श्रील वंशीदास बाबा जी महाराज
श्रील वंशीदास बाबाजी महाराज अवधूत परम हंस वैष्णव थे। पूर्वबंग (अभी बंगलादेश) में मैमन सिंह ज़िले में जामालपुर के पास मजिदपुर ग्राम में बाबाजी आविर्भूत हुये थे। इनके माता पिता जी के परिचय के विषय में कोई जानकारी नहीं है। साप्ताहिक ‘गौड़ीय’ पत्रिकाओं में प्रकाशित बाबा जी महाराज के अलौकिक चरित्र-वैशिष्ट्य और भक्तों के साथ भ्रमण का वृत्तान्त पढ़ने से एवं श्रीभक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी के और उनके निजजनों के श्रीमुख से कही बातों से जो जाना जाता है उसे संक्षिप्त रूप से लिखने का प्रयास किया जा रहा है।
बाबा जी महाराज पूर्व बंग से नवद्वीप में आकर अवधूत के रूप में गंगा के किनारे, वृक्षों के नीचे रह कर बड़े वैराग्य के साथ भजन करते थे। श्रील सरस्वती ठाकुर उनकी विधि के बाहर परमहंसों जैसी क्रियायें देखकर आकर्षित हुये थे व उन्हें दूर से ही दण्डवत् प्रणाम करते थे और अपने अनुगत शिष्यों को बाबा जी महाराज जी के पास जाने को मना करते थे। कारण, महापुरुष होने पर भी विधि से बाहर का आचरण देख कर साधारण निम्नाधिकारी साधक उनकी क्रियाओं को न समझ पाने के कारण उनके चरणों में अपराध कर सकते हैं। विधि का मुख्य तात्पर्य श्री श्री राधागोविन्द जी को प्रसन्न करना है। अनर्थयुक्त साधक के लिए उसके अधिकार व शास्त्रविधि के अनुसार जो वैधीभक्ति की व्यवस्था की गयी है, वह उसे ही हरिभजन का मापदंड समझते हैं, इसलिए जब वह श्रेष्ठ वैष्णव की शास्त्र से अतीत क्रियाओं को समझने का प्रयास करते हैं तो भ्रमित हो जाते हैं एवं महापुरुष के चरणों में अपराध कर बैठते हैं तथा भक्ति पथ से गिर जाते हैं। ऐसा सुना जाता है कि बाबा जी के दो कपड़े के झोले थे, एक झोले में वे निताई गौरांग और दूसरे झोले में राधागोविन्द जी की मूर्तियां रखते थे। वे नित्य उनकी पूजा करते थे। झोले से मूर्तियां निकाल कर मन-2 में मंत्रादि जप करते हुये भाव के साथ सेवा करने के पश्चात फिर उन मूर्तियों को उन्हीं झोलों में रख देते थे। कभी-2 लोगों के दर्शन के लिए झोले से बाहर भी रख देते थे। कभी वे हुक्के में तम्बाकू भरकर दूर से ही हुक्के की नली राधागोविन्द जी को पिलाने की भावना से दिखाते थे, किन्तु निताई गौरांग को नहीं दिखाते थे। बहुत से व्यक्ति चावल, आटा, फल, केला व मूली इत्यादि बाबा जी महाराज को सेवा के लिये देते थे। किन्तु बाबा जी उस तरफ टेढ़ी नज़र से भी नहीं देखते थे। द्रव्यों का जब ढेर लग जाता तो अचानक न जाने क्या ख्याल उन्हें आता और वे उन सबका दृष्टि भोग ठाकुर जी के अर्पण करके उपस्थित जन समूह में बांट देते थे। उनके इन सब अलौकिक आचरण को साधारण व्यक्ति कैसे समझ सकते हैं? बाबा जी महाराज मात्र डोर व कोपीन ही पहनते थे। उनकी दाढ़ी-मूंछ भी ऊल-जलूल भाव से उनके चेहरे से चिपटी रहती थी। बड़ा लम्बा-चौड़ा शरीर था उनका, वे बड़े-2 वृक्षों से बिना किसी सहायता के ही हाथ ऊँचा करके पूजा के लिए फूल तोड़ लाते थे। एक बार फूल तोड़ने के प्रयास में वे वृक्ष से नीचे गिर पड़े और लंगड़ाने की लीला करने लगे। बाबा जी महाराज अपने भाव में ही विभोर रहते थे। वे किसी से ज्यादा नहीं बोलते थे। बहुत से लोग उनके पास जाकर बहुत कुछ पूछते थे। कभी कुछ ख्याल आता तो वे परोक्ष भाव से किसी के प्रश्न का उत्तर देते, नहीं तो अधिकतर मौन ही रहते थे। ठाकुर जी की ओर मुख करके वे कितना व क्या-क्या बोलते थे उसका हिसाब नहीं। वे कभी हँसते तो कभी कभी व्याकुल होकर क्रन्दन करते-करते आकुल हो जाते। वे अपने उपदेशों में शास्त्रों के श्लोक नहीं बोलते थे किन्तु अपनी अलौकिक अनुभूति से जो दो-चार बातें बोलते वे चित्त में गंभीर रूप से रेखांकित हो जाती थीं। एक बार की बात है कि एक व्यक्ति प्रतिदिन बाबा जी के पास आता और पूछता कि भगवान की प्राप्ति कैसे होगी? बाबा जी महाराज चुप ही रहते, कुछ नहीं बोलते थे। एक दिन हठात् महाराज जी की दृष्टि उस पर पड़ी। उन्होंने पूछा ‘क्या चाहते हो’? ‘महाराज – मैं भगवान को प्राप्त करना चाहता हूँ।’ तो इसके उत्तर में बाबा जी महाराज जी ने कहा – ‘रोना’। बाबा जी ने केवल नवद्वीप में रहकर ही भजन किया था, ऐसी बात नहीं है। उन्होंने तो विभिन्न तीर्थ-स्थानों में जाकर भजन किया था। वे ‘कृष्ण भक्ति रस भाविता मति’ थे। कृष्ण भाव से विभावित भावना से हमेशा कृष्ण-प्रेम रस-सागर में निमज्जित होने के कारण बाबा जी महाराज जहाँ भी जाते वहाँ की प्रत्येक वस्तु उनके हृदय में कृष्णलीला को उद्दीपन करवाती थी। विशेष रूप से, जब कहीं वट वृक्ष दिख जाता तो वे उसे वंशीवट समझ उसके नीचे बैठ जाते थे और आसानी से वहाँ से नहीं उठते थे। 24 फरवरी 1941, सोमवार त्रयोदशी के दिन बाबा जी महाराज जी ने श्रीकोलद्वीप (अभी जो नवद्वीप शहर है) से वृन्दावन की यात्रा की थी। रास्ते में कभी पैदल, कभी बैलगाड़ी तो कभी रेलमार्ग से उनहोंने यात्रा की। पहले वे काटोया में गए। वहाँ पर काटोया रेलवे स्टेशन के पास ही एक विशाल वट वृक्ष के नीचे दो दिन रहे। अगले चार दिन वे गंगा के किनारे रहे। फिर भागलपुर से चढ़े, गया में उतर गये और वहाँ श्री विष्णु पादपद्म के नज़दीक फल्गु नदी के किनारे तीन दिन, काशी धाम के श्रीदशाश्वमेध घाट में गंगा जी के बीच नौका में तीन दिन, अयोध्या में सरयू नदी के किनारे तीन दिन, वहाँ पर वट वृक्ष के नीचे एक प्रहर (तीन घंटे), प्रयाग-त्रिवेणी में दस दिन, मथुरा में श्रीविश्राम घाट पर यमुना के किनारे दो दिन, वृन्दावन में वंशीवट में आठ दिन, यमुना के किनारे एक छोटी सी जगह पर नौ दिन, गोविन्द जी के मंदिर में एक दिन, नन्दग्राम में सूर्यकुंड के पूर्व की तरफ तमाल वृक्ष के नीचे आठ दिन, पावन सरोवर में दो दिन, पीलू फल के वृक्ष के नीचे चार दिन, पुनः वृन्दावन में वंशीवट में नौ दिन, भजनानन्द में विभोर रहकर लगभग तीन मास बाद ज्येष्ठ त्रयोदशी के दिन वापस नवद्वीप पहुँचे। जो लोग भ्रमण में बाबा जी महाराज जी के साथ थे, वे लोग बाबा जी को भिन्न-2 वनों में कृष्णलीला कीर्त्तन, कभी नवद्वीप धाम की महिमा कीर्त्तन, कभी उन्हें उच्च स्वर में गाते, कभी ज़ोर से हँसते, कभी उन्मत्त व्यक्ति की तरह ऊट-पटांग बातें करते व कभी मौन व कभी विग्रह के साथ मन-मन में बड़-बड़ बातें करते देखते रहते। ऐसा करते हुए उन्हें अलग अलग भावों में विभावित देख कर साथ वाले भक्त बार बार चमत्कृत हो उठते।
प्राचीन साप्ताहिक गौड़ीय पत्रिकाओं के विभिन्न स्थानों पर बाबा जी महाराज जी का जो भ्रमण वृत्तान्त मिलता है उससे ऐसा जाना जाता है कि उनहोंने 1943 ई॰ में मार्च से आरंभ करके साल के अन्त तक श्रीअंबिका कालना, खड़गपुर (मेदिनीपुर), बालेश्वर, सोरों, भद्रक, खुरदारोड, पुरुषोत्तम धाम, दुबारा फिर गया, काशी, सैयदपुर ग्राम, पटना, मुंगेर इत्यादि बहुत से स्थानों पर शुभपदार्पण किया था।
बहुत से व्यक्ति बाबा जी महाराज जी से जो प्रश्न पूछते थे और बाबा जी जो उनका संक्षिप्त सा उत्तर देते थे उनमें कुछ एक नीचे दिये गये हैं –
प्रश्न: बाबा! हम क्या करें?
उत्तर: नित्यानन्द जी का भजन करने से श्री चैतन्य महाप्रभु जी मिलेंगे, दुःख चले जायेंगे और हृदय में परमानन्द का उदय हो जायेगा।
प्रश्न: इन्द्रियों कि लताड़ से छुटकारा पाने का क्या उपाय है?
उत्तर: गोविन्द शब्द सुनते ही अनर्थ ठीक वैसे ही भाग जायेंगे जैसे सिंह की गर्जना सुनने से हाथी भाग जाते हैं।
प्रश्न: आपके संसार में भी तो दुःख ही है?
उत्तर: यहाँ पर निरानन्द है, किन्तु गौर-निताई का भजन करने से आनन्द मिलेगा।
हमारा यह संसार नित्य है जबकि आपका माया का संसार है। जैसे शिशु सोते-सोते हँसता है, रोता है— तुम्हारे संसार का सुख भी ऐसा ही है।
प्रश्न: कृष्ण की कृपा- भक्त की कृपा हम समझेंगे कैसे?
उत्तर: भगवान कहते हैं कि जो मेरी आशा करता है, मैं उसका सर्वनाश कर देता हूँ भगवान किसी को पैसा देता है, और किसी का लेता है। वैष्णव ठाकुर! आपके चरणों में अपराध होने से कहीं भी परित्राण नहीं है। कैसे धोखा देंगे? परित्राण कौन करेगा? और किसको मैं परित्राण के लिये कहूँ और सुनेगा भी कौन? वैष्णवों के चरणों में लेश मात्र भी रति नहीं हुयी।
प्रश्न: सुख किसमें है ? त्याग में या भोग में ?
उत्तर: साधु लोग सरयू नदी के किनारे रहते हैं और सीता राम कहते हैं,यहाँ आनन्द है। यहां निरानन्द नहीं रहता। दुर्योधन पक्ष में जितने हैं, सभी निरानन्द में हैं और युधिष्ठिर महाराज जी की तरफ जितने हैं, वे सुखी हैं। ये सुख और दु:ख दो भाई हैं। भोग और त्याग कोई भोग करता है तो कोई त्याग करता है।
प्रश्न: आप कभी मायापुर गये हैं ?
उत्तर: गया हूँ। उसे मायापुर भी कहते हैं और नवद्वीप भी। मायापुर मन्दिर के चारों तरफ घर हैं। नीम पेड़ के नीचे पूजा होती है। मैं एक बार गुदड़ी और कमंडलु लेकर गया था। शचीनन्दन आकर मेरा कमंडलु ले गया। मैं बैठा रहा। कुछ देर बाद वो कमण्डलु वापिस दे गया और मैं वापस चला आया। श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के प्रतिष्ठाता श्रील गुरुदेव नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद श्रीमद्भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज बाबा जी महाराज के सम्बन्ध में एक घटना कभी सुनाते थे कि श्रील गुरुदेव जी ने अपने दो गुरूभाईयों- श्रीमद् भक्ति विचार यायावार महाराज और श्रीमद् भक्ति कुमुद सन्त महाराज के साथ मिल कर प्रयास करके मेदिनीपुर शहर में ‘श्रीश्यामानन्द गौड़ीय मठ’ नामक एक मठ की स्थापना की। एक बार बाबा जी तीर्थ भ्रमण करते समय मेदिनीपुर में आये। श्रील गुरुदेव जी ने जब सुना कि बाबा जी महाराज बैलगाड़ी में बैठ कर आ रहे हैं तो परमोल्लास के साथ बाबा जी महाराज को मेदिनीपुर मठ में आमंत्रण करने के लिये उन्होंने एक सेवक को उनके पास भेजा। बाबा जी महाराज ने सेवक को वचन भी दिया कि वह आयेंगे एवं श्रील गुरुदेव जी ने उनकी सेवा के लिये यथोचित व्यवस्था भी की। किन्तु दोपहर की भोग आरती के पश्चात् बहुत देर तक प्रतीक्षा करने पर भी जब बाबा जी नहीं आये तब गुरु महाराज जी उनके पास पहुँचे । तब बाबा जी महाराज मेदिनीपुर शहर के प्रवेश स्थान के कुछ दूर एक वट वृक्ष को देख “यही वंशीवट – यही वंशीवट” बोलते हुए बैलगाड़ी से उतर पड़े और उन्होंने वहीं ठाकुर जी के भोग की व्यवस्था कर ली। श्रीलगुरुदेव जी को देखकर उन्होंने सरस्वती ठाकुर जी के सम्बन्ध में बहुत प्रेम प्रकट किया एवं स्नेह के साथ ठाकुर का खीर प्रसाद दिया।
श्रील गुरुदेव जी ने बाबा जी महाराज का दिया हुआ खीर का प्रसाद परम आदर के साथ पाया। गुरुदेव जी हुमें बताया करते थे कि उस खीर प्रसाद का अपूर्व आस्वादन था। हमारे शिक्षा गुरु परमपूज्यपाद श्रीभक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज जी ने बाबा जी महाराज जी के अलौकिक चरित्र के सम्बन्ध में कुछ एक घटनाओं का विवरण दिया है। एक आंखों देखी घटना बाबा जी की इस प्रकार है कि श्रीनवद्वीप में गंगा के किनारे पर स्थित भजन कुटीर में श्रीविग्रह के सामने फलों का ढेर लगा रहता था। उसमें किसी को भी हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं था। एक दिन सबने देखा कि एक गाय उन फलों को खा रही है और बाबा जी महाराज ताली बजा कर ज़ोर से हँस रहे हैं। बाबा जी के सेवक का नाम पूर्ण या पुण्य था। मैंने कौतुहल वश उससे पूछा कि बाबा आज इतना हँस रहे हैं, क्या कारण है ? उसने कहा कल रात बाबा के भोग के और पूजा के बर्तन चोर चोरी करके ले गये हैं और अब ऊपर से फलों को गाय द्वारा खाते देख आनन्द से खिल खिला कर हँस रहे हैं और कह रहे हैं ‘एक चोर देता है और एक चोर लेता है। ‘
गाय को भगाने का कोई उपाय नहीं है, ये चौराग्रगण्य पुरुष ही तो कृष्ण हैं।
बाबा किसी को भी अपने चरणों में हाथ नहीं लगाने देते थे किन्तु आज फाल्गुनी पूर्णिमा के अगले दिन श्रीजगन्नाथ मिश्र जी का आनन्दोत्सव है। आज बाबा आनन्द से अपने आप को भूले बैठे हैं और कल्पतरु हो गये हैं। आज मैं उनके पादपद्म को स्पर्श करने का सौभाग्य प्राप्त कर कृतार्थ हो गया। एक दिन उनका फेंका हुआ कुछ मुझे ग्रहण करने का सौभाग्य मिला था।
त्यजिया शयनसुख विचित्र पालंक। कबे व्रजेर धूलाय धूसर हबे अंग ॥ इन सब पदों को गाते-2 छल छल नेत्रों से बाबा जी महाराज गद्गद् कण्ठ से कह उठते थे :
तोमरा त केवल गाहियाइ गेल, यार फाटल, तार फाटल! अर्थात् हम तो केवल महाजन के पदों को सुनते हैं व गाते हैं किन्तु हृदय नहीं पिघलता। धाम की धूलि अगर शरीर पर लग जाये तो हम उसे झाड़ देना चाहते हैं उसका मूल्य नहीं समझते हैं।
हमने सुना है कि श्रील वंशीदास बाबा जी ने हमारे परम गुरु जी, श्री गौर किशोरदास बाबा जी से वेश लिया था। एक दिन बाबा जी की कुटीर के आंगन में कोई व्यक्ति महामंत्र कीर्तन के बदले अन्य कोई स्वकपोलकल्पित अर्थात् अपनी सोच से बनाया हुआ रसाभास दोष से दूषित और सिद्धान्त विरुद्ध नाम गान करने लगा। उसके शुरू करते ही बाबा ने ‘ये नाम नहीं चलेगा’ कह कर उसे गाने के लिए तुरन्त मना कर दिया था।
एक सज्जन प्राय: ही ‘कृपा करो’ ‘कृपा करो’ – कह कर प्रार्थना करते थे। एक दिन बाबा ने अपनी कौपीन खोली और उसको पकड़ाते हुए बोले कैसी कृपा लेगा, ले ये ले – बाबा जी की बोलने की भंगिमा सुनकर वह व्यक्ति डर गया। हम लोग ‘वैष्णवेर कृपा, याहे सर्व सिद्धि ‘
(अर्थात् वैष्णव कृपा – जिससे तमाम सिद्धियाँ मिल जाती हैं) ऐसी कृपा प्राप्त करने के लिये वैष्णव के चरणों में निष्कपट शरणागति की प्राप्ति का विचार हम अपने अन्दर देख नहीं पा रहे हैं ? मुख से ‘कृपा करो’ बोलने से क्या होगा ?
श्रीगोकुल दास बाबा जी नामके एक हमारे वृद्ध गुरु भाई थे। मैंने उनसे सुना था कि उनका पूर्वाश्रम, बाबा जी के पूर्वाश्रम के पास में ही था। वे भी प्राय: मायापुर से बाबा जी के दर्शन करने जाते थे। बाबा पूर्व बंग की भाषा में अपना मन खोलकर हरिकथा कहते थे”
श्रील बाबा जी महाराज श्रीवृन्दावन व श्रीपुरषोत्तम धाम की तरफ के दीर्घ भ्रमण के पश्चात् जब नवद्वीप धाम में वापस आते थे तो मजिदपुर वासी भक्तों के आग्रह से बीच – बीच में अपनी आविर्भाव स्थली पर भी शुभपदार्पण करते थे किन्तु इससे वे सुखी नहीं होते थे। कहते थे कि ये पांडव वर्जित स्थान है। श्रावण मास की शुक्ल चतुर्थी के दिन श्रील बाबा जी महाराज अप्रकट हो गये।