दशावतारों के बीच में चतुर्थ अवतार है श्री नृसिंहावतार। असंख्य लीला अवतारों में से 25 लीलावतार मुख्य हैं। 25 अवतारों में से श्री नृसिंह देव जी का चतुर्थ-अवतार है। ये श्री कृष्ण जी के तदेकात्म रूप का वैभव विलास हैं। श्री कृष्ण के द्वितीय चतुर्व्यूह में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध हैं तथा प्रत्येक की दो-दो विलास मूर्तियां हैं। उनमें से प्रद्युम्न के विलास श्री नृसिंह देव जी और श्री जनार्दन हैं। इसके अतिरिक्त इस प्रकार का भी वर्णन है कि द्वितीय चतुर्व्यूह के अन्तर्गत वासुदेव, सकर्षण, प्रद्युम्न व अनिरुद्ध श्री कृष्ण के प्राभव विलास हैं – इन चारों प्राभव विलासों की 20 विलास मूर्तियां हैं। अस्त्रों की भिन्नता ही उनकी पहचान का एक लक्षण है। श्री नृसिंह देव जी चक्र, पद्म, गदा तथा शंखधर हैं।
श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध से श्री नृसिंह देव के आविर्भाव के प्रसंग का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है – सनक, सनन्दन, सनातन व सनतकुमार – इन चतुःसन के अभिशाप से वैकुण्ठ के द्वारपाल जय और विजय ने कश्यप ऋषि के वीर्य से एवं दिति के गर्भ से हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के रूप में जन्म ग्रहण किया। दिति के इन दोनों पुत्रों में हिरण्यकशिपु श्रेष्ठ है, हिरण्यकशिपु अपने भाई के प्रति अनुरक्त था, भगवान श्री हरि ने देवताओं का पक्ष अवलम्बन करके (वराह रूप धारण कर) हिरण्याक्ष का वध किया था। उसी का प्रतिशोध लेने की इच्छा से हिरण्यकशिपु विष्णु को अपना शत्रु मानने लगा, उनसे विद्वेष करने लगा। हिरण्यकशिपु ने यज्ञों को नष्ट करने एवं ब्राह्मणों का नाश करने के लिये दानवों को उत्तेजित किया। त्रिलाेक में प्रतिद्वन्दी रहित होकर एकाधिपत्य करने के लिये उसने 100 वर्षों तक कठोर तपस्या करने का संकल्प किया। ब्रह्मा जी ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिये तो उसने उनसे अमर वर मांगा। ब्रह्मा जी द्वारा अमर वर देने में असमर्थता प्रकट करने पर हिरण्यकशिपु ने प्रकारान्तर से शर्त के अन्तर्गत एक तरह का अमर वर ले लिया अर्थत् उसे कोई भी प्राणी, न दिन में मार सके – न रात में, न घर के भीतर मार सके – न घर के बाहर, न आकाश में मार सके – न रात में – न घर के भीतर मार सके – न जमीन पर, किसी भी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से उसकी मृत्यु न हो तथा ब्रह्मा जी ने जितने भी प्रकार के प्राणियों की सृष्टि की है – कोई भी उसे न मार सके। इस प्रकार ब्रह्मा जी के वर से महापराक्रमशाली होकर हिरण्यकशिपु ने लोकपालों को अपने वश में कर लिया एवं त्रिलोक के एकछत्र नायक के रूप में वह महेन्द्र भवन में इच्छानुसार विहार करने लगा। उसके अत्याचारों से पीड़ित होकर देवता लोग भी हरि के शरणापन्न हुये, तब श्री हरि ने उन्हें अभय प्रदान करते हुये कहा – हिरण्यकशिपु जब अपने भक्त-पुत्र प्रह्लाद से विद्वेष करेगा तब ही उसका नाश होगा।
हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे। प्रह्लाद, अनुह्लाद, संह्लाद और आह्लाद। इनमें से प्रह्लाद जी गुणों में श्रेष्ठ थे। चूंकि वे सर्वदा भगवत चिन्तन में मग्न रहते थे इसलिये प्रशान्त प्रह्लाद के चित्त में जगत का कृष्णेतर प्रतीतिमय रूप प्रतिभात ही नहीं हुआ।
गुरु-गृह में जाकर शिक्षा प्राप्त करने की, उस समय की प्रथा के अनुसार हिरण्यकशिपु ने नीतिज्ञ प्रह्लाद को असुर कुल के गुरु शुक्राचार्य के दो पुत्र शण्ड और अमर्क के पास भेजा था। शण्ड-अमर्क राजभवन के निकट ही रहते थे, वे अन्यान्य असुर बालकों के साथ प्रह्लाद को राजनीति के विषय में शिक्षा देने लगे। प्रह्लाद जी गुरुओं के द्वारा दी गई शिक्षाओं को सुनकर उसका यथोचित उत्तर देते थे परन्तु मन-मन में उक्त शिक्षाओं को अच्छा नहीं समझते थे। यह मेरा देश है, वह दूसरों का देश है, यह हमारी गोष्ठी है – वह दूसरे की गोष्ठी है – इस प्रकार की स्व-पर भेद बुद्धि की नींव पर ही राजनीति होती है। इसके अतिरिक्त यदि स्व-पर भेद बुद्धि न हो तो राजनीति हो ही नहीं सकती। इसीलिये यह असुर-नीति है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि महाज्ञानी प्रह्लाद जी ने गुरुओं की शिक्षा को अनुपयुक्त समझते हुये भी, उनके प्रति अशिष्ट व उद्दण्डता पूर्ण व्यवहार नहीं किया, अपितु उन्हें यथोचित सम्मान दिया। माता-पिता, अध्यापक, ज्येष्ठ व श्रेष्ठ तथा उम्र में बड़े व्यक्तियों व अभिभावकों को, जिनकी जो मर्यादा है, उनको वह मर्यादा देने से मर्यादा प्रदानकारी का ही कल्याण होता है एवं सामाजिक व्यवस्था में भी सुश्रृंखलता बनी रहती है। ज्येष्ठ और श्रेष्ठ की अमर्यादा और स्वार्थपरता से प्रत्येक क्षेत्र में विश्रृंखलता ही आयेगी। प्रह्लाद जी का चरित्र अपूर्व है। उनका प्रत्येक आचरण ही अनुसरणीय है।
प्रह्लाद जी के गुरु शण्ड और अमर्क ने जब देखा कि प्रह्लाद ने उत्तम रूप से शिक्षा प्राप्त कर ली है तथा वह सभी प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर दे रहा है। तो अच्छा होगा कि उसे, उसके पिता जी के पास भेज दिया जाए। वे प्रह्लाद की शिक्षा-विषयक उन्नति देखकर प्रसन्न होंगे। हिरयण्यकशिपु ने प्रह्लाद को गुरु-गृह से वापस आया देख, गोद में उठा लिया और आदरपूर्वक कहा – वत्स प्रह्लाद! तुम जो साधु समझते हो अर्थात (जो अच्छा समझते हो) उसे मुझे बताओ। हिरण्यकशिपु का अभिप्राय है कि गुरु-गृह में प्रह्लाद ने जो शिक्षा प्राप्त की, उसमें से जो उसको याद है और जो मेरे आगे सहजता से बोल सके, इस प्रकार की कोई अच्छी बात वह बोले।
चूंकि प्रश्न राजदरबार में सब के सामने किया गया था, प्रह्लाद जी ने भी पिता जी के अभिप्राय को समझ लिया, तब भी जो बात वास्तव में सत्य है उसे ही वह बोलेंगे, यह सोचकर उसने उत्तर दिया – हे असुर सम्राट! नाशवान वस्तु को ग्रहण करने के कारण, जिन देहधारी जीवों की बुद्धि सदा उद्वेग युक्त रहती है, उन्हें अपनी आत्मा के पतन के स्थान अंधे कुएं के समान घर को परित्याग करके वन1 में जाकर हरिचरणाश्रय ग्रहण करने को ही में साधु समझता हूं अर्थात हरिभजन करना ही साधुता है।
अपने पुत्र से विष्णु की आराधना करना अच्छा है, सुनकर हिरण्यकशिपु हंसने लगा और हंसते हुए उसने सोचा – “बालकों की बुद्धि यूं ही दूसरों की बुद्धि के द्वारा विकृत हो जाती है।” उसने प्रह्लाद को सावधानी से रखने के लिए असुरों को कड़ा आदेश दिया। वे ध्यान रखें कि छद्म भेष में भी कोई वैष्णव आकर उसकी (प्रह्लाद की) बुद्धि को न बिगाड़े। शण्ड और अमर्क, असुरों से सारा वृतान्त सुनकर चिन्तित हो उठे। उन्होंने विचार किया कि वे तो उसे विष्णु भक्ति की शिक्षा देते नहीं, निश्चय ही किसी वैष्णव से सुनकर प्रह्लाद ने ऐसा बोला होगा। कुशलता से यदि उस वैष्णव का नाम मालूम करके महाराज के पास पहुंचा दिया जाये तो महाराज का इस सम्बन्ध में हम पर कोई सन्देह नहीं रहेगा। इसी अभिप्राय से शण्ड-अमर्क ने प्रह्लाद को बड़े स्नेह वाक्यों द्वारा सम्बोधित करते हुये कहा – ”हे असुरकुल के आनन्दवर्धक! हम तुझे आशीर्वाद देते हैं, तुम्हारा मंगल हो। देखो, गुरु के पास झूठ नहीं बोलते, सच-सच बताना, हमने तो तुम को विष्णु-भक्ति की शिक्षा नहीं दी, दूसरे-दूसरे असुर बालकों के साथ ही तुमको शिक्षा दी थी, उनकी बुद्धि तो खराब नहीं हुई फिर तुम्हारी बुद्धि क्यों खराब हुई?“ तुमने अपने आप ही इस प्रकार बोला या किसी और ने तेरी बुद्धि को खराब किया था। प्रह्लाद जी अपने गुरुओं के हृदय के अभिप्राय को समझ गये और जिन भगवान की माया से मोहित होने पर जीवों की स्व-पर भेद बुद्धि होती है, उन मायाधीश भगवान को प्रणाम करके कहने लगे – ”लोहा जिस प्रकार से स्वाभाविक ही चुम्बक की ओर आकर्षित होता है, उसी प्रकार मेरा चित्त भी चक्रपाणि श्री हरि के पादपद्मों में आकृष्ट हो गया है, श्री हरि ने मेरी बुद्धि को खराब किया है।“
प्रह्लाद की उक्ति षण्ड-अमर्क के मत के अनुसार न होने पर, वे भी क्रोधित हो उठे और प्रह्लाद का तिरस्कार करते हुए कहने लगे – हे कुलांगार! हे असुरकुल अयशस्कर! तूने दैत्य रूप चन्दन वंश में कंटक वृक्ष के रूप में जन्म ग्रहण किया है। विष्णु तुझको अवलम्बन करके कुूठार रूप से दैत्य रूपी चन्दन वन को ध्वंस करेगा, तेरी मति भ्रष्ट हो गई है। साम-दाम-भेद और दण्ड राजनीति के इन चार रास्तों में से अन्त में कहे रास्ते के अनुसार अर्थात दण्ड दिये बिना तुझे विवेक नहीं होगा। अरे कौन है, शीघ्र बैंत ला। इस प्रकार वे प्रह्लाद को तिरस्कार करके व भय दिखाकर धर्म-अर्थ व काम प्रतिपादक शास्त्र पढ़ाने और राजनीति के विषय में शिक्षा प्रदान करने लगे। कुछ समय के पश्चात् प्रह्लाद के गुरुओं ने देखा कि प्रह्लाद साम-दाम आदि चारों प्रकार की राजनीति में उत्तम प्रकार से पारंगत हो गया है। वह सभी प्रश्नों का अच्छे ढंग से जवाब देता है। इस बार वे स्वयं ही उसको महाराज के पास ले जायेंगे, इस प्रकार विचार करके वे उसे लेकर चल दिये। पहले वे उसे उसकी जननी के पास ले गये। जब प्रह्लाद जी की माता जी ने प्रह्लाद को स्नान आदि कराकर व अलंकारादि के द्वारा उसे उत्तम रूप से सुसज्जित कर दिया तो प्रह्लाद के गुरु उसे लेकर महाराज हिरण्यकशिपु के पास राजदरबार में पहुंचे। प्रह्लाद ने अपने पिता जी को दण्डवत किया। प्रह्लाद के दण्डवत करने पर हिरण्यकशिपु ने पुत्र-स्नेह से मोहित होकर प्रह्लाद को गोद में उठा लिया और आलिंगन करते हुये व उसके सिर पर चुम्बन देते हुये उसे आनन्दाश्रुओं से भिगो दिया। इसके बाद हिरण्यकशिपु ने प्रसन्नवदन से जिज्ञासा की, उसने पूछा – ‘वत्स प्रह्लाद! इतने समय तक गुरु2 जी के पास से जो शिक्षा तुमने प्राप्त की है उसमें से कुछ उत्तम बात बताओ। किन्तु प्रह्लाद जी ने चिन्ता की कि पिता जी के अभिप्राय के अनुसार उत्तर देने से तो दरबार में उपस्थित सभी व्यक्ति उसको ही गुरु-शिक्षा समझ बैठेंगे। ये षण्ड-अर्मक तो कुल-गुरु होने पर भी सद्गुरु नहीं हैं। कारण, गुरु के दो लक्षणों3, श्रोत्रिय व ब्रह्मनिष्ठ में से उनके श्रोत्रिय होने पर भी वे ब्रह्मनिष्ठ नहीं हैं। वे तो विषय-निष्ठ हैं। इसलिये उनकी शिक्षा गुरु-शिक्षा नहीं है। श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ लक्षण युक्त सद्गुरु नारद गोस्वामी जी के पास से जो उपदेश उनको प्राप्त हुआ था, उसमें से जो सार बात है, उसे ही वह बोलेगा, ऐसा विचार करके प्रह्लाद जी अपने उत्तर में कहने लगे –
‘विष्णु में अर्पित होकर, विष्णु की साक्षात प्रीति के लिये विष्णु का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य एवं आत्मनिवेदन रूपी नवधा भक्ति के अंगों का पालन करना ही उत्तम विद्या है।’
प्रह्लाद से फिर विष्णु भजन की बात सुनकर, इन गुरु-पुत्रों ने ही इसे यह शिक्षा दी है, यह निश्चय करके हिरण्यकशिपु ने अत्यंत कोपान्वित होकर गुरु-पुत्र को कर्कशता के साथ भर्त्सना करते हुये कहा – ‘रे ब्राह्मणाधम! दुर्मते! तुमने ये क्या किया? मेरी अवज्ञा करके मेरे शत्रुओं का पक्ष लेकर तुमने मेरे पुत्र प्रह्लाद को क्या असार विष्णु भक्ति की शिक्षा दे डाली? पापी व्यक्ति छिपकर पाप करता है किन्तु बीमारी के द्वारा जिस प्रकार उसका पाप सामने आ जाता है, उसी प्रकार छली-असाधु व्यक्ति के मित्र भेष में रहने पर भी उसके कार्यों के द्वारा उसके स्वरूप का पता लग जाता है। इसके उत्तर में गुरु-पुत्र कहने लगा – ‘हे महाराज! आप इन्द्र विजयी हैं। लोकपाल भी आपसे भयभीत रहते हैं। मैं दीन ब्राह्मण भला किस प्रकार आपके विरुद्ध आचरण कर सकता हूं। मैंने तो प्रह्लाद को विष्णु भक्ति की शिक्षा नहीं दी अपितु किसी और ने भी नहीं दी। प्रह्लाद की विष्णु भक्ति स्वाभाविक ही है। इसलिये आप अपना क्रोध संवरण कीजिये।’ सतयुग में झूठ बोलने का प्रचलन नहीं था। इसलिए हिरण्यकशिपु ने गुरु-पुत्रों की बात पर विश्वास करके प्रह्लाद जी से पूछा – ‘रे अभद्र! रे कुलनाशक! यदि गुरु तुझे ऐसी शिक्षा नहीं देते तो तेरी ये कृष्ण में मति किस प्रकार से हुई?’
प्रह्लाद जी उसके उत्तर में बोले – ‘निष्किंचन महत्-महाभागवत् अर्थात शुद्ध भक्त की कृपा के बिना गृहव्रती व्यक्ति अपनी चेष्टा से या अन्य गृहव्रतियों की सहायता से तथा अपनी और अन्य गृहव्रतियों की सम्मिलित प्रचेष्टा से श्री कृष्ण में मति नहीं लगा सकता अर्थात प्रह्लाद जी की श्री कृष्ण में मति उसकी अपनी चेष्टा से या गुरु-पुत्रों की सहायता से अथवा दोनों की सम्मिलित प्रचेष्टा से नहीं हुई। उनकी श्री कृष्ण में मति निष्किंचन महाभागवत् श्री कृष्ण-भक्त नारद जी की कृपा से हुई है।’ प्रह्लाद की इस प्रकार अवांछित उक्ति सुनकर हिरण्यकशिपु क्रोध में अंधा हो गया और उसने प्रह्लाद को सिंहासन से जमीन पर इतनी जोर से पटका ताकि वह पांच साल का बालक उसी समय मर जाये। किन्तु भगवान द्वारा रक्षा करे जाने से शिशु की मृत्यु नहीं हुई। प्रह्लाद धीर, स्थिर, प्रशान्त चित्त में बैठे रहे उन्होंने इसके विरोध में अपने पिता जी के विरुद्ध में एक अंगुली भी नहीं उठाई, न ही किसी कठोर वाक्य का ही प्रयोग किया। हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र का संहार करने के लिए असुरों को आदेश दिया। पहले तो असुरों की, महाराज के पुत्र को मारने की इच्छा ही नहीं हुई। परन्तु हिरण्यकशिपु के द्वारा बहुत सी युक्तियों का उल्लेख के साथ हत्या करने के लिये बार-बार प्रेरित करनेपर, उन्होंने शूलों द्वारा प्रह्लाद के मर्म स्थानों पर आघात करना प्रारम्भ कर दिया। अनिर्देश्य, अखिलात्मा परमेश्वर में प्रह्लाद का मन लगा रहने के कारण ही उसके ऊपर किये गये असुरों के प्रयास निष्फल हो गये। इससे हिरण्यकशिपु और भी शंकित हो गया और उसने प्रह्लाद को दिग्-हस्ती, महासर्प व अभिचार के द्वारा मरवाने का प्रयास किया। उसने उसे पहाड़ से गिरवाकर, गहरे खड्डे में दबवा कर इत्यादि-इत्यादि बहुत प्रकार से उसकी हत्या करवाने का प्रयास किया। परन्तु किसी भी उपाय से उसे मरता न देख हिरण्यकशिपु अति चिन्ताग्रस्त हो गया। वह सोचने लगा इस बालक की शक्ति का परिमाप ही नहीं किया जा सकता। यह किसी भी प्रकार से भयभीत नहीं होता। मुझे तो लगता है यह निश्चय ही अमर है और इसके साथ विरोध करने से मेरी मृत्यु भी हो सकती है और नहीं भी। इस प्रकार चिन्ता से विषादयुक्त हो हिरण्यकशिपु सिर झुका कर बैठ गया।
हिरण्यकशिपु को अधोमुख देख, उन्हें प्रबोधन देते हुए षण्ड-अर्मक ने कहा – ‘महाराज! आपने अकेले ही त्रिलोक पर विजय प्राप्त की है। लोकपाल आपसे भयभीत रहते हैं। अतः आपकी चिन्ता का तो कोई कारण नहीं दिखता, और फिर महाराज बच्चे के व्यवहार में गुण-दोष नहीं देखने चाहिये।’
उन्होंने परामर्श दिया कि जब तक शुक्राचार्य वापस नहीं आ जाते, तब तक इसे चारों ओर पानी से घिरे द्वीप में रख देना चाहिये, ताकि डर से ये कहीं भागने न पाये। उन्होंने यह भी कहा कि उम्र बढ़ने से व आचार्य की सेवा करने तथा उनके उपदेशों से इसकी बुद्धि शुद्ध हो जायेगी। हिरण्यकशिपु ने दोनों गुरु-पुत्रों के परामर्श को स्वीकार किया और वे प्रह्लाद और अन्यान्य असुर बालकों को सावधानी के साथ एक द्वीप में ले गये। जहां वे उन्हें धर्म-अर्थ-काम् के विषय में शिक्षा देने लगे। एक दिन घर के किसी काम से आचार्य अपने घर गये। आचार्यों को गया देख बालकों ने इसे खेलने का उत्तम अवसर माना और प्रह्लाद जी के हम-उम्र के बालकों ने प्रह्लाद को भी खेलने के लिये बुलाया। महाज्ञानी प्रह्लाद की असुर बालकों को कुछ कहने की इच्छा हुई तो सभी बच्चे खेल की पोशाक को छोड़कर उन्हें घेर कर बैठ गये। यद्यपि प्रह्लाद उन्हीं की उम्र के थे तथापि बालकों की उनके प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा और प्रीति थी। प्रह्लाद बालकों को मनुष्य जन्म के कर्त्तव्य के सम्बन्ध में बताते हुये कहने लगे – देखो, मनुष्य जन्म दुर्लभ और अर्थद है अर्थात इस जन्म में पूर्ण वस्तु भगवान को पाया जाता है – जिसको प्राप्त कर लेने से और किसी वस्तु को पाने की इच्छा ही नहीं रहती। किन्तु ये सुयोग अधिक समय तक नहीं रहेगा, कारण जीवन क्षणस्थायी है। इसलिये बुद्धिमान व्यक्ति बचपन से ही भगवत्-धर्म का अनुशीलन करेंगे अर्थात भगवान की श्रवण-कीर्तनादि के द्वारा आराधना करेंगे।
मैं बाद में हरिभजन करूंगा – इस प्रकार का विचार ठीक नहीं है। कारण, रुपये-पैसे, स्त्री-पुत्र व कुटुम्ब इत्यादि में आसक्त हो जाने पर भजन करना कठिन हो जायेगा। यदि अभी हरिभजन नहीं करोगे तो बाद में बहुत प्रकार की सुविधाएं और विघ्न आकर हरिभजन में बाधा देंगे। इन सब बातों को प्रह्लाद जी ने विस्तृत रूप से विश्लेषण करके असुर बालकों को समझाया। असुर बालकों को विश्वास दिलाने के लिए मातृगर्भ के समय किस प्रकार से नारद जी से कृष्ण-भजन का उपदेश उन्हें प्राप्त हुआ था, उसे भी उन्होंने शुरु से आखिर तक बताया। दैत्य बालकों ने प्रह्लाद जी के वचनों को सुना व उन्हें उत्कृष्ट मान कर ग्रहण किया जबकि अपने गुरुओं की शिक्षा को ग्रहण नहीं किया।
प्रह्लाद जी के संग के प्रभाव से दैत्य बालकों की भगवान में अचला बुद्धि हुई देख, ब्राह्मण घबरा गये और तुरन्त ही उन्होंने दैत्यराज को उक्त संवाद दिया। इस अप्रिय संवाद को सुनकर हिरण्यकशिपु ने दुःसह क्रोध में अत्यन्त विनीत भाव से हाथ जोड़े हुए प्रह्लाद को कठोर वाक्यों से भर्त्सना करते हुए कहा – रे दुर्विनीत! रे मंदबुद्धि! तू ही मेरे शासन का उल्लंघन कर रहा है। तुझे आज ही यमालय भेज दूंगा। मेरे क्रोधित होने से लोकपाल तक डरते हैं। तू किसके बल से बली होकर मुझसे नहीं डरता?
उत्तर में प्रह्लाद जी बोले – ‘बल एकमात्र परमेश्वर श्री हरि का ही है। उसी के बल से ही सब बली हैं। विपथगामी मन के अतिरिक्त हमारा और कोई शत्रु नहीं है। आप ‘शत्रु-मित्र’ के भेद रूपी आसुरिक विचारों का परित्याग कीजिये। पूर्व काल में भी आप जैसे मूढ़ व्यक्ति, शरीर में रहने वाले कामादि छः रिपुओं को जय न करके, पृथ्वी को जय कर लिया है – इस प्रकार का मिथ्याभिमान करते थे। जिन्होंने अपने चित्त को जीत लिया है ऐसे साधु कभी भी अज्ञान कल्पित शत्रु को नहीं देखते हैं।’ प्रह्लाद के वाक्यों से हिरण्यकशिपु और भी उत्तेजित हो उठा और बोला – अरे मन्दबुद्धि! तू मेरी निन्दा करता है और अपने को जित्-शत्रु कहकर शेखी बघारता है। निश्चय ही तेरी मरने की इच्छा हो आई है। रे हतभागे! मुझे छोड़कर जगत् में और कौन ईश्वर है और यदि है तो कहां है?
प्रह्लाद – वे सर्वत्र हैं।
हिरण्यशिपु – तब मैं स्तम्भ में क्यों नहीं देखता हूं?
प्रह्लाद – मैं देख रहा हूं कि भगवान स्तम्भ में भी हैं।
महाबलवान हिरण्यकशिपु ने क्रोधावेश में दुर्वाक्यों से प्रह्लाद को तिरस्कार करते-करते ‘तेरा हरि तेरी रक्षा करे’ बोलकर हाथ में तलवार लेकर, सिंहासन से उतर कर खम्भे पर बहुत जोर से घूंसा मारा। घूंसे की चोट से स्तम्भ के टूटने पर एक ऐसा भीषण शब्द हुआ, मानों ब्रह्माण्ड ही फट गया हो। ब्रह्मादि देवता भयंकर शब्द सुनकर भयभीत हो गये। हिरण्यकशिपु देखने लगा कि अपूर्व भीषण शब्द कहां से आया कि तभी अपने सेवक प्रह्लाद और ब्रह्मादि के वाक्यों को सत्य करने के लिए भगवान अति अद्भुत अमानुष व असिंह अर्थात नृसिंह रूप से प्रकट हो गए। भगवान के अलौकिक रूप से आविर्भूत होने पर हिरण्यकशिपु उनको भगवान नहीं समझ सका। उसने उन्हें एक अद्भुत प्राणी के रूप में देखा। प्रेमनेत्रों के बिना कामनेत्रों से भगवद् दर्शन नहीं होते।
नृसिंह भगवान का भयंकर रूप भागवत में इस प्रकार से वर्णित हुआ है। उनके दोनों नेत्र क्रोधायुक्त एवं तपे हुए स्वर्ण के समान उज्ज्वल, जटा और बालों से युक्त क्रोधान्वित चेहरा, भयंकर दांत, चाकू की धार के समान जिह्वा, चेहरे पर भृकुटियां तनी हुई, दोनों कान खड़े हुये, मुंह और नासिका पर्वत की गुफाओं के समान, भीषण विदीर्ण हनु देश, आकाश स्पर्शी शरीर, गर्दन, जांघें व वक्ष छोटे लेकिन स्थूल, पेट पतला, सफेद बालों से ढका शरीर तथा सैकड़ों बाहु और नाखून – हिरण्यकशिपु ने अपूर्व नृसिंह मूर्ति को अपनी मृत्यु का कारण समझने पर भी गदा से भगवान के श्रीअंग पर आघात किया। भगवान नृसिंह देव जी ने भी कुछ समय तक उसके साथ युद्ध लीला की तथा दिन में नहीं, रात्रि में नहीं, संध्या के समय, घर के भीतर नहीं, बाहर नहीं – दरवाजे पर, आकाश में नहीं, मिट्टी में नहीं, अपनी गोद में – जांघों के ऊपर, किसी अस्त्र-शस्त्र द्वारा नहीं, अपने नाखूनों के द्वारा उसके वक्ष स्थल को विदीर्ण कर दिया एवं उसके पेट की नाड़ियों को माला की तरह स्वयं पहन लिया। हिरण्यकशिपु के साथ के अन्यान्य सहस्त्रों दैत्यों का भी भगवान ने नखास्त्र के द्वारा ही वध कर दिया। इसके पश्चात भगवान नृसिंह देव प्रतिद्वंदीहीन होकर भयंकर क्रोध मूर्ति से हिरण्यकशिपु को परित्याग करके सभा के बीच राजसिंहासन पर बैठ गये। प्रभु की भयंकर मूर्ति देखकर कोई भी उनकी सेवा करने के लिए समर्थ नहीं हुआ। हां, दैत्य पीड़न से छुटकारा प्राप्त करने के आनन्द से सभी प्रफुल्लित हो उठे। ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, ऋषिगण, विद्याधरगण, नागगण, मनुगण, प्रजापतिगण, गंधर्वगण, चारणगण, यक्ष, किम्पुरुष, वैतालिक, किन्नरगण व विष्णु-पार्षद आदि सभी ने नृसिंह भगवान का कुछ दूरी से ही स्तव किया।
नृसिंह देव जी का क्रोध शांत करने के लिए ब्रह्मा जी ने लक्ष्मी जी को जाने के लिये कहा तो वे भी इस अदृष्ट-पूर्व भयंकर मूर्ति को देखकर सामने जाने का साहस न कर सकीं। तब ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद जी को नृसिंह देव जी का क्रोध शांत करने के लिये जाने को कहा। कारण, भक्त प्रह्लाद के प्रति अत्याचार होने पर ही तो भगवान की यह क्रोधयुक्त भयंकर मूर्ति प्रकट हुई। प्रह्लाद जी ने बड़े दैन्यभाव से श्री लक्ष्मी और ब्रह्मादि देवताओं को प्रणाम किया और निर्भीक होकर नृसिंह देव जी के पास गये और उनके पास जाकर वह उनके पादपद्मों में गिर गए। नृसिंह देव जी ने अत्यन्त वात्सल्ययुक्त होकर प्रह्लाद के मस्तक पर वराभयप्रद अपने कर कमल को स्थापित कर दिया जिससे प्रह्लाद के असुर कुल में जन्म जनित सभी दोष दूर हो गये। हृदय में भगवद् ज्ञान स्फूर्ति होने पर वे प्रेमपूर्वक गद्गद् वचनों से नृसिंह देव जी का स्तव करने लगे।
नृसिंह भगवान ने प्रह्लाद जी के स्तव से संतुष्ट होकर उन्हें वर देने की इच्छा की। किन्तु प्रह्लाद जी ने वरदान लेने की कोई इच्छा ही नहीं की। कारण, जो व्यक्ति भगवद्-आशीर्वाद की आकांक्षा से अर्थात विषय सुख की प्राप्ति की आशा से भगवान की सेवा करता है, वह भगवान का सेवक नहीं है, वह तो बनिया वृत्ति वाला है। जब नृसिंह जी ने कहा कि उसके वर न लेने से उनके वरदर्षभ नाम पर कलंक लगेगा, तब प्रह्लाद बोले – प्रभु! यदि वर ही देते हो तो यह वर दीजिये कि जिससे मेरे हृदय में वर मांगने की कोई स्पृहा न रहे।
नृसिंह भगवान ने कहा कि यह तो तुम्हारा वर मांगना ही नहीं हुआ, तुमने तो वंचना की है।
तब प्रह्लाद ने नृसिंह देव जी से इस प्रकार प्रार्थना की कि मेरे पिता जी ने आपके श्रीअंग पर गदा से आघात किया था। मैं आपका भजन करता हूं, जानकर उन्होंने मेरे प्रति द्रोहाचरण किया; आप कृपा करके उन्हें पवित्र कर दीजिए।
नृसिंह देव जी ने प्रह्लाद जी को कहा – तुम्हारे पिता ने मेरा दर्शन किया है, मेरा स्पर्श भी प्राप्त किया है। क्या इससे वे पवित्र नहीं हुए। अरे प्रह्लाद! जिस कुल में तुमने जन्म ग्रहण किया है – क्या वह कुल अभी भी अपवित्र है? तुम्हारे साथ-साथ तुम्हारी 21 पुरुषों (पीढ़ी) के माता-पिता भी पवित्र हो गये हैं।
त्रिसप्तभिः पिता पूतः पितृभिः सहतेऽनघ।
यत् साधोऽस्य कुले जाते भवान् वै कुलपावनः।।
हे अनघ! हे साधु! पिछले 21 पुरुषों के साथ तुम्हारे पिता पवित्र हो गये हैं। कारण, उस वंश में कुलपावन तुमने जन्म ग्रहण किया है।
श्री नृसिंह देव जी का दो प्रकार का स्वरूप है, वे अभक्त के पास भयंकर हैं किन्तु भक्त के पास अत्यन्त वात्सल्य युक्त हैं।
उग्रोऽप्यनुग्र एवायं स्वभक्तानां नृकेशरी।
केशरीब स्वपोतानामन्येषामुग्र विक्रमः।।
(श्रीमद्भागवत में 7/9/1 श्लोक की टोका में श्रीधर गोस्वामी-धृत आगमवचन)
शेरनी जिस प्रकार उग्र विक्रमी होने पर भी अपने बच्चों के प्रति उग्र नहीं होती। उसी प्रकार नृसिंह देव हिरण्यकशिपु इत्यादि असुरों के प्रति उग्र होते हुए भी प्रह्लादादि भक्तों के प्रति स्नेहपूर्ण हैं।
– ठाकुर भक्ति विनोद
इसके द्वारा नृसिंह देव जी की अद्भुत कृपा की महिमा की ही अभिव्यक्ति होती है। नृसिंह देव जी भक्ति प्रतिकूल भावों का नाश एवं भक्ति को समृद्ध करती है।
‘हिरण्यकशिपु’ शब्द का अर्थ है – हिरण्य – स्वर्ण अर्थात धन, कशिपु – शैया अर्थात कनक-कामिनी की आकांक्षा जो कि भजन में रुकावट है। प्रतिष्ठा की आकांक्षा भी इसके अन्तर्गत है। नृसिंह देव जीवों के हिरण्यकशिपु रूप भक्ति के प्रतिकूल भावों का नाश करते हैं एवं प्रह्लाद रूपी भक्ति प्रवृत्ति को समृद्ध करते हैं।
इसलिए अनर्थयुक्त साधकों के लिए भक्ति विघ्न विनाशन श्री श्रीनृसिंह देव की कृपा की अत्यावश्यकता है।
प्रह्लादहृदयाहलादं भक्ताविद्याविदारणम्।4
शददिन्दुरुचिं वन्दे पारीन्द्रवदनं हरिम्।।
वागीशा यस्य वदने लक्ष्मीर्यस्य च वक्षसि।
यस्यास्ते हृदये सम्बित तं नृसिंहमहं भजे।।
(श्रीमद्भागवत 1/1/1 और 10/87/1)
श्लोकों की टीका में श्रीधर स्वामी पाद जी द्वारा रचित
इतो नृसिंहः परतो नृसिंहो, यतो-यतो यामि ततो नृसिंहः।
बहिर्नृसिंहो हृदये नृसिंहो, नृसिंहमादिं शरणं प्रपद्ये।।
(नृसिंह पुराण वचन)
इस तरफ नृसिंह, उस तरफ नृसिंह जहां-जहां जाता हूं वहीं नृसिंह और हृदय में नृसिंह, बाहर में नृसिंह – इस प्रकार के उन आदि नृसिंह के मैं शरणागत हो गया हूं।
– ठाकुर भक्ति विनोद
नमस्ते नरसिंहाय प्रह्लादाहलाद-दायिने।
हिरण्यकशिपोर्वक्षः शिलाटंक नखलाये ।।
(नृसिंह पुराण वचन)
प्रह्लाद के आह्लाददायक नृसिंह को नमस्कार है। हिरण्यकशिपु की वक्षशिला छेदक नखधारी नृसिंह को नमस्कार है।
– ठाकुर भक्ति विनोद
तव कर कमलवरे नखमतमुद्श्रृंग,
दलितहिरण्यकशिपु तनु भृंगम्।
केशव धृत नरहरि रूप जय जगदीश हरे।
– श्री जयदेव कृत दशावतार स्तोत्र
अर्थात हे केशव! हे नृसिंह का रूप धारण करने वाले! कमल की केसर अर्थात रेणु अतिकोमल होती है किन्तु आपके परम सुन्दर कमल के केसर स्वरूप नखाग्र भाग अत्यद्भुत हैं। ये इस प्रकार कठोर हैं कि इनसे हिरण्यकशिपु का देहरूप भृंग विदीर्ण हुआ था। हे जगदीश! हे हरे! आपकी जय हो।
इस विषय में हरिवंश पुराण में इस प्रकार लिखा है – ‘सतयुग में दैत्यों के आदि पुरुष हिरण्यकशिपु ने घोर तपस्या करके ब्रह्मा जी से यह वरदान मांगा कि देव, असुर, गन्धर्व, उरग (सर्प), राक्षस व आदमी इनमें से किसी के द्वारा न मारा जाऊँ। मुनि मुझे शाप देने में समर्थ न हों, अस्त्र-शस्त्र, गिरिपादप, शुष्क व आर्द्र पदार्थ द्वारा भी मेरा विनाश न हो एवं स्वर्गादि किसी भी लोक में, दिन में या रात्रि में, किसी भी काल में मेरी मृत्यु न हो। ब्रह्मा जी ने ‘तथास्तु’ कहकर ये सब वर दे दिये। इन सब वरों की प्राप्ति से हिरण्यकशिपु अतिशय उत्तेजित हो उठा। दैत्यपति स्वर्गलोक का अधीश्वर होकर देवताओं को नाना प्रकार के कष्ट देने लगा व उनका तिरस्कार करने लगा। देवता अति अत्याचार सहन नहीं कर सकने पर विष्णु के शरणागत हुए। विष्णु जी ने देवताओं को अभय प्रदान करते हुए कहा – “मैं थोड़े समय में ही उस वर दर्पित दानवेन्द्र को उसके गणों के साथ निहत कर रहा हूूं।” भगवान विष्णु देवताओं को विदा देकर किस प्रकार से हिरण्यकशिपु का वध करेंगे – यह सोचते-सोचते हिमालय के पीछे चले गये। अन्त में उन्होंने निश्चित किया कि वे दैत्य, दानव और राक्षसों को भी भयभीत कर देने वाली नृसिंह मूर्ति ही धारण करेंगे। तभी उन्होंने अर्ध भाग मनुष्य और अर्ध भाग सिंह के समान आकृति धारण की। उनके तेज से सूर्य भी प्रभाहीन जान पड़ने लगा। धीरे-धीरे यह मूर्ति हिरण्यकशिपु के समीप आ गई। विष्णु जी ने देखा की वह दानवपति अपूर्व सभा में बैठा है और देवता, गन्धर्व और अप्सराएं विशुद्ध ताल व लय के साथ संगीत कर रही हैं।
भगवान उस सभा में उपस्थित होकर बार-बार हिरण्यकशिपु को देखने लगे। इसी समय हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद ने दिव्य चक्षु से उस समागत देवमूर्ति को एक क्षण देखकर दैत्यपति को संबोधित करते हुए कहा – महाराज! आप दैत्यों के प्रधान हैं, यह मूर्ति देखकर ऐसा लगता है जैसे यह कोई अव्यक्त दिव्य प्रभावशाली है। इसके द्वारा ही हमारे दैत्य कुल का नाश होगा। इस महात्मा के शरीर में जैसे स्थावर जड़ात्मक सब जगत स्थित है। ये कोई असाधारण पुरुष ही होंगे।
दनुजाधिपति ने प्रह्लाद की यह बात सुनकर अपने अनुचर दानवों को आदेश किया – तुम इस सिंह को जल्दी ही खत्म कर डालो। दानवों ने प्रबल विक्रम से सिंह पर आक्रमण किया किन्तु जल्दी ही वे अपने दल सहित विनष्ट हो गये। नृसिंह देव जी ने अपने शरीर का विस्तार किया। प्रलय की गर्जन के समान घोरतर सिंहनाद करते हुए उन्होंने दैत्य सभा को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। तब स्वयं हिरण्यकशिपु ने उनके ऊपर घोरतर अस्त्रों की वर्षा आरम्भ कर दी। दोनों में भयंकर युद्ध होने लगा।
दानवों ने आकर विष्णु पर आक्रमण किया, किन्तु विष्णु द्वारा वे ही मारे गये। हिरण्यकशिपु क्रोध में प्रज्वलित होकर क्रोधित नेत्रों से मानों सबको जलाने लगा। पृथ्वी कंपित हो उठी, सागर क्षुब्ध हो उठे, सकानन, मूधरगण विचलित होने लगे। सारे जगत् में अन्धकार छा जाने के कारण कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता था। घोर उत्पात और भय सूचक वायु बहने लगी। प्रलयकाल आने पर जो सब लक्षण होते हैं – वे सभी अनुभूत होने लगे, सूर्य प्रभाहीन और सांवला होकर भयंकर धुआं छोड़ने लगा।
सप्त सूर्य भी तिमिर वर्ण का आकार धारण कर उदित हुये। आकाश से लगातार उल्कापात होने लगा। हिरण्यकशिपु महाक्रोध में उद्दीप्त होकर होठों को दांतों से दबाकर, गदा लेकर तेजी से युद्ध करने के लिये दौड़ा तो सारे देवता घबरा गये। वे भयभीत होकर भगवान नृसिंह देव के पास आ गये और कहने लगे – हे प्रभो! इस दुष्ट हिरण्यकशिपु को अनुचर वर्ग के साथ विनाश कीजिए। आपको छोड़कर इसका विनाश कर सके, ऐसा और कोई आदमी इस जगत् में नहीं है। अतः हे प्रभो! लोकहित के लिये आप इसका वध करके त्रिलोक में शांति स्थापित कीजिये।’
देवताओं की बात सुनकर नृसिंह देव जी गम्भीर ध्वनि करने लगे। उन्होंने एक छलांग लगाकर भाीषण नखों के प्रहार से दैत्यपति का हृदय विदीर्ण करके उसे युद्धभूमि में गिरा दिया। भीषण शत्रु दानवेन्द्र के निहत होने से पृथ्वी, पृथ्वी के सभी लोक, चन्द्र, सूर्य, ग्रह-नक्षत्रादि व नदी, शैल आदि सबको ही प्रसन्नता हुई। देवता एक साथ मिलकर नृसिंह देव का स्तव करने लगे। अप्सराएं नृत्य-गीत करने लगीं। नृत्यादि शेष होने पर गरुड़ ध्वज नारायण जी ने अपने नृसिंह रूप का परित्याग करके अपना रूप धारण कर लिया एवं अष्टचक्र और अति प्रदीप्त भूतवाहन रथ पर बैठकर क्षीर सागर के उत्तर की ओर, अपने स्थान को चले गये। इस प्रकार नृसिंह देव जी ने हिरण्यकशिपु का विनाश किया।
श्री नृसिंह चतुर्दशी व्रत-पालन माहात्म्य –
वैशाखस्य चतुर्द्दश्यां शुक्लायां श्री नृकेशारी।
जतस्तदस्यां तत्युजोत्सवं कुर्वीत सद्रतम ।।
(पद्म पुराण)
वैशाख की शुक्ला चतुर्दशी तिथि को श्री नृसिंह देव जी आविर्भूत हुए थे, इसलिए उक्त तिथि को श्री नृसिंह देव जी की पूजा रूपी उत्सव, उपवासादि नियम के साथ पालन करना उचित है।
प्रह्लाद-क्लेश नाशाय वा हि पुण्या चतुर्द्दशी
पूजयेत्तत्र क्लेत हरेः प्रह्लादमग्र्तः।।
(आगम में)
प्रह्लाद जी के क्लेश को नाश करने के लिये जिस पवित्र तिथि का उद्भव है, उस तिथि को नृसिंह पूजा के पहले यत्न के साथ प्रह्लाद जी की पूजा करना उचित है।
वृहन्नारसिंह पुराण में इस प्रकार लिखा है –
प्रह्लाद महाराज जी ने श्री नृसिंह भगवान से जिज्ञासा की कि उसकी किस प्रकार से उनके पादपद्मों में भक्ति हुई? इसके उत्तर में नृसिंह देव जी बोले – प्राचीन काल में अवन्ति नगर में एक वेदविद् ब्राह्मण वास करते थे। उसकी सदाचार सम्पन्ना स्त्री सुशीला और आदर्श पति भक्ति के लिये त्रिभुवन में विख्यात थी। वसू शर्मा के औरस और सुशीला के गर्भ से पांच पुत्रों ने जन्म ग्रहण किया। उनमें से प्रथम चार पुत्र विद्वान, सदाचार परायण और पितृ भक्त थे। किन्तु सबसे छोटे पुत्र, तुम एक वेश्या के द्वारा आकृष्ट होकर चरित्र भ्रष्ट हो गये। तब तुम वसुदेव के नाम से जाने जाते थे। वेश्या के संग से तुम्हारा सदाचार आदि सब नष्ट हो गया। नृसिंह चतुर्दशी की तिथि को वेश्या के साथ झगड़ा होने के कारण तुम दोनों ने ही अयाचित रूप से उपवास और रात्रि में जागरण किया था। उससे दोनों को नृसिंह चतुर्दशी व्रत के पालन का फल प्राप्त हुआ। वेश्या देवलोक में अप्सरा रूप से बहुत प्रकार के भोग भोगकर बाद में मेरी प्रियपात्री हुई। तुमने भी हिरण्यकशिपु का पुत्र होकर मेरे प्रिय भक्त के रूप में जन्म ग्रहण किया है। मेरे इस व्रत पालन के द्वारा ब्रह्मा जी को सृष्टि शक्ति, महेश्वर जी को त्रिपुर विनाशादि रूप संहार शक्ति प्राप्त हुई है तथा सभी लोग मेरे इस रूप से सब प्रकार की शक्ति और सारे प्रकार के अभीष्ट प्राप्त करते रहते हैं।
श्रील रूप गोस्वामी जीने स्वरचित ‘श्री लघु भागवतामृत’ ग्रंथ में श्री नृसिंह देव जी के अवतार वैशिष्ट्य में पद्म पुराण का प्रमाण उल्लेख करके प्रकाशित किया है।
नृसिंह-राम-कृष्णेषु षाड़ गुण्यं परिपूरितम्।
परावस्थास्तु ते तस्य दीपादुत्पन्नदीपवत्।।
(पद्म पुराण)
(शास्त्र में सम्पूर्णावस्थ को ‘परावस्थ’ कह कर निर्धारण किया है।)
नृसिंह, राम और कृष्ण में परिपूर्ण भाव से साठ गुण विद्यमान हैं। जिस प्रकार एक प्रदीप से अन्य प्रदीपों की उत्पत्ति होने पर भी सभी दीपक समान धर्मावलम्बी होते हैं, उसी प्रकार स्वयं भगवान श्री कृष्ण से राम और नृसिंह की अभिव्यक्ति होने पर भी तीनों ही साठ गुणों से परावस्थापन्न हैं।
वनं तु सात्त्विको वासो ग्रामो राजस उच्यते ।
तामसं द्यूतसदनं मन्निकेतं तु निर्गुणम् ॥
(श्रीमद्भागवतम् ११/२५/२५)
2 – यहाँ पर हिरण्यकशिपु का अभिप्रायः है कि इतने दिन षण्ड-अमर्क के पास इसने उनसे जो शिक्षा प्राप्त की है उसमें से कोई उत्तम बात यह बोले।
तद्विज्ञानार्थं स गुरु मेवाभिगच्छेत्
समित्पाणि: श्रीत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।
(मुण्डक 1-2-12)
तस्माद् गुरुं प्रपयेत जिज्ञासु: श्रेय उत्तमम् ।
शाब्दे परे च निषण्तां ब्रह्मण्युपशमाश्रयम् ॥
(श्रीमद्भागवत । 7-3-2 7)
4 – जो प्रह्लाद के हृदय में आनन्दघन रूप से विराजमान हैं एवं भक्तों की अविद्या विदारक हैं, जिनकी अंगकांति शरद चन्द्र के समान है उसी सिंह के मुख वाले श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ।
जिनकी जिह्वा के अग्र भाग में सरस्वती जी नृत्य करती हैं, जिनके वक्षस्थल में स्वर्णरेखा रूप से लक्ष्मी अवस्थित हैं एवं जिनके हृदय में अत्युर्जित् सर्वज्ञताशक्ति देदीत्यमान है, उन्हीं नृसिंह देव जी को मैं प्रणाम करता हूँ।