Gaudiya Acharyas

श्री श्रील सच्चिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर

नमो भक्तिविनोदय सच्चिदानन्दनामिने ।
गौरशक्ति स्वरूपाय रूपानुगवरायते ।।

श्री भक्ति विनोद ठाकुर जी का अलौकिक स्वरूप तो उनके कृपापात्र जनों के हृदय में ही प्रकटित हैं । ये श्री राधा जी की प्रधान सखी – ललिता सखी की प्रियतमा, श्री रूप मंजरी जी का अनुगत करने वालियों में श्रेष्ठ हैं । ठाकुर श्री भक्ति विनोद जी ने स्वरचित ‘कल्याण कल्पतरु गीति’ में अपने स्वरूप के संबंध में इंगित किया हैं- ‘युगलसेवाय, श्री रासमंडले, नियुक्त कर आमाय। ललिता सखीर, अयोग्या किंकरी, विनोद धरिछे पाय।।’ – कल्याण कल्पतरु
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने स्वरचित ‘गीतमाला’ नामक भजन ग्रंथ में एवं श्री राधाकुंड में श्री ललिता सखी के कुंज – श्रीव्रजस्वानन्द सुखद कुंज में भजन का आदर्श दिखाकर श्री रूप मंजरी की अनुगत ‘कमल मंजरी’ के रूप में अपना सिद्ध परिचय दिया है।
श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु जी, श्रीस्वरूप दामोदर, श्रीराय रामानन्द, षडगोस्वामी गण, श्रीनिवास आचार्य, श्रीश्यामानन्द प्रभु तथा श्रीनरोत्तम ठाकुर इत्यादि के अप्रकट हो जाने के बाद गौड़ीय गगन में अंधकार का युग आ गया था। इस कारण से श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के विशुद्ध प्रेम धर्म के तात्पर्य को समझने में असमर्थ होने के कारण बहुत से अपसम्प्रदायों का प्रादुर्भाव हुआ। श्रीतोताराम दास बाबा जी ने तेरह अपसम्प्रदायों का नाम उल्लेख किया है –
आउल, बाउल, कर्त्ताभजा, नेड़ा, दखेश, सांई। सहजिया, सखीभेकी, स्मार्त, जात, गोसाई।। अतिबाड़ी, चूड़ाधारी, गौरांगनागरी।। तोता कहे, एई तेरर संग नाहि करी।।

बंग देश के शिक्षित, प्रतिष्ठित व्यक्ति इन अपसम्प्रदायों का घृणित आचरण देखकर श्रीमन्महाप्रभु जी के प्रेम धर्म को अनपढ़, नीच जाति और चरित्रहीन व्यक्तियों का धर्म समझकर उसके प्रति श्रद्धा खो बैठे थे। जीवों की इस दुरावस्था को देखकर उदारता के लीलामय विग्रह श्रीमन् महाप्रभु जी का मन दया से भर आया और उन्होंने जीवों के आत्यंतिक मंगल के लिए अपने निजजन श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी को जगत में भेजा। ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी ने अपनी अलौकिक शक्ति से विभिन्न भाषाओं में सौ से भी अधिक ग्रंथ लिखकर शुद्ध भक्ति सिद्धांतों के विरुद्ध मतों का खंडन किया और ऐसा करते हुए उन्होने श्रीमन् महाप्रभु जी की शिक्षा का सर्वश्रेष्ठतत्व स्थापित किया। उनके ऐसा करने से शिक्षित समाज और जगत वासी उसके प्रति आकृष्ट हुए। फिर भक्ति विनोद ठाकुर जी को अवलंबन कर उनके उत्तराधिकारी के रूप से विश्वव्यापी श्रीचैतन्य मठ और श्रीगौड़ीय मठों के प्रतिष्ठाता नित्यलीला प्रविष्ट ॐ 108 श्रीमद् भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी आविर्भूत हुए और उन्होने श्री भक्ति विनोद ठाकुर जी के मनोऽभीष्ट का विपुल रूप से प्रचार किया।

पृथिवी ते यत आछे देश-ग्राम। सर्वत्र संचार हईवेक मोर नाम।  (श्री चैतन्य भागवत, अन्त्य 4\26) ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी ने श्रीमन् महाप्रभु जी की इस वाणी को सार्थक किया। मानव जाति का सर्वोत्तम परमार्थिक कल्याण करने में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी का अवदान अतुलनीय हैं।
श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद जी ने ‘जैव धर्म’ ग्रंथ के उपोद्घात (प्रस्तावना) में ठाकुर भक्ति विनोद जी का परिचय इस प्रकार दिया हैं , “श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी श्रीचैतन्य चन्द्र जी के अत्यंत प्रिय हैं। जब काल के प्रभाव से श्रीचैतन्य देव जी के मनोऽभीष्ट का प्रचार करने वाले प्रपंच से नित्यलीला में प्रवेश कर गए तो उस समय गौड़ीय गगन गौरविहित कीर्तन किरण से वंचित हो गया एवं भोग और त्याग की घनघोर घटाओं से ढक गया। जब गौड़ गगन के सूर्य, चन्द्र और उज्ज्वल तारे एक-एक करके लोगों की दृष्टि से ओझल हो जाने लगे तो आकाश में अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने के लिए बिजली के प्रकाश को छोड़कर और कोई उपाय नहीं था। समय बीतने पर 315 साल बाद नदिया जिले के अंतर्गत वीर नगर ग्राम में इन गौर निजजन का आविर्भाव गौड़ीय गगन में उद्भासित हुआ।
सर्वमहागुणगण वैष्णव शरीरे। कृष्ण भक्ते कृष्णर गुण सकल संचारे।  सेई सब गुण हय वैष्णव-लक्षण। सब कहा न याय करि दिग्दर्शन।। कृपालु, अकृत-द्रोह, सत्य-सार, सम।  निर्दोष, वदान्य, मृदु, शुचि, अकिंचन।। सर्वोपकारक शांत, कृष्णैकशरण। अकाम, निरीह, स्थिर, विजित-षड्गुण। मित्भुक, अप्रमत, मानद, अमानी। गम्भीर, करुण, मैत्र, कवि, दक्ष, मौनी।
कृष्ण भक्त के ये तमाम गुण हमें श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी के शुद्धभक्तिमय जीवन में परिपूर्ण रूप से प्रस्फुटित देखने को मिलते हैं। कृपालु, दयानिधि गौरहरि जी ने बद्ध जीवों पर जैसे नौ प्रकार से कृपा वर्षण की हैं, उनके निजजन श्रील भक्ति विनोद ठाकुर महाशय को भी वैसी ही दया को वितरण करते देखा जाता है। 
श्रीचैतन्य मठ, श्रीगौड़ीय मठ, श्री चैतन्य गौड़ीय मठ तथा श्री गौड़ीय मिशनों में प्रतिदिन श्रीकृष्णभजनमय जितने भी कृत्यों को किया जाता है,  उनके मूल में हैं श्रील सच्चिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर। श्री गौड़ीय मठ प्रतिष्ठान और श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी दोनों अभिन्न हैं। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी के इस अलौकिक अवदान के लिए प्रतिष्ठान हर प्रकार से सदैव ऋणी रहेगा।
श्रील सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद जी ने लिखा है कि श्री रूप गोस्वामी जी के अनुगत भक्त अपनी शक्ति के प्रति आस्था स्थापना न कर मूल स्थान पर ही सारी महिमा को आरोपित करते हैं अर्थात प्रत्येक अच्छे कार्य का श्रेय वे स्वयं को न देकर अपने मूल को ही देते हैं। हम भी श्रीकृष्णचैतन्य, श्रीरूप, श्रीभक्ति विनोद और श्रीगुरुपादपद्म के उद्देश्य से ही सब कार्य करते हैं। पत्रावली तृतीय खंड 89 पेज पर।
श्रीब्रहम-माध्व सारस्वत गौड़ीय संप्रदाय के भक्त, श्री गुरु परंपरा में श्रीभक्तिविनोद ठाकुर जी को नित्य इस प्रकार स्मरण करते हैं।
“शुद्ध भक्ति प्रचारस्य मूलीभूत इहोत्तम:।”
“श्रीभक्तिविनोदो देव्स्तत प्रियत्वेन विश्रुत:।”
श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी के अनुकंपित शिष्यों में से दो प्रधान पार्षद पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति रक्षक श्रीधर देव गोस्वामी महाराज जी एवं पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति विचार यायावर गोस्वामी महाराज जी द्वारा रचित क्रमश: श्री भक्ति विनोद ठाकुर वंदना (संस्कृत) एवं बंगला स्तुति नीचे दी जा रही हैं-

“वंदे भक्तिविनोदं श्रीगौरशक्ति स्वरूपकम्।
भक्ति शास्त्र सम्राजं राधारससुधानिधिम्।।”
अर्थात् साक्षात् श्रीगौर शक्ति स्वरूप भक्ति शास्त्र सम्राट, श्रीराधामृतसमुन्द्र  श्री श्रील ठाकुर भक्ति विनोद जी की मैं वंदना करता हूँ।
श्री श्री भक्ति विनोद स्तुति
भक्ति विनोद प्रभु दया कर मोरे।
तब कृपा बले पाय श्रीप्रभुपादेरे ।।
भक्ति सिद्धान्त सरस्वती प्रभुपाद।
जगते आनिया दिले करिया प्रसाद।।
सरस्वती कृष्ण प्रिया, कृष्णभक्ति ताँर हिया,
विनोदेर सेई सै वैभव।
एई गीतेर भावार्थ, प्रभुपाद–पर-अर्थ,
एवे  मोरा करि अनुभव।
श्रीचैतन्येर जन्म स्थान श्रीमायापुर।
तोमर प्रचारे एवे जानिल संसार
शिक्षामृत,जैवधर्म आदि ग्रंथ शत।
सज्जन तोषणी पत्रि सर्वसमादृत 
एई सब ग्रंथपत्रि करिया प्रचार।
लुप्तप्राय शुद्ध भक्ति करिले उद्धार।।
जीवेरे जानाले-तुमि हओ कृष्णदास
कृष्णभज कृष्ण चिन्त, छाड़ी अन्य आश।।
कृष्ण दास्ये जीव सब परानन्द पाय।
सकल विपद ह’ते मुक्त ह’ये याय।।
आपनि आचारि धर्म शिखाले सबारे।
गृहे किम्वा धामे थाकि भजह कृष्णेरे।।

 

गदाधर गौरहरिसेवा प्रकाशिले।
श्री राधामाधव रुपे ताँदेर देखिले।।
गोस्वामीगणेर ग्रंथ विचार करिया।
सुसिद्धांत शिखायेछ, प्रमाणादि दिया।।
ताहा पड़ि शुनि लोक आकृष्ट हइला।
जगभरि तब नाम गाहिते लगिला।।
व्यासेर अभिन्न तुमि पुराण प्रकाश।
शुकाभिन्न प्रभुपाद श्री दयित दास।
वैष्णवेर यत गुण आछये ग्रन्थेते।
सकाल प्रकाश हइला तोमार दहेते।।
श्रीगौड़मंडल माझे श्रीवीर नगर।
तव आविर्भाव स्थान सर्वशुभंकर।।
वंदि आमि नतशिरे सेई पुण्य क्षेत्र।
मस्तके धारण करि से धूलि पवित्र।।
तोमर कृपाय ईशोदयाने स्थान पाई।
भागवत  मठे वसि तव नाम गाई।।
तोमर दासानुदास यति यायावर।
प्रार्थना करये धामवास निरन्तर।।
जिस प्रकार स्वयं भगवान श्री कृष्ण की नरवपुस्वरूप में सर्वोत्तम नर लीला हैं, उसी प्रकार कृष्ण पार्षद भक्त भी पतित जीवों का उद्धार करने के लिए मनुष्य कुल में अवतीर्ण होकर नरलीला के अनुरूप ही आचरण करते हैं। मनुष्य जैसे दिखने पर भी माया जगत में स्पर्श न होने के कारण वे सदा अप्राकृत हैं। श्रीकृष्ण में गाढ़ प्रेम रखने वाले भगवत् भक्त का गृहस्थ-आश्रम में रहना, विषयों में आसक्त बद्ध जीवों की तरह नहीं हैं। उन भक्तों का गृहस्थ में रहना तो मनुष्यों के साथ लेन-देन के लिए मनुष्यों की तरह अनुकरणिक लीला मात्र है। विष्णु-वैष्णवों के चरणों में निष्कपट भाव से शरणागत व्यक्ति उनकी कृपा से ही उनकी अलौकिकता को समझने में समर्थ हो सकता है।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी का वंश परिचय
आदिशूर के द्वारा बुलाये जाने पर श्री पुरुषोत्तम जी बंग देश गए थे। श्री पुरुषोत्तम जी के वंश में सातवें एवं आठवें अधस्तन रूप में श्री विनायक और उनके पुत्र श्री नारायण राजमंत्री बने थे। इस वंश में 15वें अधस्तन के रूप में राजा कृष्णानन्द का जन्म हुआ। ये कृष्ण भक्त थे। श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु जी ने सपार्षद इनके घर शुभागमन करके इनके प्रति प्रचुर आशीर्वाद किया था। बाद में इनके वंश में ही महात्मा श्रीगोविंद शरण दत्त जी ने जन्म ग्रहण किया। जिन्होने गोविंदपुर का निर्माण करवाया था। कालीघाट, सुतानूटी और गोविंदपुर – इन तीन शहरों को लेकर ही कोलकत्ता बना है। गोविंदशरण जी के पोते श्रीरामचंद्र व श्रीरामचंद्र जी के पौत्र श्रीमोहन दत्त थे। इन्होंने जनसाधारण के प्रयोग में लाने के लिए कोलकत्ता के हेदुआ सरोवर को Municipal Committee को दान में दे दिया था। गया के प्रेतशिला तीर्थ में और चंद्रनाथ के पहाड़ में बहुत पैसे खर्च कर सीढ़ियों का निर्माण करवाया था। इनके पौत्र श्रीराजा बल्लभ दत्त थे। श्रीराजा बल्लभ के पुत्र परमधार्मिक , विषयविरक्त श्रीआनंद चन्द्र दत्त थे।
नदिया जिले के उलाग्राम के प्रसिद्ध जमींदार श्रीईश्वरचन्द्र मुस्तोकी की कन्या श्रीजगनमोहिनी के साथ श्रीआनंद चन्द्र जी का विवाह हुआ |
ऊला ग्राम में ठाकुर जी का आविर्भाव
श्रीआनंद चन्द्र दत्त और श्रीजगन्मोहिनी देवी को माता-पिता के रूप में अंगीकार करते हुए सन् 1838, 2 सितंबर रविवार की शुक्ला त्रयोदशी की शुभ तिथि को उलाग्राम (वीरनगर) में बसे अपने ननिहाल में आप आविर्भूत हुए थे। इनके माता पिता ने इनका नाम रखा था केदारनाथ।
शिशुकाल से ही ठाकुर की अलौकिक प्रतिभा
अतीव शिशु अवस्था में अर्थात् मात्र दो साल की आयु में ठाकुर जी की जिह्वा में कवित्व की स्फूर्ति हो गयी थी। इस प्रकार की असाधारण योग्यता इस बात की ओर इंगित करती हैं कि भविष्य में उनके द्वारा लिखी गयी भगवद्भाव पूर्ण और रस से परिपूर्ण अप्राकृत गीतावलियाँ उन्हे हृदय में स्वत: ही स्फुरित होंगी, न कि इनके किसी भी प्रकार के सांसारिक पांडित्य, विद्या या मनोगत भाव से। अप्राकृत नित्य सिद्ध भगवद् पार्षदों के हृदय में अप्राकृत भाव स्वयं ही प्रकट होते हैं। वैकुंठ पुरुषों के मुखारविंद से निकले शब्द-शब्दी भगवान से अभिन्न होते हैं। इनसे जागतिक किसी भी शब्द कि तुलना नहीं होती। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी द्वारा प्रयोग किया गया प्रत्येक शब्द भगवद् भाव को पैदा करने वाला और भक्ति रस से पूर्ण अमृत है।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने मात्र छ: साल कि आयु में रामायण और महाभारत में सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिया था। क्या साधारण छ: साल के शिशु के लिए ये सब करना संभव हैं? रामायण और महाभारत आदि शास्त्र भगवान् के अभिन्न स्वरूप हैं।  भगवान कि कृपा को छोड़कर केवल पांडित्य द्वारा इन सब भक्ति शास्त्रों का तात्पर्य समझ में आने वाला नहीं है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी के हृदय में शास्त्रों के अर्थ स्वयं प्रकटित थे। इसलिए श्री भक्ति विनोद ठाकुर जी के द्वारा किए गए शास्त्रों के अर्थ तथाकथित पांडित्य के द्वारा की गयी व्याख्या से पूरी तरह अलग हैं।
नौ वर्ष की उम्र में इन्होंने ज्योतिष शास्त्र पर खोज शुरू कर दी थी। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने अपने आत्मचरित में लिखा हैं कि दस साल कि आयु में उनके चित्त में तत्व जिज्ञासा जागी। वे तो सदा तत्वज्ञान से उद्भासित ही थे फिर भी मनुष्य जन्म कि विशेषता स्थापन करने के लिए उन्होने ऐसी लीला की थी।  ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी अत्यंत मृदु और सुमधुर भाषी थे। वे प्रेमपूर्ण और मर्यादापूर्ण वाक्यों के द्वारा सबका हृदय जीत लेते थे। यहाँ तक कि माधुर्यपूर्ण वाक्यों से जिनके विचारों का खंडन करते, वे भी दुखी न होकर सुख का ही अनुभव करते थे। ऐसी शक्ति चंचल चित्त वाले साधारण बालक में नहीं हो सकती। ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी के स्वलिखित जीवन चरित्र में ऐसी कई घटनाओं के विषय में जाना जाता है-
“जिसके भी घर में कोई उत्सव हो मैं देखने जाता हूँ। ब्रह्मचारी जी के घर में बहुत पूजा होती है। उस घर के बाहर एक सुंदर मंदिर है। उसी घर के अंदर कि तरफ एक बगीचा भी है और होम करने का स्थान भी है। ब्रह्मचारी जी तांत्रिक मंत्रों से उपासना करते हैं। उन्होने मुर्दों की खोपड़ियाँ छोटे-छोटे खानों में रखी हुई हैं। किसी किसी का कहना था की उन खोपड़ियों में दूध और गंगा जल देने से वह हँसती हैं। मैंने स्वयं खोपड़ी को उतार कर उसके ऊपर जल देकर देखा लेकिन मैंने कोई भी हंसी नहीं देखी। वहाँ पर ज्योतिषियों के भी घर हैं। मैं वहाँ गाने सुनने जाता था।
एक वृद्ध तरखान वह नियुक्त रेहता था। मैं उसके पास बैठकर उससे अनेक बात पूछता था। वह मेरी सब बातों का उत्तर देता था। मैंने उससे पूछा कि इस प्रतिमा में देवता कब आएंगे ? उसने उत्तर दिया- जिस दिन मैं इन्हे नेत्र प्रदान करूंगा उसी दिन देवता आकार प्रतिमा में अधिष्ठित हो जाएंगे।  मैं उस दिन बड़ी उत्सुकता के साथ देखने आया, किन्तु किसी भी देवता का अधिष्ठान देखने को नहीं मिला।  तब मैंने कहा कि गोलोक पाल ने पहले धान की पराली से और उसके ऊपर मिट्टी से इस प्रतिमा को बनाया हैं और तुमने भी पहले चाक से और फिर रंगों से इसमे कलाकारी की है। वास्तव में देवता तो यहाँ कहीं आए नहीं। तब उस वृद्ध सूत्रधार ने कहा कि अभी ब्राह्मण आएंगे और घड़ा बिठएंगे, तब भगवान का आविर्भाव होगा। 
मैं तब भी गया परंतु मैं तब भी कुछ नहीं देख पाया। उस वृद्ध को ज्ञानवान जानकार मैंने उसके घर में जाकर उससे सब बातें पूछी तब उसने कहा – ‘प्रतिमा पूजा में मेरा कोई विश्वास नहीं हैं। मुझे ऐसा लगता है कि ब्राह्मण इस तरीके से पैसे इकट्ठे करते हैं।’ वृद्ध के इस प्रकार कहने पर मुझे बहुत अच्छा लगा।  मैंने उससे परमेश्वर के बारे में पूछा। उसने कहा- कोई कुछ भी बोले, मैं एक परमेश्वर को छोड़कर किसी पर विश्वास नहीं करता। देवी देवता कल्पित हैं, मैं तो प्रतिदिन उस परमात्मा की आराधना करता हूँ। वृद्ध की इस बात पर मुझे बहुत श्रद्धा हुई।
मैं जिज्ञासु हो उठा। गुलाम खां नामक सेवक एक पहरेदार था। मैंने उससे पूछा तो उसने कहा कि ‘ईश्वर का नाम खुदा है। वह एक ही था दूसरा और कोई नहीं था। खुदा ने शरीर की मैल को रोटी की तरह बनाकर एकार्णव के जल में फेंका। रोटी का ऊपर का हिस्सा तो आकाश बना और नीचे का हिस्सा पृथ्वी बन गया। इस प्रकार जगत की सृष्टि होने पर आदम की सृष्टि के बाद मनुष्यों की सृष्टि हुई। हम सभी उस आदम के ही वंशज हैं। ये बात सुनकर मैंने उससे पूछा कि आप राम को क्या कहते हो? उसने कहा कि ‘राम व रहीम एक ही हैं। वही खुदा हैं। तभी मैंने भूतों के मंत्र के बारे में पूछा। भूतों की बात पर गुलाम खां ने कहा कि सभी भूत शैतान कि औलाद हैं, वे रहीम के नाम से डरते हैं। इस तत्व ज्ञान से मेरा मन प्रसन्न हुआ। परशुराम मुस्तौफ़ी तब वकालत पढ़ते थे। पहले वे थोड़ा बहुत ईश्वर को मानते थे परंतु बाद में ईश्वर के संबंध में जवाब दिया कि जब वह ईश्वर को मानते थे, तब रघुमामा और नशु मामा उनके चेले थे और जब ईश्वर को छोड़ा तो राममोहन रॉय को ‘गुरु महाशय’ कहने लगे। मेरे लिए बड़ी मुश्किल हुई। मैं एक छोटा बालक ज़्यादा बातें जनता नहीं था फिर भी इस प्रकार मतभेद देखकर मन में सुख नहीं हुआ। परशुराम मामा ने कहा, ‘बेटा, सब कुछ प्रकृति से ही हुआ हैं। फिर यही बातें मैंने किसी-किसी संप्रदाय के भट्टाचार्य से पूछी तो वे भी गोलमोल उत्तर देने लगे किन्तु अस्थिर सिद्धान्त अवस्था में भी मैंने राम नाम नहीं छोड़ा।
इन सब बातों द्वारा श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने अनावश्यक तर्क वितर्क के मार्ग को छोड़कर, अपरिपक्व अवस्था में गोलमाल सिद्धांतों में प्रवेश ना कर, श्रद्धा के साथ हरिनाम करने का उपदेश दिया है। श्रीमन् महाप्रभु जी भी जब पढ़ाते थे तो उन्होने भी ज़ोर देकर छात्रों को हरिनाम करवाया था। हरिनाम के द्वारा ही वास्तविक तत्व ज्ञान  (हृदय में ) प्रकटित होगा। जड़ीय मन व बुद्धि द्वारा के द्वारा वास्तविक तत्वज्ञान कि प्राप्ति नहीं होती। ‘उल्टा बुझिली राम’ अर्थात् ऐसे में जो समझते हैं वे समझ उल्टी ही होती है।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ईश्वर चंद्र विद्यासागर महाशय के बड़े पुराने और स्नेही छात्र थे। एक बार वे कोलकाता में विद्यासागर महाशय जी के घर गए तो विद्यासागर महाशय जी ने उनसे कहा कि जब ईश्वर को हमने देखा ही नहीं तो उसकी आलोचना ना करना ही अच्छा है। छात्र होने पर भी ठाकुर श्री भक्ति विनोद ठाकुर जी सच बात बोलने से नहीं हटे। उन्होने कहा- पण्डित महाशय। आपने बोधोदय नमक पुस्तक में ‘ईश्वर निराकार चैतन्य स्वरूप’ क्यों लिखा है? ईश्वर को न देख उसके संबंध में अपना मत-अमत प्रकट करना क्या ठीक है? ईश्वर सर्वशक्तिमान हैं, उनमें क्या अपने आकार कि रक्षा करने की क्षमता भी नहीं हैं? परमेश्वर हमारे नित्य प्रभु हैं, हम उनके नित्यदास हैं। उनके प्रति हमारे हृदय में जो स्वाभाविक अनुराग है। वेदों ने उसे ही ‘भक्ति’, ‘ब्रहंविद्या’ या ‘पराविद्या’ कहा है। उस विद्या को प्राप्त करने से किसी प्रकार के ज्ञान का अभाव नहीं रहता। जिनका हमेशा वास्तव वस्तु भगवान के साथ साक्षात् संबंध है, वे लोग ही तत्वविरोधी बातें धीरे-धीरे समझने में समर्थ होते हैं। ग्रन्थों के अध्यन्न से प्राप्त विद्या एवं स्वतः सिद्ध वस्तु के आविर्भाव से उत्पन्न ज्ञान दोनों पूरी तरह से अलग-अलग हैं।
     विवाह लीला
11 वर्ष की आयु में ही ठाकुर श्री भक्ति विनोद जी का पितृ वियोग हो गया था। उस समय के बंग देश की सामाजिक प्रथा के अनुसार श्री केदारनाथ जी की माता जी ने 12 वर्ष के बालक का राणाघाट निवासी पाँच वर्ष की एक बालिका के साथ विवाह कर दिया। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने लिखा हैं कि जैसे मिट्टी के गुड्डे-गुड्डियों का खेल होता हैं वैसे ही मेरा विवाह हुआ। ठाकुर जी ने ये भी लिखा कि मैं अकेला ससुराल में नहीं रह सकूँगा। इसलिए उनकी पत्नी भी साथ गयी थी। सब कुछ समझते हुए भी ठाकुर श्री भक्ति विनोद जी ने संसार में प्रवृत्त मनुष्यों की बद्ध अवस्था की असुविधाओं को साक्षात् हृदयंगम करते हुए उसके प्रतिकार की व्यवस्था प्रदान करने के लिए ही सामाजिक प्रथा में बाधा नहीं दी।
अध्यन्न लीला
ठाकुर श्रीभक्ति विनोद ठाकुर छ: वर्ष की आयु में विद्यावाचस्पति जी की पाठशाला में संस्कृत का पाठ श्रवण करते थे। श्री ईश्वर चन्द्र मुश्तोफ़ी महाशय ने श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी को 7 साल की आयु में कृष्णनगर के कॉलेज में पढ़ने के लिए भेजा था। उस समय कैप्टन डी एल रिचर्डसन कृष्णनगर कॉलेज के प्रिन्सिपल थे तथा देशीय प्रधान-अध्यापक रूप में श्रीरामतनु लाहीड़ि। बाद में जब उलाग्राम में उच्च अंग्रेज़ी विद्यालय खुल गया तो ठाकुर जी 8 साल की आयु में उस में भर्ती हो गए।  कृष्णनगर कॉलेज में अध्यन्न करते समय कूचबिहार के बालक- राजा ठाकुर के सहपाठी थे।
उला ग्राम में नानी के स्वधाम प्राप्त हो जाने के बाद श्री भक्ति विनोद ठाकुर जी माता जी के साथ कोलकाता आ गए। वहाँ हेदुआ और विड़न स्ट्रीट्स के मोड़ पर एक घर में रहने लगे और कोलकाता में हिन्दू चरिटेबल इंस्टीट्यूशन में उन्होने पुन: शिक्षा आरंभ कर दी। चार साल वहाँ विद्या प्राप्त करने के पश्चात् सन् 1865 में हिन्दू स्कूल में भर्ती हो गए। उसी साल ही कोलकाता में विश्वविद्यालय खुल गया। कोलकाता में विश्वविद्यालय खुल जाने पर वह एंट्रेंस परीक्षा आरंभ हो गयी। उस समय श्रीसत्येंद्रनाथ ठाकुर, श्रीगणेन्द्र नाथ ठाकुर, श्रीतारक नाथ पालित और श्रीनवगोपाल मित्र श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी के सहपाठी थे। श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी की अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य में प्रतिभा को देखकर प्रिंसीपल कलिन्ट साहब, पाद्री डाल साहब, जॉर्ज टम्सन एवं श्रीकेशव चंद्रसेन आपके प्रति बहुत आकर्षित हुए थे। 1865 के अंत में ठाकुर श्री भक्तिविनोद जी द्वारा अंग्रेज़ी भाषा में लिखित “पोरियेड” काव्य का शिक्षित व्यक्तियों के द्वारा बड़ा समादर हुआ। ठाकुर जी द्वारा रचित कवितायें ‘लाइब्ररी गज़ट’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। ब्रिटिश इंडियन सोसाइटी में ठाकुर श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी के तत्वज्ञान से भरे भाषण को सुनकर सभी विस्मित हो गए थे। ठाकुर श्री भक्ति विनोद जी ने सनातन धर्म के शास्त्रों के अतिरिक्त बाइबल एवं कुरानादि तमाम-धर्म ग्रन्थों का अध्यन्न किया था। क्रिश्चियन धर्म में नित्य-सविशेष भगवान के विचार हैं इसलिए उन्होने ब्रहमधर्म की अपेक्षा क्रिश्चियन धर्म के श्रेष्ठतव का अनुभव किया था। सिपाही विद्रोहरूपी संकट के समय उन्होने प्रचार में बाहर निकल विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया था।
दादा राजबल्लभ जी की भविष्यवाणी
1858 ई० में ठाकुर श्री भक्ति विनोद जी ने गौड़देश से नीलाचल की यात्रा की। रास्ते में याजपुर के पास ही छुट्टीग्राम  (छुट्टीगोविंदपुर) में अपने दादा जी के साथ इनका मिलन हुआ था। वाक् सिद्ध पुरुष दादा जी श्रीराजवल्लभ दत्त ठाकुर जी ने ये भविष्यवाणी की थी कि ‘ठाकुर बड़े वैष्णव बनेंगे। ये भविष्यवाणी करने के साथ-साथ उनका ब्रहमतालु भेद हो गया और उनके प्राण निकाल गए। ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी कटक से पैदल यात्रा कर चन्दन यात्रा के समय पुरी में श्रीजगन्नाथ जी के पादपदमों में पहुंचे तथा कुछ दिन वहाँ रह कर वे कटक, भद्रक, मेदिनीपुर इत्यादि स्थानों से होकर वापस कोलकाता आ गए।
श्रीभक्ति विनोद नाम की प्राप्ति
श्रीईश्वर चन्द्र विद्यासागर महोदय जी की इच्छा के अनुसार श्रीभक्ति विनोद जी ने कटक के सरकारी उच्च विद्यालय में प्रधान शिक्षक एवं भद्रक सरकारी उच्च विद्यालय के प्रधान शिक्षक का पद स्वीकार किया था। उसी समय ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी द्वारा रचित उड़ीसा के मठों पर लिखी एक तथ्यपूर्ण ‘Maths of Orrisa’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। सर विलियम हंटर की  ‘Orrisa’ पुस्तक में ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी की  ‘Maths of Orrisa’ पुस्तक की बहुत सी बातों का उल्लेख हुआ। ठाकुर जी ने श्रीचैतन्य गीता नामक एक ग्रंथ लिख कर उसमें ‘सच्चिदानंद प्रेमालंकार के रूप में अपना परिचय दिया है। 400 श्रीगौराब्द में श्रीगौड़ीय गोस्वामी संघ के द्वारा ठाकुर ‘भक्ति विनोद’ नाम से भूषित हुए। तभी से श्रीकेदारनाथ ‘श्री सच्चिदानंद भक्ति विनोद ठाकुर जी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी का प्रचार भ्रमण
ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी ने मेदिनीपुर स्कूल के शिक्षक के पद पर भी कार्य किया था। मेदिनीपुर की साहित्य सभा में ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी का धर्मतत्त्व के संबंध में ज्ञान से भरा भाषण सुनकर ब्राहम धर्म अवलंबी श्रीराजनारायण वसु चमत्कृत हो उठे थे। ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी की पहली पत्नी के अंतर्ध्यान करने पर मेदिनीपुर में रहते समय उन्होने भगवती देवी को पत्नी रूप में स्वीकार किया था। प्रचार भ्रमण में ठाकुर मेदिनीपुर से वर्धमान में भी आए थे। वर्धमान में रहते समय उन्होने ‘Our wants’ नामक एक पुस्तक लिखी थी। स्थानीय व्यक्तियों के विशेष अनुरोध पर आपने ब्राह्म धर्म तथा क्रिश्चियन धर्म की एकता के लिए भी चेष्टा की थी। अपने दो भाषणों के द्वारा अपने उनकी अयौक्तिक्ता (जो युक्तिसंगत न हो) का प्रदर्शन किया।
ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी ने वर्धमान में भ्रातृसमाज की स्थापना की थी। भ्रातृसमाज में आत्मा के संबंध में अंग्रेज़ी भाषा में तत्वज्ञान से भरा भाषण सुनकर हिली साहब तक प्रभावित हो गए थे। ठाकुर वर्धमान में चूयाभांगा, राणाघाट भ्रमण करने के पश्चात बिहार में छपरा और पश्चिम में काशी, मिर्ज़ापुर, प्रयाग तथा आगरा इत्यादि स्थानों से होकर वृन्दावन पहुंचे थे।  छपरा में रहते समय अपने उर्दू और फारसी भाषा सीखकर पारदर्शिता प्राप्त की थी। छपरा की विशेष सभा में ‘गौतमस्पीच’ नामक एक भाषण दिया था। छपरा से पूर्णिया होकर डिप्टी मेजिस्ट्रट  का पद ग्रहण कर आप दिनाजपुर आ गए थे। दिनाजपुर में हिंदुओं और ब्रह्मवादियों के बीच में विवाद हो जाने से आपने उन्हे समझने का प्रयास किया एवं ‘भागवत स्पीच’ नामक एक भाषण भी दिया। सन् 1868 के जून मास में मालदह में ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी ने श्रीरूपसनातन जी के स्थान और राजमहल इत्यादि के दर्शन किए। उसके पश्चात् कोलकता वापस आकर ठाकुर विनोद जी ने श्रीचैतन्य चरितामृत और श्रीमदभागवत दोनों ग्रन्थों का संग्रह करने के लिए अनेक खोज की। बड़े कष्ट के पश्चात् बड़े तला से प्रकाशित दोनों ग्रंथ मिले। इन दोनों ग्रन्थों को लेकर ठाकुर पुन: पुरुषोत्तम धाम में पहुँचे। उस समय सरकार की तरफ से श्री जगन्नाथ मंदिर की सुचारु रूप से सेवा परिचालना करने के लिए इन्हें मंदिर का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया। एक-एक करके पाँच साल आप पुरी में रहे थे।
प्रताड़ना के लिए विषकिषण को दंड प्रदान
ठाकुर के चरित्र में ‘मृदुनी कुसुमादपि वज्रादपि कठोराणि’ स्वभाव प्रकटित था। स्वाभाविक ही मृदु स्वभाव वाले होने पर भी इन्होंने कभी अन्याय को पालकर नहीं रखा। इससे संबन्धित उड़ीसा की एक घटना का उल्लेख किया जा रहा है – सन् 1871 ई० में उड़ीसा की अतिवाड़ी संप्रदाय का ‘विषकिषण’ नाम काईत वंश का एक व्यक्ति था जो योगबल से कुछ शक्ति संचित कर अपने आप को महाविष्णु का अवतार कहता फिरता था। विषकिषण भुवनेश्वर के पास एक जंगल के इलाके में अपने दल बल के साथ रहता था। उसने ऐसी घोषणा करवाई कि 14 चैत्र को वह चतुर्भुज मूर्ति धारण कर पृथ्वी का मलेच्छों के हाथों से उद्धार करेगा और धर्म की स्थापना करेगा। उसके द्वारा प्रचार की गयी घोषणा इस प्रकार थी – “वनेर अछि विषकिषण, गुप्तेर आछि न जानइ आन।
13मीनेर आरम्भिव रण, चतुर्भुज होई नाशिव म्लेछगण।।”
उसने योग बल से असाध्य रोगों को दूर कर और बहुत सी आश्चर्यजनक विभूतियाँ दिखाकर लोगों का मन जीत लिया था। बाद में बस्ती की स्त्रियों के पास संदेशा भेजा कि पूर्णिमा की रात के समय वह रासलीला करेगा। भृगांर कुल के चौधरी को विषकिषण की इस घोषणा से संदेह हुआ कि वह यहाँ की महिलाओं से शोचनीय व्यवहार करेगा। इसलिए वह महिलाओं के अभिभावकों को साथ लेकर कमिशनर रेवेन्स के पास गया और उसे सारी बातों से अवगत कराया। कमिश्नर साहब ने इसका सारा भार श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी को सौंप दिया। अपनी योजना के अनुसार श्रीभक्ति विनोद रात के समय वन में जाकर विषकिषण से मिले और उसे ऐसे अनुचित कार्य न करने के लिए समझाने लगे। विषकिषण ने स्वयं को जीवंत महाविष्णु और श्रीजगन्नाथ देव को अचेतन लकड़ी बताया तथा नाना प्रकार से ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी को संतुष्ट करने का प्रयास करने लगा। जब वह लोगों को ठगने के इस कार्य को न करने के लिए किसी भी प्रकार से न माना तो ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी ने उसे गिरफ्तार कर लिया और उसे पुरी में ले आए। उस योगी की वास्तविकता को जानने के लिए श्रीभक्ति विनोद उड़ीसा की विभिन्न बस्तियों, बौद्ध विहार भूमि व खंडगिरी आदि स्थानों पर भी गए थे। खोज में विषकिषण के कपट आचरण के जब उन्हे पक्के प्रमाण मिल गए तो ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी ने उसे दंड देने का संकल्प लिया। फैसला होने से पहले चल रहे विचार के समय उस योगी ने ठाकुर श्रीभक्ति विनोद को कई बार डराया, यहाँ तक की योग शक्ति से उन्हे और उनके परिवार वालों को शारीरिक रूप से बीमार भी कर दिया। किन्तु ठाकुर जी ने वज्रादपि कठोराणि अर्थात वज्र से भी कठोर विचारों का अवलंबन करते हुए उसके इन सब दुराचारों को सहा और उसे डेढ साल के कारावास का दंड प्रदान किया। विषकिषण ने 21 दिनों तक जल की बूँद भी ग्रहण न की और देह त्याग दी। याजपुर में भी एक व्यक्ति अपने आप को ब्रह्मा का एवं खुरदा नामक स्थान पर एक व्यक्ति अपने आप को बलदेव का अवतार कहता था। उन्हें भी श्रीभक्ति विनोद जी ने विषकिषण की तरह सज़ा प्रदान की।

नीलाचल में ठाकुर श्री भक्ति विनोद
1869 से 1874 तक पुरी में रहते समय आपने श्रीकृष्ण दै्वपायन वेदव्यास जी द्वारा रचित श्रीमद्भागवत्, श्रील जीव गोस्वामी जी द्वारा रचित षट्संदर्भ , श्रील बलदेव विद्याभूषण जी द्वारा रचित वेदान्त का गोविंद भाष्य, सिद्धान्त-रत्न, प्रमेयरत्नावली और अन्य-अन्य ग्रंथ, श्रील रूप गोस्वामी जी द्वारा रचित श्रीभक्ति रसामृत सिंधु आदि ग्रन्थों की विशेष रूप से चर्चा एवं अध्यन्न किया। इस लीला का आदर्श दिखाकर उन्होने ये शिक्षा दी कि यदि कोई व्यक्ति अपना मंगल चाहता हैं तो उसे इन सब शुद्ध भक्ति सिद्धान्त–सम्मत ग्रन्थों का अध्यन्न करना चाहिए। श्रीमन् महाप्रभु जी ने पाँच प्रकार के भक्ति अंगों में भागवत् श्रवण की बात कही है।  श्रील जीव गोस्वामी जी ने ‘भागवत्-श्रवण’ को ही परम श्रेष्ठ कहा है।  श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने भी तमाम शास्त्रों की चर्चा में से भागवत् की चर्चा और अध्यन्न की विशेषता का प्रचार करने के लिए श्रीजगन्नाथ बल्लभ उद्यान में भागवत्-संसत् नामक एक वैष्णव सभा की स्थापना की थी। श्रीनित्यानंद, श्रीपरमानन्द इत्यादि विशिष्ट वैष्णव एवं महंत श्रीनारायण दास उत्तर  की तरफ के महंत श्रीहरिहर दास आदि विद्वान लोग ठाकुर भक्ति विनोद जी के मुखारविंद से नि:सृत भागवत् की व्याख्या श्रवण करते थे। जिस प्रकार श्रीमन् महाप्रभु जी ने श्रीगदाधर पंडित गोस्वामी जी से भागवत् श्रवण करने का आदर्श दिखाया, उसी प्रकार ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी भी श्री गोपीनाथ पंडित से भागवत् विषय में चर्चा और भागवत् श्रवण करते थे। हाती अखाड़े के कन्थाधारी श्रीमद् रघुनाथदास बाबाजी ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी की सभा का विरोध करने के कारण भयंकर रोग से पीड़ित हो गए थे तथा बाद में श्रीजगन्नाथ देव जी द्वारा स्वप्न में आदेश देने पर जब उन्होने ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी से क्षमा मांगी तब जाकर वे रोग से मुक्त हुए। ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी जगन्नाथ मंदिर में मायावादी शासन-ब्राह्मणों के मुक्ति मंडप में न बैठकर श्रीलक्ष्मीदेवी जी के मंदिर में और श्रीमहाप्रभु जी के पादपदमों के सान्निध्य में बैठकर भक्ति शास्त्रों की चर्चा करते थे। मुक्ति मंडप के ब्राह्मण पंडित भी इस भक्ति सिद्धान्त को सुनने के लिए आते थे। ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी ने इस स्थान को ‘भक्ति प्रांगण’ या ‘भक्ति मंडप’ नाम दिया था। ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी विशेष रूप से श्रीकृष्ण दास कविराज जी द्वारा रचित श्रीचैतन्य चरितामृत एवं श्रीनरहरि चक्रवर्ती ठाकुर जी के ‘भक्तिरत्नाकर’ ग्रंथ की चर्चा करते थे। जयानन्द के ‘चैतन्य मंगल’ नामक ग्रंथ को श्रीभक्ति विनोद जी ने प्रामाणिक ग्रंथ के रूप में स्वीकार नहीं किया। वे पुरी में सिद्ध वैष्णव श्रीस्वरूप दास बाबा जी महाराज जी के साथ धर्मतत्त्व के विषय में चर्चा करते थे। पुरी में रहते समय ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी ने ‘दत्तकौस्तुभ’ नामक ग्रंथ लिखा था तथा साथ ही श्रीकृष्णसंहिता के कई श्लोकों की रचना भी उसी समय की थी।

  श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर जी का आविर्भाव
पुरी के एक धनी परिवार ने ग्रांड रोड के बगल में दक्षिण की तरफ Lease पर मठ की ज़मीन लेकर उस पर घर का निर्माण करवाया। इस घर में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी रहते थे। ये स्थान श्रीजगन्नाथ मंदिर के पास के नारायण छाता के साथ जुड़ा हुआ है।
6 फ़रवरी, शुक्रवार, सन 1874, माघी कृष्णा पंचमी तिथि को दोपहर साढ़े तीन बजे ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी के हरिकीर्तन से गुंजायमान उपरोक्त वास भवन में श्रीभगवती देवी की गोद में एक ज्योतिर्मय दिव्यकान्ति युक्त शिशु का आविर्भाव हुआ। शिशु के आविर्भाव के पश्चात् स्वाभाविक ही उसके शरीर पर उपवीत (जनेऊ) को देख कर सभी विस्मित हो उठे थे। श्रीजगन्नाथ देव जी की श्रेष्ठ शक्ति श्रीविमला देवी के नामानुसार ठाकुर श्री भक्ति विनोद जी ने शिशु का नामकरण किया श्रीविमलाप्रसाद। श्रीजगन्नाथ देव जी के महाप्रसाद से इनका अन्नप्राशन हुआ था। यही महापुरुष ही बाद में विश्वव्यापी श्रीचैतन्य मठ और श्रीगौड़ीय मठों के प्रतिष्ठाता श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद जी के नाम से प्रसिद्ध हुए।  प्रभुपाद जी के आविर्भाव के दस मास के पश्चात् ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी भगवती देवी और शिशु के साथ पुरुषोत्तम धाम से पालकी के सहयोग से समतल रास्ते से होते हुए बंगदेश के राणाघाट पर आ गए।

    कृष्ण भक्ति के प्रचार के मूल में श्रील भक्ति विनोद
श्रीजगन्नाथ देव जी के निजजन श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी का श्रीपुरुषोत्तम धाम में रहना एवं श्रीजगन्नाथ मंदिर की सेवा की सुचारु व्यवस्था में उनकी नियुक्ति श्रीजगन्नाथ देव की इच्छा से हुई। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी को अवलंबन कर श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर गोस्वामी जी के आविर्भाव के पश्चात् पुरुषोत्तम धाम से पूरी पृथ्वी पर कृष्ण भक्ति का प्रचार होने पर श्रीकृष्ण दै्वपायन वेदव्यास मुनि द्वारा रचित पद्मपुरान में कही ‘हृयत्कले पुरुषोतामात्’ वाक्य की सार्थकता दिखाई दी।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी का अद्वितीय अवदान
सनातन धर्मावलम्बी तमाम संप्रदायों के मूल गुरु शक्त्याविष्ट अवतार श्रीकृष्ण दै्वपायन वेदव्यास मुनि जी ने स्वयं आचरण करते हुए स्पष्ट रूप से नित्य शांति का रास्ता बताया है। वेदों का विभाग करने वाले महामुनि श्रीवेदव्यास जी वेदान्त, 18 पुराण, महाभारत, महाभारत के अंतर्गत श्रीमद् भगवतगीता लिख कर भी शांति नहीं प्राप्त कर पाये। अंत में उन्होने बद्रिकाश्रम में श्रीनारद गोस्वामी जी के उपदेश के अनुसार श्रीकृष्ण की प्रीति के लिए श्रीकृष्ण की महिमा का कीर्तन करते हुए बारह स्कंधों वाला श्रीमद् भागवत् लिखकर पराशान्ति की प्राप्ति की। उसी सर्वोत्तम भागवत् धर्म का श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने प्रचार किया है।  श्रीमन् महाप्रभु और उनके पार्षदों के अन्तर्धान करने के पश्चात् शुद्ध भक्ति पथ- भागवत् धर्म का रास्ता करोड़ों-करोड़ों काँटों से भर गया। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने अवतीर्ण होकर बहुत से ग्रंथ लिखकर एवं अनथक परिश्रम के साथ प्रचार करके उन शुद्ध भक्ति के प्रतिकूल तमाम उपसिद्धांतों का खंडन करके जीवों का जो अत्यंत मंगल किया हैं और करुणा दिखाई हैं उसे अद्वितीय कहना होगा। श्रीकृष्ण शक्ति के बिना कृष्ण भक्ति का प्रचार नहीं होता है।  साक्षात् गौर-पार्षद या कृष्ण-पार्षद को छोड़ कर और किसी में इस प्रकार की अद्भुत शक्ति का प्रकट होना संभव नहीं है। बाहरी रूप से गृहस्थ लीला में व सरकार के शासन विभाग के दायित्वशील कार्य में नियुक्त रहते हुए भी उन्होंने किस प्रकार विभिन्न भाषाओं में सौ से भी अधिक ग्रंथ लिखे एवं प्रचार किया, यही आश्चर्य का विषय है। उनकी लेखनी का प्रत्येक शब्द ही शास्त्र व अधोक्षज भगवान का उद्दीपक है। जागतिक असाधारण पांडित्य के द्वारा भी इस प्रकार लिखना संभव नहीं है। उनका कोई भी लेख बहुत सोच-सोच कर व कल्पना करके लिखा हुआ नहीं है, उनके सभी लेख स्वत: सिद्ध व स्वाभाविक हैं। उन्होंने ग्रंथ लिखकर सभी जीवों के प्रति स्थायी रूप से करुणा की है। परमरध्यातम् श्रील गुरुदेव, नित्यलीला प्रविष्ट ॐ 108 श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज अपने शिष्यों को ऐसा कहते थे कि :-
“तुम्हें और कुछ भी नहीं करना होगा। केवल मात्र भक्ति विनोद ठाकुर जी के ग्रन्थों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद करके प्रचार कर सको तो जगत के जीवों का परम कल्याण हो जाएगा।”
वास्तव में श्री गौड़ीय मठ में प्रतिदिन  होने वाले जितने भी कृत्य हैं वे सब श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कि ही देन हैं।

      श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी द्वारा रचित ग्रंथ
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी द्वारा रचित ग्रंथ जिनका उल्लेख पहले किया गया है, उनके अतिरिक्त और भी रचित ग्रन्थों और लेखों, (जितनी की जानकारी मिली) की तालिका यहाँ संभव क्रम से नीचे दी गयी है।
( सन् 1866 से 1907 तक )
क्रमांक    ग्रंथ                   भाषा         सन्
1     वालिद में रजिस्ट्री          उर्दू          1866
2     Speech on Gautam     अंग्रेज़ी        1866
3    Speech on Bhagwatam   अंग्रेज़ी        1869
4      गर्भस्तोत्रव्याख्या          बंगला         1870
5     Reflections             अंग्रेज़ी          1871
6  Shlokas of Haridas          अंग्रेज़ी       1871
Thakur’s Samadhi
7  Jagannath Mandir of Puri    अंग्रेज़ी        1871
8   Akhra etc. of Puri          अंग्रेज़ी         1871
9   वेदांताधिकरण माला            संस्कृत        1872
10  दत्तकौस्तुभम                 संस्कृत        1874
11   दत्तवंशमाला                 संस्कृत        1876
12   बौद्धविजयकाव्यम             संस्कृत         1878
13   श्रीकृष्णसंहिता                संस्कृत         1880
(बंगानुवाद सहित )
14   कल्याणकल्पतरु          बंगला-गीति          1881
15    श्रीसज्जनतोषणी              बंगला         1881    
( 1 से 17वां खंड )           मासिक पत्र       
16 Review on ‘नित्यरूप-संस्थापन’   अंग्रेजी         1883
17  श्रीमद् भगवत् गीता          बंगला            1886
(विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद जी की टीका सहित )
(रसिक रंजन मर्मानुवाद )
18  श्रीचैतन्य शिक्षामृत         बंगला              1886
19  शिक्षाष्टक                 संस्कृत          1886
(सन्मोदन भाष्य सहित)
20  मन:शिक्षा (पद्यानुवाद)        बंगला           1886

(श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी विरचित)
21  दशोपनिषद चूर्णिका       संस्कृत             1886
22   भावावली               संस्कृत             1886
(श्लोक और भाष्य)
23   प्रेम प्रदीप (उपन्यास)     बंगला             1886
24   श्रीविष्णु सहस्त्रनाम       बंगला             1886
(श्रीबलदेव कृत भाष्य सहित)
25   श्रीकृष्णविजय      बंगला               1886
-गुणराज खानकृत पद्यग्रंथ प्राचीन हस्तलिपि मुद्रित 
26   चैतन्योपनिषद      संस्कृत              1887
(श्रीचैतन्य चरणामृत भाष्य सहित)
27   वैष्णव सिद्धांतमाला     बंगला            1888
28   श्रीमद् आम्नाय सूत्रम   बंगला व्याख्या     1890
( संस्कृत सूत्र टीका )
29    श्रीनवद्वीप धाम महात्मय  बंगला        1890
30    सिद्धान्तदर्पणनुवाद          बंगला        1890
31  श्रीमद् भगवद् गीता           बंगला        1899
(बलदेवकृत भाष्य) (विद्वत रंजन भाषा भाष्य सहित)
32   श्रीहरिनाम                  बंगला       1892
33   श्रीनाम                     बंगला       1892
34   श्रीनाम तत्व (शिक्षाष्टक)      बंगला         1892
35   श्रीनाम महिमा              बंगला           1892
36   श्रीनाम प्रचार              बंगला           1892
37   श्रीमन् महाप्रभु शिक्षा        बंगला          1892
38  तत्वविवेक (संस्कृत श्लोक)   बंगला व्याख्या      1893
39   शरणागति              बंगला-गीति          1893
40   शोक-शातन(गीति)         बंगला             1893
41    जैवधर्म                बंगला            1893
42    तत्वसूत्र (संस्कृत)     बंगला व्याख्या        1894
43   इशोपनिषद        वेदार्कदीधिति व्याख्या      1894
44  तत्वमुक्तावली या       बंगला व्याख्या        1894
मायावाद शतदूषिणी
45   श्री चैतन्य चरितामृत       बंगला            1895 
का अमृतप्रवाह भाष्य
46  श्रीगौरांगस्मरणमंगल स्तोत्रम   संस्कृत          1896
47  Life and Precepts of       अंग्रेज़ी         1896
Sree Chaitanya Mahaprabhu
48   श्रीरामानुज उपदेश             बंगला         1896
49     अर्थपंचक                 बंगला           1896
50    ब्रहंसंहिता का अनुवाद         बंगला          1897
51   कल्याणकल्पतरु(Revised)    बंगला-गीति       1897
52   श्रीकृष्णकर्णामृतम          बंगला व्याख्या      1898
53    उपदेशामृत (पीयूषवर्षिणी वृति)  बंगला          1898
54    श्रीमद् भगवद् गीता           बंगला         1898
(माध्वभाष्य सम्पादन)
55   श्रीसनातन गोस्वामी प्रभु जी     बंगला भाष्य   1898
का भगवद्धामामृतम
56   श्रीसनातन गोस्वामी प्रभु जी    बंगला          1899
का भक्ति सिद्धान्तामृतम
57   श्रीनरहरि ठाकुरकृत        बंगला         1899
श्रीभजनामृतम
58   श्रीनवद्वीप भाव तरंगिनी  बंगला पयार       1899
59    श्रीहरिनाम चिंतामणि     बंगला पद्य       1900
60     तत्ववंश माला           बंगला           1900
61   श्रीभागवतार्कमरीचिमाला     बंगला व्याख्या     1901 
62   श्रीसंकल्पकल्पद्रुम         बंगला व्याख्या      1901
63   पद्मपुराण (सम्पादन)         बंगला          1901
64  भजन रहस्य (संस्कृत श्लोक)  बंगला पद्यानुवाद  1902
65  विजनग्राम और सन्यासी        बंगला         1902
(संशोधित)
66  श्रीकृष्णसंहिता (संशोधित)     बंगला         1903
67  सत्क्रियासर दीपिका (सम्पादन)  बंगला         1904
68  श्रीचैतन्य शिक्षामृत           बंगला         1905
संशोधित और परिवर्धित
69   श्रीप्रेम विवर्त्त (सम्पादन)    बंगला      1906
70   स्वनियम द्वादशकम         संस्कृत     1907
(असम्पूर्णनम)
71   श्रीनिंबार्क दश श्लोकी        संस्कृत       1907
(अनुवाद और विवृतिसहित )
72   श्रीगीत माला (गीति)        बंगला         1907
73   श्रीगीतावली (गीति)        बंगला          1907
74   हरिकथा               बंगला पद्य        1850
1878 से 1881 तक नडाल (यशोहर) जिले में रहते समय ठाकुर श्रील भक्ति विनोद जी द्वारा रचित श्रीकृष्ण संहिता और कल्याण कल्पतरु – ये दोनों ग्रंथ ठाकुर श्रील भक्ति विनोद जी द्वारा संपादित सज्जनतोषणी (बंगला) पत्रिका में प्रकाशित हुए थे।
सन् 1886 में श्रीरामपुर में रहते हुए ठाकुर भक्ति विनोद जी ने श्रीमद् भगवद्गीता का (विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी की टीका सहित) बंगला में रसिक रंजन मर्मानुवाद, श्रीचैतन्य शिक्षामृत, श्रीशिक्षाष्टक का सन्मोदन भाष्य और ‘भक्तिविनोद’ नाम से एक ग्रंथ लिखा। 1883 ई० में वरासात में रहते समय ठाकुर भक्ति विनोद जी की अंग्रेज़ी में सज्जनतोषणी पत्रिका प्रकाशित हुई। 1887 में श्रील ठाकुर भक्ति विनोद जी को सम्बलपुर में श्रीमधुसूदन दास नामक एक दीक्षित शिष्य से श्रीचैतन्य उपनिषद की एक हस्तलिपि प्राप्त हुई थी। इसी साल कृष्णनगर में रहते हुए ठाकुर ने ‘श्रीआम्नाय सूत्र’ ग्रंथ लिखना शुरू किया और श्रीनवद्वीप धाम- माहात्मय ग्रंथ की रचना की। 1896 में त्रिपुरा से कोलकाता में वापस आने के पश्चात् उनके द्वारा अंग्रेज़ी भाषा में लिखा Life and Precepts of Sree Chaitanya Mahaprabhu एवं संस्कृत भाषा में लिखी ‘श्री गौरांग स्मरण स्तोत्र’ प्रकाशित हुए।
ठाकुर जी की पुन: प्रचार भ्रमण लीला
श्रीमद् भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी के आविर्भाव के पश्चात् पुरी से गौड़देश वापिस आकर ठाकुर भक्ति विनोद जी ने भारत के विभिन्न स्थानों पर श्रीमन् महाप्रभु जी की शुद्ध भक्ति सिद्धान्त वाणी की प्रचार लीला एवं अनेक तीर्थ स्थानों  के दर्शन किए। 1877 से 1910 तक जिन सब स्थानों में उन्होने प्रचार किया एवं जिन सभी तीर्थ स्थानों का दर्शन किया उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है –
पश्चिम बंग में उलुवेडिया महकुमार आम्ता, खानाकुल कृष्ण नगर (गौरपार्षद अभिराम ठाकुर जी का श्रीपाट), श्यामपुर, उड़ीसा का भद्रक, यशोहर जिले (वर्तमान बंगलादेश) में नड़ाइल, कोलकाता, प्रयाग, वृन्दावन, (वृन्दावन में श्रीजगन्नाथ दास बाबा जी महाराज जी से पहला साक्षात्कार), श्रीराधाकुंड, श्रीगोवर्धन (ठाकुर भक्ति विनोद जी के प्रयास से ब्रजमंडल के तीर्थ यात्रियों पर कंझड़ नाम डाकुओं के गिरोह के अत्याचारों का विनाश हुआ) मथुरा, लक्ष्णों, फैज़ाबाद, गोप्ता का घाट, अयोध्या और काशी, कोलकाता में वापसी, वारासात, श्रीधाम मायापुर, कोलकाता में भक्ति भवन (1882 में 181 न० मणिकतला स्ट्रीट में भक्ति भवन का निर्माण हुआ। नीव खोदते समय कूर्म देव जी की मूर्ति प्रकट हुई एवं ठाकुर भक्ति विनोद जी द्वारा श्रीभक्ति सिद्धान्त सरस्वती जी को कूर्म देव जी की अर्चना की शिक्षा प्रदान),  वारासात महकुमार में डिप्टी कलैक्टर का पद ग्रहण, श्रीरामपुर  वैद्यनाथ, बाकिपुर, गया (पड़दादा मदन मोहन दत्त जी की प्रेतशिला की सीढ़ियों के दर्शन), वारासात, मेमारी, कुलिन ग्राम, व्याडेल, सप्तग्राम(कुलिन ग्राम में नामापराध, नामाभास, और शुद्ध नाम के संबंध में ठाकुर भक्ति विनोद जी के उपदेश एवं सरस्वती ठाकुर जी को हरिनाम और श्रीनृसिंह मंत्र प्रदान) कोलकाता (कोलकाता वेथुनरो में कृष्ण सिंह की गली में रंगोपाल वसु के दुर्गा मंडप में ठाकुर भक्ति विनोद जी की अध्यक्षता में विश्व वैष्णव सभा की प्रतिष्ठा एवं वहाँ पर श्री भक्तिरसामृत सिंधु एवं श्रीचैतन्य चरितमृत पर विचार विमर्श), श्रीराम कृष्ण देव के साथ भक्ति विनोद जी का साक्षात्कार- निर्विशेष वाद का  खंडन और शुद्ध भक्ति सिद्धान्त की महिमा स्थापन, श्रीरामपुर, कोलकाता भवन (चैतन्य यंत्र नामक प्रैस की स्थापना ), तारकेश्वर (निद्रा में तारकेश्वर जी का स्वप्न में आदेश-तुम वृन्दावन जाना चाहते हो तो जाओ तुम्हारे घर के पास नवद्वीप धाम के जो तमाम कार्य बाकी रहते हैं, उनका क्या किया?) कुलिया नवद्वीप (एक दिन संध्या के पश्चात् शहर नवद्वीप में भक्ति विनोद ठाकुर जी ने घर की छत पर चढ़ के धाम के सौन्दर्य के दर्शन करते समय रात को 10 बजे अंधकार से ढके मेघों में उत्तर की तरफ एक प्रकाशमय अट्टालिका को देखा। ठाकुर भक्ति विनोद जी के साथ कमलाप्रसाद भी उसे देखकर आश्चर्यचकित हुए। अगले दिन सुबह मालूम हुआ कि वह स्थान बल्लाल दीघि हैं, वहाँ के प्राचीन लोगों से पूछा तो उन्होने बताया ये महाप्रभु जी का जन्म स्थान है। बाद में प्राचीन फ़ाइलें  एवं नक्शे आदि देखकर निश्चित रूप से समझ लिया गया कि ये स्थान ही महाप्रभु जी का जन्म स्थान है) कृष्ण नगर, उलाधाम, कोलकाता, भक्ति भवन (जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज जी द्वारा दी गयी गिरिधारी-गोवर्धन शिला भक्ति भवन में पूजित है) गोद्रुमद्वीप, 1888 में सुरभि कुंज में लिया स्थान मैमन सिंह जिले के नेत्रकोणा साबभिभिसन, नारायण गंज, मैमन सिंह, गौरापहाड (हाज जाति के व्यक्तियों के ऊपर ठाकुर भक्ति विनोद जी कि कृपा) नारायण गंज, गोयालंद, कोलकाता, टांगाइल, वर्धमान, शांतिपुर, कालना, वामन पाड़ा, काइग्राम, देनूड, (वृन्दावन ठाकुर जी का श्रीपाट दर्शन) कुलिया, नवद्वीप (जगन्नाथ दास बाबा जी की भजन कुटीर के दर्शन– ठाकुर भक्ति विनोद जी ने भजन कुटीर का पक्का बरामदा बनाया) वर्धमान जिले के आमलाजोड़ा ग्राम, गोपालपुर, राणीगंज, बराकर, दुर्गापुर, दिनाजपुर, कोलकाता (शिशिर घोष महाशय जी ठाकुर भक्ति विनोद जी को अपने से ज्येष्ठ एवं गुरु समझते थे।  प्राय: ही भक्ति भवन में उनसे मिलने आते थे। शिशिर बाबू ठाकुर भक्ति विनोद जी को सप्तम गोस्वामी कहते थे। ठाकुर जी की प्रेरणा से ही शिशिर बाबू तुलसी की माला पर महामंत्र को जाप करते थे किन्तु सम्पूर्ण रूप से वे भक्ति सदाचार ग्रहण नहीं कर पाये) मेदिनीपुर जिले के रामजीवन पुर (सीतानाथ महापात्रदि भक्तों को नाम प्रेम का प्रचार) हुगली जिले के अंतर्गत कयापाट, वदनगंज, घाटाल, मेदिनीपुर, कोलकाता, सुरभिकुंज, गोद्रुम कृष्णनगर (विशेष-2 धर्म सभाओं में ठाकुर भक्ति विनोद जी के भाषण, मिस्टर मलेश साहब, मिस्टर वेभायलेश और मिस्टर वाटलर आदि अंग्रेज़ लोग ठाकुर भक्ति विनोद जी का भाषण सुनते थे) 1892, 9 मार्च को आमला जोड़ा ग्राम में वैष्णव सार्वभौम श्रील जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज जी के साथ मिलन हुआ तथा एकादशी उपवास के दिन वहाँ पर सारी रात जागरण किया और हरिनाम संकीर्तन करते रहे। बक्सर,प्रयाग, श्रीधाम वृन्दावन बिल्व वन, भांडीर वन, माट्वन, मानसरोवर, मथुरा, गोकुल, मधुवन, तालवन, कुमुदवन, बहुलावन, राधाकुंड व गोवर्धन इत्यादि ब्रजमंडल की लीला स्थलियों का दर्शन किया। श्रीधाम वृन्दावन से कानपुर, इलाहाबाद होते हुए कोलकता वापिस। कोलकता के भक्ति भवन में शुद्ध भक्ति सिद्धान्त वाणी का प्रचार। कृष्णनगर में महाप्रभु जी की शिक्षा का प्रचार, 1893 में वैष्णव सार्वभौम श्री जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज जी के अनुगत्य में श्री गोदरूम में ठाकुर भक्ति विनोद जी का हरिकीर्तन महोत्सव। इसी समय ही श्री जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज ने श्रीमहाप्रभु जी के जन्म स्थान का निर्देश किया। उसी समय अपने आप को आचार्य का अभिमान करने वाले किसी गोस्वामी की संतान द्वारा श्रीमन् महाप्रभु जी के पार्षद को शूद्र जाति का समझने पर ठाकुर भक्ति विनोद जी ने अत्यंत असंतोष प्रकट किया और सब को होशियार कर दिया “वैष्णव चरित्र सर्वदा पवित्र, येइ निंदे हिंसा करि। श्रीभक्तिविनोद, न संतोषे तारे, थाके सदा मौन धरि, (अर्थात वैष्णवों का चरित्र हमेशा ही पवित्र हैं, जो उस पावन चरित्रों की निंदा करता हैं या उनसे ईर्ष्या या हिंसा करता हैं , भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि मैं ऐसे लोगों से बात भी नहीं करता हूँ) उसके पश्चात् ही ठाकुर भक्ति विनोद जी के द्वारा भक्ति भवन के सामने गुरुपरंपरा लिखकर टांग दी गयी थी। बिहार में सासाराम में नासिरी गंज में तथा डिहीरी आदि स्थानों में श्रीमन् महाप्रभु जी की प्रेम वाणी का प्रचार। 1924 के जनवरी महीने में कृष्णनगर ए. बी. स्कूल में एक महान् सभा (सभा में श्रीमन् महाप्रभु जी की आविर्भाव स्थली श्रीधाम मायापुर में नित्य सेवा की व्यवस्था के लिए निर्माण एवं श्री नवद्वीप धाम प्रचारिणी सभा का संस्थापन, नदिया जिले के नाटुदह के जमींदार श्री नफ़र चंद्रपाल चौधरी भक्ति भूषण महोदय को सभा के संपादक पद पर चुना गया) 1898, 21 मार्च, बुधवार फाल्गुनी पुर्णिमा को चन्द्रग्रहण के दिन द्वारका बाबू, नफ़र बाबू और सर्वसाधारण के प्रस्ताव से एवं ठाकुर भक्ति विनोद जी के अनुमोदन से मायापुर की संग्रहीत ज़मीन पर फूस से बनी झोंपड़ी में श्रीगौरविष्णुप्रिया जी की श्रीमूर्ति का प्रतिष्ठा महोत्सव विशाल संकीर्तन के साथ सम्पन्न हुआ। उपरोक्त सेवा के संरक्षण और समृद्धि के लिए श्री श्यामलाल गोस्वामी, श्री शशीभूषण गोस्वामी, श्री राधिकानाथ गोस्वामी, श्री विपिन विहारी गोस्वामी, महोपाध्यय पंडित श्री अजीतनाथ न्यायारत्न, श्री महेंद्र नाथ भट्टाचार्य विदयारण्य, श्री सत्यजीवन लाहिड़ि, पावना तरास के श्री वनमाली राय बहादुर, श्री शिशिर कुमार घोष, श्री मतिलाल घोष, ढाकी के श्री यतीन्द्र नाथ राय चौधरी, इंजीनियर श्री द्वारिका नाथ सरकार, रानाघाट के श्री सुरेन्द्र पाल नाथ चौधरी, श्री महेन्द्रनाथ मजूमदार, ऍडवोकेट श्री किशोरी लाल सरकार, श्री नलीनाक्ष दत्त, श्री कनाइलाल डे बहादुर, डिप्टी मेजिसट्रेट श्री नवीन चंद्रसेन, श्री जगतचन्द्र राय, श्री मायापुर के सेवा समिति सदस्य बने थे। 4 अक्तूबर 1898 ई० में सरकारी कार्य से अवकाश ग्रहण करते हुए ठाकुर भक्ति विनोद जी ने कृष्ण नगर से गोद्रुम सुरभि कुंज में जाकर एक महीने तक शास्त्रों की चर्चा की। 1895 में श्रीजगन्नाथ दास बाबा जी महाराज जी के अप्रकट होने की पश्चात जुलाई मास में स्वाधीन त्रिपुरा के अधिपति पाँचश्री महाराज, श्रीवीर चन्द्र देव वर्मन, माणिक्य बहादुर के द्वारा बुलाने का विशेष आग्रह करने पर ठाकुर भक्ति विनोद जी सरस्वती ठाकुर गोस्वामी जी को साथ लेकर (त्रिपुरा) अगरतला भी गए थे। ठाकुर भक्ति विनोद जी के मुखारविंद से शुद्ध भक्ति धर्म की बातें श्रवण कर वहाँ के महाराज विशेष रूप से आकृष्ट हुए थे। 1896 में ठाकुर भक्ति विनोद जी सरस्वती गोस्वामी जी को लेकर कार्शियाङ में गए, 1898 में श्री गोद्रुम में स्वानन्द सुखद कुंज प्रकाशित हुआ। उसके पश्चात् सरस्वती गोस्वामी जी को साथ लेकर काशी और प्रयाग के दर्शन करके आए। 1899 में स्वानन्द सुखद कुंज के घर का निर्माण होने पर ठाकुर भक्ति विनोद जी ने वहाँ भजन का आदर्श दिखाया था। उस समय श्रील गौर किशोर दास बाबा जी श्रीमद् भागवत् की व्याख्या श्रवण करने के लिए ठाकुर भक्ति विनोद जी के पास आते थे, वही पर सरस्वती ठाकुर जी को पहली बार गौर किशोर दास बाबा जी के दर्शन हुए थे। 1900 में ठाकुर भक्ति विनोद जी सरस्वती गोस्वामी जी को लेकर बालेश्वर, रेमुना, भुवनेश्वर, साक्षी गोपाल होकर श्रीपुरी धाम में पहुंचे। उस समय श्रील हरिदास ठाकुर जी की समाधि के पास समुद्र के किनारे श्रील सरस्वती गोस्वामी जी की भजन की तीव्र इच्छा को देखकर श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी के कहने पर पुरी के सब डिप्टी मेजिसट्रेट श्री जगबंधु पटनायक ने सरस्वती ठाकुर जी को सातासन मठ में गिरिधारी आसन की सेवा दिलाने में सहायता की थी। मार्च, 1901 भक्ति विनोद ठाकुर सरस्वती गोस्वामी जी को लेकर दुबारा फिर पुरी में आकर कुछ दिन रहे थे। 1902 में हरिदास ठाकुर जी की समाधि के पास भजन कुटीर का निर्माण कार्य आरंभ हुआ। उस समय कासिम बाज़ार के महाराज श्री मणीण्द्र चंद्र नन्दी महोदय ने ठाकुर भक्ति विनोद जी से बहुत से उपदेश श्रवण किए थे।
1903 में श्रील सरस्वती गोस्वामी, भक्ति कुटीर में ठाकुर भक्ति विनोद जी के सामने नियमित रूप से श्रीचैतन्य चरितामृत पढ़ते और व्याख्या करते थे। उसी समय ठाकुर भक्ति विनोद जी के साथ श्रीचरणदास बाबा जी का साक्षात्कार हुआ तथा उनसे शुद्ध भक्ति सिद्धान्त के विषयों पर चर्चा हुई। श्रील सरस्वती ठाकुर जी ने चरणदास बाबा जी के शुद्ध भक्ति सिद्धान्त के विरुद्ध आचरण और विचारों का खंडन किया। ठाकुर भक्ति विनोद जब वापिस नवद्वीप आ गए तो चरणदास बाबा जी महाशय ने श्रील सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी को शुद्ध वैष्णव समाज में एक मात्र भावी आश्रय का स्थल कहकर अपना अभिमत ठाकुर जी के सन्मुख बताया था। इसी समय ही कुलिया में श्री वंशीदास बाबा जी के दर्शन हुए। श्रीधाम मायापुर में रहते समय ठाकुर भक्ति विनोद जी के द्वारा परिवर्तित नवद्वीप परिक्रमा में योगदान देने की श्रीचरणदास बाबा जी ने इच्छा व्यक्त की। किन्तु उसके पश्चात् ही उनके स्वधम प्राप्त हो जाने पर उनकी इच्छा पूरी नहीं हो पायी। 1906 में ढाकी के जंमीदार श्री यतीन्द्र नाथ चौधरी के वास भवन में श्रीचैतन्य देव की शिक्षाओं के संबंध में ठाकुर श्रीभक्ति विनोद जी का काफी लंबा भाषण हुआ। 26 फरवरी को ठाकुर कोलकाता में आ गए और पुन: गोद्रुम स्वरूपगंज में स्वानन्द सुखदकुंज में रहकर भजन करने लगे। यशोहर हरिनदी ग्राम के श्रीतारकब्रहम गोस्वामी जी की विशेष प्रार्थना से उनके द्वारा दी गयी श्रीराधा माधव जी की मूर्ति की श्रीधाम मायापुर में प्रतिष्ठा की गयी। तारकब्रह्म गोस्वामी अपनी स्त्री और परिवार के सदस्यों के साथ कुछ दिन मंदिर के पास ही रहे किन्तु उनका आचरण शुद्ध भक्ति परायण न होने के कारण वे कही और चले गए। 29 अप्रैल 1906 को श्री भक्ति भवन में श्री विग्रह सेवा के खर्चे के लिए तारकब्रह्म गोस्वामी को श्री धाम प्रचारिणी की तरफ से 500 रुपये दिये गए। 25 मार्च 1910 को फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन त्रिदंडिस्वामी श्रीमद भक्ति प्रदीप तीर्थ महाराज जी ने गृहस्थ आश्रम में रहते समय ठाकुर भक्ति विनोद जी से दीक्षा ग्रहण की। उस समय ठाकुर जी के शिष्य श्रीमद् कृष्णदास बाबा जी महाशय वही रह रहे थे। ठाकुर भक्ति विनोद जी ने दैववर्णाश्रम धर्म के पालन की आवश्यकता के संबंध में अनेक उपदेश दिये थे। इसी समय सत् क्रियासार दीपिका के विधान के अनुसार श्रीजगदीश भक्ति प्रदीप, श्रीसीता नाथ महापात्र, श्रीबसंत कुमार घोष, श्रीमन्मथ राय ने उपनयन संस्कार के साथ ठाकुर भक्ति विनोद जी से दीक्षा ग्रहण की। इस प्रसंग में ठाकुर भक्ति विनोद जी द्वारा निम्नलिखित उपदेशावली विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है – ‘सामाजिक वैष्णव धर्म और एकांतिक पारमार्थिक वैष्णव धर्म एक नहीं हैं। वर्णाश्रम धर्म के याजन मात्र से शरणागति की पूर्णता नहीं मिलती। गीता के चरम श्लोक के अनुसार तमाम वर्ण, धर्म और आश्रम धर्मों को परित्याग कर तमाम प्रकार की उपाधियों से निर्मुक्त होकर आत्मा के स्वाभाविक अहैतुक और निर्मल राग के साथ जो भगवान् का अनुशीलन हैं वह अधिकतर उन्नत स्तर पर अवस्थित हैं। गौड़ीय वैष्णवों की ये अहैतुकी शुद्ध भक्ति की महिमा राध वाचारी की तरह नैष्ठिक पंडित के भी अधिकार के अंतर्गत नहीं हो सकती। 1901 में गोद्रुम स्वानन्द सुखद कुंज में ‘स्वनियमद्वादष्कम्’ नामक ग्रंथ की रचना करते समय अचानक ठाकुर जी द्वारा अस्वस्थ लीला का अभिनय करते समय उनके नित्यलीला में प्रवेश कर जाने की आशंका से सरस्वती ठाकुर आदि सभी विरह से व्याकुल हो उठे। उस समय अस्वस्थ अभिनय में भी गौरवाणी के प्रचार में भक्ति विनोद ठाकुर जी का अदम्य उत्साह देखा गया।
चलने की सामर्थ्य न रहने पर भी उन्होने घोड़े पर चढ़कर देश-देश, ग्राम-ग्राम में श्रीचैतन्य महाप्रभु जी द्वारा प्रचारित एवं आचरित भक्ति सिद्धान्त वाणी के प्रचार की इच्छा व्यक्त की।

मेदिनीपुर में बालिघाई पाइ की विचार सभा में
            सरस्वती ठाकुर जी को भेजना
ठाकुर भक्ति विनोद जी के अप्रकट होने से तीन वर्ष पहले जब वे इस चिंता से व्याकुल हो उठे कि कौन है जो शुद्ध भक्ति सिद्धांतों के विरुद्ध मतों का खंडन करके जीवों का वास्तव मंगल करेगा तो उस समय श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर जी ने संकल्प लिया था कि मैं ठाकुर भक्ति विनोद जी के अयोग्य सेवक के रूप में इस कार्य को करुगा। तब ये सुनकर उन्होने अपने हृदय के परमोल्लास भाव प्रकट किए थे। 8 सितंबर से 11 सितंबर 1911 तक मेदिनीपुर बालीघई उद्धवपुर में गोपीवल्लभ पुर के श्रीविश्वंभरानंद देव गोस्वामी जी के सभापतित्व में जो विचार सभा बुलाई गयी उसमे योगदान देने के लिए ठाकुर जी ने श्रीसरस्वती जी को श्रीसुरेश चन्द्र मुखोपाध्यय के साथ भेजा था। उपरोक्त विचार सभा में वृन्दावन के श्रीराधारमण घेरे के पंडित प्रवर श्रीमधुसूदन गोस्वामी सार्वभौम एवं प्रसिद्ध पंडित समाज उपस्थित था। श्रील सरस्वती ठाकुर जी ने ‘ब्राह्मण और वैष्णव’ के तारतम्य मूलक अपूर्व खोज पूर्ण भाषण देकर पंडित वर्ग को निर्वाक और मुग्ध कर दिया था। 1912 में श्रील मधुसूदन गोस्वामी महाशय जी ने कोलकाता भक्ति भवन में आकर ठाकुर भक्ति विनोद जी के समक्ष परम उत्साह के साथ घोषणा की कि श्रील सरस्वती गोस्वामी अवश्य ही आपके मनोभीष्ट को पूरा करने में एवं गौड़ीय संप्रदाय की रक्षा करने में समर्थ होंगे। 1913 में श्री चैतन्य चरितामृत के भक्ति विनोद ठाकुर जी के द्वारा किए गए अमृतप्रवाह भाष्य के अनुसरण में श्रीसरस्वती गोस्वामी रचित ग्रंथ के कुछ अंश के अनुभाष्य को सुनकर ही ‘यत्परोनास्ति अर्थात् जिससे श्रेष्ठ और कोई आनंद नहीं हो सकता, ऐसे आनंद को अनुभव किया गया।’
1914 में अप्रकट होने के कुछ दिन पहले ठाकुर भक्ति विनोद जी कुछ दिनों के लिए कोलकाता भक्ति भवन से गोद्रुम में गए थे।

    ठाकुर भक्ति विनोद जी द्वारा परमहंस वेश ग्रहण

 1908 में श्रीश्रीराधागोविन्द जी के गूढ़ प्रेम रस के आस्वादन में प्रत्येक क्षण रत रहने के लिये ठाकुर भक्तिविनोद जी ने श्रीभागवत परमहंस वेश ग्रहण किया था।
ठाकुर भक्ति विनोद जी क नित्यलीला  में प्रवेश
23 जून सन् 1914 में श्रील सच्चिदानंद भक्ति विनोद ठाकुर जी कोलकाता भक्ति भवन में गौरशक्ति श्रीगदाधर पंडित गोस्वामी जी की अप्रकट तिथि के दिन श्रीराधाकुंड की माध्याह्निक लीला में प्रवेश किया। ठाकुर भक्ति विनोद जी के अप्रकट होने के 6 वर्ष के पश्चात् परमपूजनीया माता ठाकुरानी श्रीभगवती देवी जी ने भी भक्ति भवन में ही अन्तर्धान की लीला प्रकट की।

श्रीमद् भक्ति विनोद विरह दशकम
(श्रीमद भक्ति रक्षक श्रीधर देव गोस्वामी विरचितम्)
हा हा भक्तिविनोद ठक्कुर ! गुरो! द्वाविंशतिस्ते समा
दीर्घाददु:ख भरादशेषविरहाददु:स्थिकृता भूरियम।
जीवानां बहुजन्मपुण्यनिवहाकृष्टो महिमण्डले
आविर्भावकृपां चकार च भवान श्रीगौरशक्ति स्वयं। [1]
दिनोअहं चिरदुष्कृति र्न हि भवत पादाब्ज धूलिकणा:
स्नानानन्दनिधिं प्रसन्नशुभदं लब्धुं समर्थोभवम्।
किन्त्वौदार्यगुणातवातियशस: कारुण्यशक्ति: स्वयं
श्रीश्रीगौरमहाप्रभो: प्रकटिता विश्वम समन्वग्रहीत।। [2]
हे देव ! स्तवेन तवाखिलगुणानां ते विरिंचादयो
देवा व्यर्थमनोरथा: किमु वयं मर्त्यधमा: कूर्महे।
एतन्नो विवुधै: कदाप्यतिशयालंकार इत्यच्यतां
शास्त्रेस्वेव ‘न पारयेह’ मिति यदगीतं मुकुन्देन तत्।। [3]
धर्मश्चर्मगतोज्ञतेव सतता योगश्च भोगात्मको
ज्ञाने शून्यगतिर्जपेन तपस्या ख्यातिर्जीघांसेव च।
दाने दम्भिकताऽनुराग भजने दुष्टापचारो यदा
बुद्धिं बुद्धिमतां विभेद हि तदा धात्रा भवान प्रेषित: ।। [4]
विश्वेस्मिन् किरणैर्यथा हिमकर: संजीव यन्नोषधी
र्नक्षत्राणि रंजयन्निजसुधां विस्तारयन् राजते।
सच्छास्त्राणि च तोष्यन् बुधगणं सनमोदयंस्ते तथा
नूनं भूमितले शुभोदय इति हलादो वह: सात्वताम्।। [5]
लोकनां हितकाम्म्या भगवतो भक्ति प्रचारकस्तव्या
ग्रंथानाम रचनै: सतामभि मतेर्नाना विधैर्दर्शित: ।
आचार्यै: कृतपूर्वमेव किल तद्रामानुजादये र्बुधै:
प्रेमाम्भोनिधिविग्रहस्यभवतो।  माहात्मयसीमा न तत्।। [6]
यद्धाम्न: खलु धाम चैव निगमे ब्रहमोति संज्ञायते
यस्यांशस्य कलैव दु:ख निकरैर्योगेश्वरैर्मृग्यते।
वैकुंठे परमुक्त भृंगम चरणोनारायाणौ य: स्वयं
तस्यान्शी भगवान स्वयं रसवपु: कृष्णो भवान तत प्रद: ।। [7]
सर्वाचिंत्यमये परत्परपुरे गोलोक वृंदवने
चिल्लीलारसरंगिनीपरिवृता सा राधिका श्रीहरे: ।
वात्सल्यादि रसैश्च सेवित – तनोर्माधुर्यसेवासुखं
नित्यं यत्र मदातनोति हि भवान तदधामसेवाप्रद: ।। [8]
श्रीगौरानुमतं स्वरूपविदितम रूपाग्रजेनादृतं।
रूपाद्ये: परिवेशितं रघुगणेरास्वादितम सेवितम्।
जीवाद्येरभिरक्षितं शुक-शिव ब्रहमादिसम्मानितं
श्रीराधापदसेवनामृतमहो तदधातुमीशो भवान्।। [9] 
क्वाहं मंदमतिस्तवतीव पतित: क्व त्वं जगतपावन:
भो स्वामिन कृपया पराधनिचयो नूनमत्वया क्षम्यताम्
याचेऽहं करुणानिधे वरमिमं पादाब्ज मूले भवत्
सर्व स्वावधि-राधिका-दयित-दासानाम गणेगण्यताम्।। [10]

        श्रीमद् भक्ति विनोद दशकम्

अमन्दकारुण्य गुणाकर श्री चैतन्यदेवस्य दयावतार: ।      
स गौरशक्तर्भविता पुन: दृशोर्भक्तिविनोद देव: । । [1]
जो परम करुणा गुण के आधार श्रीचैतन्य देव जी की दया के अवतार स्वरूप हैं, वही गौरशक्ति श्रीमद् भक्तिविनोद देव जी कभी हमें दुबारा फिर दर्शन देंगे क्या ?
श्रीमद् जगन्नाथ प्रभुप्रियो य एकात्मको गौरकिशोरकेन।
श्रीगौरकारुण्य मयो भवेत् किं नित्यं स्मृतौ भक्ति विनोद देव: ।।
जो श्रीजगन्नाथ प्रभु के परम प्रिय अनुगत एवं श्रीमद् गौर किशोर देव जी के अभिन्न आत्मस्वरूप हैं वह श्रीगौर महाप्रभु जी की करुणा शक्ति श्रीमद् भक्ति विनोद देव क्या हमेशा स्मृति पटलों पर रहेंगे क्या?
श्रीनामचिंतामणि संप्रचारेरादर्शमाचार विधौ दधौ य: ।
स जागरूक: स्मृति मंदिरे किं नित्यं भवेद भक्तिविनोद देव।।
जिन्होने श्रीनामचिंतामणि का प्रचार करते हुए आचार विचार का आदर्श स्थापित किया हैं, वह भक्ति विनोद देव जी हमेशा हमारे स्मृति मंदिर में प्रकट रहेंगे क्या?
नामापराधै रहितस्य नामनो माहात्म्यजातं प्रकटम विधाय।
जीवे दयालुर्भविता स्मृतौ किं कृतासनो भक्ति विनोद देव: ।।
जिन्होने नाम-अपराधों से रहित श्रीनाम की महिमा को प्रकाशित करके जीवों के प्रति परम दयालुता का परिचय दिया हैं, वह भक्ति विनोद देव क्या हमेशा हमारे स्मृति सिंहासन पर विराजमान रहेंगे?
गौरस्यगूढ़ प्रकटालयस्य सतोऽसतो हर्षकुनाढ़योश्च।
प्रकाशको गौरजनो भवेत किं स्मृतयास्पदम भक्ति विनोद देव:।।
जिन्होंने गौरांग देव जी के आविर्भाव स्थान को प्रकाशित करके सज्जनों के हर्ष और दुर्जनो के भाव दोनों को एक साथ प्रकाशित किया है उन्ही गौरजन श्रीमद् भक्ति विनोद देव जी क्या हमेशा हमारी स्मृति का विषय बने रहेंगे।
निरस्य विघ्नानिह भक्तिगंगा प्रवाहनेनोद्धृतं सर्वलोक: ।
भगीरथो नित्यधियां पदं किं भवेदसौ भक्ति विनोद देव: ।।
जिन्होने काँटों को साफ करके भक्ति गंगा के प्रवाह से समस्त लोगों का उद्धार किया है उस भक्ति भागीरथी के भगीरथ स्वरूप श्रीमद् भक्ति विनोद देव क्या हमारे नित्य धारण करने के विषय बनेंगे?
विश्वेषु चैतन्य कथा प्रचारी महात्मयशंसी गुरुवैष्णवानाम ।
नामग्रहादर्श इह स्मृत: किं चिते भवेद् भक्तिविनोद देव: ।।
जिन्होने सारे संसार में श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की वाणी का प्रचार किया है, गुरु वैष्णव की महिमा को प्रकाशित किया है और हरिनाम करने के आदर्श को दिखाया हैं उन श्री भक्तिविनोद देव जी की स्मृति क्या हमारे हृदय में हमेशा बनी रहेगी?
प्रयोजनं सन्नभिधेय भक्ति सिद्धान्त वाण्या सममत्र गौरकिशोर ।
संबंधयुतो भवेत किं चितम गतो भक्ति विनोद देव: ।।
जो स्वयं प्रयोजन तत्व स्वरूप हैं, वही श्री भक्ति विनोद देव: श्री गौर किशोर रूप संबंध तत्व के साथ मिलकर अभिधेयतत्व रूपी श्रीमद् भक्ति सिद्धान्त वाणी के साथ हमारे चित में प्रकट होंगे क्या?
शिक्षामृतम सज्जन तोषणीन्च चिंतामणिन्चात्र सजैवधर्मम।
प्रकाश्य चैतन्यप्रदो भवेत् किं चिते धृतो भक्ति विनोद देव: ।।
जिन्होंने सज्जनतोषणी, हरिनाम चिंतामणि, जैवधर्म आदि ग्रन्थों की रचना कर जीवों में चेतनता को वितरण किया है वही श्रीभक्ति विनोद देव क्या हमारे हृदय में धारण होंगे?
आसाढ़दरशेहनि गौरशक्ति गदाधराभिन्नतनुर्जहो य: ।
प्रपंचलीलामिह नो भवेत किं दृश्य: पुनर्भक्ति विनोद देव: ।।
जिन्होने आषाढ़ की अमावस्या तिथि को श्रीगौर शक्ति श्रील गदाधर पंडित गोस्वामी प्रभु के अभिन्नविग्रह रूप में प्रपंच लीला को परित्याग किया था, उन भक्ति विनोद देव जी के दर्शन हमें पुन: होंगे क्या?

      श्री श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की अप्रकाशितपूर्व
                संस्कृत पद्यावली

श्रीगोद्रुमचन्द्र – भजनोपदेश:
(गौड़ीय 18वा खण्ड 47-48 संख्या पृष्ठ 757-58)

यदि ते हरिपादसरोजसुधारसपानपरं हृदयं सततम्।
परीहृत्य गृहं कलिभारमयं भज गोदरूमकाननकुंजविधुम्।।
धन-यौवन-जीवन-राज्यसुखं नहिनित्यमनुक्षण-नाशपरम्।
त्यज ग्राम्यकथासकलं विफलं भज गोद्रुमकाननकुनहविधुम्।।

रमणीजनसंगसुखञ्च सखे चरमे भयदं पुरुषार्थहरम्।
हरीनमसुधारस-मतमतिर्भज गोद्रुमकाननकुंजविधुम्।।

जड़काव्यरसो नहि काव्यरस: कलिपावन-गौरसो हि रस: ।
अलमन्यकथाद्यनुशीलनया भज गोद्रुमकाननकुंजविधुम्।।

वृषभानुसुतान्वितवामतनुं यमुनातटनागर-नन्दसुतम् ।
मुरलीकलगीतविनोद परं भज गोद्रुमकाननकुंजविधुम्।।

हरिकीर्तन-मध्यगतं स्वजनै: परिवेष्टित-जाम्बुनदाभहरिम्।
निजगौड़जनेककृपा-जलधिं भज गोद्रुमकाननकुंजविधुम् ।।

गिरिराजसुतापरिवीत-गृहं नवखंडपतिं यतिचितहरम्।
सुरसंघनुतं प्रियया सहितं भज गोद्रुमकाननकुंजविधुम्।।

कलिकुक्कुरमुद्गर-भावधरं हरिनाममहौषध-दानपरम्।
पतितार्त-दयार्द्र-सुमूर्तिधरं भज गोद्रुमकाननकुञ्जविधुम्।।

रिपुबान्धवभेदविहीनदया यादभीक्षणमुदेति मुखाब्जततौ।
तमकृष्णमिह व्रजराजसुतं भज गोद्रुमकाननकुंजविधुम्।।
इह चोपनिषत्-परिगीतविभूर्द्विजराजसुत: पुरटाभ हरि: ।
निजधामनि खेलति बन्धुयुतो भज गोद्रुमकाननकुञ्जविधुम्।।

अवतारवरं परिपूर्णफलं परतत्वमिहात्मविलासमयम्।
व्रजधामरसामबुद्धि गुप्तरसं भज गोद्रुमकाननकुंजविधुम्।।

श्रुति-वर्ण-धनादि न यस्य कृपाजनने बलवत् भजनेनबिना।
तमहैतुकभावपथा हि सखे भज गोद्रुमकाननकुंजविधुम्।।

अपि नक्रगतो हृदमध्यगतं कममोचयदार्तजनं तमजम्।
अविचिंत्यबलं शिवकल्पतरुं भज गोद्रुमकाननकुंजविधुम्।।

सुरभिनद्रतप: परितुष्टमनो वरवर्णधरो हरिराविरभूत्।
तमजस्त्रसुखं मुनिधैर्यहरं भज गोद्रुमकाननकुंजविधुम्।।

अभिलाषचयं तदभेदधियमशुभञ्च शुभं त्यज सर्वमिदम्।
अनुकूलतया प्रियसेवनया भज गोद्रुमकाननकुंजविधुम्।।

हरिसेवकसेवन-धर्मपरो हरिनामरसामृत-पानरत: ।   
नतिदैन्य-दया-परमानयुतो भज गोद्रुमकाननकुञ्जविधुम्।।

वद यादव माधव कृष्ण हरे वाद राम जनार्दन केशव हे।
वृषभानुसुताप्रियनाथ सदा भज गोद्रुमकाननकुञ्जविधुम्।।

वद यामुनतीरवनाद्रीपते वद गोकुलकानन पुञ्जरवे।
वद रासरसायन गौरहरे भज गोद्रुमकाननकुंजविधुम्।।

चल गौरवनं नवखंडमयं पठ गौरहरेश्चरितानि मुदा।
लुठ गौरपदांकित-गांगतटं भज गोद्रुमकाननकुञ्जविधुम्।।

स्मर गौर-गदाधर-केलिकलां भाव गौर-गदाधर-पक्षचर:।
क्षृणु गौर-गदाधर-चारुकथां भज गोद्रुमकाननकुञ्जविधुम्।।