श्री कृष्ण लीला में चक्रव्यूह के अन्तर्गत जो अनिरुद्ध हैं, वे ही गौर लीला में श्री वक्रेश्वरपण्डित के रूप में आविर्भूत हुए। श्री राधिका जी की प्रिय सखी शशि रेखा भी श्री वक्रेश्वरपण्डित के अन्तर्प्रविष्ट हैं।
बहुत से लोगों का कहना है कि त्रिवेणी के निकट गुप्तिपाड़ा में ही श्री वक्रेश्वरपण्डित का आविर्भाव स्थान है। श्री वक्रेश्वरपण्डित आषाढ़ मास की कृष्णा पंचमी तिथि में आविर्भूत हुए थे। श्री वक्रेश्वर पण्डित जी ने ऐसी अलौकिक शक्ति प्रकाशित की थी कि उन्होंने चौबीसप्रहर अर्थात्तीनदिन तक एक ही भाव में नृत्य किया था। श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी ने श्री चैतन्य चरितामृत की आदि लीला के 10वें परिच्छेद में श्री वक्रेश्वरपण्डित जी के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है:-
“वक्रेश्वरपण्डित-प्रभुर बड़ प्रियभृत्य।
एकभावे चब्बिश प्रहर याँर नृत्य॥
आपने महाप्रभु गाहेन याँर नृत्यकाले।
प्रभु चरण धरि‘ वक्रेश्वर बले॥
‘दश सहस्त्र गन्धर्व मोरे देह चन्द्रमुख।
तारा गाय, मुझ‘ नाचि तबे मोर सुख॥
प्रभु बलेन,- तुमि मोर पक्ष एक शाखा।
आकाशे उड़िया जाङ, पाङआर पाखा‘॥
(चै. च. आ. 10/17-20)
[श्री वक्रेश्वरपण्डित महाप्रभु के बहुत प्रिय दास हैं, जिन्होंने लगातार तीन दिन तक नृत्य किया था और जिनके नृत्य कीर्त्तन में महाप्रभु स्वयं गान गाते थे। श्रीवक्रेश्वरपण्डित महाप्रभु जी के चरणों को पकड़कर कहने लगे कि हे चन्द्रमुख प्रभु! आप मुझे दस हज़ारगन्धर्व दे दें ताकि वे गायें, और मैं उनके सामने नृत्य करूं, तभी मुझे सुख प्राप्त होगा।महाप्रभु कहने लगे कि तुम मेरे पंख हो, कहीं तुम्हारे जैसा दूसरा पंख मिल जाए तो मैं आकाश में उड़ जाऊं।]
आप श्रीवास-आंगन में और श्रीचन्द्रशेखर भवन में महाप्रभु जी के संकीर्त्तन के समय नृत्य करते थे। श्री वक्रेश्वरपण्डितश्रीमन् महाप्रभु जी के इस प्रकार प्रिय थे कि श्रीदेवानन्द पण्डित उनकी परिचर्या द्वारा ही श्रीमन्महाप्रभु जी की कृपा के भाजन हुए एवं श्रीवास पण्डित के चरणों में जो उनका अपराध हुआ था, उस अपराध से भी उन्होंने छुटकारा पाया।
वैष्णव सेवा के फल से ही कुलिया के देवानन्दपण्डित का महाप्रभु के चरणो में विश्वास हुआ था। श्री वक्रेश्वरपण्डित का देवानन्द के गृह में अवस्थान करनाहीदेवानन्द के मंगल का कारण बना।स्मार्त्त-धर्म में प्रविष्ट होने पर भी येदेवानन्दपण्डित महाज्ञानी और जितेंद्रिय थे।श्रीमद्भागवत को छोड़कर और कोई भी ग्रंथ उनका पाठ्य नहीं था। वे ईश्वरनिष्ठ थे। वे इंद्रियादियों के वशीभूत नहीं थे। किंतु श्री गौरसुंदर के प्रति इनमें विश्वास का अभाव था। श्री वक्रेश्वर के अनुग्रह से ही उनकी इस प्रकार की दुर्बुद्धि दूर हुई और भगवान में श्रद्धा हुई।
“वक्रेश्वरपण्डित-चैतन्य-प्रिय-पात्र।
ब्रह्मांड पवित्र यार स्मरणेइ मात्र॥
निरवधि कृष्ण-प्रेम-विग्रह विह्वल।
यार नृत्य देवासुर-मोहित सकल॥”
(चै. भा. अ.3/469-470)
[वक्रेश्वरपण्डित श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रिय दास हैं।उनके स्मरण मात्र से ब्रह्मांड पवित्र हो जाते हैं। निरंतर कृष्ण-प्रेम में वह व्याकुल रहते हैं। उनके नृत्य पर सब देवता व असुर मोहित हो जाते हैं।]
श्रीमन् महाप्रभु जी ने स्वयं देवानन्दपण्डित जी के सामने श्रीवक्रेश्वरपण्डित की महिमा का वर्णन किया है :-
“प्रभु वले- तुमि ये सेविला वक्रेश्वर।
अतएव होला तुमि आमार गोचर॥
वक्रेश्वरपण्डित–प्रभुर पूर्ण शक्ति।
सेइ कृष्ण पाय, ये तांहारे करे भक्ति।
वक्रेश्वर हृदय कृष्णेर निज घर।
कृष्ण नृत्य करेन नाचिते वक्रेश्वर।।
ये ते स्थाने यदि वक्रेश्वर-संग हय।
सेइ स्थाने सर्वतीर्थ श्रीवैकुंठमय॥
चै. भा. अ.3/493-96
[महाप्रभुजी कहने लगे। आपने जो वक्रेश्वर पण्डित की सेवा की है, उसके प्रभाव से तुम मेरी दृष्टि में आ गए हो।वक्रेश्वर पण्डित महाप्रभुजी की पूर्ण शक्ति हैं। जो उनकी भक्ति करेगा, वही कृष्ण की प्राप्ति करेगा। श्री वक्रेश्वर का हृदय श्री कृष्ण का अपना घर है।वक्रेश्वर जब नृत्य करते हैं तब श्री कृष्ण भी आनंद से उनके साथ नृत्य करते हैं। जिस-जिस स्थान पर वक्रेश्वर जी जाते हैं, वह स्थान सब तीर्थों का तीर्थ बन जाता है तथा वैकुंठमय हो जाता है।]
श्री वक्रेश्वरपण्डित जी जब पुरुषोत्तम धाम में थे, तब टोटागोपीनाथ में श्रीमन्महाप्रभु, श्रीअद्वैताचार्य प्रभु एवं अन्यान्य गौर पार्षदों के साथ वेभी गदाधर पण्डित गोस्वामी जी से भागवत श्रवण करते थे। ग्रंथ-भागवत् भक्त- भागवत् से ही श्रवणीय है। गोपाल गुरु श्री वक्रेश्वरपण्डित के शिष्य थे, गोपाल गुरु का पहला नाम मकरध्वज पण्डित था और इनके पिता जी का नाम श्रीमुरारी था। श्री वक्रेश्वरपण्डित जी के शिष्य गोपाल गुरु में अलौकिक शक्ति के प्रकाश की बात सुनी जाती है।
पुरी में रथ यात्रा के समय रथ के आगे जब सात सम्प्रदायों में कीर्त्तन होता था, उनमें से चतुर्थ सम्प्रदाय के मूल कीर्तनीया गोविंद घोष थे और नर्तक थे–श्री वक्रेश्वरपण्डित। श्री वक्रेश्वरपण्डित श्रीचैतन्यशाखा अथवा गदाधर पण्डित जी की शाखा में वर्णित होते हैं।
आषाढ़ी शुक्ला षष्ठी तिथि को श्री वक्रेश्वरपण्डित जी ने नित्यलीला में प्रवेश किया था।