दशावतारके अन्तर्गत तृतीय अवतार वराहवतार है। पहले मत्स्यावतार के प्रसंग में लीलावतारों की कथा वर्णित हो चुकी है। जब ब्रह्मा जी को सृष्टि करने के लिए आदेश हुआ तो वह सृष्टि के विषय में चिंता करने लगे। तभी उनके शरीर से पुरुष स्वायम्भुव मनु एवं स्त्री शतरूपा आविर्भूत हुई। ब्रह्मा जी की इच्छा से स्वायम्भुव मनु ने सृष्टि करने के लिए शतरूपा को पत्नी के रूप में स्वीकार किया। पृथ्वी के प्रलय जल में निमग्न हो जाने से प्राणियों की अवस्थिति के लिये उन्होंने अपने पिता ब्रह्मा जी के पास जाकर पृथ्वी के उद्धार के लिये प्रार्थना की। ब्रह्मा जी ने पृथ्वी को जलमग्न देखा तो काफी देर तक सोचते रहे कि किस प्रकार से वे पृथ्वी का उद्धार करेंगे। उन्होंने जल को निःशेषित कर के पृथ्वी को स्थापित किया था परन्तु ये उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि पृथ्वी फिर जल में क्यों डूब गयी। उन्हें तो सृष्टि करने के लिये नियुक्त किया गया था। पृथ्वी के जल में प्लावित होकर रसातल में चले जाने पर अब सृष्टि कैसे होगी व किस प्रकार से पृथ्वी का उद्धार हो सकता है।
काफी प्रयास के बाद जब उन्हें कुछ भी न सूझा तो अन्त में वे परमेश्वर विष्णु के शरणापन्न हुये। ब्रह्मा जी जब चिन्तामग्न थे तभी उनकी नासिका से अकस्मात अंगुष्ठ परिमाण की एक क्षुद्र वराह मूर्ति आविर्भूत हुई – किन्तु बड़े आश्चर्य का विषय यह है कि उक्त क्षुद्र वराह मूर्ति ने ब्रह्मा जी के सामने देखते ही देखते क्षणकाल में ही आसमान के बराबर ऊँची होकर हाथी के समान रूप धारण कर लिया। ब्रह्मा, मरीचि आदि प्रमुख विप्र, सनकादि ऋषि व स्वयाम्भुव मनु आदि अलौकिक वराह मूर्ति के दर्शन करके आपस में विचार-विमर्श करने लगे। ब्रह्मा जी ने सोचा कि परव्योम का कोई देवता छद्म वेष में शूकर के रूप में भ्रमण कर रहा है। आहो क्या आश्चर्य है। उनकी नासिका छिद्र से अपरूप वराह मूर्ति का आविर्भाव ! क्या यज्ञेश्वर श्री हरि स्वयंरूप को गोपन रखते हुए उनको क्षुब्ध कर रहे हैं?
ब्रह्मा जी अपने पार्षदों के साथ इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि उसी समय गिरिराज के समान श्री हरि गर्जन कर उठे। सर्वव्यापी श्री हरि ने गर्जना के द्वारा ब्रह्मा जी का व श्रेष्ठ ब्राह्मणों का आनन्दवर्धन किया। उस गर्जन ध्वनि का इस प्रकार का माधुर्य था, जो कि श्रवणकारी के दुःखों को नाश कर दे। ब्रह्मा जी, स्वायम्भुव मनु एवं जनलोक, तपलोक और सत्यलोग के मुनि वेद-मंत्रों द्वारा वराह देव जी की स्तुति करने लगे। वराह मूर्ति विष्णु भगवान ब्रह्मा और मुनियों के स्तवों को श्रवण करके देवताओं के मंगल के लिये प्रलय जल में प्रविष्ट हो गये। वराह भगवान पूंछ उठाकर आकाश में उठे। उन्होंने कंधे के केशों को कम्पित किया तथा खुरों के द्वारा उन्होंने बालों को कम्पित कर दिया। रोम और सफेद दांतों वाले भगवान महाज्योतिर्मय रूप से शोभायमान होने लगे। ये श्री हरि की अपूर्व चमत्कारी लीला है, जिसे चिन्तन करने मात्र से रोमांच होता है। सर्वशक्तिमान् व सर्वज्ञ होते हुये भी वे पशु की तरह घ्राण के द्वारा पृथ्वी का अन्वेषण करने लगे। यद्यपि उनका बाह्यदर्शन बहुत भयंकर था किन्तु स्तवकारी मुनियों के प्रति प्रशान्त दृष्टि से निरीक्षण करते हुये वे उनको आनन्द प्रदान करते हुये पानी के अन्दर घुस गये। उनकी वज्र के समान देह के पानी में गिरने से उसने समुद्र को विदीर्ण कर दिया। समुद्र भयभीत होकर ‘त्राहि भगवान’ कहते हुये भगवान से प्रार्थना करने लगा।
यज्ञ मूर्ति भगवान ने खुरों के द्वारा समुद्र को विदीर्ण कर दिया व नीचे रसातल में पृथ्वी को उसी प्रकार देखा, जिस प्रकार प्रलयकाल में उन्होंने अपने उदर में पृथ्वी को धारण किया था। वराह देव अपने दांतों के द्वारा रसातल से पृथ्वी को उठाकर रमणीय रूप से प्रकाशित हुये। उसी समय महापराक्रमशाली असुर हिरण्याक्ष जल में ही गदा उठाकर प्रतिरोध करने लगा। उसको देख कर वराह देव ने भयंकर क्रोध प्रदर्शित किया। जिस प्रकार सिंह हाथी का विनाश कर देता है, उसी प्रकार उन्होंने हिरण्याक्ष का वध कर दिया।1 दैत्य के रक्त से भगवान की देह, मस्तक और मुख-मण्डल लाल हो गया। ब्रह्मादि ऋषि हाथ जोड़ कर वराह भगवान का स्तवन करने लगे। ऋषियों के स्तव से संतुष्ट होकर भगवान ने अपने खरों के द्वारा आक्रान्त जल में पृथ्वी को स्थापन किया और उनके सामने ही अन्तर्हित हो गये, यहां पर एक बात विशेष ग्रहण करने योग्य हैः-
लघुभागवतामृत में लिखा हैः ‘ब्रह्म कल्प में वराह भगवान दो बार आविर्भूत होते हैं। उन्होंने स्वयाम्भुव मन्वन्तर में ब्रह्मा जी की नासिका के छिद्र से निकल कर पृथ्वी का उद्धार किया एवं षष्ठ मन्वन्तर (चाक्षुष मन्वन्तर) में वे पृथ्वी के उद्धार व हिरण्याक्ष के वध के लिये प्रकट हुये।’
भागवतामृत के विचार के अनुसार उत्तानपाद के वंश में आये प्रचेता के पुत्र थे दक्ष, दक्ष की कन्या थी दिति तथा दिति का पुत्र था हिरण्याक्ष। जिस समय आदि वराह अवतीर्ण हुये उस समय अर्थात कल्प के आरम्भ में तो मनु के पुत्र, कन्या ही नहीं हुए थे, अतः स्वयाम्भुव मन्वन्तर में हिरण्याक्ष का जन्म कैसे हो सकता है? इसलिये देखा जाता है कि भागवत में विदुर के प्रश्न के उत्तर में मैत्रेय ऋषि ने वराह देव की स्वयाम्भुव मन्वन्तर और चाक्षुष मन्वन्तर की लीला एक साथ वर्णन की है। स्वयाम्भुव मनु और शतरूपा को अवलम्बन करके प्रियव्रत और उत्तानपाद दो पुत्र हुये तथा आकूति, देवहूति तथा प्रसूति नामक तीन कन्याएं हुई:-
द्वितीयन्तु भवायास्य रसातलगतां महीम्।
उद्धरिष्यन्नु पादत्त यज्ञेशः शैकरं वपुः।।
(श्रीमद्भागवत 1-3-7)
विश्व की सृष्टि के लिए रसातल में गयी पृथ्वी का उद्धार करने की इच्छा करके यज्ञेश्वर विष्णु ने द्वितीय अवतार वराह के रूप में धारण किया। यहां पर वराह देव को द्वितीय अवतार कहा गया है:-
यत्रोद्यतः क्षितितलोद्धारणाय विभ्रत
क्रौड़ीं तनुं सकलयज्ञमयीमनन्तः।
अन्तर्महार्णव उपागतमादिदैत्यं
तं दंष्ट्रयाद्रिमिव वज्र धरो ददार।
(श्रीमद्भागवत 2-7-1)
अनन्त भगवान ने पृथ्वी का उद्धार करने के लिये वराह रूप धारण किया और महासागर में उन्होंने आदि दैत्य हिरण्याक्ष को दांतों से विदीर्ण किया था।
जलक्रीड़ासु रुचिरं वारहिं रूपमास्थितः।
अधृष्यं मनसाप्यन्यैर्वाङमयं ब्रह्मसंज्ञितम्।।
पृथिव्युद्भरणार्थाय प्रविश्य च रसातलम्।
दंष्ट्रयाभ्युज्जहारै नामात्माघारो धराधरः।।
दृष्टवा दंष्ट्राग्रविन्यस्तां पृथ्वीं प्रथित पौरुषम्।
अस्तवन् जनलोकस्थाः सिद्धा ब्रह्मर्षयो हरिम्।।
(मत्स्य पुराण 6/8-10)
मन के अगोचर जल क्रीड़ाकारी वाङमय ब्रह्मसंज्ञक भगवान ने वराह रूप धारण करके आत्माधार पृथ्वी के उद्धार के लिये रसातल में प्रवेश कर दांतों के द्वारा पृथ्वी का उद्धार किया था । उनके दांतों में स्थित पृथ्वी को देखकर जनलोक के सिद्ध व ब्रह्मर्षि, प्रथितयशा श्री हरि का स्तव करने लगे। यहां पर ऐसा कहा गया है कि सृष्टि और विलयकारी ब्रह्मस्वरूपी नारायण ने वराह रूप धारण किया था।
वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना
शशिनि कलंक कलेव निमग्ना
केशव धृत-शूकर रूप जय जगदीश हरे।
(श्री जयदेव का दशावतार स्तोत्र)
चन्द्र में कलंक की रेखा के समान दांतों के अग्रभाग पर जिन्होंने पृथ्वी को धारण किया था, वही केशव धृत शूकररूपी जगदीश्वर हरि की जय हो।
मत्स्याश्वकच्छपनृसिंह-वराह-हंस-राजन्यविप्रविबुधेषु कृतावतारः।
त्वं पासि नस्त्रिभुवन्च तथाधुनेश भारं भुवो हर यदूत्तमवन्दनं ते।।
(श्रीमद्भागवत 10-2-40)
कंस के कारागार में देवकी के गर्भ में जब भगवान प्रकट हुए तब ब्रह्मा जी ने स्तव किया था, उस श्री कृष्ण स्तव का यह अन्तिम श्लोक है-
मत्स्य, अश्वग्रीव, कच्छप, नृसिंह, वराह, हंस, दशरथनन्दन, परशुराम, वामन इत्यादि विविध रूपों से अवतरित होकर आप हमारा और त्रिभुवन का पालन करते रहते हैं। हे यदुत्तम! मैं आपकी वन्दना करता हूँ, हे ईश्वर! अब आप ही इस पृथ्वी का भार ग्रहण कीजिये।
ठाकुर भक्ति विनोद
1 – रसातल में प्रविष्ट वराह देव को हिरण्याक्ष ने साधारण शूकर समझा तथा उन्हें सामान्य बलशाली समझ कर उनका खूब उपहास किया जिसका भगवान ने मुंह तोड़ जवाब दया। क्रुद्ध हिरण्याक्ष के प्रचंड गदाधात को वराह देव ने रोक दिया। दोनों के बीच भयंकर गदा युद्ध आरम्भ हो गया। ब्रह्मा जी ने प्रार्थना की कि आसुरी बेला होने से असुर के बल में अत्यन्त वृद्धि होगी इसलिये उससे पहले ही लोक-संहारकारिणी संध्या और अभिजित नामक मंगल मद योग में ही असुर का निधन करना चाहिये।
हिरण्याक्ष के गदा, त्रिशूल तथा अन्त में माया विस्तार और वज्रतुल्य घूंसे आदि के द्वारा अनेक विक्रम प्रकाश करने पर भी वराह देव ने गदा की चोट से दैत्य का विनाश कर दिया। श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध के 18वें और 19वें अध्याय में यह प्रसंग विस्तृत रूप से वर्णित हुआ है।