Gaudiya Acharyas

श्री देवानंद पंडित

अपने पार्षद श्रीदेवानंद पण्डित के माध्यम से श्रीचैतन्य महाप्रभु हमें शिक्षा देते हैं कि वैष्णव अपराध अति भयंकर है। यदि हम यह सोचेंगे की अपराध भी करते रहेंगे तथा भक्ति भी हो जाएगी तो यह असम्भव है, फिर वह अपराध गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यासी या किसी अन्य के प्रति ही क्यों ना हो? वैष्णव अपराध की तुलना ‘हाथी माता’ — एक पागल हाथी जो दहाड़ता हुआ बगीचे में आता है तथा सब फूल-बूटियां इत्यादि को तहस-नहस कर देता है—से की गई है। जिससे भक्ति रूपी लता की जड़े सूखने से उनका पतन हो जाता है। देवानन्द पण्डित ने श्रीवास पण्डित जो नारद गोस्वामी से अभिन्न हैं उनके चरणों में अपराध करके भगवान को अप्रसन्न किया। ऐसी भागवत कथा का क्या लाभ है?

पुराणानामर्थवेत्ता श्रीदेवानन्दपण्डितः।
पुरासीन्नन्दपरिषत्पण्डितो भागुरिर्मुनिः॥
(गौ. ग. दी. 106)

सभी पुराणों के अधिवेत्ता देवानन्द पण्डित पूर्व जन्म में नन्द महाराज के सभा पण्डित भागुरि मुनि थे।

सार्वभौम-पिता-विशारद महेश्वर।
ताँहार जांघाले1 गेला प्रभु विश्वम्भर॥
सेइखाने देवानन्द पण्डितेर वास।
परम सुशान्त विप्र मोक्ष-अभिलाष॥
(चै.भा.म. 21/6-7)

कुलिया2 ग्रामे कैल देवानन्देर प्रसाद।
(चै.च.म. 1/153)

एइ विशारदेर जांघाल-एइ खाने।
देखा हैल देवानन्द पण्डितेर सने॥
येंह श्रीवासेर स्थान अपराध कैला।
प्रभु वाक्यदण्डे तेंह दुःखित हइला॥
(भ. र. 12/2976-77)

कुलिया गाँव में श्रीदेवानन्द पंडित ने अपना मकान बनवाया था। सार्वभौम भट्टाचार्य के पिता महेश्वर विशारद थे। उनका जांघाल (बान्ध) भी वहाँ पर था। वहीं पर श्रीमन् महाप्रभु की देवानन्द पण्डित से भेंट हुई थी। इन्होंने श्रीवास पण्डित के प्रति अपराध किया था और इसी कारण इन्हें महाप्रभु ने डांटा भी था। श्रीचैतन्य भागवत्, श्रीचैतन्य चरितामृत और श्रीभक्ति रत्नाकर आदि ग्रन्थों के अनुसार जाना जाता है कि श्रीदेवानन्द पण्डित का निवास स्थान सार्वभौम भट्टाचार्य के पिता श्रीमहेश्वर विशारद के घर के आसपास ही था। हाँ, उनकी संस्कृत पाठशाला कुलिया ग्राम में थी, इस बात का स्पष्ट उल्लेख है।

श्रीदेवानन्द पण्डित ज्ञानी, तपस्वी, जन्म से दुनियावी भोगों के प्रति उदासीन और साधारणतः महापण्डित के रूप में प्रसिद्ध होकर भी भागवत् सेवा में उन्मुख न होने के कारण, भागवत् का असली अर्थ शुद्ध भक्ति है, यह हृदयंगम कर पाने में समर्थ नहीं हुए। वे मोक्ष कामी होने के कारण तपस्या व शुष्क वैराग्य को ही अधिक मानते थे। भागवत् पाठ करते हुए भी वे उसकी भक्ति-मूलक व्याख्या नहीं करते थे। एक दिन देवानन्द पण्डित के भागवत् पाठ के समय श्रीचैतन्य महाप्रभु के पार्षद श्रीवास पण्डित भागवत् सुनने के लिए वहाँ आकर बैठे। वे भागवत् सुनते-सुनते भावाविष्ट होकर रोने लगे। देवानन्द पण्डित के पाखण्डी छात्रों ने उन्हें सभा से बहिष्कृत कर दिया। छात्रों के उस निन्दित कार्य के लिये व छात्रों के ऐसा करने से न रोकने पर देवानन्द पण्डित से वैष्णव अपराध हो गया। महाप्रभु उसके लिए देवानन्द पण्डित पर बड़े क्रोधित हुए—

भक्ति बिनु भागवत् ये आर बखाने।
प्रभु बले,—“से अधम किछुई ना जाने॥
निरवधि भक्तिहीन ए बेटा बखाने।
आजि पुँथि चिरिब, देखह विद्यमाने॥”
(चै. भा. म. 21/20-21)

भक्ति को छोड़कर जो श्रीमद्भागवत् पुराण के कोई अन्य प्रकार से व्याख्या करते हैं, श्रीमन् महाप्रभु कहते हैं कि वे भागवत् के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानते हैं। देवानन्द पण्डित की ओर इंगित करते हुये महाप्रभु कहते हैं कि ये बेटा निरन्तर भक्तिहीन ही व्याख्या करता है। आप सभी के सामने मैं आज इसकी पुस्तक चिर दूँगा।

“भगवत् सेवा से वन्चित लोग जिस समय आत्म-स्वरूप को भूलकर भगवत् सेवा से उदासीन हो जाते हैं एवं भगवद्-विमुखता को ही अपना पुरुषार्थ बतलाते हैं, उसी समय परम दयामय श्रीगौरसुन्दर अभक्तों के उस कार्य से विरक्ति प्रदर्शित करते हैं तथा उनके मंगल के लिए उस कार्य को अति निन्दनीय और अप्रयोजनीय बताते हैं। महाप्रभु अपनी इस लीला से समझाते हैं कि कर्मफल-भोग या कर्मफल-त्याग, दोनों ही घोर अन्याय हैं। महाप्रभु के इस क्रोध-दर्शन से वैष्णवजन परमानन्द लाभ करते हैं।”
— श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद

श्रीवास पण्डित के चरणों में देवानन्द पण्डित द्वारा अपराध होने के बहुत बाद एक दिन महाप्रभु ने उस रास्ते से जाते समय देवानन्द पण्डित को भागवत् व्याख्या करते देखकर श्रध्दाहीन देवानन्द की तीव्र भर्त्सना की। वैष्णवों की निन्दा के द्वारा जिस प्रकार भगवद्-कृपा से वन्चित होकर दुर्गति प्राप्त होती है, उसी प्रकार वैष्णव महिमा के कीर्त्तन से और वैष्णव-सेवा द्वारा भगवद्-कृपा लाभ और दुष्कर्मों से छुटकारा प्राप्त करने का सुयोग मिलता है—

शुन द्विज, विष करि जे मुखे भक्षण।
सेइ मुखे करि जबे अमृत-ग्रहण॥
विष हय जीर्ण, देह हयत अमर।
अमृत-प्रभावे, एबे शुन से उत्तर॥
(चै.भा.अ. 3/449-450)

अर्थात हे द्विज! सुनो, जिस मुख से आपने विष खाया है अब उसी मुख से जब अमृत ग्रहण करोगे तो विष दूर हो जाएगा और तुम्हारी देह अमर हो जाएगी।

बहुत सौभाग्य से महाप्रभु के प्रिय पार्षद श्रीवक्रेश्वर पण्डित3 देवानन्द पण्डित के घर में ठहरे थे। देवानन्द पण्डित वक्रेश्वर पण्डित की सब प्रकार से सेवा करके महाप्रभु की कृपा के पात्र बने थे। महाप्रभु के प्रति देवानन्द पण्डित की श्रद्धा नहीं थी। श्रीवक्रेश्वर पण्डित से श्रीमन् महाप्रभु की महिमा श्रवणकर उनके हृदय में परिवर्तन हुआ तथा वक्रेश्वर पण्डित के प्रभाव से उनको शुद्ध भक्ति में विशिष्ट अनुराग हो गया।

“वैष्णव सेवा के फल से ही कुलिया के देवानन्द पण्डित महाप्रभु के चरणों में विश्वास करने लगे थे। श्रीवक्रेश्वर पण्डित देवानन्द पण्डित के घर में रहकर उनके मंगल का कारण बने। देवानन्द पण्डित स्मार्त धर्म में प्रविष्ट होने पर भी महाज्ञानी और संयत थे। श्रीमद्भागवत के बिना अन्य कोई भी ग्रन्थ उन द्वारा पाठ्य न था। वे ईश्वर निष्ठ थे तथा इन्द्रिय आदि के वश में नहीं थे। किन्तु उनमें गौरसुन्दर के प्रति विश्वास का अभाव था। श्रीवक्रेश्वर पण्डित की कृपा से ही उनकी वह दुर्बुद्धि दूर हुई और वे भगवान में श्रद्धालु हुए।”
–श्रील सरस्वती गोस्वामी ठाकुर

भागवती देवानन्द वक्रेश्वर-कृपाते।
भागवतेर भक्ति-अर्थ पाइल प्रभु हैते॥
(चै.च.आ. 10/77)

श्रीमन् महाप्रभु ने देवानन्द पण्डित को भागवत् की भक्ति-मूलक व्याख्या करने के लिए कहा। देवानन्द पण्डित का यह विशेष सौभाग्य है कि उन्होंने महाप्रभु की दण्ड रूपी कृपा का लाभ प्राप्त किया था। किसी सौभाग्यशाली जीव को ही श्रीचैतन्य महाप्रभु का दंड प्राप्त होता है।

तथापिह देवानन्द बड़ पुण्यवन्त।
वचनेओ प्रभु जारे करिलेन दण्ड॥
चैतन्येर दण्ड महा-सुकृति से पाय।
जाँर दण्डे मरिले वैकुण्ठे लोक जाय॥
(चै.भा.म. 21/77-78)

कोल द्वीप या कुलिया को अपराध भंजन पाट (पीठ स्थान) कहा जाता है, जहाँ देवानन्द पण्डित के अपराधों का भन्जन हुआ था।

गोपाल चापाल का अपराध भी श्रीमन्महाप्रभु ने यहीं क्षमा किया था। पौषी कृष्णा एकादशी तिथि को श्रीदेवानन्द पण्डित का तिरोभाव होता है।

1 – जांघाल-बान्धः विद्यानगर में महेश्वर विशारद के घर की बाढ़ से रक्षा के लिए एक बान्ध था।

2 – कुलियाः नवद्वीप के निकट गंगा के पश्चिम तट पर स्थित एक उपनगर है। गंगा के पूर्वपार श्रीमायापुर में उस समय नवद्वीप नगर स्थित था। वर्तमान शहर नवद्वीप ही प्राचीन कुलिया है। यहाँ ही अपराध भंजन पीठ है। शहर के स्थान-स्थान पर आमाद कोल, कोलेर गंज, कोलेर दह तथा गदखालिर कोल आदि प्राचीन कुलिया के नाम आज भी इस बात को प्रमाणित करने में लगे हैं कि ये ही प्राचीन कुलिया है।
–श्रीसरस्वती ठाकुर लिखित गौड़ीय भाष्य से। (चै. भा. म. 9.98)

नवधा भक्ति के पीठ स्वरूप नवद्वीप धाम के अन्तर्गत पाद सेवन का भक्तिक्षेत्र, कोल द्वीप चलित भाषा में कुलिया नाम से परिचित है। कोल शब्द का अर्थ होता है—वराह। सत्ययुग में वासुदेव विप्र को भगवान ने वराह रूप में दर्शन दिया था।

3 – श्रीवक्रेश्वर पण्डित: श्रीकृष्ण चतुर्व्युह अंतर्गत अनिरुद्ध। श्रीमती राधिका की प्रियसखी शशिरेखा श्रीवक्रेश्वर पण्डित में प्रविष्ठ है।