महाकाव्यों के मतानुसार नारायण आद्यदेव हैं, जिनके सृष्टि रचना-संकल्प (Creative Will) से यह सम्पूर्ण विश्व प्रकट हुआ। शास्त्रों का मत है कि नारायण शब्द उस भागवत् सत्ता का सूचक है, जो विश्व के पूर्व की अवस्था में रहती है और प्रलय अवस्था के बाद भी अथवा जो सम स्त नरों (प्राणियों) के जीवन उद्देश्य, आदर्श और गन्तव्य-स्थल है। इन्हीं नारायण का माधुर्यमय स्वरूप है – नन्दनन्दन श्रीकृष्ण, जो कि अखिल रसामृत सिन्धु हैं तथा इन्हीं नारायण को विष्णु भी कहा जाता है और ये ही अखिल सृष्टि के सृजन-पालन-संहार कार्य-ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव – इन तीन रूपों से करते हैं।
पंचरात्र सिद्धान्त के अनुसार भगवान पाँच रूपों में प्रकट होते हैं –
(1) ‘पर’ अर्थात अपने परम स्वरूप में,
(2) ‘व्यूह’ अर्थात् अपने रूप-समूह में, जिसमें वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध आते हैं और जिनकी तुलना क्रमशः विश्वचैतन्य, विश्व-बुद्धि, विश्व मनस् और विश्व अहंकार से की जाती है,
(3) ‘विभव’ जिसमें वे अवतार द्वारा अपने ऐश्वर्य को प्रकट करते हैं,
(4) ‘अर्चा’ अर्थात भक्तों द्वारा पूजित श्रीविग्रह में उनकी प्रकट उपस्थिति तथा
(5) ‘अन्तर्यामी’ अर्थात उनकी विश्वव्यापक उपस्थिति।
विष्णु के अनेक अवतार हैं। श्रीमद्भागवत में कम से कम चौबीस अवतारों की चर्चा है, जिनमें से प्रसिद्ध दस अवतारों को दशावतार कहते हैं। जैसे कि भगवद्गीता (4/7-8) में उद्घोषित किया गया है – ‘जब जब धर्म का नाश होता है और अधर्म का अभ्युदय होता है, तब तब भगवान् साधु पुरुषों के रक्षणार्थ एवं दुष्कर्मियों के विनाशार्थ अवतार लेते हैं। सत्य और न्याय के स्थापनार्थ वे तात्कालिक परिस्थिति के अनुरूप अपने को प्रकट करते हैं।’
इन अवतारों में से जिसमें दिव्यता का पूर्ण प्रकटीकरण होता है, उसे पूर्णावतार और जिसमें आंशिक प्रकटीकरण होता है, उसे अंशावतार अथवा कलावतार कहा जाता है।
भगवान् विष्णु ने मन्वन्तर के अन्त में महाजलाप्लावन से मनु और सप्तर्षियों के रक्षणार्थ तथा वेदों को प्रलय-सागर में विनष्ट होने से बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया। कूर्मावतार में विष्णु ने मन्दराचल को अपनी पीठ पर उस समय धारण किया जिस समय देवताओं और असुरों ने अमृत की प्राप्ति के लिए सागर मन्थन में मन्दराचल को मथानी की तरह प्रयुक्त किया था। वराह अवतार में विष्णु ने हिरण्याक्ष का वध किया और महार्णव में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार किया। नरसिंह के रूप में विष्णु ने खंभ से प्रकट हो हरिण्यकशिपु का वध किया था। बिजली की कड़क के साथ स्तम्भव फाड़कर नरसिंह के रूप में निकलने से विष्णुभगवान ने जड़ पदार्थों में भी अपनी अन्तर्व्यापकता प्रमाणित कर दी। भक्तजन वैशाख के शुक्लपक्ष की चतुर्दशाी को नरसिंह जयन्ती मनाते हैं। वामनरूप में विष्णु ने अपने शरीर से अखिल विश्व को आवृत करते हुए दो ही डगों से तीनों लोगों कोनाम लिया तथा बलि को वश में करके पाताल लोक में भेज दिया। परशुराम अथवा परशुधारी राम के रूप में विष्णु ने उन उद्धत क्षत्रियों से पृथ्वी का उद्धार किया, जो शिष्टता और सदाचार की सीमा का उल्लंघन कर धार्मिक जीवन के लिए संकट का कारण बन बये थे। भयावह अग्नि के समान क्रुद्ध हो उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी छान मारी तथा अपने अपराजेय कुठार से पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर डाला। रामावतार में विष्णु ने पृथ्वी पर मर्यादा एवं धर्म संस्थापना का एक महान् उदाहरण प्रस्तुत किया।
इस दशावतार पुस्तक में अखिल भारतीय श्री चैतन्य गौड़ीय मठ के वर्तमान आचार्य ऊँ 108 श्री श्रीमद् भक्ति वल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जीने दशावतार नामक इस पुस्तक का लेखन इस ढंग से किया है जिससे जन साधारण को अवतार तत्व की गरिमा का ज्ञान हो सके।
अवतार तत्व को समझने के लिये इस पुस्तक का बार-बार अध्ययन अति आवश्यक है। मुझे आशा है कि यदि इसका ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाये तो भगवान की लीलाओं को समझना अति सुलभ हो जायेगा अन्यथा तर्क वितर्क करके जनसाधारण किसी भी चरम सीमा को स्पर्श नहीं कर सकता।
यह अधिक महत्वपूर्ण विषय है क्योंकि दशावतारचरितम् महाकवि क्षेमेन्द्र-व्यासदास ने लगभग 11वीं शताब्दी में किया परन्तु इसके बाद 12 शताब्दी के मध्य में जिला पुरी में पैदा हुए कविराज श्री जयदेव जी ने दशावतारस्तोत्र की रचना करके एक विशिष्ट ख्याति प्राप्त की।
इन सभी महत्वपूर्ण विषयों का समायोजन महाराज श्री ने इस दशावतार पुस्तक में जन साधारण को समझाने के लिए अति सुलभ कर दिया।
(डा0 अरुण मित्तल)
एम.ए. (संस्कृत, दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र)
पी.एच.डी. योग प्राध्यापक प्रशिक्षण