28 अगस्त, (1956) मंगलवार से, 2 सितम्बर, रविवार तक श्रीकृष्ण जन्माष्टमी उपलक्ष्य में, वार्षिक उत्सव उपलक्ष्य में, 1957 साल में, 16 जनवरी, बुधवार से 20 जनवरी रविवार तक एवं ई० 1958, 3 जनवरी, शुक्रवार से 7 जनवरी मंगलवार तक, श्रील प्रभुपाद जी की आविर्भाव तिथि में व्यासपूजा के उपलक्ष्य में, ई0 1958, 8 फरवरी से 10 फरवरी तक, श्रीजन्माष्टमी उपलक्ष्य में, 1958, 5 सितम्बर, शुक्रवार से 10 सितम्बर बुधवार तक, वार्षिक उत्सव उपलक्ष्य में सन् 1959, 23 जनवरी, शुक्रवार से 27 जनवरी मंगलवार पर्यन्त, सन् 1959, 25 अगस्त से 30 अगस्त तक वार्षिक उत्सव उपलक्ष्य में, सन् 1960, 13 जनवरी से 17 जनवरी तक जो विराट धर्मसभा समूह अनुष्ठित हुए थे, उनमें सभापति और प्रधान अतिथि के रूप में उपस्थित थे:- कोलकाता के मेयर, प्रोफेसर सतीशचन्द्र घोष, हिन्दु महासभा के सभापति, श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, पश्चिम बङ्ग सरकार के भूमि और भूमि राजस्व मन्त्री, श्रीशंकरप्रसाद मित्र, डा० कालिदास नाग, श्री ईश्वरी प्रसाद गोयन्का, डा० प्रमथनाथ वन्द्योपाध्याय, प्रोफेसर त्रिपुरारि चक्रवर्ती, आनन्द बाजार पत्रिका के सम्पादक, श्री चपलाकान्त भट्टाचार्य, कलकत्ता के पुलिस कमिश्नर, श्री हरि साधन घोष चौधरी, बङ्गीय संस्कृत परिषद् के सम्पादक, डा० यतीन्द्र विमल चौधरी, प्रोफेसर वन्द्योपाध्याय, विधानसभा के स्पीकर, श्री शैलकुमार मुखोपाध्याय, डा० नलिनीरञ्जन सेन गुप्त, न्यायाधीश, श्री शंकरप्रसाद कुमार मित्र, बैरिस्टर, श्री गुरुपद कर, न्यायाधीश, श्री वेणुपद मुखोपाध्याय, पश्चिम बङ्ग के कानून मन्त्री, श्री सिद्धार्थ शंकर राय, श्री रामकुमार भूयालका, हिन्दुस्तान स्टेण्डर्ड पत्रिका के सम्पादक, श्री सुधांशु वसु, युगान्तर पत्रिका के सम्पादक, श्री विवेकानन्द मुखोपाध्याय, डा० रमा चौधरी, शिक्षामन्त्री, श्री हरेन्द्रनाथ राय चौधरी, डा० राधा विनोद पाल, कलकत्ता पौर प्रतिष्ठान के मेयर, डा० त्रिगुणा सेन, श्री आशुतोष गाँगुली, पश्चिम बङ्ग सरकार के स्वराष्ट्र मन्त्री, श्री कालिपद मुखोपाध्याय, श्रीरामनारायण भोजनगर वाले, कोलकाता के मेयर, श्री विजयकुमार वन्द्योपाध्याय, कविराज श्री विमलानन्द तर्कतीर्थ, श्री कालीप्रसाद खैतान, बैरिस्टर, पश्चिम बङ्ग के स्वायत्वशासन विभाग के सम्पादक, श्री तुषारकान्ति घोष, प्रवीण साम्वादिक, श्री हरेन्द्रप्रसाद घोष, न्यायाधीश, श्री निर्मलकुमार सेन, श्री राजेन्द्र सिंह सिंही, न्यायाधीश, विनायक नाथ वन्द्योपाध्याय, श्री जयन्तकुमार मुखोपाध्याय, कलकत्ता विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र के प्रधानाध्यापक, डा० सतीशचन्द्र चट्टोपाध्याय। विशिष्ट वक्ता के रूप में जिन्होंने भाषण प्रदान किया था, उनके नाम इस प्रकार हैं:- पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति सर्वस्व गिरि महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रकाश अरण्य महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिसारङ्ग गोस्वामी महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिप्रज्ञान केशव महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिभूदेव श्रौती महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति विचार यायावर महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिरक्षक श्रीधर महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिप्रमोदपुरी महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिकमल मधुसूदन महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिकुमुद सन्त महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति सौध आश्रम महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिविकास हृषीकेश महाराज, राजर्षि श्रीशरदिन्दुनारायण राय, डा० एस० एन० घोष, श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी और श्री मंगल निलय ब्रह्मचारी ।

‘मनुष्य जन्म की सार्थकता’, ‘शान्तिलाभ का उपाय’, ‘गृहस्थ धर्म’, ‘अहिंसा और प्रेम’, ‘भोग, त्याग और सेवा’, ‘जीव का निश्चित कर्त्तव्य क्या है?’, ‘श्रीकृष्णतत्व’, ‘श्रीनन्दोत्सव’, ‘भागवतधर्म’, ‘गीता का उपदेश’, ‘प्रेमभक्ति और श्रीचैतन्य देव’, ‘जीव पर दया और जीवसेवा’, ‘विश्वशान्ति समस्या समाधान का उपाय’, ‘अहिंसा, नीति और प्रेमधर्म’, ‘जातिधर्म रहित श्रीचैतन्य देव की शिक्षा’, ‘श्रीविग्रह सेवा की प्रयोजनीयता’, ‘श्रीभगवत् प्रेम ही जीवों का नित्यधर्म’, ‘कलियुग और श्रीनाम संकीर्त्तन’, ‘धर्म की प्रयोजनीयता’, ‘श्रीकृष्ण आविर्भाव और परतत्व का स्वरूप’, ‘भक्ति और नन्दोत्सव’, ‘गीता की शिक्षा’, ‘जीवों के दुःख का कारण और उनका प्रतिकार’, ‘श्रीगौड़ीय वैष्णव-धर्म और श्रील सरस्वती ठाकुर’, ‘साधु-सङ्ग’, ‘श्रीविग्रहतत्व और पौत्तलिकता’, ‘गृहस्थ जीवन में धर्म की प्रयोजनीयता’, ‘विश्वसमस्या समाधान में श्रील सरस्वती ठाकुर’, ‘धर्म की प्रयोजनीयता और श्रीभगवान का आविर्भाव’, ‘धर्म अनुशीलन में ‘श्रीकृष्ण चैतन्य का दान’, ‘श्रीभागवत धर्म और श्रील सरस्वती ठाकुर’, ‘श्रीभगवत्-प्रेम ही विश्व-शान्ति का उपाय’ यह सारे विषय सभाओं में प्रवचन के लिए निर्धारित हुए थे। श्रील गुरुदेव जी ने ही उपरोक्त विषयों को निर्धारित किया था। सभी विषयों पर उन्होंने प्रतिदिन दीर्घ अभिभाषण प्रदान किए। एक ही विषय विभिन्न व्यक्तियों द्वारा, विभिन्नभाव से आलोचना किए जाने पर विषय बहुत तरह से अभिव्यक्त होता है। यहाँ पर प्रश्न उठ सकता है कि पारमार्थिक विषय पर, पारमार्थिक व्यक्ति ही अर्थात् साधु ही बोलने के अधिकारी हैं। पारमार्थिक विषयों की आलोचना की सभा में, सांसारिक व्यक्तियों को, उनके सांसारिक पदाधिकार के कारण धर्म सभा में आह्वान ‘करके, ऊँचे आसन पर क्यों बैठाया जाता है। बाहरी दृष्टि में ऐसा मालूम होता है कि विशेष पदाधिकारी व्यक्तियों को बुलाने का उद्देश्य, परमार्थ के अलावा और किसी स्वार्थ के लिए है, परन्तु वास्तविकता ये नहीं है। भक्तों के अन्दर की भावना क्या है, ये यहाँ पर संक्षिप्त रूप में बताया जा रहा है।

साधु लोगों के दर्शन से समाज की ऊर्ध्वगति व अधोगति के मूल है- ‘शब्दानुशीलन’। ‘शब्द’ की विराट शक्ति है। दुनियाँ के सभी व्यक्ति शब्द के द्वारा चल रहे हैं। ‘असत्’ शब्द के द्वारा असत् भाव का फैलाव होता है तथा ‘सत्’ शब्द के द्वारा सद्भाव प्रसारित होता है। जो नित्य प्रकाशमान नहीं है अर्थात् नाशवान है, वह ‘असत्’ कहलाता है। शरीर नित्य प्रकाशमान नहीं है, अर्थात् ये पहले नहीं था, अभी है, बाद में नहीं रहेगा। अतः शरीर असत् है । शरीर की तमाम इन्द्रियाँ भी असत् हैं। प्राकृत इन्द्रियों से ग्रहण योग्य सभी वस्तुएँ भी असत् हैं । इसलिये ‘सत्’ का अधिष्ठान प्रकृति की अतीत भूमिका में है, अर्थात् वह अतीन्द्रिय है या अधोक्षज है। अधोक्षज वस्तु जिन शब्दों के द्वारा अनुभूत होती है, उनको ‘शब्द-ब्रह्म’ कहते हैं। शब्दब्रह्म का ही दूसरा नाम शास्त्र है। शास्त्र चर्चा के द्वारा, अधोक्षज, मंगलमय भगवान का संस्पर्श प्राप्त होता है। आधुनिक भोगवाद के प्रसारण के युग में सद्-आलोचना या शास्त्र आलोचना की रुचि नज़र नहीं आती। सिनेमा के अभिनेता व अभिनेत्रियों के चित्रों की पुस्तकें एवं राजनैतिक मतवादों की चर्चा करने में ही व्यक्तियों की रुचि है। इसीलिए विषय-भोगरूप असत्भावों का प्रसार है। आधुनिक समाज के युवक-युवतियों के घरों में, विद्यालयों में अथवा क्लबों में, कहीं भी तो सद्-आलोचना का सुयोग नहीं है। समाज की दुर्गति इस अवस्था में आकर पहुँच गई है कि असत् को असत् समझने की सामर्थ्य भी उन्होंने खो दी है। जिस प्रकार रोशनी को लाए बगैर अन्धकार को अन्धकार नहीं समझा जाता है, इसी प्रकार ‘सत्’ के प्राकट्य के बिना असत् को असत् भी समझा नहीं जा सकता।

पचास वर्ष पहले भारत के समाज का चित्र इस प्रकार नहीं था । तब घर-घर में रामायण, महाभारत, गीता व भागवत आदि शास्त्रों की आलोचना होती थी। ये ठीक है कि तब भी मनुष्यों के अन्दर पापवासना थी, परन्तु तब वे पाप करने में संकुचित होते थे। पाप प्रवणता का इस प्रकार लज्जाहीन व उत्कट भयानक मूर्त रूप तब नहीं देखा जाता था। अब मनुष्य समाज में नर-हत्या भी आम सी हो गई है। भयंकर पापों को भी पाप नहीं समझा जा रहा है। समाज के की इस अधोगति मनुष्य को रोकने के लिए, सामाजिक जीवन में व्यापक रूप से सदालोचना प्रवर्त्तित होनी आवश्यक है। इस ज़रूरत को समझकर ही, परम- आराध्य श्रील गुरुदेव जी ने मनुष्यों के आत्यन्तिक कल्याण के लिये, बहुत से कष्टों व झंझटों को स्वीकार करके भी, विराट धर्म सम्मेलनों की व्यवस्था की थी। सम्पूर्ण आकाशवृति और भिक्षा के ऊपर निर्भर करके उन्होंने इस धर्म-सम्मेलन में योगदान के लिए, सभी को विशाल रूप में निमन्त्रण किया था। सपार्षद वैष्णव-आचार्यों का एवं शत्-शत् अतिथि- अभ्यागतों के सत्कार का सारा दायित्व, वे स्वयं अपने ऊपर ले लेते थे। समाज के श्रेष्ठ व्यक्ति जो करते हैं, साधारण व्यक्ति उसको प्रमाण मानकर, अनुकरण करते रहते हैं। श्रेष्ठ व्यक्तियों को धर्म-आलोचना में लाने की इच्छा करने से, उन लोगों को यथोचित मर्यादा प्रदान करके लाना होगा। सम्मेलन में आकर उन व्यक्तियों को भी प्रवचन के विषयों में अपने-अपने अधिकार. ‘अनुसार चर्चा करनी होती है। इसी बहाने वे भी साधु के पास जाकर साधु के दर्शन और साधु की कथा सुनने का सुयोग प्राप्त करते हैं। उनके द्वारा फिर वही कथाएँ अन्यत्र प्रचारित होती हैं। इस पद्धति को छोड़कर ‘सत्’ शब्द का प्रसारण सामाजिक जीवन में तीव्रगति से और किस प्रकार से हो सकता है?

साधुओं के एक तरफा बोलते रहने से जनसाधारण के बीच फैली गलत धारणाओं का संशोधन किस प्रकार होगा? सिर्फ कलकत्ता मठ में नहीं, श्रील गुरुदेव ने अपने सभी मठों में धर्म-सम्मेलन प्रवर्तित किए तथा मठों को छोड़कर, भारत में लगभग सभी जगहों पर, वे हरिकथा प्रचार के लिये अत्यधिक परिश्रम करते थे। यह अवश्य ही स्वीकार योग्य है कि जो सर्वतोभाव से, सर्वेन्द्रिय द्वारा श्रीकृष्ण भजन करते हैं, जिनको भगवत्-तत्त्व विषय में यथार्थ अनुभूति होती है, उनकी कथा श्रवण के द्वारा ही, जगत के जीवों का वास्तविक कल्याण होगा। परमाराध्य श्रील गुरुदेव चौबीस घण्टों में चौबीस घण्टे ही निष्कपट भाव से भगवद् सेवा में नियोजित रहते थे। उनकी कथा के द्वारा जीवों का कल्याण होगा, इसमें सन्देह ही क्या है? आप शास्त्र प्रमाण एवं आधुनिक युग के तार्किक व्यक्तियों के प्रश्नों को अपने प्रवचन के बीच में लाकर, सभी विषयों पर बोलते थे। आपकी अकाट्य युक्ति व उदाहरणों द्वारा समझाने को भी असाधारण कहना होगा। कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो उनकी तेजस्वी भाषा में वीर्यवती हरिकथा श्रवण करके आकृष्ट न हुआ हो। श्रीगुरुदेव जी ने इच्छा व्यक्त की कि कलकत्ता में स्थायी मठ की स्थापना की जाए। अतः दक्षिण कलकत्ता के रासबिहारी एवेन्यु के नजदीक ही जमीन प्राप्त करने के लिए चेष्टा आरम्भ हो गई। सभी को यह दृढ़ विश्वास हो गया कि गुरुदेव जी के मन में जब इच्छा प्रकट हुई तो जमीन अवश्य ही मिलेगी। आपके अभिलषित प्रतिष्ठान के सुनाम को बढ़ाने के लिये, सब क्षेत्रों में उद्योगकर्ता थे- डा० एस० एन० घोष एवम् श्री मणिकण्ठ मुखोपाध्याय । कलकत्ता मठ की जमीन लेने के लिए विशेषतया, मणिकण्ठ बाबू ने मुख्य अग्रणी के रूप में प्रचेष्टा आरम्भ की। श्रील गुरुदेव जी का अभिप्राय मालूम हो जाने पर, कालीघाट के • हालदार परिवार की, आपकी एक चरण-आश्रिता शिष्या, प्रताप आदित्य रोड और रास बिहारी एवेन्यु जंक्शन के निकट की जमीन, थोड़े ही मूल्य पर लेने का प्रस्ताव लेकर आई (जहाँ पर बाद में श्रीचैतन्य रिसर्च इनस्टीच्यूट स्थापित हुआ)। श्रील गुरुदेव जी ने छोटा स्थान जानकर इसे लिया नहीं । श्रीगुरुदेव सदा ही उच्च आकांक्षा वाले थे। वे छोटी प्रचेष्टा पसन्द नहीं करते थे। आकाशवृत्ति ही जिनका एकमात्र सम्बल है, उनके लिए इतना बड़ा एक सुयोग पाकर भी छोड़ देना एक अद्भुत बात थी। वे क्यों छोड़ रहे हैं, इसका कारण सेवक लोग चिन्तन न कर सके। श्रील गुरुदेव जी में अद्भुत् आत्मविश्वास था।

जब गुरुदेव जी को वह जमीन पसन्द नहीं आयी तो मणिकण्ठ बाबू ने अपने परिचित लोगों से पूछताछ करके, लाईब्रेरी रोड और सतीश मुखर्जी रोड के जंक्शन पर स्थित जमीन व मकान का समाचार दिया। यह ज़मीन पहली वाली ज़मीन से दुगुनी थी। जमीन लेने के लिए सबका आग्रह देखकर तथा वहाँ पर प्रतिष्ठान का कार्य जैसे-तैसे चल सकता है, ऐसा जानकर जमीन को लेने के लिए, श्रील गुरुदेव जी ने अपनी सम्मति प्रदान कर दी। किन्तु उक्त मकान में कुछ किरायेदारों के बहुत दिनों से वहाँ पर रहने के कारण व मकान मालिक के मुझेर (बिहार) में रहने के कारण श्रील गुरुदेव कुछ चिन्तित हुए। मकान को
देख देखने के समय किरायेदारों ने श्रील गुरूदेव जी को यह डर दिखाया कि मठ यदि इस मकान को खरीद लेगा तो मठ का भिक्षा से प्राप्त किया रुपया पानी में फेंकने के समान हो जाएगा। कारण, मठ इस मकान में दखल नहीं ले सकेगा।

मकान के विषय में यह बात सुनकर, इस प्रकार की विवाद युक्त सम्पत्ति लेना ठीक नहीं है, ऐसा विचार बहुत से लोगों ने प्रकट किया। तभी तेजस्वी मणिकण्ठ बाबू, श्रीगुरुदेव से तेजयुक्त आश्वासन देकर बोले “यदि आपको यह स्थान पसन्द है, तो इसके सब कार्य सम्पन्न करने की ज़िम्मेदारी मेरी होगी। इसके लिए किसी को किसी प्रकार की भी चिन्ता नहीं होनी चाहिए। उस ज़मीन को खरीद लेने के बाद यदि कोई असुविधा होगी, तो मैं अपने रहने वाली कलकत्ता की कोठी मठ को दान कर दूँगा।” जब ज़मीन को खरीद लेना स्थिर हो गया तो मालिक के दलाल ने अधिक मूल्य मांगा तब ये धन कहाँ से मिलेगा, चिन्ता का विषय बन गया। श्रीभगवत् कृपा से एक दूसरे के माध्यम के द्वारा यह मालूम हो गया कि इस मकान के मालिक, स्वधामगत चुन्नीलाल सेनगुप्त, धर्म-परायण व्यक्ति थे। उनकी इस मकान को किसी धार्मिक संस्था को दान देने की इच्छा थी; परन्तु दुर्भाग्य से कुछ दिन पूर्व ही मालिक के स्वधाम चले जाने के कारण, उस मालिक की ओर से दलाल ने दाम बढ़ा कर बोले। इतना धन कहाँ से मिलेगा यह एक चिन्ता का विषय था। मठ के लोग उनसे मिल न सके। मालिक के पुत्र, बिहार के मुझेर नामक स्थान में रहते थे। श्री मणिकण्ठ बाबू कहने लगे। कि हमें मुझेर जाना चाहिए एवं उनके पुत्रों को पिता का अभिप्राय बताना चाहिए, हो सकता है कि वे अपनी सम्पत्ति मठ को दान ही कर दें अथवा कम मूल्य में दे दें । श्रीगुरुदेव जी ने इस बात की सम्मति दे दी और मुझेर जाने के लिए तैयार हो गए। श्रीगुरुदेव मणिकण्ठ बाबू के साथ मुङ्गेर जाकर, श्री सुकुमार सेन गुप्त आदि व्यक्तियों से मिले। उन्होंने कहा कि उनको इस महान कार्य के लिए दान करने में कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु कर्जदार होने के कारण, कर्ज चुकाने के लिए उन्हें कुछ रुपयों की आवश्यकता है। उन्होंने जमीन का मूल्य दस हज़ार रुपए कम कर दिया तथा किरायेदारों के अत्याचार की बात भी सुनाई। जमीन खरीदने के लिए रुपयों की आवश्यकता थी, इसलिये श्रील गुरुदेव जी ने अपने प्रति श्रद्धायुक्त, श्रीराम नारायण भोजनगर वालों से इस विषय में निवेदन किया, तो राम-नारायण बाबू आश्वासन देते हुए कहने लगे कि भक्तों से रुपया इकट्ठा करने के पश्चात् यदि कम हुआ, तो वह उसे पूरा कर देंगे। कलकत्ता मठ की ज़मीन खरीदने में, साधु-सेवा में रुचि रखने वाले- धार्मिक प्रवर, राम नारायण बाबू मुख्य रूप में आर्थिक सहायताकारी व गुरुदेव जी के कृपा-पात्र तथा धन्यवाद के पात्र वने ।

अन्यान्य रुपया देने वालों में उल्लेखनीय हैं- (1) श्रीसुकुमार सेन गुप्त, (2) श्री जानकी नाथ वन्द्योपाध्याय, (3) डा0 सुरेन्द्रनाथ घोष, (4) श्री गोबिन्द चन्द्र दासाधिकारी, (5) श्री कृष्ण चन्द्र मुखोपाध्याय, (6) श्री निताई गोपाल दत्त, (7) श्री प्राणवल्लभ दासाधिकारी, (8) श्री सुबोध चन्द्र गुह, (9) श्री काली चरण चट्टोपाध्याय, (10) श्री प्रसाद चन्द्र राय, (11) श्रीमति विमला चट्टोपाध्याय, (12) श्रीमति कमलाबाला घोष, (13) श्रीमति मालती देवी, (14) श्रीमति भवानी देवी, (15) श्रीमति निर्मला दास गुप्त और (16) श्रीमति हेमलता दे ।

29 नवम्बर, 1957 को, 35 ए, और 37 ए, सतीश मुखर्जी रोड पर स्थित ज़मीन व मकान के दस्तावेजों की, यथारीति रजिस्ट्री करके इसको श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के लिए ले लिया गया। तत्पश्चात् किरायेदारों से अनुरोध किया गया कि मठ का कार्य शीघ्रता से हो सके, इसके लिये जितना जल्दी हो सके वे अपने लिए मकान आदि की व्यवस्था करें। मकान खाली करने के लिये यथेष्ट समय देने पर भी, वे लोग गृहादि छोड़ने की बजाए विरोध करने लगे। मणिकण्ठ बाबू भी गुरुदेव जी को कहने लगे कि अनुरोध आदि करने का कुछ भी फल नहीं होगा। हमें कानून का आश्रय लेना चाहिए। मज़बूर होकर, श्रीगुरुदेव जी को अन्त में, कानून का आश्रय लेने की सहमति प्रदान करनी पड़ी।

मणिकण्ठ बाबू जी ने, श्रीगुरुदेव जी का परिचय, अपने परिचित एक अच्छे कानून जानने वाले व्यक्ति, श्री जयन्त कुमार मुखोपाध्याय से कराया। उन्होंने (श्री मणिकण्ठ बाबू) कहा कि जयन्त कुमार इस प्रकार न्याय परायण हैं कि वे कभी भी रुपयों की लालसा में पड़कर, दुष्ट प्रकृति वाले व्यक्तियों का मामला हाथ में नहीं लेते। मणिकण्ठ बाबू ने, जयन्त कुमार के कानून की तीव्र जानकारी के विषय में भी बहुत प्रशंसा की। जयन्त बाबू जी के घर में, श्रीगुरुदेव जी के द्वारा भागवत् पाठ की व्यवस्था की गयी। जयन्त बाबू, श्रीगुरुदेव जी की सौम्य मूर्ति के दर्शन करके और उनके मुखारविन्द से हरिकथा सुनकर उनके व्यक्तित्त्व की ओर आकृष्ट हुए। उन्होंने वचन दिया कि मैं अपनी फीस लिये बिना ही मठ के कानून विषयक कार्य में पूरी सहायता करूँगा। श्री जयन्त कुमार की महानुभावता से श्रीगुरुदेव सन्तुष्ट हो गए। इसके पश्चात् से श्रीगुरुदेव के प्रति, जयन्त कुमार के हृदय में आकर्षण बढ़ता ही गया और धीरे-धीरे वे मठ के एक प्रधान शुभचिन्तकों में गिने जाने लगे। श्रीकालीपद मुखोपाध्याय, श्रीक्षेत्र मोहन भौमिक और श्री अनिरुद्ध दास (श्रीअरुण चन्द्र बोस), कानून विषयक कार्यों में उनकी सहायता करते थे।

सरकार के पास आवेदन करने पर, बिना मामला किये ही, गवर्नमेंट ने मकान के पहले दो कमरे खाली करवा दिये। दूसरे दूसरे किरायेदारों के विरुद्ध मामला करने पर, वे धीरे-धीरे मामला हार कर और उच्च अदालत में न जाकर, मकान छोड़ कर चले गए। घर आदि खाली हो जाने पर, वहाँ मठ का कार्य आरम्भ करने के उद्देश्य से, एक अस्थाई टीन का शेड (Shed) तैयार किया गया। श्री श्रीगुरु गौरांग राधा नयननाथ जी के श्रीविग्रहों ने, 86 ए – रासबिहारी एवेन्यु श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ से, सुरम्य रथ पर आरोहण करते हुए, बहुत बाजे-गाजे के साथ, प्रातःकाल विराट संकीर्तन शोभा यात्रा के रूप में, दक्षिण कलकत्ता के विभिन्न मार्गों से भ्रमण करते हुये 35-37 सतीश मुखर्जी रोड पर स्थित, नए भवन में शुभ पदार्पण किया। इस अनुष्ठान के उपलक्ष्य में इसी दिन नए भवन में, ॐ विष्णुपाद श्रीमद् भक्ति गौरव वैखानस महाराज जी के पौरोहित्य में, यज्ञादि क्रिया और सारा दिन महाप्रसाद वितरण महोत्सव अनुष्ठित हुआ।

पाँच दिन की साँयकालीन सभा के प्रथम अधिवेशन में, श्रीमद् वैखानस महाराज जी ने मंगलाचरण रूपी आशीर्वाद प्रदान किया एवं श्रीगौड़ीय संघपति परम पूज्यपाद परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति सारंग गोस्वामी महाराज ने उद्बोधन भाषण प्रदान किया। सभापति पद को यथाक्रम जिन्होंने ग्रहण किया, उनमें थे- डा० नलिनीरंजन सेनगुप्त, न्यायाधीश, श्री विनायक नाथ श्री ईश्वरी प्रसाद गोयन्का, श्री जयन्त कुमार वन्दोपाध्याय, मुखोपाध्याय, एडवोकेट और मेयर, श्रीकेशव चन्द्र बसु ।

श्रीगुरुदेव जी के प्रतिदिन के दीर्घ भाषण के अतिरिक्त, विभिन्न दिनों के वक्ता थे- पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति सर्वस्व गिरि महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्त्यालोक परमहंस महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति कमल मधुसूदन महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति सौध आश्रम महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति विकास हृषीकेश महाराज, डा० एस० एन० घोष, श्रीमठ के सम्पादक, श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी एवं सह-सम्पादक, श्री मंगल निलय ब्रह्मचारी ।

मुख्य कीर्त्तनीया रूप में थे- श्रीमद् मोहिनी मोहन दासाधिकारी मुख्य और श्री ललिता चरण ब्रह्मचारी । महोत्सव में धनादि देकर धन्यवाद के पात्र बने- श्री राम नारायण भोजनगर वाले, श्री मणिकण्ठ मुखोपाध्याय, श्री जानकीनाथ वन्द्योपाध्याय, डा० एस० एन० घोष, श्री गोबिन्द चन्द्र दास, श्री पूर्ण चन्द्र मुखोपाध्याय और श्री सुदेव चन्द्र गुप्त ।