सन् 1955 के जुलाई मास में परमाराध्य श्रील गुरुदेव जी ने सर्वप्रथम रास बिहारी एवेन्यु एवं राजा बसन्त राय रोड जंक्शन के 86-ए, रासबिहारी एवेन्यु (कोलकाता-26) में अवस्थान किया तथा इसी मकान की तीसरी मन्जिल को मासिक भाड़े पर लेकर श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ प्रतिष्ठान का संस्थापन किया। जिस परिस्थिति के उपस्थित होने पर, परमाराध्य श्रील गुरुदेव को निजाश्रित सेवकों की रक्षा के लिए, कोलकाता में अधिक भाड़ा देकर मकान रखना पड़ा, उसको साँसारिक व्यक्तियों की दृष्टि में अति दुःखकर या हृदय-वेदनादायक कहना होगा। ये बात ठीक है कि तात्विक विचार से मंगलमय श्रीहरि की इच्छा से जो होता है, उसमें सभी का नित्य मंगल ही होता है। जगत् में देखा जाता है कि कोई व्यक्ति, किसी का भी अनिष्ट न करने पर भी तथा सभी के हित के लिये हमेशा निष्कपट भाव से चेष्टायुक्त रहने पर भी, उसके /, ईश्वर प्रदत्त रूप, गुण व योग्यताएँ, मात्सर्य-परायण व्यक्तियों के दुःख
का कारण हो जाती हैं। ईर्ष्यालु व्यक्ति कभी भी दूसरों की उन्नति सहन नहीं कर सकता, किन्तु निष्कपट भगवत्-परायण साधु, परम निर्मल तथा निर्दोष होने पर भी, मात्सर्य-परायण व्यक्तियों द्वारा किए सभी अत्याचारों को व कष्टों को, अपने किए गए कर्मों का फल विचार करके सहन करते रहते हैं। इसीलिए वे किसी से भी द्रोह नहीं करते। जिनको श्रील गुरुदेव जी के नज़दीक रहने का सौभाग्य हुआ, वे गुरुदेव जी की अत्यद्भुत सहनशीलता देखकर अवश्य ही विस्मित हुए होंगे। उनका क्षमागुण, सहिष्णुता, भगवद्-विमुख दीन जीवों के प्रति असाधारण वात्सल्य, प्रत्येक के सुख-दुःख के प्रति सतर्क दृष्टि, बड़े के प्रति मर्यादा- प्रदर्शन, महापुरुषोचित दीर्घ-सुडौल आकर्षक सुन्दर गौरकान्ति, तथा हमेशा मुस्कराता हुआ चेहरा इत्यादि विलक्षण थे, सभी कुछ ऐसा कि कोई भी पाषाण हृदय व्यक्ति नहीं है, जिसको दर्शन मात्र से ही उन्होंने आकृष्ट व विगलित न किया हो। केवल मात्र अत्यन्त मत्सर-युक्त व्यक्ति ही दुर्भाग्य वशतः उनकी कृपा प्राप्ति से वन्चित रह गए। औरों की तो बात ही क्या है, ईर्ष्यालु व्यक्ति तो परमेश्वर, परम-मंगलमय, अखिल कल्याण गुणों के आलय एवं अखिल रसामृत मूर्ति – श्रीकृष्ण से भी विद्वेष का आचरण करते हैं। श्रीकृष्ण के सुमंगलमय शाब्दिक अवतार, श्रीमद्भागवत् शास्त्र के प्रथम स्कन्ध के प्रथम अध्याय के द्वितीय श्लोक में निर्देश किया गया है कि श्रीकृष्ण की महिमा निर्मत्सर भक्तों. द्वारा ही जानी जा सकती है अर्थात् ईर्ष्यालु व्यक्तियों द्वारा नहीं जानी जा सकती। श्रीकृष्ण के प्रति प्रीतियुक्त भक्तगण एवं श्रीकृष्ण के प्रति विद्वेषयुक्त असुरगण अन्वय व व्यतिरेक भाव से सीधे-सीधे हो या घुमा- फिरा कर श्रीकृष्ण की महिमा ही बढ़ाते हैं। अन्वय भाव की पुष्टि के लिए व्यतिरेक भाव का रहना आवश्यक है। जैसे अन्धकार के रहने से ही प्रकाश की महिमा का अनुभव होता है। वैसे ही भक्त की महिमा बढ़ाने के लिए विद्वेष-परायण अभक्तों की भी ज़रूरत होती है। हिरण्यकश्यपु एवं दुर्वासा ऋषि जी ने प्रतिकूल भाव में रहकर भक्त प्रहलाद एवं अम्बरीष महाराज जी की महिमा को जगत् में प्रचारित किया था। जिन्होंने परम निर्मल, निर्दोष, परमाराध्य श्रील गुरुदेव जी के प्रति प्रतिकूल आचरण किया या विद्वेषाचरण किया, उन्होंने व्यतिरेक भाव से उनकी (श्रील गुरुदेव जी की) महिमा ही जगत् में बढ़ाई। उससे अनन्यशरण, एकान्त पारमार्थिक साधकों को कोई असुविधा तो हुई ही नहीं, बल्कि उनकी गुरुनिष्ठा उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। बड़ी-बड़ी बात बोलने वाले व्यक्ति तो जगत् में बहुत मिल जाते हैं, किन्तु आचरण- परायण व्यक्ति जगत् में अत्यन्त दुर्लभ हैं। श्रील गुरुदेव ने प्रत्येक इन्द्रिय द्वारा, सर्वक्षण श्रीराधा-गोविन्द जी की सेवा में नियुक्त रहकर शुद्ध भक्तों की आदर्श- पराकाष्ठा का प्रदर्शन किया। उनका आदर्श जीवन ही जगत् के लिए मंगलजनक है।
श्रीचैतन्य मठ एवं गौड़ीय मठ समूहों के प्रतिष्ठाता नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद 108 श्री श्रीमद्भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी के अप्रकट होने के बाद, ट्रस्टियों के बीच मठ के परिचालन को लेकर मतभेद हो गया जिससे श्रील प्रभुपाद जी के ट्रस्ट के दो व्यक्तियों सहित श्रील प्रभुपाद जी के बहुत से योग्य त्रिदण्डियति, वानप्रस्थी एवं ब्रह्मचारी सेवकों को कुछ समय के लिये श्रीचैतन्य मठ व श्रीगौड़ीय मठ समूहों की साक्षात् सेवा से अलग रहना पड़ा। वे लोग उस समय, दक्षिण कलकत्ता के ल्यान्सडाउन रोड में तथा बाद में कालीघाट 8 नं० हाज़रा रोड पर किराये के मकान में रहकर श्रीचैतन्य वाणी का आचरण के साथ प्रचार करते रहे।
8 नं० हाज़रा रोड पर मठ के एक दुमन्जिले कमरे में श्रील गुरुदेव अवस्थान करते थे। श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी जी का, संसार त्याग करने के संकल्प से पहले, हाज़रा रोड पर स्थित मठ में ही श्रील गुरुदेव जी के साथ साक्षात्कार हुआ था। उस समय श्रीकृष्ण प्रसाद ब्रह्मचारी जी (संन्यास के बाद श्रीमद् भक्ति प्रसाद आश्रम महाराज) श्रील गुरुदेव जी की व्यक्तिगत सेवा में नियोजित थे। श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी जी ने श्रील गुरुदेव जी की महापुरुषोचित्त दिव्यकान्ति दर्शन करके, अन्यान्य साधुओं से उनकी विलक्षणता का अनुभव किया। उस समय शास्त्र- युक्ति द्वारा, दो प्रश्नों के उत्तर श्रील गुरुदेव जी द्वारा, श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी जी को समझाने पर उन्होंने (श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी जी ने) संसार त्याग करने का संकल्प लिया तथा संसार त्याग करके उसी मठ श्रील गुरुदेव जी के पादपद्मों में उपस्थित हो गए।
वे दो प्रश्न ये हैं- ‘नित्य व अनित्य विवेक की उठा-पटक बचपन से रहने पर भी भोग की प्रवृति भी उसके साथ है- ऐसी अवस्था में संसार त्याग करना उचित होगा कि नहीं ?”
द्वितीय प्रश्न “वह चतुर नहीं हैं, इसलिए उनके पिताजी ने बड़े स्नेह के साथ उनका लालन पालन किया व उच्च शिक्षा प्रदान करवायी, ऐसी अवस्था में पिता का परित्याग करके आने उन्हें पाप तो नहीं लगेगा? श्रील गुरुदेव जी ने दोनों प्रश्नों के उत्तर में जो उपदेश दिया उसका सार मर्म ये है कि हमारे अन्दर अयोग्यता रह सकती है, किन्तु सर्वशक्तिमान् श्रीकृष्ण में कोई भी अयोग्यता नहीं है। वे अनन्त हैं। उनकी कृपा भी अनन्त है। हम कितने ही पतित क्यों न हों, हम पर ‘कृपा अवश्य ही होगी, नहीं तो उनकी असीमता की हानि होती है। उनकी कामादि शत्रुओं को हम अपनी शक्ति द्वारा परास्त नहीं कर सकते। श्रीकृष्ण को आत्म समर्पण करने से वे ही उन सभी रिपुओं की ताड़ना से हमारी रक्षा करेंगे। भगवान श्रीकृष्ण शरणागत के रक्षक व पालक हैं।
दूसरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने गीता के अठारहवें अध्याय के ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥’ श्लोक की व्याख्या करके समझाते हुए कहा कि समस्त धर्म, समस्त अपेक्षित कर्त्तव्य परित्याग करके श्रीकृष्ण में एकान्त भाव से शरणागत होने से श्रीकृष्ण अपेक्षिक कर्तव्यों को न करने या न कर पाने के कारण इससे होने वाले दोषों से हमारी हरेक प्रकार से रक्षा करेंगे। श्रीकृष्ण का नित्यदास है ये जीव और इसका स्वरूपगत धर्म एवं कर्त्तव्य है- श्रीकृष्ण की सेवा करना। श्रीकृष्ण-सेवा द्वारा ही पितृ-मातृ-ऋण परिशोध होता है एवं सभी के प्रति, सभी प्रकार के कर्त्तव्य ठीक प्रकार से सम्पादित होते हैं ।
श्रीमठ की सेवोज्जलता के लिए ट्रस्टियों को समझाकर विरोध मिटाने से मठों की परिचालना का भार दो भागों में विभक्त हुआ । श्रीधाम मायापुर में स्थित श्रीचैतन्य मठ को मूल मान कर कुछ मठ तथा कलकत्ता बागबाज़ार श्रीगौड़ीय मठ को केन्द्र करके कुछ मठों की सेवापरिचालना का भार, श्रील प्रभुपाद जी के सेवकों ने दो भागों में ग्रहण किया। श्रीचैतन्य मठ को मूल करके मठों का सेवापरिचालन भार जिनके ऊपर दिया गया था, वे सभी पहले नवद्वीप शहर में, परम पूज्यपाद श्रीमद् श्रीधर महाराज जी के मठ कालेरगंज में आकर उपस्थित हुए, किन्तु मायापुर में जाकर, श्रीचैतन्य मठ के तत्कालीन ट्रस्टियों से सारी सेवाएँ समझ लेने को कोई भी साहसी नहीं हुआ। जब पूजनीय वैष्णवों ने, परमाराध्य श्रील गुरु महाराज को, उक्त कार्य के लिए अनुरोध किया तो वैष्णवों की इच्छा को पूरा करने के लिए तमाम विपत्तियों को अपने ऊपर लेकर, वे उक्त कार्य को करने में प्रवृत्त हुए। श्रील गुरुदेव के सान्निध्य में रहने वाले व्यक्तियों ने इस बात को हमेशा प्रत्यक्ष रूप से देखा कि वैष्णव-सेवा के लिए उनका जीवन सम्पूर्ण भाव से समर्पित था। श्रील गुरुदेव जी में इस प्रकार का आत्म-विश्वास था कि वे जिस भी कार्य में प्रवृत्त होंगे, उस कार्य को वे अवश्य ही पूर्ण करेंगे।
परमाराध्य श्रील गुरुदेव जब श्रीधाम मायापुर स्थित श्रीचैतन्य मठ में पहुँचे तो दूसरे ट्रस्टी दल के सभी वैष्णवों ने दण्डवत् प्रणाम के साथ श्रील गुरुदेव जी का स्वागत-सत्कार किया। दोनों पक्षों के सेवक ही श्रील गुरुदेव के प्रति श्रद्धायुक्त थे। पूज्यपाद श्रीमद् जगमोहन ब्रह्मचारी प्रभु उस समय उक्त ट्रस्टियों के पक्ष में उपस्थित थे। परमाराध्य श्रील गुरुदेव जी को जब श्रीचैतन्य मठ, श्रीयोगपीठ श्रीमन्दिर व श्रीवास- आङ्गनादि की सेवा के विषय में समझाया गया तो, उन्होंने सन् 1947- 48 में वह सारा सेवा-भार ग्रहण किया। मठ के खर्चे को चलाने के लिए, उन्होंने अपने पास से श्रीचैतन्यचरितामृत के लिए दिए गए रुपयों को लगा दिया। एक लम्बे समय तक वहाँ पर रहकर जब मठों की सेवाओं हो गयी, तो श्रील गुरुदेव जी ने अपने बड़े गुरु भाई को की सुव्यवस्था मठ की सेवा का दायित्व अर्पण किया। किन्तु कुछ दिन पश्चात् ही ट्रस्टियों में से एक, श्रील गुरुदेव के प्रति असभ्य सा व्यवहार करने लगा। विषम-व्यवहार होने पर भी, श्रील गुरुदेव जी ने अपने अनुगत सेवकों को इस विषम व्यवहार का पता भी न लगने दिया, बल्कि उन लोगों को सेवा के लिए प्रोत्साहित करते रहे। ट्रस्टियों के मनोभाव में प्रतिकूलता दर्शन करके, श्रील गुरुदेव के गुरू भाई, परम-पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति रक्षक श्रीधर महाराज, परम पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति सारङ्ग गोस्वामी महाराज, परम पूज्यपाद भक्ति हृदय वन महाराज, परम पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति प्रज्ञान केशव महाराज, परम पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति सर्वस्व गिरि महाराज तथा परम पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति प्रमोद पुरी महाराज आदि सभी, जो पहले खूब उत्साह के साथ आए थे, एक-एक करके श्रीचैतन्य मठ से किनारे हो गए। किन्तु परमाराध्य श्रील गुरुदेव, सभी प्रकार का विषम व्यवहार सहन करते हुए भी श्रील’ ‘प्रभुपाद जी के स्थान की सेवा छोड़कर नहीं गए।
उस समय कोलकाता स्थित कालीघाट में 50-नेपाल भट्टाचार्य फास्ट लेन में एक भक्त के मकान में, श्रीचैतन्य मठ के ट्रस्टियों की व्यवस्था से, सन् 1950 में एक अस्थायी मठ स्थापित हुआ। श्रीचैतन्य मठ के ‘साधु जब कोलकाता आते तो इसी मठ में ठहरते थे। परमाराध्य श्रील गुरुदेव कोलकाता में आने पर भी ज्यादा दिन कोलकाता मठ में नहीं रहते थे। अधिकाँश समय वे उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश व आसाम आदि स्थानों में, प्रचार में रहते थे। उनके कोलकाता आश्रित-भक्त, भारत के विभिन्न स्थानों में विपुल प्रचार की खबर सुन कर बहुत उल्लसित होते किन्तु साथ ही साथ इस बात का दुःख भी करते कि श्रील गुरुदेव कलकत्ता में रहकर प्रचार नहीं करते। श्रील गुरुदेव जी ने संकोचवशतः मठ की आन्तरिक प्रतिकूल परिस्थिति की बात किसी के आगे व्यक्त नहीं की। श्रील गुरुदेव जी के चरणाश्रित निष्ठावान गृहस्थ भक्त, श्रीगोविन्द चन्द्र दासाधिकारी जी के, कलकत्ता में प्रचार के लिए बार-बार प्रार्थना और जोर जबरदस्ती करने पर, श्रील गुरुदेव अन्त में स्वीकृति देने को बाध्य हुए।
श्रीगोविन्दचन्द्र दासाधिकारी जी की दौड़-धूप से, श्रीराधाकृष्ण मन्दिर एवं रासबिहारी एवेन्यु में 88/1-ए फर्नीचर की दुकान में सात- सात दिन तक विराट धर्म सभा का आयोजन हुआ। उक्त चौदह दिन धर्मसभाओं में श्रील गुरुदेव जी के श्रीमुख से निःसृत, अद्भुत, तेजस्वी हरिकथा सुन कर बहुत से विशिष्ट और शिक्षित व्यक्ति, श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के धर्म के प्रति आकृष्ट हुए। चारों ओर मठ का सुनाम होने से, मठाश्रित भक्तों का उत्साह वर्द्धित हुआ। श्रील गुरु महाराज जी के बड़े गुरु भाई, जो कि ट्रस्टी भी हैं, उस समय कलकत्ता से बाहर थे। जब वे लौटकर नेपाल भट्टाचार्य फास्ट लेन में स्थित मठ में पहुँचे और उन्होंने श्रील गुरु महाराज जी के सफल प्रचार की बात सुनी तो वे सुखी नहीं हो पाए, बल्कि क्षुब्ध हुए। श्रील गुरुदेव जी के आश्रित लोग तब समझ पाए कि गुरुदेव क्यों अधिक दिन कलकात्ता में नहीं रहते। श्रील गुरुदेव जी द्वारा ट्रस्टियों को बड़े गुरुभाई के रूप में प्रचुर मर्यादा देने पर भी एवं मठ की श्रीवृद्धि के लिए आन्तरिकता के साथ यत्न करने पर भी, वह ट्रस्टियों के उत्साह का कारण न होकर क्षोभ का कारण हुए।
उनकी महापुरुषोचित दीर्घ आकृति, तेजोमय दिव्य कान्ति, श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल में आविर्भाव, पारमार्थिक गूढ़ विषयों को शास्त्र-युक्तियों के द्वारा अति सहज और सरल भाव से समझाने की क्षमता, सभी से सुस्निग्ध, सुमिष्ठ स्नेहपूर्ण व्यवहार – सभी के हृदयों को आकर्षित व श्रद्धायुक्त करता था। ये असाधारण गुण ईश्वर प्रदत्त हैं। ये गुण ही यदि किसी की ईर्ष्या का कारण बन जायें तो वे उसके प्रतिकार के लिए क्या कर सकते हैं?
नेपाल भट्टाचार्य फास्ट लेन में स्थित मठ की परिस्थिति अधिक प्रतिकूल देख कर, स्थान परिवर्तन को आवश्यक समझ कर श्रील गुरुदेव मेदिनीपुर मठ में चले गए। मेदिनीपुर मठ में रहने के समय ट्रस्टी महोदय ने, नेपाल भट्टाचार्य लेन पर मठ के अधिकारी व अपने शिष्यों से हस्ताक्षर करवाकर इस प्रकार का एक रजिस्ट्री पत्र श्रील गुरुदेव के पास भेजा जैसे वे नेपाल भट्टाचार्य फास्ट लेन पर बने मठ में दुबारा न आयें। श्रील गुरुदेव उस पत्र को पाकर बड़े मर्माहत हुए और समझ गए कि उनके सेवकों को भी जल्दी ही श्रीचैतन्य मठादि से हटाया जाएगा। श्रील गुरुदेव कोलकाता आकर, बेहाला में सिद्धिनाथ चटर्जी रोड पर बने, श्री नरेन्द्रनाथ वन्द्योपाध्याय के घर पर लगभग 15 दिन और उसके बाद टालिगंज में, उनके आश्रित गृहस्थ भक्त, श्रीगोविन्दचन्द्र दासाधिकारी के घर भी काफी दिन रहे। श्रीगोविन्द चन्द्र दासाधिकारी प्रभु जी ने मर्मान्तक घटना की बात सुनकर, अपने तिमन्जिले निवास को, मठ के लिए दान देने के लिए श्रील गुरुदेव जी के निकट प्रस्ताव दिया। श्रील गुरुदेव जी ने गोविन्द प्रभु की सेवा प्रवृत्ति की प्रशंसा की, परन्तु उनके निवास को मठ के लिए लेने की इच्छा नहीं की।
कुछ दिन बाद ही श्रील गुरुदेव के निकट सम्वाद आया कि उनके कुछ आश्रित सेवकों को एक-एक करके सभी मठों से निकाला जा रहा है जिनमें से बहुत से श्रीमहेश पण्डित के श्रीपाट में आकर ठहरे थे। श्रील गुरुदेव अपने त्यक्ताश्रमी शिष्यों को कहाँ रखेंगे? इसके लिए बड़े चिन्तित से हो उठे तथा गोविन्द प्रभु को किराये के एक मकान की व्यवस्था करने को कहा।
86, रासबिहारी एवेन्यु पर स्थित मकान के मालिक, श्रीहृषीकेश दास का गोविन्द प्रभु के साथ काफी घनिष्ट सम्बन्ध था। अतः वे गोविन्द प्रभु के अनुरोध की उपेक्षा न कर सके तथा अपने इस नवनिर्मित मकान की तीसरी मन्जिल को मासिक किराये पर देने के लिए तैयार हो गए। आठ कमरों वाली इस तीसरी मन्जिल का किराया 40 रुपए महीना देने को उसने कहा, परन्तु अन्त में 30 रुपये देना तय हुआ। उस समय तक इस मन्जिल के अधिकाँश कमरों की छतों का कार्य पूर्ण नहीं हुआ था। श्रील गुरुदेव जी ने, श्रीचैतन्य मठ व उसके अन्यान्य शाखा मठों में रह रहे अपने आश्रित सेवकों को आदेश दिया कि जब तक ट्रस्टी महोदय अपने सेवकों के द्वारा श्रीविग्रह की सेवा ग्रहण न कर लें, तब तक वे उन्हीं मठों में रहें, सेवा छोड़कर न आएँ । यहाँ पर ध्यान देने लायक बात ये है कि श्रील गुरुदेव, अपने गुरुदेव जी द्वारा प्रतिष्ठित मठों की सेवा से वन्धित होकर, मर्मान्तक भाव से व्यथित हो जाने पर भी अपने गुरुदेव जी द्वारा प्रतिष्ठित विग्रहों की सेवा में जैसे कोई विघ्न न हो, इसके लिए हर समय चिन्ता करते रहते थे।
एकनिष्ठ गुरुसेवकों का चिन्ता-स्रोत अलग प्रकार का ही होता है, वे अपने प्राकृत स्वार्थ की चिन्ता नहीं करते । अपने स्वार्थ में हानि होने पर भी, शुद्ध-भक्त लोग क्रुद्ध होकर, किसी अवस्था में भी अपने आराध्य की सेवा में रुकावट नहीं डालते। उनके आश्रित सभी सेवक, एक-एक करके गुरुदेव जी के पादपद्मों में रासबिहारी एवेन्यु में स्थित मठ में आ गए। ये एक ऐसा समय था कि जब गुरुदेव जी के पास बिल्कुल भी रुपया न था तब भी उन्होंने 30 रुपये मासिक भाड़े पर मकान लेने का दायित्त्व अपने ऊपर लिया।
गुरुदेव जी में एक प्रकार का अद्भुत आत्मविश्वास था। राणाघाट की, श्रीगुरुदेव जी की आश्रिता भक्ति-मति शिष्या, श्रीमती प्रभावती देवी ने गुरुदेव जी के पास कुछ रुपया जमा कर रखा था। अपने जमा धन को प्रभावती ने जब इस नये मठ की सेवा के लिए खर्च करने के लिए कहा, तो उसी रुपए से ही श्रीगुरुदेव जी ने अपने पहले मठ का कार्य आरम्भ किया। उन्होंने अपनी असुविधाओं की बात कभी भी अपने सेवकों को नहीं बताई। सेवा परिचालना के लिए धन का अभाव होने पर वे अपने प्रिय व छोटे गुरुभाई उद्धारण प्रभु को गोविन्द बाबू के घर भेजकर रुपया उधार मंगवाते थे। गोविन्द प्रभु के घर न होने पर उद्धारण प्रभु उनकी स्त्री से रुपया उधार ले आते थे। वह सारा रुपया बाद में वापस दे दिया गया। डानकुनि-गरल-गाच्छा के श्रीकृष्ण मुखोपाध्याय महाशय, जिनका मकान कलकत्ता की हरीश मुखर्जी रोड पर था, ने पूजा के लिए जो जरूरी बर्तन थे, प्रदान किए। राणाघाट के, श्रील गुरुदेव के आश्रित शिष्य, श्रीमद् संकर्षण दासाधिकारी प्रभु जी ने रसोई के बर्तन दिए। इस प्रकार रासबिहारी एवेन्यु मठ की सेवा कुछ दिन चलने के बाद श्रील गुरुदेव जी के निर्देशानुसार ब्रह्मचारी मुटिभिक्षा व मासिक चन्दा इकट्ठा करने लगे। श्रील गुरुदेव जी की कृपा से ਸਭ स्वावलम्बी हो गया। बसन्त राय रोड पर विराट पण्डाल बनाकर, पाँच दिवसव्यापी धर्मसभा का आयोजन व महोत्सव इत्यादि द्वारा विपुल भाव से प्रचार कार्य होते रहने से, थोड़े दिनों में ही मठ का सुनाम चारों ओर फैल गया।
आपात-दृष्टि से श्रीचैतन्य मठ की सेवा से, श्रील गुरुदेव जी को ज़बरदस्ती वन्वित करना, श्रील गुरुदेव जी के त्यागी शिष्यों को विभिन्न मठों से हटाना तथा ट्रस्टी महोदय का अत्याचार की तरह रूढ़ व्यवहार इत्यादि की प्रतिकूलता अत्यन्त वेदनादायक होने पर भी- इसमें भी मंगल भरा है। मंगलमय श्रीहरि की इच्छा से ही इस प्रकार की प्रतिकूलता की सृष्टि हुई। प्रतिकूल परिवेश में ही भक्तचरित्र की महिमा व उसकी विशेषता प्रकाशित होती है। हिरण्यकश्यपु व दुर्वासा ऋषि के प्रतिकूल व्यवहार के कारण ही प्रह्लाद महाराज व अम्बरीष महाराज जी की महिमा बढ़ी। वास्तविक गुरु के व भक्त के प्रभाव को किसी भी तरह की प्रतिकूल चेष्टा द्वारा ढका नहीं जा सकता। जगत् के जीवों के प्रति कल्याण के और अधिक रूप से प्रसारण के लिए, श्रीमन् महाप्रभु जी ने प्रतिकूलता का छल प्रस्तुत करके, श्रील गुरुदेव जी को संकुचित अवस्था से दूर कर दिया, जैसे वे निःसंकोच भाव से श्रीमन्महाप्रभु जी की शुद्ध-भक्ति-धर्म की वाणी का सर्वत्र प्रचार कर सकें। श्रील गुरुदेव अधिक उम्र में श्रीचैतन्य मठ से बाहर आये, फिर भी उन्होंने विपुल भाव से सर्वत्र प्रचार करते हुए असंख्य नर-नारियों को श्रीमन्महाप्रभु जी द्वारा आचरित एवं प्रचारित शुद्ध भक्ति धर्म में आकर्षित किया व थोड़े समय में ही भारत के विभिन्न स्थानों में अनेक बड़े-बड़े मठ संस्थापन किए।
अलौकिक शक्ति के बिना ये सब कार्य होना सम्भव नहीं है।
सन् 1947-48 में श्रीचैतन्य मठ की सेवा की प्राप्ति के बाद व सन् 1955 के जुलाई महीने में, कलकत्ता 86, रासबिहारी एवेन्यु पर मठ की संस्थापना से पूर्व, अनेक प्रकार के कष्ट उठाकर भी उन्होंने जीवों के आत्यन्तिक मंगल के लिए सारे भारत में श्रीमन् महाप्रभु जी की वाणी का जिस प्रकार व्यापक रूप से प्रचार किया एवं 84 कोस की ब्रजमण्डल परिक्रमा आदि में सहायता की उसका संक्षिप्त वर्णन जितना संग्रह कर पाए वह नीचे दिया जा रहा है :-
(1) सन् 1951, अक्तूबर माह में श्रील गुरुदेव जी ने अपने बड़े गुरु भाई पूज्यपाद भक्ति विलास तीर्थ महाराज जी तथा बहुत से स्त्री-पुरुषों को साथ लेकर 84 कोस की ब्रजमण्डल परिक्रमा पैदल सम्पन्न की।
श्रीब्रजमण्डल में श्रीकृष्ण की लीलास्थलियों का बड़ी बारीकी से दर्शन कराने के लिए, अनेक स्थानों पर वनों के बीच में तम्बु लगाकर भक्तों के रहने की व्यवस्था की गई। पहले तम्बुओं में रहकर ही परिक्रमा होती थी। तम्बु के दो सैट होते थे- एक सैट तम्बु अगले पड़ाव के लिए होता था तो एक जहाँ पर यात्री ठहरे हैं, उसके लिए होता था। सारे रास्ते में नृत्य – कीर्त्तन के साथ चलकर लीलास्थलियों का दर्शन होता था। परिक्रमा में अत्यधिक परिश्रम होने पर भी बड़ा आनन्द आता था। वर्तमान समय में परिस्थितियाँ सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाने की वजह से, मनुष्य की शक्ति व सामर्थ्य घट जाने के कारण, पहले की तरह कैम्प लगाकर परिक्रमा की व्यवस्था करना बहुत कठिन हो गया है। उक्त ब्रज मण्डल परिक्रमा में सारे रास्ते श्रील गुरुदेव जी के गुरु भाई श्री ठाकुर दास ब्रह्मचारी प्रभु जी का नृत्य-कीर्त्तन एवं पूज्यपाद श्रीमद् कृष्णदास बाबा जी महाराज जी का प्राणों को व्याकुल कर देने वाला कीर्त्तन एवं बाबाजी महाराज की अक्लान्त भाव से सारे रास्ते मृदंग बजाने की सेवा, वास्तव में भक्तों की परिक्रमा की सारी थकावट को भुला देती थी।
(2) सन् 1951 में श्रीब्रजमण्डल परिक्रमा के बाद, श्रील गुरुदेव प्रचार पार्टी के साथ हरिद्वार, देहरादून, लुधियाना, जालन्धर आदि स्थानों पर काफी समय तक प्रचार करते रहे।
(3) मार्च, सन् 1952, कूचबिहार में, मदनमोहन जी के मन्दिर व अन्यान्य स्थानों में प्रचार, अक्तूबर-नवम्बर मास में दुबारा 84 क्रोस ब्रजमण्डल परिक्रमा। इसके बाद श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की वाणी के में ‘सी’ स्कीम में सेठ शुभ पदार्पण प्रचार के लिए जयपुर में | जयपुर केदारमल अग्रवाल जी के बागड़िया भवन में व श्री प्रद्युम्र गोस्वामी जी के श्रीगोविन्द देव जी की हवेली में अवस्थान एवं जयपुर में विपुल भाव से प्रचार ।
(4) जनवरी सन् 1953 में लुधियाना में विपुल प्रचार। आसाम के गोहाटी मठ की रजिस्ट्री। इसके बाद उक्त मठ की विग्रह-प्रतिष्ठा के उपलक्ष्य में अनुष्ठित विशेष धर्मसभा हुई, जिसमें आसाम सरकार के सरवराह- मन्त्री, श्री वैद्यनाथ मुखोपाध्याय, आसाम सरकार के प्रचार व कृषि मन्त्री, श्रीमहेन्द्र मोहन चौधरी, रायबहादुर श्री दुर्गेश्वर शर्मा व परम पूज्यपाद परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति विचार यायावर महाराज आदि ने योगदान दिया। इसके बाद श्रील गुरुदेव जी ने प्रचार पार्टी के साथ देहरादून, हरिद्वार, मुजफ्फर नगर, शुकरताल, राधाकुण्ड, वृन्दावन तथा कानपुर आदि स्थानों में गमन किया। कानपुर के प्रसिद्ध धनाढ्य व्यक्ति श्री मतिलाल अग्रवाल, श्रील गुरुदेव जी के प्रति गाढ़ श्रद्धायुक्त थे। उनके आह्वान पर ही प्रति वर्ष कानपुर जाना होता था ।
(5) मई-जून, सन् 1954 में, श्रील गुरुदेव जी ने परमपूज्यपाद भक्तिविलास तीर्थ महाराज एवं बहुत से भक्तों के साथ श्रीकेदारनाथ, श्रीबद्रीनाथ, श्रीत्रियुगी नारायण एवं श्रीतुंग नाथ जी के दर्शन किए। उसी समय आपने, श्रीबद्री नारायण जी के मन्दिर से लगभग एक हज़ार फुट ऊपर श्रीशम्याप्रास आश्रम में (जिस गुफा में बैठ कर श्रीकृष्ण द्वैपायन वेद व्यास जी ने श्रीमद् भागवत लिखी थी) कुछ भक्तों को लेकर कुछ समय के लिए भागवत पाठ किया था। ये गुफा पक्की है जिसमें 5-6 व्यक्ति बैठ सकते हैं ।
सन् 1954 में ही श्रील गुरुदेव जी ने, सितम्बर-अक्तूबर व नवम्बर महीने में लुधियाना, जालन्धर, कपूरथला, अमृतसर में एक लम्बे समय तक रहकर विपुल भाव से प्रचार किया। जालन्धर में, श्रीनोहरिया मन्दिर से, माई हीरा गेट पर स्थित सनातन-धर्म मन्दिर तक व अमृतसर में, नमक-मण्डी में स्थित बाबा पुरुषोत्तम दास जी के मन्दिर से दुर्व्याणा मन्दिर तक विराट नगर-संकीर्त्तन शोभा यात्राएँ भी निकलीं। शोभायात्राओं में, नृत्यकीर्त्तन-रत श्रील गुरुदेव जी की दिव्य कान्ति दर्शन करके, वहाँ के नागरिक लोग विस्मित हो गए। इस प्रकार का नगर-संकीर्त्तन पंजाब वासियों ने पहले कभी नहीं देखा था। इससे सारे पंजाब में भक्ति की एक अद्भुत लहर फैल गयी। पंजाब नेशनल बैंक के मैनेजर, श्री मुरारी लाल वासुदेव, श्री हंसराज भाटिया, श्रीखेराइती राम गुलाटी, श्री नरेन्द्र नाथ कपूर, श्री सुरेन्द्र कुमार अग्रवाल इत्यादि बहुत से व्यक्ति, मायावादी विचारों को परित्याग करके, शुद्ध भक्ति सिद्धान्त से आकृष्ट होकर, श्रील गुरुदेव जी का चरणाश्रय ग्रहण करते हुये, गौर-विहित-भजन में व्रती हुए। श्रील गुरुदेव जी के अलौकिक व्यक्तित्त्व के प्रभाव से पंजाब में मायावादी मजबूत नींव हिल गयी।
(6) सन् 1955 में, रासबिहारी एवेन्यु पर मठ की स्थापना से कुछ पहले कलकत्ता के पास ही, 24 परगना जिला के अन्तर्गत, इच्छापुर, नवाब गंज में, बुधवार, 29 जून से शुक्रवार 1 जुलाई तक, स्थानीय दुर्गाबाड़ी में तीन दिवसीय धर्म-सम्मेलन में श्रील गुरुदेव जी ने भाषण दिये। स्थानीय विशिष्ट व्यक्ति, श्रीरूप लाल मण्डल, धर्म सभा आदि करवाने के लिए मुख्य सहायताकारी थे। इच्छापुर गन फैक्ट्री के बड़े आफीसर, श्रीमन्मथनाथ सरकार महोदय के नवनिर्मित मकान में श्रील गुरुदेव जी ठहरे थे। वहाँ पर जिस-जिस ने श्रील गुरुदेव जी का चरणाश्रय ग्रहण किया था, उनमें श्रीमन्मथनाथ सरकार व उनकी धर्मपत्नी पूर्णिमा भी थीं। श्रील गुरुदेव जी द्वारा भेजे जाने पर, श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी, पार्टी के साथ, 24 परगना जिले के मदनपुर आदि स्थानों में प्रचार करके इच्छापुर पहुँचे एवं पहले से ही वहाँ प्रचार करने लगे। उस समय उनके साथ प्रचार पार्टी में श्रीनारायण ब्रह्मचारी तथा भूधारी ब्रह्मचारी आदि मठ के सेवक थे।
रूप दास बाबू यद्यपि गृहस्थ थे तथापि श्रीकृष्ण ने उनके माध्यम से एक शिक्षा दी। एक दिन उन्होंने अर्थात् रूप दास बाबू ने अपने हृदय के भाव व्यक्त करते हुए श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी से कहा- आपके गुरुदेव जी ने जो सब कथायें कहीं, उनमें से कोई भी नई कथा नहीं है। ये सभी कथायें हमने पहले भी आपसे सुनी हैं, परन्तु उस समय ये कथायें चित्त को स्पर्श नहीं कर पायी थीं; लेकिन वही कथाएँ जब हमने आपके गुरुजी से सुनीं तो कथाओं की गहरी छाप हमारे हृदयों पर छप गयी, इसका क्या कारण है ?”
कथा कहने से ही कथा नहीं होती, यदि वक्ता उसमें प्रतिष्ठित न हो; परमाराध्य श्रील गुरुदेव, सर्वक्षण-सर्वतोभाव से, श्रीराधा-गोविन्द जी की सेवा में निष्कपट भाव से नियोजित थे, इसीलिए उनकी कथा श्रद्धालु, श्रवणेच्छुक व्यक्ति के हृदय में गहरी छाप छोड़ देगी, इसमें आश्चर्य क्या है? जो स्वयं निष्कपट हरिभजन करते हैं वे दूसरे से भी हरिभजन करवा सकते हैं।
श्रील गुरुदेव जी के प्रचार-भ्रमण काल में, विभिन्न समय पर प्रचार में सहायक रूप से जो-जो थे, उनमें जो-जो उल्लेख योग्य हैं, वे हैं- पूज्यपाद श्रीमद् कृष्ण केशव ब्रह्मचारी तथा पूज्यपाद श्रीमद् उद्धारण ब्रह्मचारी (दोनों गुरुजी के गुरु भाई हैं)। इनके अलावा श्री माधवानन्द ब्रजवासी, श्री दीनबन्धु ब्रह्मचारी, श्री कृष्ण प्रसाद ब्रह्मचारी, श्री ललिता चरण ब्रह्मचारी, श्री कृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी, श्री मंगल निलय ब्रह्मचारी, श्री अचिन्त्यगोविन्द ब्रह्मचारी, श्री नारायण ब्रह्मचारी (पंजाब), श्री मदन गोपाल ब्रह्मचारी, श्री विजय कृष्ण ब्रह्मचारी, श्री घनश्याम ब्रह्मचारी, श्रीराधाकृष्ण ब्रह्मचारी (श्रीराधा कृष्ण गर्ग, खन्ना), श्री भूधारी ब्रह्मचारी (आनन्दपुर)।
कोलकाता 86, रास बिहारी एवेन्यु में स्थित, श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ में श्री श्रीगुरु-गौराङ्ग राधा-नयननाथ जी के श्रीविग्रहों की प्रतिष्ठा के उपलक्ष्य में, 26 जनवरी 1956, वृहस्पतिवार से 29 जनवरी रविवार तक, परमाराध्य श्रील गुरुदेव जी के सेवा-नियामकत्त्व में, चार दिवस व्यापी विराट्-धर्मानुष्ठान सुसम्पन्न हुआ। कोलकाता कालीघाट निवासी, धार्मिकप्रवर श्रीजानकीनाथ वन्द्योपाध्याय महोदय जी ने श्रीविग्रहों का पूरा खर्चा दिया तथा इसी महान सेवा से वे श्रीगुरुदेव जी के प्रचुर आशीर्वाद भाजन हुए थे। श्रीगौर विग्रह का गुप्तिपाड़ा (नदिया) तथा श्रीराधा नयननाथ जी के विग्रह का जयपुर (राजस्थान) से शुभ पदार्पण हुआ।
भक्तों के दुःख को हटाने के लिए ही भगवान् की आविर्भाव लीला होती है। अर्चारूप में भी भगवान् का अवतार होता है। श्रीगौराङ्ग महाप्रभु जी के निजजन, श्रील गुरुदेव जी ने, भगवद् विरह में कातर होकर अपने हृदय के आराध्य देव को बाहर प्रकट कर दिया। श्रील गुरुदेव जी के प्राणधन, श्री श्रीगुरु-गौराङ्ग राधा नयननाथ जी ने विग्रह रूप से प्रकट होकर, आनुषङ्गिक भाव से सुकृतिशाली नर-नारियों को दर्शन व सेवा का सौभाग्य देकर धन्य कर दिया। बाहरी स्थूल दृष्टि से देखा जाए- तो श्रील गुरुदेव निःसम्बल व अर्थशून्य अवस्था में दिख रहे थे, अर्थात् उस समय गुरुदेव जी के पास बिल्कुल भी रुपया नहीं था। परन्तु जहाँ भगवत्-सेवा के लिए निष्कपट आर्ति है, वहाँ किसी भी द्रव्य का अभाव नहीं होता। अपने आराध्यदेव का प्राकट्य उत्सव खूब धूम-धाम से सम्पन्न हो- ऐसी गुरुदेव जी के अन्तःकरण में तीव्र आकांक्षा थी और भगवान् ने जैसे भी हो वह पूरी कर दी, क्योंकि भक्तवत्सल भगवान् हमेशा ही अपने भक्त की इच्छा पूर्ति करते रहते हैं। भगवान् की प्रेरणा से भोज नगर के धार्मिक-व्यक्ति, श्रीरामनारायण जी ने काफी मात्रा में चावल, दाल, घी, शाक-सब्जी इत्यादि से भरकर एक ट्रक भेज दिया। इस ट्रक के आने से पहले सभी चिन्तित थे कि किस प्रकार से महोत्सव मनाया जाएगा। अचानक सामान का भरा ट्रक देखकर सभी हैरान हो गए। गुरुदेव जी ने भी परमोल्लास के साथ दस हज़ार लोगों को प्रसाद देने की व्यवस्था की। इस विराट् कार्य को पूर्ण करने के लिए, अपने कम उम्र वाले ब्रह्मचारी सेवकों के ऊपर निर्भर न कर पाने के कारण, उन्होंने इसकी सारी ज़िम्मेदारी अपने गुरु भाई श्री उद्धारण प्रभु को दी। श्रील प्रभुपाद जी के समय से ही श्री उद्धारण प्रभु की महोत्सव आदि सेवाओं में उनके असामान्य योग्यता की बात सभी जानते थे । यद्यपि उद्धारण प्रभु की उम्र बहुत अधिक हो गयी थी, तब भी वे श्रील गुरुदेव जी के आदेश को शिरोधार्य करके उक्त कार्य में नियोजित हो गए। वे श्रील गुरुदेव जी की हृदय से खूब श्रद्धा करते थे । उद्धारण प्रभु ने गोविन्द बाबू के यहाँ रखी लकड़ियों के स्थान को साफ करके वहाँ पर महोत्सव के लिए रसोई करने की व्यवस्था की। गोविन्द प्रभु उद्धारण प्रभु को हृदय से मानते थे इसलिए इन्होंने (उद्धारण प्रभु ने) जब जैसा आदेश किया, कभी उन्होंने इनके (उद्धारण प्रभु के आदेश की उल्लंघना नहीं की। शास्त्रविधानानुसार श्रीविग्रह-प्रतिष्ठा उत्सव दर्शन करने के लिए दर्शनार्थियों की बहुत भीड़ हो सकती है, ऐसा सोचकर श्रील गुरुदेव जी ने, प्रतिष्ठा उत्सव की व्यवस्था ऊपर तीसरी मन्जिल पर न करके, नीचे गोविन्द बाबू की दुकान का सारा समान हटाकर तथा उस स्थान को हरेक तरह से परिष्कृत करके वहाँ पर (प्रतिष्ठा कार्य) सम्पन्न करने की व्यवस्था की। श्रील गुरूदेव जी के संन्यास गुरु, परमपूज्यपाद परिव्राजकाचार्य, त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद् भक्ति गौरव वैखानस महाराज जी के मूल पौरोहित्य में एवं परम पूज्यपाद परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति भूदेव श्रौती महाराज जी की सहायता से, श्री श्रीगुरू- गौराङ्ग राधा नयननाथ जी के विग्रहों का प्रतिष्ठा-उत्सव, 27 जनवरी, शुक्रवार को, संकीर्त्तन एवं जय-जय ध्वनियों के साथ सुसम्पन्न हुआ। पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति भूदेव श्रौती महाराज जी ने कहा कि उन्होंने अनेक प्रतिष्ठाकार्य देखे व किये, परन्तु इस प्रकार का तालाब के समान दही, घी व दूध द्वारा अभिषेक कभी नहीं देखा। प्रतिष्ठा उत्सव को दर्शन करने के लिए बड़ी संख्या में नर-नारियों का समावेश हुआ था। दोपहर में श्रीविग्रहों के भोग-राग व आरती के बाद 10 हज़ार नर- नारियों ने, राजा बसन्त राय रोड पर बने विशाल सभा मण्डप के नीचे, रासबिहारी एवेन्यु, राजा बसन्त राय रोड पर व आस-पास रहने वाले गृहस्थियों के मकानों में, जहाँ स्थान मिला वहीं पर बैठकर विचित्र महाप्रसाद की परितृप्ति के साथ सेवा की।
शाम तक नीचे व रात्रि में मठ की तीसरी मन्जिल पर लगे पण्डाल के नीचे प्रसाद बाँटा गया! इतनी संख्या में आए लोगों को, सुव्यवस्थित ढंग से हो रहे प्रसाद वितरण को देखकर, आगन्तुक फूले न समाते । प्रसाद पाते समय बड़े-बड़े घर के पुरुष व महिलाएँ भी साधारण लोगों के साथ बैठकर प्रसाद पाती थीं। इस तरह से वहाँ पर जाति-वर्ण रहित भगवद् सम्बन्ध से एक पवित्र महासम्मेलन का आयोजन हुआ।
राजा बसन्त राय रोड पर बने विराट सभा मण्डप में रात्रि 7 बजे से जिस विशेष धर्मसभा का आयोजन हुआ था, उसमें सभापति रूप से जिन्होंने भाषण दिया था, उनमें थे- कोलकाता हाईकोर्ट के भूतपूर्व न्यायाधीश व कोलकाता विश्वविद्यालय के भूतपूर्व उपाचार्य, श्री शम्भुनाथ वन्द्योपाध्याय, कोलकाता हाईकोर्ट के न्यायाधीश, श्री रेणुपद मुखोपाध्याय, कोलकाता विश्वविद्यालय के भूतपूर्व उपाचार्य, डा० प्रमथनाथ वन्द्योपाध्याय व ईश्वर प्रसाद गोयन्का । कोलकाता कारपोरेशन के भूतपूर्व मेयर व हिन्दू महासभा के सह-सभापति, श्री देवेन्द्र नाथ मुखोपाध्याय जी प्रथम दिन के अधिवेशन में अतिथि रूप से उपस्थित थे। अधिवेशन में वक्तव्य विषय जो निर्धारित हुए थे, वे थे-‘श्रीविग्रह तत्त्व व अर्चन की प्रयोजनीयता’, ‘प्रेम-धर्म एवं श्रील सरस्वती ठाकुर’,
श्रीचैतन्यचरणानुचरणगणों का दान वैशिष्ट्य’ तथा ‘श्रीकृष्ण-भक्ति’ ।
विभिन्न दिनों में जिन्होंने अभिभाषण किया उनमें थे- श्रील गुरुदेव ॐ 108 श्री श्रीमद् भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज विष्णुपाद, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति रक्षक श्रीधर महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद् भक्ति सारंग गोस्वामी महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति सर्वस्व गिरि महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद् भक्ति विचार यायावर महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति भूदेव श्रौती महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद् भक्ति प्रमोद पुरी महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद् भक्ति कुमुद सन्त महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद् भक्ति कमल मधुसूदन महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद् भक्ति सौध आश्रम महाराज तथा पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद् भक्ति विकास हृषीकेश महाराज । विग्रह-प्रतिष्ठा होने के बाद बाजे-गाजे के साथ श्रीविग्रहों के भ्रमण की व्यवस्था शास्त्रविहित है, अतः शास्त्र की विधि को मर्यादा प्रदान करने के लिए व प्रचार के शुभ उद्देश्य से, श्रील गुरुदेव जी ने रथ में आरोहित श्रीविग्रहों के नगर भ्रमण की व्यवस्था की। श्री श्रीगुरु- गौराङ्ग-राधानयन नाथ जी के विग्रह पुष्प व वस्त्रादि से सुसज्जित रथ पर आरोहित हुए एवं श्रीमठ से एक विराट् संकीर्त्तन-शोभायात्रा व विचित्र वाद्यों के साथ दक्षिण कोलकाता के प्रधान प्रधान रास्तों से भ्रमण करते हुए, साँय 6 बजे श्रीमठ में वापस आए। रथ को खींचने के लिए वहाँ के नर-नारियों में बड़ा उत्साह देखा गया। कोलकाता शहर में चूँकि इस प्रकार की शोभा यात्रा पहले कभी नहीं हुई थी, इसलिए इस शोभा- यात्रा के कारण वहाँ एक नयी हलचल पैदा हो गई व आम जनता के बीच मठ का भी खूब सुप्रचार हुआ। अल्प समय में मठ का इस प्रकार व्यापक प्रचार देखकर, कुछ ईर्ष्यालु, दुष्ट प्रकृति के व्यक्तियों ने शोभायात्रा पर पत्थर इत्यादि फेंककर, विघ्न डालने की भी कोशिश की थी, किन्तु करुणामय श्रीगौरहरि की कृपा से चार दिवसीय अनुष्ठान निर्विघ्नता एक दिन वहीं नज़दीक के किसी मठ के एक सेवक ने, मठ में आकर एक ऐसा छपा हुआ पर्चा (Hand bill) श्रील गुरुदेव के हाथ में दिया, जिसमें ऐसा कुछ छपा था जिससे जन-साधारण 86, रासबिहारी एवेन्यु पर, स्थित नव-स्थापित मठ की किसी प्रकार सहायता न करें। श्रील गुरुदेव जी उसे (पर्चे को पढ़कर बस मुस्करा दिए। दक्षिण कोलकाता में सर्वत्र ही वह पर्चा वितरित किया गया था।
श्रील गुरुदेव के आश्रित शिष्य व मठ के हितैषी लोग उनके इस घृणात्मक कार्य से मर्माहत हुए तथा उन्होंने श्रील गुरुदेव जी को उसके जवाबी पर्चे को छपवाकर, जन-साधारण में वितरण के लिये परामर्श दिया। किन्तु गुरुदेव जी ने उन्हें समझाते हुए कहा- ‘यदि कोई हिंसामूलक कार्य करता है तो उसके प्रतिकार के लिए प्रतिहिंसामूलक कार्य करना साधु के लिए उचित नहीं है। ये सब प्रतिकूल व्यवहार सहन कर पाने से ही हरिभजन होगा, नहीं तो जिस उद्देश्य से संसार छोड़कर मठ में आना हुआ है, वह व्यर्थ हो जाएगा।’ उन्होंने और भी कहा कि उक्त पर्चे के द्वारा हमारा कोई नुकसान नहीं होगा, बल्कि व्यतिरेक भाव से अर्थात घुमा-फिराकर मठ का प्रचार ही होगा। श्रील गुरुदेव जी का चिन्ता स्रोत व विचार साधारण लोगों के साधारण चिन्तन व साधारण विचारों की तरह नहीं था। शुद्ध-भक्त-महापुरुषों की प्रत्येक बात में उनके व्यवहार व आचरण में बहुत से शिक्षणीय विषय होते हैं। वास्तव में देखा गया कि उक्त पर्चे के बँटने से कुछ मासिक चन्दा बन्द हुआ, किन्तु तब भी मठ के परिचालन में कोई असुविधा नहीं हुई, क्योंकि शरणागत के रक्षक-पालक भगवान होते हैं।
पर्चे को देखकर जो वास्तविकता पता करने के लिए मठ में आए थे, वे श्रील गुरुदेव जी की महापुरुषोचित्त श्रीमूर्ति का दर्शन करके तथा उनकी अमृतवाणी श्रवण करके समझ गए कि पर्चे का विषय सम्पूर्ण मिथ्या है तथा ईर्ष्या से भरा है। स्वप्रकाश सूर्य को जिस प्रकार बादल ढक नहीं पाते, उसी प्रकार गुरुत्व के वास्तविक प्रकाश को, किसी प्रकार की भी मात्सर्यपूर्ण प्रतिकूलता द्वारा आवृत नहीं किया जा सकता। जो ऐसा करते हैं, वे स्वयं ही अपराध रूपी कीचड़ में फंस जाते हैं। स्वयं अपना सुधार न करके दूसरों के अवगुणों की चर्चायें करते रहना परमार्थ के बिल्कुल प्रतिकूल है। तमाम साधनाओं का उद्देश्य होता है- विष्णु व वैष्णवों को प्रसन्न करना। इस उद्देश्य के अलावा, और किसी भावना से की जाने वाली साधनाएँ हमें परमार्थ पथ से अलग कर देंगी। अपने में सैकड़ों दोषों को रखकर, किसी महान विद्वान् के पद पर बैठकर, दूसरों को सुधारने की भावना से यदि कोई हरि कथा कहे तो उसके द्वारा कही गई ऐसी हरिकथा, उसका सिर्फ घमण्ड है। ऐसी हरिकथा केवल मात्र दूसरों को धोखा देना ही है।
अनर्थ-युक्त साधकों को चाहिए कि वे दूसरों को उपदेश देने का हठ छोड़ दें तथा गुरु-वैष्णवों की कृपा प्रार्थना करते हुए, विष्णु व वैष्णवों की प्रसन्नता के लिए हरि-कीर्त्तन के लिए प्रयास करें। जो खुद को दूसरों की आलोचना करने का अधिकारी मानते हैं, उनकी ये चेष्टा एक तरह से केवल मात्र खुद को लोगों के सामने सर्वश्रेष्ठ गुरु रूप से प्रतिष्ठित करने के लिए ही होती है।
परमार्थ पथ की प्रतिकूल, आत्मघाती तथा भयंकर, दाम्भिकता का परित्याग करके, अपने काम से काम रखना ही अपना मंगल चाहने वाले साधकों का एक मात्र कर्त्तव्य है। परस्वभाव कर्मणि न प्रशंसेत् न गर्हयेत्- इस विचार को सामने रखकर भगवान श्रीहरि की प्रीति के अनुकूल कार्यों में हमेशा अपने आपको नियोजित करने के लिए प्रयत्नशील रहना ही कर्त्तव्य है। अति मूल्यवान तथा क्षणभंगुर मनुष्य जन्म का कोई भी समय जैसे भक्ति के प्रतिकूल कार्यों में न व्यतीत हो, इसके लिए साधकों को चाहिए कि वे हमेशा ही सतर्क रहें। हरि भजन में वैष्णव-अपराध ही सबसे बड़ी बाधा है। वैष्णवों की निन्दा-आलोचना करने का ठेका लेकर, स्वेच्छा से अपनी मुसीबत को बुलाना महामूर्खता है।
श्रीभगवान की इच्छा से श्रीगोविन्द दासाधिकारी प्रभु की दुकान में अनुष्ठित धर्म सभा में श्रील गुरुदेव जी के मुखारविन्द से निकली तेजस्वी हरिकथा के श्रवण से 8, तारा रोड वाले श्रीयुत मणिकण्ठ मुखोपाध्याय महोदय बड़े प्रभावित हुए। इनके इलावा कालीघाट महिम हालदार स्ट्रीट में स्थित उमा बालिका विद्यालय में (8 दिसम्बर से लेकर 14 दिसम्बर, 1955 तक) सात दिन की धर्मसभा में श्रील गुरुदेव जी द्वारा हुई हरिकथा के श्रवण से डा० एस० एन० घोष बहुत प्रभावित हुए। ये डा० एस० एन० घोष तब होम्योपैथिक फैकल्टी के प्रेजीडेण्ट थे। श्रील गुरुदेव जी के विपत्तिकाल में उनके प्रतिष्ठित मठ की सेवा परिचालना और मठ के सौन्दर्य को बढ़ाने के लिए, ये मणिकण्ठ मुखोपाध्याय तथा डा० एस० एन० घोष ही गुरु जी के बायें और दायें हाथों के रूप में खड़े हुए थे।
डा० एस० एन० घोष परम गुरुपादपद्म, श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी के दीक्षित शिष्य थे। श्रील प्रभुपाद जी के अन्तर्ध्यान के बाद ट्रस्टियों के बीच कुछ घपला आरम्भ होने से, उन्होंने मठ का सम्पर्क एक तरह से छोड़ ही दिया था। किन्तु श्रील गुरुदेव जी के दर्शन और उनके श्रीमुख से हरिकथा सुनकर, उनका चित्त पुनः पूरी तरह परिवर्तित हो गया। श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ की सेवाओं के लिए उन्होंने प्राण, अर्थ, बुद्धि और वाक्य के द्वारा सर्वतोभाव से अपने आपको नियोजित किया। श्रीयुत्त् मणिकण्ठ मुखोपाध्याय महोदय भी तेजस्वी और न्यायपरायण व्यक्ति थे, यद्यपि वैष्णव धर्म में पहले वे इतने अनुरक्त नहीं थे, परन्तु श्रील गुरुदेव जी की कथा श्रवण से उनके चरित्र परिवर्तन आ गया। वे उस समय कार्पोरेशन में एक ऊँची पदवी में पूरा के कर्मचारी के रूप में कार्य करते थे। मणिकंठ बाबू मठ के दीक्षित शिष्य न होते हुए भी, साधारण शिष्य से ज्यादा मठ के नाम को रोशन करने के लिए प्रयास करते थे। आप हमेशा ही मठ की सेवा करने के लिए एकान्तिकता के साथ निष्कपट भाव से यत्न करते थे। मुखोपाध्याय के माध्यम से ही एडवोकेट, श्री जयन्त कुमार मुखोपाध्याय के साथ श्रील गुरुदेव जी का परिचय व घनिष्ठ सम्बन्ध हुआ।
86, रासबिहारी एवेन्यु में श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के संस्थापित होने के बाद भी श्रील गुरुदेव जी ने श्रीमठ के अधिष्ठात्री श्रीविग्रहों की शुभ प्रतिष्ठा तिथि में, श्रीकृष्ण पुष्पाभिषेक एवं श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के उपलक्ष्य में एवं किसी-किसी वर्ष में, श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी जी की आविर्भाव तिथि में भी श्रीव्यास पूजा के उपलक्ष्य में राजा बसन्तराय रोड और रासबिहारी एवेन्यु जंक्शन में विराट सभा मण्डप में विशेष धर्म सभा का आयोजन किया था। श्रीवार्षिक उत्सव और श्रीजन्माष्टमी के उपलक्ष्य में पाँच-छः दिवसीय धर्म सभा होती थी। उनका आश्रित शिष्य वर्ग अब भी श्रील गुरुदेव जी द्वारा प्रवर्तित उन दोनों उत्सवों को उसी भाव से करता आ रहा है।