श्रील जयदेव जी का आविर्भाव काल 11वीं व 12वीं शक शताब्दी में है। उनके आविर्भाव के स्थान के सम्बन्ध में मतभेद नज़र आता है। अधिकांश के मत में इनका आविर्भाव स्थान वीरभूम ज़िला के अन्तर्गत केन्दुबिल्व ग्राम में हुआ तथा किन्हीं के मत में उत्कल देश में तथा किन्हीं के मत में जयदेव जी का जन्म स्थान दक्षिण में है। केन्दुबिल्व ग्राम, वीरभूम ज़िला के शीडड़ी से 20 मील दूर दक्षिण में अजय नदी के किनारे स्थित था। श्रीगौड़ीय वैष्णव अभिधान में इस प्रकार लिखा है –
श्रीजयदेव जी को अजय नदी से श्रीराधामाधव जी के श्रीविग्रह प्राप्त हुये थे। इसी में यह भी लिखा है कि अजय नदी के किनारे कुशेश्वर शिव के स्थान पर बैठ कर वे विश्राम करते थे तथा साधन भजन में निमग्न रहते थे। इनके पिता श्रीभोजदेव जी और माता वामदेवी जी थीं। इन्होंने बंग देश के राजा लक्ष्मण सेन के राजत्वकाल में राजधानी नवद्वीप नगर में राजा लक्ष्मण सेन के राज प्रासाद के निकट ही किसी स्थान पर अनेक दिन निवास किया था।
आशुतोष के बंगला कोष में इस प्रकार लिखा है –‘वे कुछ समय लक्ष्मण सेन की सेना में राजकवि थे।’श्रील भक्ति विनोद ठाकुर रचित ग्रन्थ,‘नवद्वीप धाम माहात्मय’ के पाठ से ज्ञात होता है कि जिस काल में श्रीजयदेव जी श्री लक्ष्मण सेन राजा के महल के निकट रहते थे, उस समय श्रीजयदेव जी द्वारा रचित ‘दशावतार स्तोत्रम्’ सुनकर राजा लक्ष्मण सेन चमत्कृत हो उठे थे तथा तत्कालीन पण्डित गोवर्धन आचार्य जी से श्री जयदेव रचित दशावतार स्तोत्र के विषय में जानकर अपना राजवेश त्याग कर श्रीजयदेव को देखने के लिए गए थे। श्रीजयदेव जी के साक्षात सान्निध्य में आकर राजा उनके महापुरुषोचित अलौकिक व्यक्तित्व का दर्शन करके उनके प्रति और भी अधिक आकर्षित हो गए। राजा ने अपना परिचय उन्हें प्रदान किया तथा कविवर जयदेव जी से अपने राजप्रासाद में चलकर रहने का अनुरोध किया। श्रीजयदेव जी बहुत ही विषय विरक्त व्यक्ति थे। उन्होंने विषयी राजमहल में आने के लिए अनिच्छा प्रकट की तथा उन्होंने राजा से कहा कि उनकी इच्छा है कि वे जगन्नाथ के पास पुरी गंगानगर में रहेंगे। इस पर राजा लक्ष्मण सेन ने मर्माहत होकर कविवर जयदेव जी से नवद्वीप छोड़कर न जाने की प्रार्थना की और बताया कि नवद्वीप मण्डल में रमणीय चांपाहाटी ग्राम उनके रहने योग्य स्थान है। उन्होंने वचन दिया कि वे कभी भी उनकी अनुमति के बिना उनसे मिलने नहीं आयेंगे। राजा लक्ष्मण सेन की दीनोक्ति से सन्तुष्ट होकर श्रीजयदेव जी चांपाहाटी में रहने के लिए राज़ी हो गए। जयदेव जी की अनुमति मिलने के साथ ही राजा लक्ष्मण सेन ने चांपाहाटी ग्राम में उनके लिए एक कुटिया का निर्माण करवा दिया था।
महाप्रभु के पार्षद द्विज वाणीनाथ ने जैसे महाप्रभु जी का सत्युग में चंपक वर्ण के विप्र रूप में दर्शन किया था, भक्तवर श्रीजयदेव ने भी उसी प्रकार पहले श्रीराधा-गोविन्द जी तथा बाद में राधा-गोविन्द जी के संयुक्त शरीर चंपक वर्ण स्वरूप अर्थात् स्वर्णकान्ति स्वरूप श्रीमन्महाप्रभु जी का दर्शन किया था। महाप्रभु जी ने जयदेव जी को दर्शन देकर पुरुषोत्तमधाम में जाने का आदेश दिया। वे महाप्रभु जी के आदेश का पालन करने के लिए नवद्वीपधाम त्याग कर व अत्यन्त विरह से संतप्त होकर पुरुषोत्तमधाम को चले गए। इस प्रकार कहा जाता है कि वे वहाँ उड़ीसा के राजा के महापण्डित भी हुए थे। श्रीजगन्नाथ क्षेत्र में ही उन्होंने अपन शेष जीवन व्यतीत किया था। उनके द्वारा रचित अप्राकृत विप्रलम्भ रसपूर्ण कविता ग्रन्थ का नाम “श्री गीत गोविन्द” या “अष्टपदी” है। श्रीमन्महाप्रभु जी ने जयदेव जी को अपने निजरूप चंपकवर्ण के दर्शन प्रदान करने के समय कहा था कि जब वे नवद्वीप धाम में प्रकट होंगे तब संन्यास ग्रहण करने के बाद पुरुषोत्तम धाम में जाकर, उनके द्वारा रचित “गीत गोविन्द” का आस्वादन करेंगे। ऐसा कहा जाता है किश्रीजगन्नाथ देव जी की आज्ञा से ही जयदेव जी पद्मावती को पत्नी के रूप में ग्रहण करने पर बाध्य हुए थे।
विश्व कोष में इस प्रसंग का वर्णन इस प्रकार हुआ है – “एक ब्राह्मण के कोई भी सन्तान न होने पर बहुत काल तक उन्होंने श्रीजगन्नाथ देव जी की आराधना की। जगन्नाथ जी की आराधना करने पर उन्हें एक कन्या लाभ हुई। उस कन्या का नाम उन्होंने पद्मावती रखा था। विवाह योग्य होने पर वह ब्राह्मण उसे श्रीजगन्नाथ देव जी के श्रीचरणों में उत्सर्ग करने के लिए ले आए। उसे देखकर भगवान पुरुषोत्तम जी ने प्रत्यादेश दिया कि जयदेव नामक मेरे एक सेवक ने संसार धर्म त्याग कर मेरे नाम को ही सार रूप से ग्रहण किया है। तुम उसी को इस कन्या का दान करो। तब ब्राह्मण अपनी उस कन्या को लेकर श्रीजयदेव के निकट उपस्थित हुए और उनसे उस कन्या का पाणि-ग्रहण करने के लिए बहुत अनुरोध किया किन्तु श्रीजयदेव जी ने संसारी होने की इच्छा न होने के कारण ब्राह्मण की बात मानने में असमर्थता प्रकट की। तब ब्राह्मण साक्षात भगवान जगन्नाथ जी के आदेश के विषय में बता कर अपनी वागदत्ता कन्या को उनके (जयदेव के) निकट छोड़ कर चले आए।”
जयदेव जी हक्के-बक्के से रह गए और कन्या से बोले- “बोलो तुम कहाँ जाओगी, जहां जाना चाहो उसी स्थान पर मैं तुमको छोड़ आऊँ। तुम्हारा यहाँ रहना तो हो नहीं सकता।” पद्मावती कातर स्वर में बोली- “पिता जी ने जगन्नाथ देव जी के आदेश से मुझे तुम्हारे हाथ में सौंपा है। तुम्ही मेरे स्वामी व हृदय-सर्वस्व हो। तुम अगर मेरा परित्याग करोगे तो मैं तुम्हारे चरणों में ही जीवन विसर्जन कर दूँगी। हे नाथ ! तुम्ही मेरी एकमात्र गति हो।” पण्डित कवि जयदेव जी भला तब क्या करते, वे पद्मावती का परित्याग न कर पाये और संसारी हो गए। एक नारायण विग्रह की भी उन्होंने प्रतिष्ठा कर ली। अब उनके हृदय में कृष्ण प्रेम का स्त्रोत बहने लगा। उसी स्त्रोत में बहते-बहते उन्होंने अपूर्व अमृत से पूर्ण ‘गीत गोविन्द’ का प्रचार किया। कहा जाता है कि चाहे जयदेव जी ने ‘गीत गोविन्द’ में सब रसों और भावों को अवतरित कर लिया हो परन्तु मान-प्रकरण में वे, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण खण्डिता नायिका श्रीराधा रानी के पैर पकड़ेंगे, इस बात को लिखने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। दैवयोग से एक दिन जब वे समुद्र स्नान के लिए गये तो उस समय स्वयं जगन्नाथ जी ने श्रीजयदेव जी के रूप में उनके घर में प्रवेश किया तथा उनकी पोथी खोल कर “देहि पद पल्लवमुदारं” – इस वाक्य द्वारा उनके “स्मरगरल खण्डनं सम शिरसि मण्डनम” इस चरण का पद्य पूर्ण कर दिया।
पद्मावती इतना शीघ्र श्रीजयदेवजी को वापस आते देख कर कर बोली- “अभी-अभीतो आप स्नान करने के लिए गए थे, इतनी जल्दी वापस कैसे आ गए?”
जयदेव रूपी श्रीकृष्ण जी ने उत्तर दिया – “जाते-जाते एक बात मन में आ गई। बाद में कहीं मैं भूल न जाऊँ, इसलिये आकर लिख दी है।” जयदेव रूपी श्रीकृष्ण यह कह कर जब चले गए तो उससे थोड़ी देर बाद ही श्रीजयदेव जी स्नान करके लौट आए। इस पर पद्मावती बड़ी हैरान हो गयी और बोली- “अभी आप स्नान करने गए थे, वापस आकर अभी कुछ ही क्षण हुए कि कुछ लिख गए और फिर इतने अल्प समय में वापस किस प्रकार आ गए?अब मेरे मान में सन्देह होता है कि जो लिख कर गए वे कौन थे और आप कौन हैं?”
बुद्धिमान जयदेव तभी अन्दर गए और पोथी खोल कर देवाक्षरों का दर्शन किया। रोमांच हो गया उन्हें तथा प्रेमवेश में उनका हृदय उमड़ आया। उनकी आँखों से अश्रु –धारायें प्रवाहित होने लगीं। वे पद्मावती को सम्बोधित करके बोले- “तुम धन्य हो, तुम्हारा जन्म सार्थक है, तेरे अपने सौभाग्य से तुझे भगवान के दर्शनों का लाभ प्राप्त हुआ। मैं हतभागा हूँ, इसलिये उनके दर्शन न पा सका।”
श्रीजगन्नाथ क्षेत्र में इस प्रकार की एक कहावत है कि एक मालिनी पुरुषोत्तम धाम में कहीं बैठकर श्रीजयदेव जी द्वारा रचित श्रीगीत गोविन्द का भाव विभोर होकर गान कर रही थी। श्रीजगन्नाथ देव जी उस गान से आकृष्ट होकर वहीं चले गये और जब तक गीत गोविन्द का गान चलता रहा, वहाँ खड़े होकर वे सुनते रहे तथा उसकी समाप्ति पर वापिस मन्दिर में आ गये। इसी बीच तत्कालीन उत्कलराज मन्दिर में श्रीजगन्नाथ देव जी के दर्शन करने आए। उन्होंने श्रीजगन्नाथ देव जी के अंगों में धूल और उत्तरीय में काँटे लगे देखे। इस सबका क्या कारण है, यह जानने के लिए उन्होंने पुजारी और पण्डाओं से पूछा, पर वे लोग भी कुछ बता न पाए। जगन्नाथ जी के सेवकगण डर गए।
रात्रि में श्रीजगन्नाथ जी ने राजा को स्वप्न में बतलाया कि उनके अंगों के काँटों और धूल के लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है। वे स्वयं ही एक मालिनी के पास ‘गीत गोविन्द’ सुनने गए थे, जिसके कारण धूल और काँटे लग गए थे। उत्कल राज स्वप्न में इस घटना के मर्म को समझ कर विस्मित हो गये तथा प्रात: काल उन्होंने मालिनी को लाने के लिये पालकी भेजी। मालिनी से सब बातें जानकर राजा ने उसे प्रतिदिन श्रीजगन्नाथ जी के सम्मुख ‘गीत गोविन्द’ का गान करने का आदेश दिया। तब से आज भी मालिनी की वंश की रमणियाँ जगन्नाथ के सम्मुख जाकर प्रतिदिन ‘गीत गोविन्द’ का पाठ करके जगन्नाथ जी को सुनाती हैं। पुरुषोत्तम धाम के निवासी भक्तगण लोग वर्तमान में उन्हें मालिनी की बजाए देव दासी कहते हैं।
श्रीजयदेव के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के अलौकिक प्रसंग सुने जाते हैं। जयदेव जी प्रेमाविष्ट होकर राधा-माधव जी के विग्रह की सेवा करते थे। भक्त जिस प्रकार भगवान के प्रति भक्तिमान होते हैं, भगवान भी उसी प्रकार भक्त के प्रति भक्तिमान होते हैं। जयदेव जी एक दिन अपनी कुटिया को छा रहे थे अर्थात् कुटिया की छत को फूस लगा रहे थे। उस समय बहुत तेज़ धूप थी। भक्त का दु:ख देख कर भगवान से रहा न गया और कार्य शीघ्र पूर्ण हो जाये, यह सोच कर वहाँ जाकर स्वयं फूस को रस्सी के साथ बाँटने (बाँधने) लगे तथा बाँटकर छत पर चढ़े जयदेव जी को पकड़ाने लगे। जयदेव जी को लगा कि उनकी पत्नी ही इस प्रकार कर रही है। छत को छाने का कार्य शीघ्र पूरा हो गया। नीचे आकर उनको कोई नज़र न आया। पत्नी से जिज्ञासा की तो उसने बताया कि वह तो और-और कार्यों में ही व्यस्त थी। तब वे विस्मित चित्त से अपने ठाकुर घर में गये और देखा राधा-माधव जी के हाथों में धूल व रस्सी के महीन-महीन कण लगे हुए हैं, तब उन्हें समझते देर न लगी कि वह सब राधा-माधव जी का ही कार्य था। जयदेव जी अपने ठाकुर श्रीराधा-माधव जी के चरणों में गिर कर रोने लगे।
जयदेव जी ने अपने जीवन के शेष दिन किसी-किसी के मतानुसार जगन्नाथ क्षेत्र में, किन्हीं के मत में केन्दुबिल्व ग्राम में और किन्हीं के मत में वृन्दावन धाम में व्यतीत किए। श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी ने श्रीजयदेव जी का शेष जीवन श्रीजगन्नाथ क्षेत्र में ही बीता, ऐसा बताया।
श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने अपनी लीला के शेष 12 वर्षों में राधा भाव से विभावित होकर गूढ़ प्रेमरस आस्वादन काल में श्रीजयदेव रचित ‘गीत गोविन्द’ का आस्वादन किया था –
“श्रीराधा प्रलाप यैछे उद्धव दर्शने।
सेइमत उन्माद प्रलाप करे रात्रि दिने॥
विद्यापति, जयदेव चण्डीदासेर गीत।
आस्वादने रामानन्द स्वरूप सहित॥”
(चै.च.आ. 13/41-42)
“भक्तिसिद्धान्त विरुद्ध आर रसाभास।
शुनिले ना हय प्रभुर चित्तेर उल्लास॥
अतएव स्वरूप गोसाईं करे परीक्षण।
शुद्ध हय यदि, प्रभुरे करान श्रवण॥
विद्यापति चण्डीदास श्री गीत गोविन्द।
एई तीन गीते करान प्रभुर आनन्द॥”
(चै.च.म. 10/113-115)
“यबे येई भाव प्रभु करे उदय।
भावानुरूप गीत गाए स्वरूप महाशय॥”
(चै.च.म. 17/5-6)
“क्षणेके प्रभुरबाह्य हैल, स्वरूपेर आज्ञा दिल,
स्वरूप किछु कर मधुर गान॥
स्वरूप गाय विद्यापति, गीत गोविन्द गीति,
शुनि प्रभु जुड़ाइल कान॥”
(चै.च.अ. 17/62)
“चण्डीदास विद्यापति, रायेर नाटक गीति।
कर्णामृत, श्री गीत गोविन्द॥
स्वरूप रामानन्द सने, महाप्रभु रात्रि-दिने।
गाय सुने परमानन्द॥”
(चै.च.म. 2/77)
श्रीजयदेव पण्डित जी ने पौषी कृष्ण षष्ठी तिथि को तिरोधान लीला की। कलकत्ता वसुमती साहित्य मन्दिर से प्रकाशित ‘श्री गीत गोविन्द’ ग्रन्थ के आरम्भ में लिखित “श्रीजयदेव चरित” नामक शीर्षक के लेख में और जो कुछेक प्रसंग पाए गए हम उसको नीचे लिपिबद्ध करते हैं।
दिल्ली के मुसलमानों के अधिकार में आने से पहले के राजा माणिक्य चन्द्र के आदेश से रचित “अलंकार शेखर” में लिखा है कि जयदेव जी उत्कल राज के सभाकवि थे। लक्ष्मण सेन के महासामन्त वटुदास के पुत्र श्रीधर दास द्वारा रचित “सूक्ति कर्णामृत” में श्रीजयदेव जी का “अमियाभ काव्य” उद्धृत है। श्री गीत गोविन्द की एक प्राचीन पुस्तिका के उपसंहार में लिखा है – “अथ लक्ष्मणसेन-नाम-नृपति समये श्रीजयदेवस्य कविराज-प्रतिष्ठा।”
महाकवि जयदेव जी व पद्मावती के सम्बन्ध में एक रोमांचकारी अद्भुत घटना सुनी जाती है जो इस प्रकार है–
एक समय कविवर को अपने प्राणधन श्रीराधा-माधव की सेवा के लिए कुछ धन की आवश्यकता पड़ी और वे धन एकत्रित करने के लिए गाँव के बाहर निकले। कई जगहों पर भ्रमण करने के बाद जब उनके पास काफी धन एकत्रित हो गया तो उन्होंने वापिस अपने गाँव लौटने की सोची। परन्तु जब वे भगवान की सेवा के लिए एकत्रित किया हुआ धन वापस लेकर आ रहे थे तो एक दिन रास्ते में उन्हें कुछ डाकुओं ने घेर लिया। उन्होंने उनके हाथ पैर काट कर उन्हें एक कुएँ में फेंक दिया तथा उनका सारा धन लूट लिया। देश-देशान्तर में भ्रमण करके एकत्रित किया हुआ उनका धन जब वापसी के समय डाकुओं ने छीन लिया और उनके हाथ-पाँव काट कर उनको एक कुएँ में फेंक दिया तो भी भक्तवर जयदेव उस कुएँ में पड़े-पड़े दारुण यन्त्रणा में भी उच्च स्वर से हरिनाम करते रहे।
इस प्रकार कुएँ में पड़े-पड़े उन्हें तीन दिन हो गए। दैवयोग से तीसरे दिन एक राजा उधर आखेट करने आया। उस स्थान से गुज़रते समय वह कुएँ में से हरि-ध्वनि सुन कर विस्मित हो गया और कुएँ के पास आकर उसने देखा तो एक व्यक्ति जिसके हाथ पैर कटे हुए हैं, कुएँ में पड़ा है तथा ज़ोर-ज़ोर से हरिनाम कर रहा है। उन्होंने जयदेव जी को क्षत-विक्षत अवस्था में कुएँ में से निकलवाया एवं उन्हें अपने साथ राजमहल में लाकर विशेष प्रयत्न से उनकी सेवा-शुश्रूषा करवाने में प्रवृत्त हो गया। राजा तथा रानी के प्रयत्न से जयदेव जी धीरे-धीरे स्वस्थ हो गए। वे जयदेव जी को परम भक्त जानकर और उनके मृदु कण्ठ से सुमधुर‘गीत गोविन्द’ सुन कर, उनके चरित्र-माधुर्य पर बहुत मुग्ध हो गए। शीघ्र ही श्रीजयदेव जी की पत्नी पद्मावती को भी राजमहल में लाया गया। राजा-रानी दोनों विष्णु-मन्त्र से दीक्षित होकर, श्रीजयदेव जी के मुखारविन्द से श्रीकृष्ण कथा श्रवण करके और वैष्णव-सेवा से अपना जीवन धन्य करने लगे।
एक दिन जयदेव को उत्पीड़ित करने वाले वे डाकू वैष्णव वेश में राजभवन में अतिथि रूप में आये, जयदेव जी ने उनको पहचान लेने पर भी यथायोग्य सम्मान सहित अतिथि सेवा की व्यवस्था की किन्तु दस्यु जयदेव द्वारा पहचान लिए जाने, पकड़े जाने व दण्डित होने के भय से, आतिथ्य ग्रहण न करके वहाँ से भाग जाने की तैयारी करने लगे।
जयदेव जी उनका अभिप्राय जानकर, राजा से कह कर उन्हें बहुत सा धन दिलवाया तथा राज-कर्मचारियों को साथ देकर विदा करवाया। दस्युओं ने कुछ दूर जाकर राजकर्मचारियों से कहा – “आपको और अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं। हम आपको एक गुप्त रहस्य बताते हैं। आप इसे गुप्त रूप से राजा को बता देवें। रहस्य यह है कि वैष्णव होने से पहले हम एक राजा के अनुचर थे। राजा ने किसी एक विशेष कारण से उन महन्त बाबा जी (जयदेव जी) की हत्या करने के लिए हमें आदेश दिया। हमने सिर्फ उसके हाथ-पाँव काट कर उन्हें छोड़ दिया। इसी रहस्य के प्रकाशित होने की आशंका से, तुम्हारे उस महन्त ने राजा से अनुरोध करके हम लोगों को बहुत सा धन दिला कर जल्दी-जल्दी विदा करवा दिया। इस प्रकार संपूर्ण रूप से गढ़ी हुई मिथ्या कथा कहते-कहते, पृथ्वी देवी इन महापापियों के भार को न सहन कर पायी और राज कर्मचारियों ने देखा कि उनके देखते-देखते पृथ्वी फटी तथा वे बहुत ही अद्भुत रूप से पृथ्वी के गर्भ में समा गये।”
शुक्राचार्य द्वारा वामन देव जी को तीन पग भूमि न देने की सलाह देने पर, बलि महाराज जी ने कहा था – “मैं प्रह्लाद महाराज का पौत्र होकर, एक बार दान देना अंगीकार करके, किस प्रकार एक ब्राह्मण को धन के लोभ से एक वंचक की भान्ति निरादरपूर्वक खाली हाथ लौटा दूँ?”
“न ह्यसत्यात् परोधर्म इति होवाच भूरियम्।
सर्वं सोढ़ूमलं मध्ये ऋते अलीकपरं नरम्॥”
(भा.8/20/4)
अर्थात् असत्य से बढ़कर और कोई अधर्म नहीं है। इसीलिये तो पृथ्वी देवी ने कहा कि असत्यवादी मनुष्य को छोड़ (मन्दार पर्वत आदि) भरी से भरी वज़न को वहन करने में मैं अपने आप को समर्थ समझती हूँ, (अर्थात् मैं सब कुछ सहन कर सकती हूँ परन्तु झूठे मनुष्य का भार सहने में मैं असमर्थ हूँ।)
यही कारण था कि पृथ्वी देवी उन पापी दस्युओं का भार और अधिक सहन न कर पाई। वे महापुरुष के विषय में मिथ्या बोलते-बोलते ही भूमि के गर्भ में समा गए। राजा के सेवकों ने जयदेव जैसे महाभागवत के चरणों में अपराधियों के दण्ड को प्रत्यक्ष देखकर राजा के निकट आकर सारी घटना निवेदित की। राजा द्वारा पूछे जाने पर जयदेव जी ने दस्युओं द्वारा उत्पीड़न की समस्त कथा का पूर्णरूपेण वर्णन करके कहा – “राजन! साधुलोग दोषियों के दोष का प्रतिशोध लेने के लिए परहिंसा में प्रवृत्त नहीं होते। वे शिष्ट व्यवहार द्वारा उनको तुष्ट करने की चेष्टा करते हैं किन्तु भगवान के अमोघ विधान से उनको अपने किए पाप कर्मों का फल भोग करना पड़ा।”
कहा जाता है कि रानी के साथ श्रीजयदेव जी की पत्नी की खूब मित्रता हो गई थी। उन दिनों सती होने की प्रथा प्रचलित थी। रानी अपने भाई की मौत पर भाई की पत्नी के सती होने के लिए विलाप कर रही थी। इस पर पद्मावती ने रानी से कहा – “स्वामी जी की मृत्यु पर पतिव्रता पत्नी के प्राण शरीर में नहीं रहते।” राजमहिषी ने पद्मावती के इस वाक्य को सुन कर उसके इस “वाक्य” की परीक्षा के लिए, एक दिन उनको, उनके पति जयदेव के आकस्मिक निधन का समाचार दिया। इस दारुण समाचार को सुनते ही पतिव्रता सती पद्मावती ने प्राण त्याग दिये। राजमहिषी इसके लिए अपने को दोषी मानकर, बहुत शोक संतप्त होकर रोने लगी। राजा रोते-रोते जयदेव जी के पास आए और उसके प्राण देने के लिए विशेष भाव से अनुरोध करने लगे। भक्त प्रवर जयदेव जी पद्मावती के कर्ण कुहरों में कृष्ण नामामृत का सिंचन करने लगे। पद्मावती ने नींद से जागे मनुष्य की भान्ति अपने आप को सम्भाला। इस प्रकार दोनों का अति अद्भुत महत्व दर्शन करके, राजा-रानी सहित समस्त राज-परिवार श्रीजयदेव व पद्मावती जी के चरणों में बार-बार प्रणाम करने लगा। तत्पश्चात श्रीजयदेव जी वृन्दावन दर्शन के लिए बहुत व्याकुल होकर, राजा-रानी से विदा लेकर अपने इष्टदेव श्रीराधा-माधव जी को साथ लेकर, वृन्दावन की यात्रा पर गए। वहाँ पहुँचकर वे केशी तीर्थ के निकट श्रीराधा-माधव की प्रतिष्ठा करके सेवा करने लगे। उनके मधुर कण्ठ से गीत गोविन्द का गान श्रवण करके धाम-वासी अपनी सुध-बुध खो बैठते थे।
एक महाजन ने केशी घाट पर उनके राधा-माधव के लिये एक मन्दिर बनवा दिया। सुना जाता है कि दीर्घकाल तक वृन्दावन में वास करके जयदेव जी अपनी जन्मभूमि केन्दुबिल्व ग्राम में वापिस आकर साधन भजन करने लगे। वे प्रतिदिन बहुत दूर जाकर गंगा स्नान करते। एक दिन दैवयोग से वे गंगा स्नान करने न जा पाये। यद्यपि वे गंगा स्नान को नहीं गये परन्तु इसका उनके मन में बड़ा दु:ख था। उन्हें अति कातर देख गंगा देवी ने केन्दुबिल्व ग्राम में ही प्रवाहित होकर, उन पर कृपा की। कहा जाता है कि अपनी जन्मभूमि में ही,श्रीजयदेव जी की साधना-लीला की परिसमाप्ति हुई। उनकी पवित्र स्मृति की रक्षा के लिए, अब भी प्रतिवर्ष माघ सक्रान्ति के दिन, केन्दुबिल्व ग्राम में मेला लगता है।
श्रीजयदेव जी के केन्दुबिल्व ग्राम में वापस आकर शेष जीवन वहाँ व्यतीत करने की कथा सुने जाने पर भी, उनके प्राणधन श्रीराधा-माधव जी की वृन्दावन से केन्दुबिल्व ग्राम में आने की कोई बात नहीं सुनी जाती। जयपुर राजा ने श्रीजयदेव जी के तिरोभाव के पश्चात उनके राधा-माधव विग्रह को केशीघाट,मथुरा से लाकर जयपुर के घाटि नामक स्थान में प्रतिष्ठित किया। अब भी श्रीराधा-माधव जी जयपुर राज्य में सेवित होते हैं।