श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी ने श्री चैतन्य चरितामृत के 20वें परिच्छेद के 245वें पयार के अनुभष्य में जिन 25 मुख्य लीलावतारों का नामोल्लेख किया है उनमें से श्री बुद्ध 24वें अवतार हैं। पशु बलि वाले यज्ञों की निन्दा के लिए भगवान विष्णु जी बुद्ध के रूप से अवतीर्ण हुये हैं – इस प्रकार जगदीश्वर का स्तव किया है श्रील जयदेव गोस्वामी जी ने स्वरचित दशावतार स्तोत्र में –
निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं,
सदयहृदय दर्शित पशुघातम्।
केशवधृत बुद्धशरीर जय जगदीश हरे।।
(श्री जयदेव कृत)
दशावतार वर्णन के श्लोक में भी बुद्ध जी का नाम उल्लेखित हुआ है।
मत्स्य-कूर्मो-वराहश्च-नृसिंह-वामन स्तथा।
रामो रामश्च-रामश्च बुद्ध-कल्कि च ते दशः।।
(श्रीमद्भागवत)
साहित्य दर्शन के दशावतार श्लोक में बुद्ध और कल्कि के नाम एवं अग्नि पुराण, वायु पुराण, स्कन्द पुराणादि में भी बुद्ध के नाम को उल्लिखित देखा जाता है।
ततः कलौ संप्रवृते समोहाय सुरद्धिषाम्।
बुद्धोनाम्नान्चनसुतः कीकटेषु भविष्यति।।
(पठान्तर में अजिन सुतः)
(श्रीमद्भागवत 1/3/24)
उसके पश्चात 21वें अवतार में कलियुग के आ जाने के कारण देव विद्वेषी तामसिक लोगों को सम्मोहन करने के लिये ‘बुद्ध’ के नाम से अन्जन (अजिन) के पुत्र के रूप से गया प्रदेश में अवतीर्ण होंगे।
विष्णु पुराण में भी तृतीय ! अंश के 17-18वें अध्याय में बुद्ध ‘मायामोह’ के नाम से कथित हुये हैं। अक्रूर जी ने जिस समय कालिन्दी के जल में गोता लगाया व जल में कृष्ण-बलराम को देखा तो आश्चर्यान्वित होकर, ऊपर उठ कर उन्हें पूर्ववत् रथ पर आरूढ़ देखा तथा फिर गोता लगाने पर देखा कि सहस्त्र फनधारी श्री अनन्त जी की गोद में पीताम्बर चतुर्भुज वासुदेव जी के रूप में श्री कृष्ण अपने पार्षदों के साथ हैं और ब्रह्मादि देवताओं द्वारा पूजित हो रहे हैं। उस समय उन्होंने श्री कृष्ण का इस प्रकार से स्तव किया था –
नमो बद्धाय शुद्धाय दैत्य-दानव-मोहिने।
म्लेच्छप्राय क्षेत्रहस्ते नमस्ते कल्कि रूपिने।।
हे भगवन्! वेद विरुद्ध शास्त्रों की रचना में दैत्य-दानवों के मोहन शील निर्दोष स्वभाव वाले बुद्ध रूपी एवं मलेच्छ तुल्य क्षत्रियों के विनाशक कल्कि रूपी, आपको मैं नमस्कार करता हूं।
वेदों में जीवों के अधिकार के अनुसार उपदेश दिये गये हैं, परन्तु जब मनुष्य कालक्रम से तामसिक आदेश को ही (जैसे शास्त्रों में पशु बलि की व्यवस्था क्रम-मार्ग से हिंसा से ऊपर उठने के लिये है) वेदों का एकमात्र उपदेश समझ कर व्यापक भाव से पशु वध के कार्य में प्रवृत्त हो गया, यहां तक कि देवी-देवताओं की पूजा में भी नर बलि तक होने लगी। उसी समय भगवान, बुद्ध जी के रूप में अवतीर्ण हुये व प्रकट होकर उन्होंने वेदों की शिक्षा के तात्पर्य को समझने में असमर्थ मानवों के कल्याण के लिये वेदों के उपदेशों को रद्द किया अर्थात् स्वयं अपने वाक्यों को रद्द किया और ईश्वर विश्वास की निरर्थकता का प्रतिपादन करके, मनुष्यों को चार आर्य – सत्यों के विषय में उपदेश देकर हिंसा से निवृत्त किया। बुद्धदेव जी भगवान हैं इसलिए उनके प्रभाव से अधिकांश मनुष्यों ने ‘अहिंसा धर्म’ के प्रतिपालन के लिये संकल्प लिया। अहिंसा से जीवों के हृदय पवित्र होने पर धीरे-धीरे उनके अधिकार उन्नत होने से महादेव जी ने शंकराचार्य जी के रूप में अवतीर्ण होकर, वेद की सर्वोत्तम प्रामाणिकता व उनकी मर्यादा की संस्थापना की एवं ब्रह्म कारणवाद को पुनः स्थापन किया। परवर्ती काल में उसी को नींव बना कर वैष्णव आचार्यों ने उसके ऊपर भक्ति रूपी अट्टालिका का निर्माण किया। व्यक्तिगत भाव से व समष्टिगत भाव से उन्नति की सीढ़ी के एक के बाद एक सोपान इसी प्रकार हैं।
स्वयं भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु जी ने अचिन्त्य भेदाभेद दर्शन के द्वारा पूर्व प्रचारित दार्शनिकों के विचारों की असम्पूर्णता को दूर किया।
वैष्णवों के उपास्य अवतार बुद्ध एवं शाक्य सिंह बुद्ध व शुद्धोदन व माया पुत्र बुद्ध एक नहीं है। हमारे परमाराध्यतम् नित्य लीला प्रविष्ट ऊँ 108 श्री श्रीमद्भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी ने स्पष्ट रूप से कहा है – शाक्य सिंह बुद्ध मात्र एक अतिज्ञानी जीव हैं। इसलिये हम शाक्य सिंह बुद्ध को अर्थात भगवान बुद्ध नहीं कहेंगे।
आचार्य श्री शंकर ने अपने निम्रोक्त शारीरिक भाष्य में माया पुत्र बुद्ध को सुगत बुद्ध कहकर भ्रमित किया है। ”सर्वथा अपि अनादरणीय अयं सुगत समयः श्रेयस्कामै में इति अभिप्रायः“।
अमर कोष ग्रंथ में लिखा है:-
सर्वज्ञः सुगतो बुद्धौ धर्मराजस्तथागतः।
समस्तभद्रो भगवान मारजिल्लोकजिजिनः।।
षड़भिज्ञो दशवलोऽद्वयवादी विनायकः।
मुनीन्द्र श्रीधनः शास्त्रा मुनिः शक्यमुनिस्थ यः।
स शाक्य सिंहः सर्वार्थ सिद्धः शौद्धोद निश्च सः।
गौतमश्चार्क बन्धुश्च मायादेवीसुतश्च सः।।
श्रील रघुनाथ चक्रवर्ती जी ने अपनी टीका में लिखा है – सर्वज्ञ से मुनि तक 18वें बुद्ध (विष्णु) बुद्ध वाचक हैं एवं शाक्य सिंह से माया देवी सुत तक 7 शब्दों में शाक्यवंश में अवतीर्ण शाक्य सिंह मुनि या बुद्ध मुनिवाचक हैं।
इसलिये सुगत बुद्ध और शून्यवादी मुनि बुद्ध एक नहीं हैं। प्रस्तुत प्रमाण Mr. Colebrooke की सन 1807 में श्री राम पुर से प्रकाशित अमर कोष में दृष्टव्य है। ललित विस्तार ग्रंथ में (21 अ0 178 पृष्ठ पर) लिखित है कि पूर्व बुद्ध के स्थान पर गौतम बुद्ध ने तपस्या की थी। हो सकता है इसलिये भी उसको परवर्ती समय में भगवान बुद्ध के साथ एक कह कर माना जाता है। श्लोक इस प्रकार से है –
एष धरणीमुण्डे पूर्वबुद्धसनस्थः समर्थ धनुर्गृहीत्वा शून्य नैरात्मबाणैः।
क्लेशरिपुं निहत्वा दृष्टिजालन्च भित्वा-शिव
विरजमशोकां प्राप्स्यते वोधिमग्रयाम्।।
इस स्थान का नाम बुद्धगया है। श्री भागवत में इसे कीकट प्रदेश कहा है।
श्रीमद्भागवत में लिखित है – “ततः कलौ सम्प्रवृते सम्मोहाय सुरद्विषाम्।”
अर्थात उसके पश्चात 21वें अवतार में कलियुग के समागम होने से देव विद्वेषी तामसिक लोगों को सम्मोहन करने के लिये ‘बुद्ध’ नाम से अन्जन (अजिन) के पुत्र रूप से अवतीर्ण होंगे।
श्री विश्वनाथ टीका –
अन्जा सुतोऽजिन सुतष्चेति पाठद्वयम, कीकटेषु मध्ये गया प्रदेशे।
अर्थात अन्जन सुत और अजिनसून, यह दोनों पाठ ही देखे जाते हैं। कीकटेषु को ही गया प्रदेश कहा गया है।
श्रील श्रीधर गोस्वामी पाद जी ने भी अपनी टीका में लिखा है –
बुद्धावतारमाह तत इति। अन्जनस्य सुतः।।
अजिन सुत इति पाठे अजिनोऽपि स एव।
कीकटेषु मध्ये गया प्रदेशे।।
अर्थात बुद्धावतार की कथा कही जाती है – अन्जन सुत बुद्ध, अजिन सुत पाठान्तर अजिन या अन्जन ही है। श्री नृसिंह पुराण के 36वें अध्याय के 29वें श्लोक में लिखा है –
कलौ प्राप्ते यथा बुद्धो भवेन्नारायण प्रभुः।
इससे समझा जाता है कि भगवान बुद्ध का आविर्भाव पांच हजार वर्ष पूर्व हुआ था।
निर्णय सिन्धु के द्वितीय परिच्छेद में पाया जाता है –
ज्येष्ठ शुक्ल द्वितीयायां बुद्ध जन्म भविष्यति।।
अर्थात् ज्येष्ठ मास की शुक्ला द्वितीया तिथि को बुद्धदेव जी का जन्म होगा।
इस ग्रंथ के एक और स्थान पर बुद्ध जी की पूजा के संबंध में इस प्रकार लिखा है –
पौष शुक्लस्य सप्तम्यां कुर्म्वात बुद्धस्य पूजनम्।
इसलिए इस प्रकार पूजा आदि की विधि भगवदावतार श्री बुद्ध को ही लक्षित करके कही गयी है। दोनों बुद्धों को एक साथ गिनने से ही वैशाखी पूर्णिमा को निश्चित रूप से ‘बुद्ध’ पूर्णिमा कहा जाता रहेगा।
श्रीमद्भागवत के उपरोक्त 1/3/24 वें श्लोक की श्री मध्वाचार्यकृत भागवत-तात्पर्य टीका में ब्रह्माण्ड पुराण के वचन को उद्धृत करके लिखा गया है –
मोहनार्थं दानवानां बलरूपी पथिस्थितः।
पुत्रं तं कल्पयामास मूढ़बुद्धिजिनः स्वयम्।।
ततः संमोहयामास जिनाद्यान सुरांशकान्।
भगवान् रागभिरुग्राभिरहिंसा वाचिभिर्हरिः।।
(इति ब्रह्माण्ड पुराण)
अर्थात दानवों को मोहित करने के लिये वे (भगवान बुद्ध) बालक रूप से रास्ते में थे, मूढ़ बुद्धि जिन ने स्वयं ही पुत्र रूप से उनकी कल्पना की। इसके बाद भगवान श्रीहरि (भगवदावतार बुद्ध) ने उग्र अहिंसा वाणी द्वारा जिन आदि असुरांशों को अच्छी प्रकार से मोहित किया था।
‘लंकावतार सूत्र’ नाम का एक प्रमाणित बौद्ध ग्रन्थ देखा जाता है जिसमें लंकापति रावण, जिन पुत्र भगवान पूर्व बुद्ध तथा भविष्य में जो-जो भी बुद्ध अथवा बुद्ध सुत होंगे, उनका स्तव कर रहा है।
अथ रावणो लंकाधिपतिः गाथागीतेन अनुगायति स्म।
लंकावतारसूत्रं वैः पूर्वबुद्धानुवर्णितं।
स्मरामि पूर्वकैः बुद्धैजिन पुत्र-पुरस्कृतेः।।9।।
पुत्रमेतन्निगद्यते भगवानपि भावतां।
भविष्यन्निगद्यते काले बुद्धा बुद्धसुताश्च ये।।10।।
उक्त ‘लंकावतार सूत्र’ ग्रंथ जनवरी 1900 खृष्टाब्द में भारतीय बुद्धिष्ट टैक्स्ट सोसायटी की ओर से तथा बंगीय सरकार की सहायता से प्रकाशित हुआ था।
इसलिये इसके द्वारा स्पष्ट ही प्रतीत होता है कि प्राचीन बुद्ध अवतार और वर्तमान गौतम बुद्ध एक नहीं हैं।
लिंग पुराण, भविष्य पुराण, वराह पुराण, अग्नि पुराण, वायु पुराण, स्कन्ध पुराण, विष्णु पुराण इत्यादि बहुत से पुराणों में बुद्ध-अवतार का उल्लेख है। विष्णु पुराण के तृतीय अंश के 17वें व 18वें अध्याय में बुद्ध मायामोह नाम से कहे गये हैं। कविवर जयदेव जी के दशावतार स्तोत्र की बात पहले ही उल्लेखित हो चुकी है। स्मरण रहे, पुराणें में जिस बुद्धावतार की कथायें उल्लेख हुई हैं वे बुद्ध शुद्धोधन पुत्र शून्यवादी बुद्ध नहीं हैं।
वेद-वेदान्त-पुराण व इतिहास आदि तमाम शास्त्रों के सार श्रीमद्भागवत (10-40-22) में अक्रूर स्तव में “नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्य दानव मोहिने” ऐसा कहकर भगवान बुद्धदेव जी का स्तव वर्णित है। उसका अर्थ ये है – “हे भगवन, वेद विरुद्ध शास्त्रों के प्रणयन में दैत्यों व दानवों को मोहित करने वाले बुद्ध रूपी, मैं आपको प्रणाम करता हूं।” इसकी टीका में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी ने लिखा है – ”शुद्धाय वेद विरुद्ध शास्त्र प्रर्वर्त्तकत्वेऽपि निर्दोषाय।“ अर्थात् शुद्धाय शब्द का तात्पर्य है कि वेद विरुद्ध शास्त्रों के प्रवर्तक तत्त्व होते हुये भी आप निर्दोष स्वरूप हो।
इसलिये वेद विरुद्धशास्त्रों के प्रवर्तन के द्वारा जिन्होंने (अवतार बुद्ध जी ने) दैत्य व दानवों को मोहित करने का कार्य किया था। भगवान को छोड़, जो अन्यान्य बुद्ध हुये, उन्होंने भी उन्हीं का अनुसरण किया। यही कारण है कि बुद्ध जीवनी के लेखकों ने कई जगहों पर आतर बुद्ध व मनुष्य बुद्ध को एक साथ गिन लिया।
श्रीमद्भागवत महापुराण के 6वें स्कन्ध के 8वें अध्याय के 19वें श्लोक में मुनिवर त्वष्टा-तनय विश्वरूप प्रदत्त नारायण कवच के “बुद्धस्तु पाषण्डगण प्रमादात्” इस मन्त्र का पाठ करके देवराज इन्द्र भगवान बुद्ध के समीप अपनी प्रार्थना कह रहे हैं –
भगवान बुद्धदेव पाषण्डजनोचित अनावधानता दोष से मेरी रक्षा करें।
अर्थात भगवान बुद्ध ने अपनी असुर मोहन लीला में वेद विरुद्ध शास्त्र प्रवर्त्तन के द्वारा असुर प्रकृति लोगों को मोहित किया। वेदों के निगूढ़ अर्थों को न जान पाने के कारण होने वाले वेद अवमानना रूप महादोष से भगवान बुद्ध मेरी रक्षा करें – इस प्रकार की प्रार्थना करते हैं। वस्तुतः भगवान बुद्ध किसी भी हालत में वेद निंदक नहीं हैं। असुरों को मोहन करने के लिए ही उनकी ये लीला है।
स्कन्द पुराण के महेश्वर खण्ड के 40वें अध्याय में लिखा है कि कलियुग के 3600 वर्ष बीतने पर मगध देश में हेमसदन के ओरस से व अन्जनी के गर्भ में विष्णु अंश धर्मरक्षक साक्षात स्वयं भगवान बुद्ध रूप से अवतीर्ण होंगे और वे बहुत से यशस्कर कार्यों को करके 64 वर्षों तक सात द्वीपों वाली इस वसुन्धरा पर शासन करते हुए, अपने भक्तों के पास अपना यश संरक्षण करके स्वधाम को गमन करेंगे।
इस प्रकार बहुत प्रमाणिक शास्त्र वाक्यों के प्रमाणों से हम देख सकते हैं कि भगवान बुद्धदेव और शाक्य सिंह या गौतम बुद्ध एक नहीं हैं। हां, असुर विमोहन लीला के लिये भगवान ने जिन वेद विरुद्ध शास्त्रों का प्रवर्त्तन किया है, अन्यान्य भगवान बुद्धों ने भी उसका ही अनुवर्त्तन करके वेद विरुद्ध शून्यवाद का प्रचार किया।
इसलिए अनेक स्थानों में उनकी एक साथ गणना होने के कारण कई संशयों की अवतारणा हुई है। श्रील कृष्णदासकविराज गोस्वामी जी ने इसलिये लिखा है –
वेद न गानिया बौद्ध हय त’ नास्तिक।
Max muller के मत से शाक्य सिंह बुद्ध ने खृष्ट से 477 वर्ष पूर्व में कपिलवस्तु नगर के लुम्बनी वन में जन्म ग्रहण किया था। प्राचीन कपिलवस्तु नगर नेपाल के निकट स्थित एक प्रसिद्ध जनपद है। गौतम के पिता का नाम शुद्धोदन था व माता का नाम था मायादेवी। अन्जन नन्दन व माया नन्दन का नाम एक होने पर भी, एक का आविर्भाव स्थान गया में है जबकि दूसरे का आविर्भाव स्थान कपिलवस्तु नगर है।
इसलिये गौतम बुद्ध का आविर्भाव स्थान और माता-पिता एवं गौतम बुद्ध का आविर्भाव स्थान व माता-पिता पूरी तरह से अलग-अलग हैं। हां, विष्णु बुद्ध की असुर विमोहन रूपी लीला में वंचना प्राप्त होकर मनुष्य बुद्ध वेद बहिर्भूत शून्यवाद के प्रचारक हुये –
गौतम बुद्धदेव के सम्बन्ध में संक्षिप्त सारकथा
पश्चिम की तरफ साकेत नगर में सुजात नामक इक्ष्वाकु वंश के एक राजा थे। सुजात के पांच पुत्र और पांच कन्याएं थीं। वे पांचों पुत्रों के प्रति विशेष भाव से ममतायुक्त थे।
घटना चक्र से सुजात की भेंट जैन्ती नामक एक विलासिनी से हुई। जिसके संग से उसके जेंत या जयन्त नामक पुत्र हुआ। जयन्ती के प्रेम से आकृष्ट होने के कारण सुजात जयन्ती को वर देने के लिये उत्सुक हुए, तब जयन्ती ने उसके पहले पैदा हुए पांचों पुत्रों को वन में भेजकर, अपने पुत्र जयन्त को युवराज पद पर अभिषिक्त करने के लिए प्रार्थना की। यद्यपि जयन्ती की बात सुनकर सुजात बहुत मर्माहत हुए तथापि वचन को निभाने के लिये वे उसे वर देने को बाध्य हुए। सुजात के पुत्रों के वन जाने की बात सुनकर प्रजा बड़ी दुःखी हुई। वह सुजात पुत्रों के साथ वन को चल दी। सबसे पहले वे काशीकौशल राज्य में पहुंचे। वहां से चलते-चलते वे हिमालय के प्रान्त में बने कपिल ऋषि के आश्रम में पहुंचे। आश्रम में सुजात पुत्रों की कपिल जी की कन्याओं से प्रीति हो जाने के कारण, वे वहीं वर विवाह बन्धन में बंध गये। पुत्रों के विवाह की बात सुनकर सुजात भी वहां उपस्थित हुए। घटना की बात सुनकर उन्होंने सारे विवाह कार्य को उचित ठहराया व वहीं से सुजात के पुत्र शाक्य नाम से परिचित हुए।
शाक्य कुमारों ने ऋषि कपिल की अनुमति लेकर ‘कपिलवस्तु’ नामक एक महानगर का निर्माण किया। ज्येष्ठ पुत्र ‘अपुर’ उस नगर के राजा हुये। अपुर राजा के वंश में ‘अमिता’ नाम की एक परमा सुन्दरी कन्या का जन्म हुआ। जब वह कुछ बड़ी हुई तो वह कुष्ठ रोगग्रस्त हो गयी। अमिता को कुष्ठ रोग हो जाने पर उसके भाई उसे एक हिमालय पहाड़ की ओर ले चले। वहां जाकर उन्होंने उसे एक बड़ी गुफा में बैठा दिया और उसे काफी सारी खाद्य सामग्री देकर चले आये। आते समय उन्होंने एक बड़े पत्थर से गुफा का रास्ता भी बंद कर दिया। दैववश वहां की ऊष्णता से अमिता का कुष्ठ रोग ठीक हो गया और वह फिर से परमा सुन्दरी बन गई तथा एक दिन अचानक एक व्याघ्र ने गुफा के मुख पर लगे पत्थर को हटा दिया।
‘कोल’ नाम के एक राजा, एक बार उधर आये तो उनकी नजर परमा सुन्दरी अमिता पर पड़ी। उसने अमिता के साथ विवाह कर लिया। अमिता के गर्भ से 32 संतानों का जन्म हुआ। बड़े होने पर अपनी माता से पूर्व पुरुषों के बारे में मालूम पड़ने से वे कपिलवस्तु आये। कपिलवस्तु में उनके साथ शाक्य कन्याओंका विवाह हुआ।
कोल नामक ऋषि से जन्म ग्रहण करने के कारण ये ‘कोलिय वंश’ से परिचित होने लगे। शाक्यों का ‘देवदेह’ नाम का एक जनपद था। देवदेह के तत्कालीन राजा शुद्धोधन ने सुभृति की माया और महाप्रजावती गौतमी नाम वाली दो कन्याओं से विवाह किया। वैशाख मास की पूर्णिमा तिथि को कपिलवस्तु के निकट ‘लुम्बिनी’ नामक एक रमणीय उद्यान में माया देवी को अवलम्बन करके एक पुत्र का जन्म हुआ।
पुत्र होने के बाद मानो शुद्धोधन की तो स्वार्थ-सिद्धि ही हो गयी, इसलिए उसने पुत्र का नाम स्वार्थ-सिद्धि या सिद्धार्थ रखा। सिद्धार्थ के पैदा होने के सात दिन बाद ही उनकी माता मायादेवी का प्रयाण हो गया। उस समय सिद्धार्थ को कपिलवस्तु नगर में लाया गया। सिद्धार्थ के लालन-पालन का भार उसकी सौतेली माता महाप्रजावती पर आ गया हिमालय पर्वत के पास असित नाम के एक महर्षि रहते थे। कपिलवस्तु आकर जब उन्होंने सिद्धार्थ के महापुरुषों में होने वाले द्वादश चिन्हों को देखा तो उन्होंने कहा कि यदि ये संसार में रहेंगे तो चक्रवर्ती राजा बनेंगे और यदि ये गृह त्याग कर चले जायेंगे तो दिव्यज्ञानी होंगे। इसलिए बुद्धदेव पहले सिद्धार्थ, गौतम तथा शाक्य सिंह नाम से प्रसिद्ध हुए तथा बाद में बुद्धदेव जी का एक और नाम पड़ा ‘बोधिसत्त्व’।
तत्कालीन भारतीय प्रथा के अनुसार जब सिद्धार्थ की उचित उम्र हो गयी तो उसे गुरु-गृह में भेजा गया। आपने विश्वामित्र उपाध्याय जी से ब्राह्मी, खरोस्ट्री, पुष्करसारी व अंगलिपि आदि विभिन्न देशों की लिपियां सीखीं। धीरे-धीरे उन्होंने वेद व उपनिषद् में भी पारंगति लाभ की। गुरु-गृह से वापस आने पर आपके पिता शुद्धोधन जी ने दण्डपाणि शाक्य की कन्या गोपा के साथ आपका विवाह1 कर दिया।
सिद्धार्थ के पिता ने यद्यपि सिद्धार्थ को संसार में फंसाने का प्रयास किया लेकिन सिद्धार्थ का मन संसार में न लगा। ये संसार अनित्य है, इस प्रकार का विवेक बचपन से ही होने के कारण उनका संसार के प्रति स्वाभाविक वैराग्य था।
सिद्धार्थ को संसार से होने वाले वैराग्य के कारण इस प्रकार से वर्णित हुये हैं –
एक दिन सिद्धार्थ रथ पर चढ़ कर उद्यान भूमि दर्शन पर थे तो उन्होंने देखा कि एक जराजीर्ण वृद्ध व्यक्ति है, जिसका उसके आत्मीय स्वजनों ने परित्याग कर दिया है, जिससे वह अत्यन्त दुर्बल और असहाय अवस्था में था – वृद्ध को देखकर सिद्धार्थ ने विचार किया कि जगत के सब लोग अज्ञानी हैं। ये यौवन के मद में मस्त होकर अपने बुढ़ापे को नहीं देख पा रहे हैं। एक न एक दिन सभी पर ये बुढ़ापा आक्रमण करेगा।
अन्य एक दिन सिद्धार्थ ने नगर के दक्षिण द्वार पर मल-मूत्र से सने एक व्याधिग्रस्त व्यक्ति को देखा। उसे देखकर सिद्धार्थ ने विचार किया कि व्याधियां अत्यन्त भयंकर होती हैं। ये सब देखकर भी विज्ञ लोग आमोद-प्रमोद में मस्त रहते हैं, ये बड़े आश्चर्य की बात है।
एक दिन और सिद्धार्थ ने नगर के पश्चिमी द्वार पर एक मृत व्यक्ति को देखा जिसे कुछ लोगों ने घेरा हुआ था। कुछ लोग छाती पीट रहे थे व विलाप कर रहे थे। दृश्य देखकर सिद्धार्थ ने विचार किया कि इस जीवन का कोई मूल्य नहीं है क्योंकि ये किसी भी समय समाप्त हो सकता है।
अन्य एक दिन सिद्धार्थ ने नगर के उत्तरी द्वार पर एक शांत व संयत ब्रह्मचारी भिक्षुक को देखा। भिक्षा पात्र लेकर वह शांत भाव से विचरण कर रहा था। ब्रह्मचारी भिक्षुक काम-सुख त्यागकर भ्रमण कर रहा था। वह शांति की खोज में था तथा सामान्य आहार संग्रह करके जीविका निर्वाह कर रहा था। उसे आसक्तिहीन, विद्वेषहीन तथा प्रशांत देखकर सिद्धार्थ ने विचार किया – इस प्रकार का जीवन ही जीवों का वास्तविक हित कर सकता है।
सिद्धार्थ के वैराग्य को देखकर शुद्धोधन ने उसे गृहस्थ में रखने की प्राणपन से चेष्टा की, किंतु उसकी तमाम चेष्टायें व्यर्थ चली गयीं। सिद्धार्थ के सारथी छन्दोग ने भी सिद्धार्थ को समझाया कि देखो कपिलवस्तु के समान सुसमृद्ध व रमणीय स्थानों वाला राज्य तथा इतनी विपुल सम्पदा, बहुत तपस्या के फल से भी प्राप्त नहीं हो सकती और फिर इस प्रकार की परमा सुन्दरी पत्नी को परित्याग करना ठीक नहीं है। यद्यपि छन्दोग ने सिद्धार्थ को संसार त्याग करने के संकल्प की चेष्टा से निवृत्त करने के लिये बहुत समझाया लेकिन वह भी इस कार्य में असमर्थ रहा और पुष्या नक्षत्र तिथि की मध्य रात्रि को सिद्धार्थ ने गृह त्याग कर दिया।
गृह त्याग के समय उन्होंने अपने सारथी छन्दोग को अपने शरीर के सभी अलंकारों को दे दिया। यहां तक कि उन्होंने अपने मस्तक के चूड़ा को भी छिन्न-भिन्न कर दिया तथा गेरुए वस्त्र धारण कर लिये। जिस स्थान पर छन्दोग सिद्धार्थ से अलग हुये थे, जिस स्थान पर सिद्धार्थ ने चूड़ा अलग किया व गेरुए वस्त्र धारण किये थे उन तीनों स्थानों पर ‘चैत्य’ संस्थापित हो चुके हैं।
छन्दोग जब वापस लौटकर राजधानी में आये तो उन्होंने महाराज शुद्धोधन को सिद्धार्थ के सभी आभूषणों को प्रदान किया एवं सारे वृत्तान्त को सुनकर पिता शुद्धोधन शोकमग्न होकर रोने लगे। सिद्धार्थ के वापस लौट आने की सम्भावना को न देख, शोकाहत होकर शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के सभी बहुमूल्य आभरणों को एक जलाशय में फेंक दिया। तब से वह जलाशय आभरण नाम से प्रसिद्ध है।
सिद्धार्थ की सहधर्मिणी प्रातः जब नींद से उठी तो उसने अपने पति के संसार त्याग के बारे में सुना। पति के संसार त्याग के संवाद को सुनकर उसने अपने सुन्दर-सुन्दर केशों को काट दिया तथा शरीर के सभी अलंकारों को फेंक दिया। वज्र से घायल हुए की तरह वह जमीन पर गिर पड़ी और रोने लगी। विलाप करते-करते उसने कहा – “हाय! मैं जीवन की सभी प्रिय वस्तुओं से बिछुड़ गयी हूं।”
बुद्धदेव या बोधिसत्त्व संसार त्याग करके सर्वप्रथम वैशाली नगरी में उपस्थित हुये। वहां उन्होंने आराड़कालाम नाम उपाध्याय से दीक्षा ग्रहण की। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये कुछ समय वे वहां रहे परन्तु स्वयं को सुखी न पाकर वे वहां से मगध की ओर चल दिये। मगध राज विम्बसार को जब सिद्धार्थ के बारे में मालूम हुआ तो वे सिद्धार्थ के पास पहुंचे और उसे अपना सारा राज्य देने की इच्छा प्रकट करने लगे। किन्तु बोधिसत्व ने जवाब में कहा – “ये विषय भोग विषतुल्य हैं। ये अनन्त दोषों के भण्डार हैं; लोग काम के वश में होकर भोग करने जाते हैं और नरक-यन्त्रणा भोग करते हैं। मैं तो विषय भोगों को कफ-पित्त की भांति घृणित समझता हूं। बोैद्धत्त्व की प्राप्ति के लिये मैं भ्रमण करूंगा।”
विम्बसार ने कहा – ‘‘मैं आपके पिता शुद्धोधन का शिष्य हूं। यदि आपको ‘बोद्धत्व’ प्राप्त हो जाये तो मैं भी इसी धर्म को ग्रहण करूंगा।’’ अतःपुर बोधिसत्त्व उपाध्याय रुद्रक के पास कुछ समय तक रहे व उनसे धर्म-शिक्षा ग्रहण की। वहां पर धर्म-शिक्षा ग्रहण करते हुये उन्हें इस बात की अनुभूति हुई कि रागादि के सम्पूर्ण रूप से तिरोहित होने पर ही ज्ञानाग्नि प्रज्जवलित होती है।
इसके बाद ही वे गया प्रदेश2 के उरुविलवा गांव के पास नैरन्जना नदी के किनारे 6 वर्ष के लिये कठोर तपस्या में बैठ गये। उनका शरीर धीरे-धीरे क्षीण होने लगा। बोधिसत्त्व नैरन्जना नदी के किनारे बोधिद्रुम के नीचे योगासन पर बैठे तो उन्हें बोद्धत्त्व से वंचित करने के लिये सद्-धर्म के शत्रु ‘मोर’ (कन्दर्प), उसके बाद रति, तृष्णा, आरती इन तीन युवती कन्याओं ने बहुत प्रकार से प्रचेष्टा की परन्तु कुछ भी न हुआ। इस प्रकार से बोधिसत्त्व ने मोर (कामदेव) एवं उसकी सेना – रति, तृष्णा, आरती को हराकर परम शांति प्राप्त की। बोधिसत्त्व ने जगत के दुःखों की उत्पत्ति व उनके निवारण के कारण को जब निर्धारण कर लिया तो तब उन्होंने बुद्ध नाम धारण किया। उन्होंने दुःखों के कारण को इस प्रकार से निर्धारण किया – अविद्या से संस्कार, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नाम यप, नाम रूप से षड़ायत्न, षड़ायत्न से स्पर्श, स्पर्श से वेदना, वेदना से तृष्णा, तृष्णा से उपादान, उपादान से भव, भव से जाति एवं जाति से जरा-मरण व शोक इत्यादि होते हैं। अविद्या या अज्ञान ही दुःखों का कारण है। बोद्धत्त्व की प्राप्ति के बादे बुद्धदेव जी बोधिद्रुम में एक सप्ताह ठहरे थे।
बुद्धदेव जी के प्रभाव से चुयान्न जन युवराज, एक हजार तीर्थयात्री, मगध के अधिपति महाराज बिम्बिसार, सारिपुत्र मौद्गल्यायन इत्यादि बहुत से व्यक्तियों ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया। बुद्ध जब कपिलवस्तु नगर में आये तो उन्हें देखकर उनके पिता शुद्धोधन विस्मित हो गये। बुद्धदेव के पुत्र राहुल, सौतेला भाई नन्द, पितृव्य पुत्र अनिरुद्ध, आनन्द तथा देवदत्त ने बुद्धदेव जी द्वारा प्रवर्तित धर्म का आश्रय लिया। कौशल राज प्रसेनजित् बौद्ध धर्म में दीक्षित हुये। इसके बाद मगध राज विम्बसार ने अपनी पत्नी तथा अन्य बहुत से लोगों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया।
बुद्धदेव ने पाटलीग्राम में रहकर वहां के उपासकों को दुःख निवृत्ति के विषय में शिक्षा प्रदान की। आपने चार महासत्य या आर्य-सत्य के बारे में कहा। यथा – दुःख, दुःख-समुत्थाय, दुःख निरोध एवं दुःख निरोध मार्ग।
ये संसार दुःखमय है। दुःखों का एक कारण है। दुःखों को रोका जा सकता है। इन्हें रोकने का एक मार्ग है। बुद्धदेव जी के विचारानुरसार जीवों का स्वरूप, परतत्त्व का स्वरूप तथा जगत का स्वरूप – इन सबके बारे में शास्त्रयुक्ति व तर्क करना बेकार है। उदाहरण के लिये किसी की छाती पर तीर चुभ रहा है। वह यन्त्रणा से छटपटा रहा है। ऐसे समय में तीर कहां से आया व किस प्रकार से लगा इत्यादि विचार करना निरर्थक है। ऐसे समय में तो तीर को निकाल देना ही दुःख से छुटकारा पाने का तरीका है। बुद्धदेव जी के इन विचारों की योक्तिता स्थापन के लिये ही परवर्ती काल में बौद्ध दर्शन का प्राकट्य हुआ। दार्शनिक सिद्धान्त के बगैर किसी का भी मत सुष्ठ भाव से संस्थापित नहीं हो सकता।
बौद्ध शास्त्रों के अनुसार जिस प्रकार भूख, व्याधि से भी अधिक कष्टदायक है, उसी प्रकार जीवन, दुःख से भी अधिक क्लेशदायक है। जरा, व्याधि, मृत्यु व दुःख सभी देह संबंधित हैं। इसलिये स्थूल देह के जन्म-मृत्यु समाप्त न होने तक दुःखों का समापन नहीं होता। दुःख-स्कन्ध-निरोध का नाम ही निर्वाण है तथा एकमात्र निर्वाण ही महासुख है।
जिघच्छा परमा रोगा संख्यार परम दुःखम्।
एवं ज्ञात्वा यथाभूतं निर्वाणं परमं सुखं।।
बौद्ध दर्शन में चूंकि किसी भी वस्तु का एक क्षण से अधिक स्थायित्व नहीं है इसलिए वहां आत्मा और परमात्मा का भी स्थायी अस्तित्व नहीं है।
यहां विचारणीय बात ये है कि यदि ये आत्मा स्थायी न हो तो जन्मान्तरवाद की किस प्रकार से स्वीकृति हो सकती है जबकि बौद्ध दर्शन में जन्मान्तर स्वीकृत है। ऐसे स्थानों पर बौद्ध दार्शनिक कहते हैं कि रूप स्कन्ध (स्थूल व सूक्ष्म शरीर), वेदना स्कन्ध, संज्ञा स्कन्ध, संस्कार स्कन्ध, विज्ञान स्कन्ध जब समष्टिगत वस्तु रूप में प्रतिभात होते हैं, तब हम भूलवशतः उसे आत्मा समझ लेते हैं; ठीक उसी प्रकार जैसे रूप वेदना स्कन्ध प्रतिमुहूर्त प्रकाशित हो रहे हैं व ध्वंस हो रहे हैं। बौद्ध मत में देह के नाश होने के साथ-साथ जीवत्व का नाश नहीं होता। मृत्यु के बाद पांच प्रकार का जन्मान्तर होता है। वस्तुतः ये पुनर्जन्म नहीं है – नया जन्म, इस प्रकार कहा जा सकता है। तृष्णा और कर्म नष्ट होने से ही ये धारा बन्द होती है एवं तब निर्वाणावस्था प्राप्त होती है। अर्थात् बौद्ध दर्शन में नित्य जीवात्मा वेद व ईश्वर न मानने के कारण ही बौद्ध दर्शन को नास्तिक दर्शन कहा जाता है। बुद्धदेव के अन्तर्धान के बाद यह धर्म हीनयान और महायान – इन दो शाखाओं में विभक्त हो गया। हीनयान मतावलम्बियों के समक्ष बुद्धदेव जी के उपदेश अविकृत भाव से ग्रहीत हुये हैं। हीनयान मत शक्तिमान सावलम्बी साधक का पथ होने के कारण सभी का उपयोगी नहीं है।
कालक्रम से बौद्ध धर्म विदेश में प्रचारित हुआ तो विभिन्न देशों के विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों ने अपने-अपने धर्म को त्याग कर, बौद्ध धर्म को ग्रहण किया। जिसके फलस्वरूप उनके पूर्व-आचरित धर्मों के भाव किसी न किसी रूप में बौद्ध धर्म में घुस गये, जिससे बौद्ध धर्म की विशुद्धता और कठोरता काफी मात्रा में नष्ट हो गयी। इस प्रकार की परिवर्तित व वरिवर्धित बौद्ध धर्म की शाखा को महायान कहा जाता है। ये महायान मत सभी के लिये उपयोगी है। महायान मतावलम्बी लोगों की एक शाखा कहती है कि शून्य से सृष्टि होती है व शून्य में ही इसकी प्रलय है। शून्य ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या है। आजकल महायान सम्प्रदाय के अन्तर्गत एक और शाखा निकली है जो बुद्धदेव को परमेश्वर मानकर ईश्वर विश्वास को उचित मानती है।
बौद्ध मत में सम्बोधि अवस्था या निर्वाण मुक्ति लाभ की प्रणाली इस प्रकार से निर्दिष्ट हुई है – प्रथमतः काम, हिंसा, आलस्य, विचिकित्सा और मोह – इन पांचों प्रतिबन्धकों का निवारण करना होगा। इसके बाद क्रोध, उपनाह, म्रक्षप्रदान, ईर्षा, मात्सर्य, शाठ्व, माया, मद, निहिंसा, अहृी, अपनत्रता, स्त्यान, उद्धत्य, अश्राद्ध, कौपिन्य, प्रमाद, मूषित स्मृतिता, विक्षेप, असंप्रजज्य, कौकृत्य, सिद्ध, वितर्क तथा विचार-चित्त के इन चौबीस प्रकार के दूषित भावों को हटाना होगा। संक्षेप में शरीर अपवित्र, वेदना-दुःखमयी, चित्त-चंचल, पदार्थ-अलीक हैं – इस प्रकार हमेशा वे ही चार प्रकार की चिन्ता करते रहना होगा। अन्त में स्मृति, पुण्य, वीर्य, प्रीति, प्रश्नब्धि, समाधि और उपेक्षा – परम ज्ञान की यही भावना विधि सम्मत है। तभी सम्बोधि अवस्था लाभ होगी।
गौतम बुद्ध का निज रचित कोई भी ग्रन्थ नहीं है। बुद्धदेव के शिष्य-प्रशिष्यों ने बुद्धदेव के उपदेशों को पालि भाषा में लिखा जो कि तीन भागों में विभक्त हैं –
1. सूत्त पिटक
2. विनय पिटक
3. अभिधर्म पिटक
बौद्ध धर्म में भवचक्र अर्थात् दुःखों के कार्यकारण श्रृंखला में द्वादश निदान इस प्रकार से सन्निवेशित हुये हैं –
पूर्वजीवन –
1. अविद्या
2. संस्कार; वर्तमान जीवन
3. विज्ञान
4. नामरूप
5. षड़ायतन
6. स्पर्श
7. वेदना
8. तृष्णा
9. उपादान
10. भव; भविष्यत् जीवन
11. जाति
12. जरा-मरण
वेदों की शिक्षा का वास्तविक तात्पर्य न समझ पाने के कारण जब धर्म के नाम पर हिंसा का ताण्डव फैल रहा था, उस समय भगवान ने बुद्ध रूप में प्रकटित होकर जीवों को हिंसा से निवृत्त किया था। इसलिये अहिंसा ही बौद्ध धर्म का मूल है – ऐसा कहा जाता है।
भारतवर्ष में मगध के विख्यात सम्राट अशोक वर्धन के राजत्व काल में बौद्ध धर्म विशेष रूप से फैला था। कलिंग युद्ध में नर हत्या की निष्ठुरता देखकर अशोक को बहुत दुःख हुआ। उसके मनोभाव पलट गये। तब वे उपगुप्त नामक बौद्ध संन्यासी से, बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गये तथा दीक्षित होकर बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये उन्होंने व्यापक प्रचेष्टा की। बौद्ध धर्म भारतवर्ष के इलावा चीन, ब्रह्म देश, तिब्बत, जापान, श्याम, कोरिया तथा दक्षिण् सिंहल आदि स्थानों में भी प्रसारित हुआ है। यद्यपि बौद्ध धर्म का जन्म व प्रसार भारत वर्ष में ही हुआ, परन्तु शंकराचार्य जी के प्रचार के फलस्वरूप उक्त धर्म का प्रभाव वर्तमान समय में भारतवर्ष में देखा नहीं जाता। बौद्ध धर्मावलम्बियों की संख्या भारतवर्ष में बहुत कम है।
1 – सोलह वर्ष की आयु में बुद्धदेव का विवाह हुआ था । पत्नी का नाम यशोधरा था। 29 वर्ष की आयु में बुद्धदेव संसार-त्यागी हुए। प्रायः 80 वर्ष की आयु में इन्होंने कुशी नगर में प्रयाण लाभ किया – आशुतोष जी का नवीन अभिधान।
2 – गया प्रदेश- यह बोध गया अथवा बौद्धगया नाम से प्रसिद्ध है । यह बोधों का प्रधानतम तीर्थ क्षेत्र है । यिशु के जन्म के पहले से ही इस स्थान का माहात्य चारों ओर विख्यात हो चुका था । सम्राट अशोक के दो स्तूप, और महाबोधि मंदिर के खंडहर इस विषय को स्पष्ट प्रमाणित कर रहे हैं। जिस पीपल वृक्ष के नीचे समाधिस्थ होकर बुद्धदेव ने सिद्धि प्राप्त की थी, वह पीपल का वृक्ष आज भी विद्यमान है। चीन फा-हियेन ने स्वलिखित मंतव्य में उरुबिल्वा के महाबोधि मन्दिर का उल्लेख किया है।