्रील गुरुदेव जी के अनुगमन में संकीर्तन करते हुए हैदराबाद मठ में पहुंचे।
9 जुलाई, सोमवार को, प्रपूज्य वरण श्रीमद् भक्ति गौरव वैखालस महाराज जी के मूल पौरोहित्य और पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति भूदेव श्रौती महाराज जी की सहायता से, श्रील गुरुदेव जी ने पाञ्चरात्र और भागवत विधान के अनुसार, श्री श्रीगुरु गौरान राधा- विनोद जी के श्रीविग्रहगणों की प्रतिष्ठा का कार्य सुसम्पन्न किया। 8 जुलाई, रविवार से लेकर 15 जुलाई, रविवार तक जो विशेष धर्म सम्मेलन हुए, उनमें सभापति रूप से उपस्थित थे- श्री के० एन० अनन्त रमन, आई० सी० एस० माननीय न्यायाधीश, श्री डी० मुनिकानिया, ओस्मानिया विश्वविद्यालय के प्रो., डा० पी० श्रीनिवासाचार्य, एम० ए०, पीएच. डी., श्री पन्नालाल पित्ति, उत्तर प्रदेश के पूर्व गवर्नर, राजा वी० रामकृष्णाराओ, आन्ध्रप्रदेश के शिक्षामन्त्री, श्री पी० वी० जी० राजू, डा० के० रंगदारुलु, और राजा त्रिम्बक लाल आदि।
इन सभी धर्म सभाओं में अभिभाषण करते थे- श्रील गुरुदेव, ॐ 108 श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी विष्णुपाद, पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति भूदेव श्रौती महाराज, पूज्यपाद श्रीमद् भक्तिसौरभ भक्तिसार महाराज और पूज्यपाद श्रीमद् भक्तिकमल मधुसूदन महाराज। इनके अतिरिक्त दूसरे दिनों में श्रील गुरुदेव जी के आदेशानुसार भाषण करते थे- श्रीमद् राघव चैतन्यदास ब्रह्मचारी, श्रीमद् भक्ति प्रमोद अरण्य महाराज, श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ महाराज, श्रीमद् मंगलनिलय ब्रह्मचारी, श्रीमद् उलाई जगन्नाथम् पाण्डलु गारू और सेठ श्री जयकरण दास जी। सभा के आदि व अन्त में जो संकीर्तन करते थे, उनमें उल्लेखनीय हैं- श्रीमद् भक्ति ललित गिरि महाराज, श्री कानाईलाल ब्रह्मचारी, और श्री चिन्मयानन्द ब्रह्मचारी ।
15 जुलाई, रविवार दोपहर के पश्चात्, श्रीविग्रहगणों को सुन्दर तरीके से सुसज्जित करके रथपर चढ़ाकर, संकीर्तन शोभा यात्रा के साथ हैदराबाद के मुख्य 2 मार्गों का परिभ्रमण कराया गया। हैदराबाद में श्रीविग्रहों की शोभायात्रा पहली बार होने के कारण नर-नारियों में काफी उत्साह दृष्टिगोचर हो रहा था। स्थान-स्थान पर वहाँ के नर- नारियों ने श्रीविग्रहों की और श्रीगुरुदेव जी की पूजा की।
भारत में पर्यटन करने वाले अमेरिकन सांस्कृतिक मिशन का एक दल, संयुक्तराष्ट्र अमेरिका के विभिन्न विश्वविद्यालयों के अध्यापक, डा० मिलितान हे हापाला, डा० जार्ज यूम, डा० लिन्कलन जानसन, डा० इर्मगार्ड जानसन, डा० चाल्स योवार, डा० राबर्ट जी प्याटरसन, डा० राबर्ट टी एन्डरसन, डा० एलान ओएन्ट, डा० रल्फ वी. प्राईस, डा० कार्ल डब्लियू अरगेलहार्ट, डा० कलैडिट भायर, डा० जिओयान उल्कि, डा० रिटार्ड राउसेन, डा० फ्रॉक कानिहम, डा० डारेल पी. मोर्से, डा० जे० अर्थार मार्टिन, डा० ओ० लिन्कलन इगोना- डा० पी० निवासाचार्य जी के साथ, उत्सव से पूर्व, 3 जुलाई, 1962 को हैदराबाद मठ के दर्शनों के लिए आया तो, सबसे पहले मठ-रक्षक, श्रीपाद मंगलनिलय ब्रह्मचारी जी द्वारा सम्मानित किया गया। ब्रह्मचारी जी उनको श्रील गुरुदेव के पास ले गए और उनकी श्रील गुरुदेव जी के साथ सौजन्यपूर्ण व्यवहार और सौहार्दपूर्ण वातावरण में बातचीत हुई। उनके विशेष अनुरोध के कारण श्रीमन् महाप्रभु का पवित्र चरित्र और उनकी शिक्षा के बारे में श्रील गुरुदेव जी ने अंग्रेजी में भाषण दिया। श्रील गुरुदेव जी के भाषण का सार है:-
सन् 1486 में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नदिया जिला के अन्तर्गत, श्रीधाम मायापुर में प्रकट हुए थे। इन्होंने बाल्यकाल से ही अद्वितीय विद्वान बनकर सारे भारत वर्ष में ‘निमाई पण्डित’ के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की थी। 24 वर्ष की आयु में वे संन्यास ग्रहण करके पुरी धाम में गए। वहाँ से आने के बाद वे उत्तर और दक्षिण भारत की यात्रा पर गए। 6 वर्ष तक उन्होंने विभिन्न तीर्थ स्थानों का दर्शन किया तथा मनुष्य, पशु, पक्षी, विशेषतया पतित जीवों को श्रीकृष्ण-भक्ति प्रदान करके उनका उद्धार किया। श्रीकृष्ण भक्ति प्रचार के अन्त में ये पुरी धाम में वापस आ गए। वहाँ पर प्रकट काल तक रहकर दो अन्तरंग भक्तों श्रीरायरामानन्द और श्री स्वरूप दामोदर के साथ श्रीराधिका जी के भाव में विभावित होकर, निरन्तर गूढ़ श्रीकृष्ण-प्रेम रस के आस्वादन में निमग्न रहे। 48 वर्ष की आयु में उन्होंने अन्तर्ध्यान लीला प्रकाश की।
श्रीकृष्ण चैतन्य देव जी ने श्रीकृष्ण-प्रेम-भक्ति को ही जीव की चरम- साध्य वस्तु कहकर निर्णय किया है। उन्होंने बताया कि नश्वर विषयों की आसक्ति ही जीव के बन्धन और दुःख का कारण है। जड़ विषय-भोगों और आत्म- प्रतिष्ठा को संग्रह करने से कभी भी नित्य-शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। नश्वर-विषयों से चित्तवृत्ति की गति को मोड़कर, सच्चिदानन्द-विग्रह श्रीभगवान की ओर लगाकर ही स्थाई शान्ति की प्राप्ति होगी। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी ने शास्त्रयुक्ति द्वारा निर्विशेषवादी विचारों का खण्डन करके, सविशेष तत्त्व को चरम कारण रूप में निर्देश किया है। दुनियावी सत्त्व रज व तम गुणों से रहित होने के कारण ही श्रीभगवान को निर्विशेष कहा है। श्रीभगवान् का निर्गुण- अप्राकृत स्वरूप होने से उनको सविशेष कहा गया है। प्राकृत जगत के स्वरूप में हेयता अर्थात् कमी को देखकर, अप्राकृत स्वरूप में भी वैसी ही कमी के बारे में सोचना मूर्खता है। भगवान का व्यक्तित्त्व स्वीकार करने से भगवान ससीम हो जाएँगे, यह भय किसी प्रकार भी युक्ति- संगत नहीं है। श्रीभगवान का व्यक्तित्त्व असीम और अनन्त है। अनन्त शक्तिमान परमेश्वर की अथवा श्रीकृष्ण की अनन्त शक्तियों के बीच में तीन शक्तियाँ प्रधान हैं:- (1) अन्तरङ्गा, (2) बहिरङ्गा और (3) तटस्था । जीव भगवान की तटस्था शक्ति से उत्पन्न हुआ है, इसलिए इसकी दोनों ओर (संसार की ओर तथा भगवान की ओर जाने की योग्यता है। जो जीव भगवान् के विमुख हैं, वे भगवान् की बहिरङ्गा शक्ति द्वारा विमोहित होकर अपने आप को कर्त्ता और भोक्ता मान लेते हैं- यही अज्ञानता है। भोक्ता का अभिमान होने से ही आपस में झगड़ा होता है, वाद-विवाद तथा आपसी विद्वेष आदि बढ़ता है। श्रीभगवान् ही एकमात्र कर्त्ता और भोक्ता हैं, अन्य जितनी भी वस्तुएँ या व्यक्ति हैं, वह सब भगवान् के भोग्य हैं और भगवान के अधीन हैं। जीव भगवान की शक्ति का अंश है और अपेक्षिक तत्त्व होने के कारण, वह श्रीभगवान से अलग रहकर अपनी स्वतन्त्रता होने से भी सुखी नहीं हो सकता है।
जब तक भोग का विचार प्रबल रहेगा एवम् श्रीभगवान् की ओर चित्तवृत्ति परिवर्तित नहीं होगी, तब तक व्यक्तिगत, परिवारगत, व समाजगत स्थाई शान्ति प्राप्त करना सम्भव नहीं है। स्वार्थ का केन्द्र एक न होने से अर्थात भिन्न-भिन्न केन्द्र होने से आपस में लड़ाई-झगड़ा अवश्य होगा। श्रीभगवान् की प्रीति ही सबके स्वार्थ का एकमात्र केन्द्र होने से ही आपसी संघर्ष समाप्त होगा। श्रीभगवान् के साथ जिनकी प्रीति है, उनकी श्रीभगवान से सम्बन्धित जितनी भी वस्तुएँ हैं या भगवान से सम्बन्धित जितने भी व्यक्ति हैं, उन सबके साथ प्रीति होना स्वाभाविक है। किन्तु किसी एक विशेष परिवार के साथ प्रीति होने से, दूसरे परिवार के स्वार्थ से झगड़ा हो जाएगा। जिला, प्रदेश, देश, ऐसा कि विश्व के साथ अपने स्वार्थ को जोड़ देने से, अन्य जिला, अन्य प्रदेश, अन्य देश व विश्व के स्वार्थ से संघर्ष हो जाएगा; किन्तु सब को आश्रय देने वाले भगवान् के साथ प्रीति सम्बन्ध होने से, किसी के साथ झगड़ा नहीं होगा।
इस समय शक्तिशाली राष्ट्रों में एटम बम परीक्षण और उपग्रहों को आकाश में भेजने आदि में विशेष होड़ देखने में आती है। इसका परिणाम बहुत भयानक हो सकता है। पूरे विश्व को एक शक्तिशाली राष्ट्र बना देने से, विश्व की इस भयानक परिणाम से रक्षा की भावना की जा सकती है किन्तु परम शान्ति व स्थाई शान्ति एक मात्र श्रीभगवत् आराधना के बिना और किसी उपाय से प्राप्त नहीं की जा सकती। भाषण के अन्त में श्रीगुरु महाराज जी ने, सांस्कृतिक आदान-प्रदान द्वारा अमेरिका और भारत के बीच परस्पर मित्रता के सम्बन्ध उत्तरोत्तर दृढ़ से दृढ़तर हों, ऐसी आशा प्रकाश की। सभी प्रोफेसरों ने श्रीगौराङ्ग महाप्रभु जी का भजन-कीर्तन और नाम संकीर्तन सुनकर तृप्ति प्राप्त की। भारतीय भजन-संगीत की विशेषता याद रखने के लिए अमेरिका के प्रोफेसरों ने महात्माओं से एक जोड़ा करताल माँगा। उनके करताल माँगने से उस समय मठ में उपस्थित सभी भक्तों के अन्दर एक अजीब सी खुशी की लहर दौड़ पड़ी। अतः मठ के महात्माओं ने तुरन्त ही उन्हें एक जोड़ा करताल दे दिया। मठ से उपहार स्वरूप करताल पाकर सारे प्रोफेसर बड़े आनन्दित हुए। चाहे उनको ज़मीन पर बैठकर भोजन करने का अभ्यास भी नहीं था, तो भी उन्होंने भारतीय प्रथा के अनुसार जमीन पर बैठकर प्रसाद सेवन किया। अँग्रेजों को जमीन पर बैठकर भारतीय परम्परा के अनुसार प्रसाद पाता देखकर भक्तों को बहुत सुख हुआ।