‘श्रीमद् भागवत्’ जगद्गुरु श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास मुनि का सबसे आखिरी अवदान है। श्रीमद् भागवत का पहला नाम चतुःश्लोकी है। कारण, श्रीनारद जी ने, श्री व्यास जी के चित्त को स्थिर व शान्त करने के लिए, उपाय के रूप में चार श्लोकों का उपदेश दिया था, जो उनको श्रीनरनारायण जी से प्राप्त हुए थे। इन श्लोकों का तात्पर्य केवल हरि सेदामय या केवल श्रीहरि-संकीर्त्तन-तात्पर्यमय है। इस उपदेश की प्राप्ति करके श्री व्यासदेव जी ने स्व-स्वरूप, पर-स्वरूप और विरोधी स्वरूप के ज्ञान को प्राप्त करके, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतिपादन करने वाली पूर्वकृत आलोचनाओं को तृणवत् तुच्छ समझकर, श्रीकृष्ण-प्रेम को ही जीव का एक मात्र प्रयोजन जानकर, उसे विस्तार पूर्वक अठारह हजार श्लोकों में लिख दिया। वह ही सर्वशास्त्र शिरोमणि ग्रन्थराज ‘श्रीमद् भागवत’ है।
श्रीमद् भागवत का श्रवण, कीर्तन, अनुध्यान, ऐसा कि निष्कपट अनुमोदन करने मात्र से ही देवद्रोही, विश्वद्रोही, अतिपातकी, महापातकी तक भी शीघ्रातिशीघ्र पवित्र होकर चित्त की पूर्ण स्थिरता को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। यह हरि-संकीर्तनमय भागवत-धर्म अत्यन्त गम्भीर, अत्यन्त उदार, अत्यन्त व्यापक तथा सब जीवों का आश्रय है।
स्वाधीनता प्राप्त करने के पश्चात् हैदराबाद निज़ाम स्टेट का भारत के केन्द्रीय शासन के अधीन आने पर, सन् 1959 में, परम आराध्य श्रील गुरुदेव जी, हैदराबाद शहर में शुभ पदार्पण करते हुए जब, पत्थर घाटी स्थित एक शिव मन्दिर में पार्षदों सहित ठहरे थे, उस समय स्थानीय व्यक्तियों में से, सेठ श्री जयकरन दास जी (स्थानीय पत्थर घाटी की प्रचार-संस्था के नेता), सेठ श्री पूरन मल जी, सेठ श्री भूरामल जी, सेठ शिवमतराय जी, श्री गोपाल राय, सेठ श्री प्रह्लाद राय जी, सेठ श्री विलास राय जी, सेठ श्री सुन्दर मल जी, बेगम बाजार के श्रीलक्ष्मी नारायण शर्मा, सिकन्दराबाद के सेठ श्री उत्तम चन्द जी, सिकन्दराबाद के टाइगर होम के मि० एम० एस० कोटीश्वरम, हैदराबाद के श्रीकृष्णा रेड्डी, श्री टी० वेणु गोपाल रेड्डी, एडवोकेट, श्री के० आर० कृष्णामूर्ति राओ, श्रीगुरुदेव जी के चरणाश्रित श्री राम निवास शर्मा आदि, प्रचार कार्य में मुख्य रूप से सहायक थे। मद्रास श्रीगौड़ीय मठ में सर्वतोभाव से सेवा-सौष्ठव के वर्धन के लिए, श्रील गुरु महाराज जी की मुख्य प्रचेष्टा की बात हम पहले वर्णन कर चुके हैं। संन्यास ग्रहण के बाद भी आप श्रीगौड़ीय मठ में गए थे। उस समय आपके साथ आपके गुरुभाई वैष्णवों में से पूज्यपाद रास बिहारी दास ब्रह्मचारी, श्रीमद् नृसिंहानन्द प्रभु, श्रीमद् सुन्दर गोपाल ब्रह्मचारी, श्रीमद् गोपाल कृष्ण प्रभु, श्रीमद् घनश्याम ब्रह्मचारी इत्यादि थे।