श्रीश्रीगुरु-गौराङ्ग-राधा नयन नाथ जी के विग्रहों के, 86-ए, रासबिहारी एवेन्यु श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ से, 35-ए और 37-ए, सतीश मुखर्जी रोड में स्थित, निज भवन में शुभ आगमन करने से, श्रीविग्रहों की नित्य पूजा-आरती, पाठ-कीर्तन, धर्म-सभा व महोत्सव आदि एवं मठ के सभी कार्य जब वहाँ पर अनुष्ठित होने लगे, तो उस वक्त वहाँ के स्थानीय नर-नारी गणों ने श्रील गुरुदेव जी के निकट, 86-ए, रासबिहारी एवेन्यु मठ में बालक-बालिकाओं के चरित्र गठन में सहायक रूप में एक शिक्षा केन्द्र की स्थापना का प्रस्ताव दिया। श्रील ‘गुरुदेव ने उसे उचित समझकर, उक्त शुभ प्रस्ताव में सम्मति दे दी। आधुनिक यान्त्रिक और वैज्ञानिक सभ्यता की क्रमोन्नति के युग में, साथ ही समग्र विश्व में नास्तिकवाद, दुर्नीति और अधर्म द्रुतगति से वृद्धि पाने के कारण विद्वान् व्यक्ति भविष्य की चिन्ता करके भयभीत हैं। उन्होंने शिक्षा-व्यवस्था में, नीति और धर्म-शिक्षा की अति-आवश्यकता अनुभव की है।
मनुष्य-समाज की नैतिक अधोगति को रोकने का उपाय होता है- शिक्षा के माध्यम से बचपन से ही मनुष्यों का उत्तम चरित्र गठन करना । कारण, बचपन से दी गयी शिक्षा ही बाद में स्वभाव के रूप में परिणित होती है। कोमल-मति शिशुओं को भगवद्-विश्वास, पितृ-मातृ-भक्ति, गुरुजनों में श्रद्धा, श्रेष्ठ व्यक्तिगण को मर्यादा-प्रदर्शन, नियम पालन आदि, धर्म और नीति की अति साधारण शिक्षाओं को शिशुकाल से प्रदान करने पर, ये उनके चरित्र-निर्माण में सहायक होंगी एवं भविष्य में वे ही उत्तम नागरिक के रूप में, निर्माण-मूलक कार्यों में समाज की सहायता कर सकेंगे। सभी धर्मों में कल्याणकर व साधारण नीति- नियम प्रायः एक ही प्रकार के हैं। उक्त साधारण नीतियों को ग्रहण करके, शिक्षा-प्रतिष्ठानों के माध्यम से, बालक-बालिकाओं को शिक्षा प्रदान करने में कोई आपत्ति रहना उचित नहीं है। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का अर्थ धर्महीन राष्ट्र नहीं होता। उक्त महत्-उद्देश्य को कार्यान्वित करने के पहले कदम के रूप में, श्रील गुरुदेव ने विगत 20 अप्रैल को, श्रीचैतन्य गौड़ीय विद्या मन्दिर के नाम से एक प्राथमिक विद्यालय की स्थापना की जिसके काम-काज की देखरेख के लिए एक समिति बनाई गई जिसके सभापति के रूप में श्रील गुरुदेव, सह- सभापति के रूप में डा० एस० एन० घोष, सम्पादक के रूप में श्रीमणिकण्ठ मुखोपाध्याय तथा सदस्यों के रूप में श्री सत्येन्द्रनाथ वन्द्योपाध्याय, श्री गोविन्द चन्द्र दास, श्री पूर्णचन्द्र मुखोपाध्याय,